स्मृति शिखर से – 15
वे लोग, भाग – 5
करण समस्तीपुरी
कहावतें मेरी स्मृति के अभिन्न अंग
रहे हैं। लोकोक्तियाँ मेरी जीवनचर्या में समायी रही हैं। बल्कि यूँ कहें कि मेरी
परवरिश ही कहावतों के बीच हुई तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। मेरी दादीजी आंचलिक
कहावतों की इनसायक्लोपिडिया थी। हर अवसर और हर चरित्र के लिए उनके पास एक जीवंत
कहावत हुआ करती थी।
कहावतों की विरासत उनके सभी बच्चों
को मिली। हमें कभी कहावतों में प्रशंसा और कभी निंदा मिलती रही। पिताजी के शब्दों
में तो छोटे भाई का स्टेटस अपडेट था, “रमता जोगी बहता पानी...!” उसकी यायावरी
प्रवृति का को अभिव्यक्त करने के लिए इस से अच्छा क्या हो सकता है। घर में तो वह
सोने और खाने के अलावे एक पल के लिए भी नहीं रहता था, अन्यत्र भी ढूँढ़ना सरल नहीं
था। अभी यहाँ, ... अगले क्षण खादी भंडार पर। जब भी कोई उसके संबंध में पूछता
पिताजी कभी सामान्य और कभी खीझ कर बोलते थे, “रमता जोगी और बहता पानी... का कौन
ठिकाना...! कब कहाँ।”
यह कहावत कितनी बार सुनी होगी। अभी
भी सुनता हूँ गाँव जाने पर। जब भी सुनता हूँ मन में एक तस्वीर उभरती है। औसताधिक
लंबाई, कृषकाय, गौर-वर्ण, बड़ी-बड़ी आँखें, लंबा चेहरा, छूरी की तरह खड़ी नाक, गले तक
लटकती दाढ़ी, बड़े-बड़े बाल, घुटने तक लटकता लंबा कुर्ता...! नहीं ये कवि सूर्यकांत
त्रिपाठी ‘निराला’ का शब्द-चित्र नहीं है।
मैंने तो उन्हें गाँव में ही देखा
था। नहीं-नहीं...! वे मेरे गाँव के नहीं थे। लाल-चाचा और कन्हैय्या चाचा को
समस्तीपुर में मिले थे। समस्तीपुर रेलवे स्टेशन पर। विराटनगर (नेपाल) जाने का
मार्ग और साधन पूछ रहे थे। फ़ारबीसगंज उतरकर जाना होगा। छोटी लाइन की गाड़ी जाती है।
फ़िर वो इनलोगों से बातें करने लगे। सज्जन विराटनगर में आहूत किसी संगीत-समारोह में
भाग लेने जा रहे थे। सूरज अस्ताचल पर बढ़ चला था। गाड़ी आई। चली गई। चाचाओं ने याद
दिलाई। उन्होंने कहा, “मुसाफ़िर हूँ यारों... न घर है न ठिकाना...! मुझे कोई
विराटनगर नहीं जाना...! वो तो आप लोगों से बात करने की गरज से मैंने झूठ बोल दिया
था।”
वे अपरिचित थे। अज्ञात । “अज्ञात
कुलशीलस्य वासो देयो न कस्यचित!” उन्होंने झूठ बोला था। तथापि चाचा जी को उनकी
भंगिमा और वचन भरोसे योग्य लगे थे। पूछा, “मेरे गाँव चलेंगे?” वे सहर्ष तैय्यार हो
गए। 12 किलोमीटर साइकिल पर दोहरी
सवारी कर वे लोग गाँव पहुँच गए। रेवाखंड में रात्रि का सन्नाटा पसर चुका था। शहर
में तो कभी-कभी अपना भोजन भी नहीं बनता मगर गाँव में अभी भी रात को एकाध लोगों के
अतिरिक्त भोजन पकाने की परंपरा है। भोजनोपरांत पूछा, “हारमोनियम है?” “हाँ।” “ले
