भारतीय काव्यशास्त्र – 109
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आचार्य
परशुराम राय
पिछले अंक में चर्चा की गयी थी कि विरोधी रसों के आलम्बन ऐक्य, आश्रय
ऐक्य और निरन्तरता के साथ काव्य में वर्णन होने से रस दोष होते हैं।
काव्यशास्त्रियों ने इनके परिहार के तरीके बताए हैं कि आलम्बन ऐक्य और आश्रय ऐक्य से
बचने के लिए आवश्यक है कि विरोधी रसों के आलम्बन और आश्रय को अलग-अलग कर दिया जाय
तथा विरोधी रसों की निरन्तरता से बचने के लिए दो विरोधी रसों के बीच किसी अविरोधी
रस के वर्णन का समावेश करना चाहिए।
आज के इस अंक में उपर्युक्त
परिहारों के कुछ उदाहरण लेकर चर्चा करना अभीष्ट है। जहाँ तक आलम्बन और आश्रय के
ऐक्य के कारण रसदोषों का प्रश्न है तो इनका परिहार उन्हें अलग कर देने से हो जाता
है। तात्पर्य यह कि विरोधी रसों के आलम्बन विभाव को अलग-अलग आलम्बनों द्वारा वर्णन
किया जाय, तो रसदोष नहीं होता। इसी प्रकार विरोधी रसों के लिए भिन्न-भिन्न आश्रयों
का वर्णन करने से रसदोष का परिहार होता है। जैसे वीर और भयानक, दो परस्पर विरोधी
रसों के आलम्बन और आश्रय नायक और प्रतिनायक को बनाया जाय, तो रसदोष का परिहार हो
जाएगा। इस प्रकार की स्थिति की संभावना नाटकों, उपन्यासों या प्रबंधकाव्यों आदि
में ही बनती है। लेकिन फुटकल काव्यों में भी यदि इस प्रकार की सम्भावना हो, परिहार
का मार्ग यही है।
दो विरोधी रसों का निरन्तरता के साथ वर्णन के कारण उत्पन्न रसदोषों के परिहार
के उपाय के लिए बीच में किसी अविरोधी रस का वर्णन करके परिहार बताया गया है। ध्वनि-सम्प्रदाय
के प्रवर्तक और ध्वन्यालोक के रचयिता आचार्य आनन्दवर्धन का यही मत है-
रसान्तरान्तरितयोरेकवाक्यस्थयोरपि।
निवर्तते हि रसयोः समावेशे विरोधिता।। (ध्वन्यालोक 3.27)
अर्थात् एक ही वाक्य में स्थित दो रसों के बीच में अन्य रस का समावेश होने पर
विरोध नहीं होता।
इस मत को सभी ध्वनिवादी आचार्यों
ने स्वीकार किया है, चाहे आचार्य मम्मट हों या आचार्य विश्वनाथ या अन्य कोई और।
विरोधी रसों की निरन्तरता के कारण दोष को दूर करने के लिए ध्वन्यालोककार ने
इसके लिए निम्नलिखित तीन श्लोकों को उद्धृत किया है। आचार्य मम्मट ने भी उसे विशेषक
(तीन श्लोकों में समाप्त होनेवाले वाक्यार्थ को विशेषक कहा जाता है) उदाहरण के रूप
में लिया है-
भूरेणुदिग्धान्नवपारिजातमालारजोवासितबाहुमध्याः।
गाढं शिवाभिः परिरभ्यमाणान्सुराङ्गनाश्लिष्टभुजान्तरालाः।।
सशोणितैः क्रव्यभुजां स्फुरद्भिः पक्षैः खगानामुपवीज्यमानान्।
संवीजिताश्चन्दनवारिसेकैः
सुगन्धिभिः कल्पलतादुकूलैः।।
विमानपर्यङ्कतले निषण्णाः कुतूहलाविष्टतया तदानीम्।
निर्दिश्यमानांल्ललनाङ्गुलीभिर्वीराः स्वदेहान्
पतितानपश्यन्।।
अर्थात् नवीन पारिजात की माला से सुवासित वक्षवाले, सुरांगनाओं द्वारा उनकी
भुजाओं से आलिंगित, चन्दन के जल से सिंचित, कल्पलता के सुगंधित दुकूलों से हवा किए
जानेवाले, विमान के पर्यंक (पलंग) पर बैठे वीरों ने ललनाओं द्वारा अंगुलियों से
दिखाए जाने पर युद्धभूमि में पड़े अपने शरीरों को कुतूहल पूर्वक देखा, जो पृथ्वी
पर धूल से सने थे, सियारियाँ उन्हें (शरीरों को) कसकर पकड़कर नोच रहीं थीं और
मांसभक्षी पक्षी खून के भींगे अपनी पाँखों से उनपर हवा कर रहे थे (एक शव से उड़कर
दूसरे शव पर जा रहे थे और मांस नोच खा रहे थे)।
इसमें इस मान्यता का वर्णन दिया गया है कि युद्धभूमि में वीरगति पाने पर वीरों
को स्वर्ग मिलता है। युद्ध में वीरगति को प्राप्त वीरों को सुरांगनाएँ दिव्य
विमानों से स्वर्ग ले जा रही हैं और वे उन्हें उनके मृत शरीरों की ओर अपनी
अंगुलियों से संकेतकर दिखा रही हैं।
यहाँ शृंगार और वीभत्स दो विरोधी रसों के वर्णन में वीराः पद द्वारा
वीर रस का व्यवधान देकर रसदोष का परिहार किया गया है।
इस अंक में बस इतना ही। अगले अंक में रसदोषों के परिहार के
शेष तीन उपायों पर सोदाहरण चर्चा की जाएगी।
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दोष के साथ ही दोषों के परिहार की भी श्रृंखला.. एक नया अध्याय!!
जवाब देंहटाएंभारतीय साहित्य की गूढतम जानकारी देता प्रभावी लेख
जवाब देंहटाएंबहुत जानकारीपरक और ज्ञानवर्धक.
जवाब देंहटाएंराय साहब ज्ञान का भण्डार हैं.आभार.
प्रणाम आचार्य ।
जवाब देंहटाएंज्ञानवर्धक लेख
जवाब देंहटाएंआभार,..... !
MY RECENT POST...काव्यान्जलि ...:गजल...
इस पार प्रिये तुम हो मधु है ,उस पार न जाने क्या होगा ---हमारे गुरुजी इस पंक्ति को दोहराते हुए रस-दोष समझाया करते थे । काव्यशास्त्र के ऐसे सिद्धान्त यहाँ पढने मिलते हैं यह एक उपलब्धि है । कभी साधारणीकरण पर भी सामग्री आए तो अच्छा हो ।
जवाब देंहटाएंगिरिजा जी, काव्यशास्त्र का यह 109वाँ अंक है और काव्य के विभिन्न अंगों पर चर्चा करने के बाद काव्यदोषों का प्रकरण चल चल रहा है, जो लगभग समाप्त होनेवाला है। रसदोषों पर चर्चा के दौरान यह चर्चा उनके निराकरण के उपायों पर चल रही है। विशेष जानकारी के लिए इस शृंखला के पुरानी पोस्टों को देखें।
हटाएंआप तो निःसंदेह ज्ञान का भंडार हैं। हम सब लाभ उठा रहे हैं।
जवाब देंहटाएंसंक्षिप्त सुन्दर और पचनीय विश्लेषण हमारे जैसे विज्ञान साहित्य छात्र भी बूझ सके .
जवाब देंहटाएंमनोज भाई के कथन से सहमत हूँ ....
जवाब देंहटाएंआभार आपका !