किरचनें चुगते हुए
श्यामनारायण मिश्र
किरचनें चुगते हुए इतिहास की
उम्र यूं ही कट रही है।
प्रौढ़ता की तर्कुटी में
देह का सन बट रही है।
बड़े बड़े खंभों की
ऊंची यह बखरी
जाड़ों की कथा-प्रथा
सावन की कजरी
किसे सौंपें फाग-फागुन
भीड़ नारे रट रही है।
माथे की प्रतिभा
हाथ की कलाएं
किसकी यशवेदी पर
होम कर जलाएं
मूठ मारे दौर
छाती फट रही है।
*** *** ***
चित्र : आभार गूगल सर्च
प्रौढ़ता की तर्कुटी... सन की मानिंद बटना...
जवाब देंहटाएंक्या सूक्ष्म नजरिया है... वाह...
सुंदर गीत पढ़ कर आनंद आ गया...
सादर आभार।
सुन्दर और प्रभावी अभिव्यक्ति..
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया......
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया........
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना ... आभार
जवाब देंहटाएंकिरचनें चुगते हुए इतिहास की
जवाब देंहटाएंउम्र यूं ही कट रही है।
प्रौढ़ता की तर्कुटी में
देह का सन बट रही है।
क्या बात है बढ़िया शब्द संयोजन
सुंदर रचना ......
bahut gahan bhaav sanyojan sundar abhivyakti.
जवाब देंहटाएंइस रचना को पढवाने के लिए आभार आपका भाई जी !
जवाब देंहटाएंबहुत प्रभावी.
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर भावाव्यक्ति
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर गहन भावव्यक्ति....आभार
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत सुंदर.. धन्यवाद मनोज जी
जवाब देंहटाएंbahut achi poem hai, apki..
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रस्तुति!
जवाब देंहटाएंshasakt rachna
जवाब देंहटाएंhardik badhayee ke sath
सुन्दर नवगीत।
जवाब देंहटाएंसुन्दर, प्रभावशाली, अद्भुत!!
जवाब देंहटाएंहिंदी साहित्य की धरोहर हैं ये रचनाएं .
जवाब देंहटाएंसुन्दर नवगीत।
जवाब देंहटाएंइतनी सुन्दर कविता और अलग सा बिम्ब ..प्रभावित करती हुई रचना पढवाने के लिए आभार..
जवाब देंहटाएंप्रौढ़ता की तर्कुटी में
जवाब देंहटाएंदेह का सन बट रही है।
बेहद सुंदर क्या उपमा है और क्या उपमान ।
प्रौढ़ता की तर्कुटी में
जवाब देंहटाएंदेह का सन बट रही है।
behatariin rachan