आओ..!” चाचा जी ने हरमोनियम रख दिया।
मुक्ताकाश देहरी में बाबा के तख्त पर
बैठ अपरिचित महाशय शुरु हो गए। शीत-निशा की निरवता में राग-रागिनी की छटा बिखरने
लगी। उनकी आवाज बहुत मीठी नहीं मगर सुरीली थी। सम्मोहन था उनमें। हरमोनियम पर
अंगुलियाँ बिजली की तरह थिड़कती थी। स्वर में अतिसूक्ष्म शाहिद कपूर दोष था। ‘र’ को ‘व’ उच्चारण करते थे। “कागा
जा... वे... जा...! मोवे पिया के संदेशवा ला... वे... ला... !” प्रताप सिंह नाम था
उनका। उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले के रहने वाले थे। उन्होंने बताया था।
प्रातः हमारे पड़ोस में एक ग्रामीण
गायक अभ्यास कर रहे थे। प्रताप सिंह की नींद खुल गई। चाचा जी को जगा दिया, “अरे ये
कौन .... स्वर लगा रहा है....?” स्वर की दिशा में चलकर उनके घर और अभ्यास तक पहुँच
गए। कुछ बातें हुई। चुनौती भी मिली... रामायण गाने की। उन्हीं के हारमोनियम पर
शुरु हो गए। दो घंटे तक...! अविराम गाते रहे। उन्हें तुलसीदास की ‘रामचरित मानस’, ‘दोहावली’, ‘कवितावली’, ‘सूरसागर’ और मीरा के अधिकांश पद
कंठस्थ थे। पड़ोसी गायक ने प्रशंसित भाव से सिर नवा दिया था।
गायन के अतिरिक्त, तबला, ढोलक,
बाँसुरी, सारंगी, सितार आदि पारंपरिक भारतीय वाद्य-यंत्रों के बादन में भी वे
सिद्धहस्त थे। संगीत सिखाने की भी अद्भुत कला थी उनमें। किन्तु कोई गलत सुर लगाये
ये बरदाश्त नहीं था। बहुत तेज डाँट देते थे। फिर प्यार से सिखाने लगते थे। गाँव और
आस-पड़ोस में उनकी प्रसिद्धी फ़ैलने लगी थी। गाँव में होने वाले कीर्तन-भजन,
सांगितिक-सांस्कृतिक कार्य-क्रमों में वे अवश्य बुलाए जाते थे। अस्थाई निवास मेरे
या कन्हैय्या चाचा के घर पर होता था।
मेरे बाबा को उन्हें भोजन देने में
कोई कठिनाई नहीं थी किन्तु आवास देने से डरते थे। “अज्ञातकुलशीलस्य वासो देयो न
कश्यचित!” इसका कोई पता-ठिकाना नहीं है। अजनबी। कहीं मेरे पोते (मुझे) को उठा ले
गया तो? बाबा मुझे उनके पास भी नहीं फ़टकने देते थे। मुझे उनके पास जाना अच्छा लगता
था। मुझे भी वो बहुत प्यार करते थे। मैं उस समय सातवीं कक्षा में पहुँच गया था।
कभी-कभी वे मुझे रासायन और जीव विज्ञान और अँगरेजी पढ़ा दिया करते थे। बड़ा अच्छा
पढ़ाते थे। अँगरेजी पाठ के संवाद तो वे नाटकों की तरह ही बोलते थे। पढ़ाते-पढ़ाते
संगीत की बारीकियाँ भी समझाने लगते थे। यह उनके स्वभाव में शामिल था। बाबा के
अतिरिक्त घर के सभी लोगों का विश्वास उन पर जम गया था।
अब वे गाँव में अजनबी नहीं रहे थे।
घुल-मिल गए थे। तीज-त्योहार, भोज-भात में उन्हें भी निमंत्रण मिलता था। अनेक लोगों
को उन्होंने कुछ न कुछ गाना-बजाना सिखा दिया। काश...! बाबा मुझे भी उनका सामिप्य
