सोमवार, 2 अप्रैल 2012

स्वाद चखकर प्यार की दो बूंद के


स्वाद चखकर प्यार की दो बूंद के

श्यामनारायण मिश्र


पवन भरने फिर लगा उन्माद तन में।
आ गया मधुमास चुपके से वतन में।

स्वाद चखकर
          प्यार की दो बूंद के,
     हंस रहा
          मंदार आंखें मूंद के।
टेसुओं का  एक  जंगल  जल  रहा,
हवन होने में मगन मीठी अगन में।

       अलसुबह जब से
          गई है छेड़कर,
     पांव टिकते नहीं
          सकरी मेड़ पर।
कर  अमलताशों  के  पीले  क्या  हुए,
शुभ मुहूरत, शुभ घरी, सुन्दर लगन में।

झुके किसके नयन
     उठकर फड़फड़ाए,
याद आने लगे
     लमहे फिर भुलाए।
रेशमी वह देह, वह स्नेह, वह  छलना,
झूठ सच की क्या परख तेरे वचन में।

     कामनाओं-वर्जनाओं
          में ठनी,
     चल रहीं
          उधमी हवाएं फागुनी।
वान, प्राणों में चुभे अल्हड़ मदन के,
छुपे रहना कौन चाहेगा  सदन  में।
***  ***  ***
चित्र : आभार गूगल सर्च

23 टिप्‍पणियां:

  1. आभार ।

    बढ़िया प्रस्तुति ।।

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  2. वाह!!!!!!!!!!!!

    रेशमी वह देह, वह स्नेह, वह छलना,
    झूठ सच की क्या परख तेरे वचन में।

    बहुत खूबसूरत!!!

    सादर.

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  3. bahut umda prastuti पांव टिकते नहीं
    सकरी मेड़ पर।
    कर अमलताशों के पीले क्या हुए,
    शुभ मुहूरत, शुभ घरी, सुन्दर लगन में।
    vaah ....behtreen abhivyakti.

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  4. क्या खूबसूरत गीत है.... वाह!

    स्वाद चखकर प्यार की दो बूंद के,
    हंस रहा मंदार आंखें मूंद के….


    कर अमलतासों के पीले क्या हुये...
    सचमुच अद्भुत प्रयोग मिलते हैं मिश्र जी रचनाओं मे...
    आनंद आ गया...
    सादर आभार सर।

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  5. हवन बन कर जल रहे मीठी अगन में, कर अमलताशी के पीले हुए क्या , हंस रहा मंदार आंखें मूंद के वाह क्या प्रस्तुति है, बहुत ही आनंद आया ।

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  6. पवन भरने फिर लगा उन्माद तन में।
    आ गया मधुमास चुपके से वतन में।

    बहुत सुंदर रचना ....मन उल्लसित करती हुई ....
    बधाई एवं शुभकामनायें ...

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  7. स्वाद चखकर
    प्यार की दो बूंद के,
    हंस रहा
    मंदार आंखें मूंद के।
    टेसुओं का एक जंगल जल रहा,
    हवन होने में मगन मीठी अगन में।...bahut hi badhiya

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  8. झुके किसके नयन
    उठकर फड़फड़ाए,
    याद आने लगे
    लमहे फिर भुलाए।
    काव्य सौन्दर्य अब इससे आगे क्या हो सकता है ?

    मनोज जी आपकी द्रुत टिपण्णी के लिए आभार .इस दौर में जब नेट एक सकारात्मक अभियान का हिस्सा बन चुका है विकृत मन के प्रक्षेपणों प्रोजेक्शन से हम सभी को न सिर्फ बचना होगा इसका विरोध भी सामर्थ्य भर करना होगा .भाषागत स्वीकृत प्रतिमानों व्यंजनाओं तक बात रहे .

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  9. कामनाओं-वर्जनाओं
    में ठनी,
    चल रहीं
    उधमी हवाएं फागुनी।
    वान, प्राणों में चुभे अल्हड़ मदन के,
    छुपे रहना कौन चाहेगा सदन में।

    इस सुन्दर गीत के लिए हार्दिक शुभकामनायें...

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  10. मन उल्लसित करती हुई सुन्दर रचना...

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  11. bahut kuch seekhne ko milta hai..aaur yatra me chalte rahne ke prerna bhee..ye ahshash kara deti hai kee chala chal..bahut bahut dooor hai abhi manjil

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  12. हर एक पंक्ति में बहुत ही सुंदर भाव,भाषा और शब्दों का बडा ही खूबसूरत संयोजन किया है आपने खूबसूरत रचना...

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  13. अलसुबह जब से
    गई है छेड़कर,
    पांव टिकते नहीं
    सकरी मेड़ पर।
    कर अमलताशों के पीले क्या हुए,
    शुभ मुहूरत, शुभ घरी, सुन्दर लगन में।
    मनोज जी ..श्याम जी का ये संकलन बहुत ही अच्छा लगा .सराहनीय प्रयास आप का ...गाँव के दर्शन हुए
    जय श्री राधे
    भ्रमर 5

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  14. बहुत ही मोहक और संयमित गीत है यह। पर लगता है कि पहली पंक्ति दूसरी पंक्ति के बाद होनी चाहिए थी।
    स्वाद चखकर
    प्यार की दो बूंद के,
    हंस रहा
    मंदार आंखें मूंद के।
    ये पंक्तियाँ बहुत प्यारी हैं, पर कवि शब्द-जाल में लगता है कि उलझ गया है। क्योंकि प्यार के दो बूँद पीकर आँख बन्द किए हँसता नहीं है, प्यार में खो जाता है या प्यार में जाग जाता है, उसमें डूब जाता है।

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  15. मन के विचार जूझते हैं, मौसम साथ देता है।

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  16. कोमल व अति सुन्दर बिम्बों में प्यार के स्वाद को ढालती हुई प्यारी रचना..

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