सोमवार, 16 अप्रैल 2012

किरचनें चुगते हुए


किरचनें चुगते हुए

श्यामनारायण मिश्र

किरचनें चुगते हुए इतिहास की
उम्र यूं ही कट रही है।
प्रौढ़ता की तर्कुटी में
     देह का सन बट रही है।

बड़े बड़े खंभों की
          ऊंची यह बखरी
जाड़ों की कथा-प्रथा
          सावन की कजरी
किसे सौंपें फाग-फागुन
     भीड़ नारे रट रही है।

माथे की प्रतिभा
          हाथ की कलाएं
किसकी यशवेदी पर
          होम कर जलाएं
मूठ मारे दौर
          छाती फट रही है।
***  ***  ***
चित्र : आभार गूगल सर्च

22 टिप्‍पणियां:

  1. प्रौढ़ता की तर्कुटी... सन की मानिंद बटना...
    क्या सूक्ष्म नजरिया है... वाह...
    सुंदर गीत पढ़ कर आनंद आ गया...
    सादर आभार।

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  2. किरचनें चुगते हुए इतिहास की
    उम्र यूं ही कट रही है।
    प्रौढ़ता की तर्कुटी में
    देह का सन बट रही है।

    क्या बात है बढ़िया शब्द संयोजन
    सुंदर रचना ......

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  3. इस रचना को पढवाने के लिए आभार आपका भाई जी !

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  4. बहुत सुन्दर भावाव्यक्ति

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  5. बहुत ही सुंदर गहन भावव्यक्ति....आभार

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  6. बहुत बहुत सुंदर.. धन्यवाद मनोज जी

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  7. हिंदी साहित्य की धरोहर हैं ये रचनाएं .

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  8. इतनी सुन्दर कविता और अलग सा बिम्ब ..प्रभावित करती हुई रचना पढवाने के लिए आभार..

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  9. प्रौढ़ता की तर्कुटी में
    देह का सन बट रही है।

    बेहद सुंदर क्या उपमा है और क्या उपमान ।

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  10. प्रौढ़ता की तर्कुटी में
    देह का सन बट रही है।
    behatariin rachan

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