दे देते! गाँव के एक संपन्न गृहस्थ परिवार ने उन्हें अपना लिया था। वे उनके एकलौते
पुत्र को संगीत की शिक्षा देते थे और परिवार उन्हें रोटी-कपड़ा और मकान! वे यायावर
थे अधिक दिनों तक टिक नहीं सके। किन्तु कुछ ही दिनों में अपने शिष्य के संगीत की
जड़ इतनी मजबूत कर चुके थे कि आज वह इसी कला की बदौलत अपनी जीविका सगर्व चला रहा
है। आज वह युवक लोकगायन में प्रसिद्धि के मार्ग पर है।
वहाँ से उड़ कर समस्तीपुर शहर में
अपना नीड़ बनाया था। वहाँ भी कन्हैया चाचा, लक्षमण जी भैय्या का सहयोग रहा। कुछेक
संगीतालयों में शिक्षण कार्य मिल गया और कुछेक घरों में सामान्य ट्युशन। एक कमरे
के किराए का घर संगीत के स्वरों से गुलजार होने लगा था। एक साइकिल खरीद ली थी।
गाँव आते-जाते रहते थे। शनिवार को निश्चित आते थे। सांझ के कीर्तन में भाग लेते।
रविवार गाँव में बिताकर सोमवार प्रातः कार्य-स्थल को चल पड़ते थे।
इधर कुछ सप्ताह से गाँव नहीं आए
थे। शायद अस्वस्थ्य होंगे। लेकिन पिछली बार तो इतनी खाँसी और हल्के बुखार के
बावजूद गाँव आए थे। मुझे अच्छा नहीं लगा था। और कई लोग भी उनकी प्रतीक्षा कर रहे
थे। कुछ दिनों बाद लोग उनसे मिलने पहुँचे। उनके किराये की कोठरी पर। बंद पड़ी थी।
अनियमित कई दिनों तक मिलने का प्रयास जारी रहा। वे नहीं मिले। अगले महीने का
किराया नहीं मिला तो मकान-मालिक ने लक्षमण जी से शिकायत किया। कहीं बाहर गये
होंगे...! आएंगे तो दे देंगे।
अगले महीने मकान मालिक ने उनके
परिचितों की उपस्थिति में दरवाजे का ताला तोड़ दिया। सारा सामान पड़ा ही हुआ था।
उनके कपड़े भी। साइकिल भी। बस हारमोनियम नहीं था। हाँ...! एक भावुक कर देने वाला
पत्र था। उन्होंने हमारे गाँव के सभी लोगों का आभार व्यक्त किया था। मेरा भी नाम
लिखा था। लिखा था कि वे योगी हैं। संगीत उनकी साधना है। वे ब्रह्मांड के हर कण में
संगीत की ही खोज करते हैं। समय और भूगोल की सीमा उनके योग को बांध नहीं सकता। एक
स्थान पर अधिक दिन ठहरने से उनका अन्वेषण ठहर जाएगा। उन्हें तलाश है नए आकाश की,
नई जमीन की, नए सुरों के, नए साज के, नए लोगों की, नई संस्कृति की...! इस गाँव में
उन्हें जो मिला वो तब तक की यात्रा में सर्वश्रेष्ठ था। यदि संयोग दुबारा आता है
तो वे भी इस गाँव में आना पसंद करेंगे।
एक संयोग दुबारा नहीं आता। वे भी
नहीं आए। उनके पत्र का आशय सुना था। उस संयोग की प्रतीक्षा करता रहा। काश वे अब
जाएँ तो मैं भी हारमोनियम बजाऊंगा...! गाऊंगा...! नहीं तो तबला ही सीख लूँगा...!
वे नहीं आए। जैसे आए थे वैसे चले गए। बहुत कुछ अर्जित किया था। कुछ लेकर नहीं गए।
अपितु जो ले सका उसे कुछ न कुछ देकर ही गए थे। कहाँ से आए थे... कहाँ गए... किसी
को नहीं मालूम!
“बहती हवा सा था वो... उड़ती पतंग
सा था वो....! कहाँ गया उसे ढूँढ़ो...!” थ्री इडियट्स का यह गाना और पिताजी की वह
कहावत सुनता हूँ तो उनकी छवि आँखों में उतर आती है। मेरे स्मृति शिखर पर वे हमेशा
गाते रहते हैं, “झनन...ननन..नन... बाजे घुँघरवा...! ऐ...री...! सखी कैसे जाउँ मैं
घरवा....! झनन... ननन... नन.... बाजे घुँघरवा...!” पहली बार जो उन्होंने गाया था।
यायावर की यह कथा, मन के बड़े समीप ।
जवाब देंहटाएंप्रेम लुटाते जा रहे, कर प्रज्वलित प्रदीप ।
कर प्रज्वलित प्रदीप, अश्व यह अश्वमेध सा ।
बाँध सके ना कोय, ठहरना है निषेध सा ।
सिखा गए संगीत, गए सन्मार्ग दिखाकर ।
सादर करूँ प्रणाम, सफ़र कर 'वे' यायावर ।।
व्यक्तित्वों का आकर्षण जीवन को गति देता रहता है।
जवाब देंहटाएंसबसे पहिले: बधाई, इतना सुन्दर संस्मरण लिखने के लिए.. एतना मन से आप याद किये हैं कि ऊ कहीं भी हों उनतक आपका गोहार जरूर पहुंचेगा और आपको आसीस देंगे!!
जवाब देंहटाएंदोसरा बात: 'रे' को 'वे' कहना कोनो साहिद कपूर सिंड्रोम नहीं था.. आज भी पक्का गाने वाला लोग इसी तरह गाते हैं.. कारण नहीं मालूम.. बेगम अख्तर जब गाती थीं तो ऊपर के सुर में उनके "न" का उच्चारण "ल" हो जाता था और इसी का नक़ल करते हुए एक मशहूर गज़ल गायक "इंसान" को "इल्सान" बोला करते थे..
तीसरा बात: आज का संस्मरण पढकर स्व. हृषिकेश मुकर्जी याद आ गए!! फिल्म बावर्ची में ऐसा ही एक चरित्र था (थ्री इडियट्स से बहुत साल पहले).. कहाँ से आया और कहाँ चला गया.. मगर जाते समय बस एक टीस छोडकर गया सबके मन में.. कोई परेशानी नहीं किसी को और सारी समस्याओं के समाधान देकर!!
ऐसे लोग देवदूत होते हैं..!!
wah.....kya likhte hain.....
जवाब देंहटाएंआनंद आ गया...ऐसे हरफनमौला के बारे में पढ़ कर...
जवाब देंहटाएंबहुत ही मार्मिक प्रसंग है।
जवाब देंहटाएंसच्चा कलाकार कभी बँध कर नहीं रह पाता ,नये क्षितिज खोलने का दुर्दम आकर्षण उसे कहीं चैन से नहीं बैठने देता !
जवाब देंहटाएंइस तन्मय चित्रण के लिया आपका आभार !
आपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति |
जवाब देंहटाएंशुक्रवारीय चर्चा मंच पर ||
सादर
charchamanch.blogspot.com
इस संस्मरण को पढ़कर प्रसाद जी के आँसू की पंक्तियाँ याद आ गयीं-
जवाब देंहटाएंजो घनीभूत पीड़ा थी
मस्तक में स्मृति सी छाई।
दुर्दिन में आँसू बनकर
वह आज बरसने आई।
बहुत-बहुत साधुवाद।
ह्रदय को स्पर्श करती हुई..
जवाब देंहटाएंबड़ा मार्मिक संस्मरण , लोक कहावतों के सानिध्य में ..." दफ़न होया दाणा ,ख़ैर दाणे दे वास्ते " अविस्मरनीय डॉ,साहब /
जवाब देंहटाएंआपका हर संस्मरण काफी प्रशंसनीय होता है । आज भी मुझे याद है आपका एक पोस्ट- "सांझ भई फिर जल गई बाती । बहुत अच्छा लगा था । मेरे अनुरोध पर इसे एक बार पुन: पोस्ट करें । धन्यवाद ।
जवाब देंहटाएंसचमुच! इतना सुन्दर संस्मरण लिखने हेतु आप बधाई के पात्र है।
जवाब देंहटाएंसंस्मरण सबके पास होते हैं। उन्हें लिखने की कला कुछ लोगों के पास होती है। आपके पास दोनों हैं। बधाई।
जवाब देंहटाएं