फ़ुरसत में ... 99 : आत्मा के लिए औषध!
मनोज कुमार
राजभाषा हिंदी ब्लॉग पर पिछले दिनों एक पुस्तक-परिचय के क्रम में मैंने कहा था कि एयरपोर्ट पर किताब की दुकानों में अमूमन अंग्रेज़ी की पुस्तकें ही दिखाई देती हैं। मैं इन बुकशॉप पर जाता ज़रूर हूं, लेकिन पुस्तकें देखने या ख़रीदने नहीं। मैं जाता हूँ उन पुस्तक-विक्रेताओं अथवा दुकान के मालिकों से हिंदी में बातें करने। जब वे भी हिंदी में सामान्य रूप से और सहज भाव से जवाब देने लगते हैं, तो लगे हाथ उन्हें यह भी जता देता हूं कि उनके पास यदि हिंदी की पुस्तकें भी होतीं तो हम भी कोई-न-कोई पुस्तक ख़रीद ही लेते।
सच
कहूँ तो एयरपोर्ट का अंग्रेज़ीनुमा माहौल मुझे बिलकुल रास नहीं आता। चूंकि एयरपोर्ट
ऑथोरिटी भारत सरकार के अधीन है, इसलिए केन्द्र सरकार की राजभाषा नीति के अनुपालन हेतु नामपट्ट आदि द्विभाषिक
तो होते हैं, पर काउंटर के पीछे बैठे कर्मचारी-अधिकारी अपने कॉन्वेन्ट
स्कूल में पढ़े (?) अंग्रेज़ी-ज्ञान का प्रदर्शन करते रहते हैं। कमाल की बात तो यह
है कि वे लोग जब आपस में बात करते हैं, तो उनकी भाषा
अंग्रेज़ी नहीं होती, हिन्दी भी नहीं होती, बल्कि अजीब सी भाषा होती है (जैसे: ओए,
बात सुन! ज़रा वो टैग तो थमाना मेरे को!)। लब्बोलुआब ये कि ये सब ढकोसला सिर्फ़ और
सिर्फ ग्राहक के लिए!
दिल्ली
एयरपोर्ट का माहौल कुछ ऐसा ही है। बुक शॉप तो कई हैं, पर वहाँ के बुक शॉप पर ऐज़
यूज़ुअल अंग्रेज़ी की किताबें ही दिखती हैं। अलबत्ता, कोलकाता एयरपोर्ट पर मैं अलग
तरह का माहौल पाता हूं। आप यदि यहाँ के अधिकारियों से हिंदी में बातें करें, तो
जवाब हिंदी में मिलने की अधिक संभावना होती है, और यदि बांग्ला में बात करें तो निश्चित ही बांग्ला में उत्तर मिलेगा। शायद यही कारण है कि
यह एयरपोर्ट मुझे अपना-सा लगता है और यहाँ के लोग आत्मीय।
यहाँ
के बुक शॉप पर हिंदी की किताबें भी मिलती हैं। भले ही वे एक कोने में दबी, छुपी, ढकी हों,
पर चाहने वालों की नज़र उन्हें ताड़ ही लेती हैं। दो-चार किताबें तो
मैं वहाँ से उठा ही लेता हूं। दिल्ली तक के दो घंटे का हवाई सफर और आधेक घंटे का
वेटिंग टाइम, आने-जाने में कुल मिलाकर पांच-छह घंटे लगते ही हैं, इतने में एक पुस्तक पढ़ना तो हो ही जाता है।
दरसल,
मुंशी प्रेमचंद की एक बात मुझे कभी नहीं भूलती:
“पुस्तक पढ़ना तो चाहते हैं, पर गांठ का पैसा ख़र्च
करके नहीं। जिनकी माकूल आमदनी है वह भी पुस्तकों की भिक्षा मांगने में नहीं
शरमाते।”
यह
बात कुछ ऐसे गहरे बैठ गयी कि मैं पुस्तकें ख़रीद कर ही पढ़ता हूं। यह उक्ति मैंने
अपने विद्यार्थी जीवन में ही पढ़ी थी और बस तबसे ही यह बात गाँठ बाँध ली।
पुस्तकें
जो अच्छी पुस्तकों की श्रेणी में आती हैं, -- उनमें दो तरह की बातें हुआ
करती हैं, -- एक सामयिक, काल-विशेष के
संबंध रखने वाली और दूसरी शाश्वत, सब कालों के लिए।
गीता
ऐसा ही सद्ग्रन्थ है। ऐसी पुस्तकें इसलिए अमर होती हैं क्योंकि इनके लिखित
अक्षरों के पीछे जो वास्तविक अक्षर तत्व हैं, उसका कभी नाश नहीं होता।
ऐसे
जो सद्विचार होते हैं, वे
लोगों तक पहुंचे उसके लिए उन विचारों वाली पुस्तकों का छपना ज़रूरी है। तभी तो ए.सी.
भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद कहा करते थे -- जो कुछ भी धन
है, उससे पुस्तकें प्रकाशित करो। उनका नारा था, -- छापो और छापो!
ब्लॉग
जगत में कई छापे वाले आ गए। उनकी लिखाई भी चली, छपाई भी। कुछ ब्लॉगर, ब्लॉगिंग करते-करते छपाई में घुसे तो उन्हें ‘सिर मुड़ाते ही ओले पड़े’, वाली स्थिति का सामना
करना पड़ा। यह तो हम पर ही है कि हम किसे महत्त्वपूर्ण कार्य मानते हैं – लिखाई को, छपाई को या फिर कमाई को। तीसरी तरह के मनुष्यों
का तो जल्दी ही लोप हो जाता है। ऐसे में टॉमस फुलर की यह बात आउट ऑफ
कन्टैक्स्ट नहीं होगी कि ज्ञान का अधिकतम लाभ उन्हीं पुस्तकों से हुआ है जिनसे
प्रकाशकों को हानि हुई है।
पुस्तकों
के साथ भी यही बात है। वाल्त्येर की फिलॉसॉफी को मानें तो – मनुष्यों के सदृश ही पुस्तकों के
साथ भी यह बात है कि बहुत थोड़ी संख्या में ही पुस्तकें महत्वपूर्ण कार्य करती हैं,
शेष भीड़ में लोप हो जाती हैं। मनुष्य की तरह ही बुरी पुस्तकें एक
ऐसा विष होती हैं, जो समाज में बुराई के बीज डालती हैं।
फ्रांसिस
बेकन की बात भी ग़ौरतलब है- कुछ पुस्तकें चखने के लिए होती हैं, अन्य निगले जाने के लिए और कुछ
थोड़ी-सी चबाने और पचा जाने के लिए। अब यह पूरी तरह हम पर निर्भर करता है कि इनमें से
किस प्रकार की पुस्तकें हम पढ़ना पसंद करते हैं, और अगर कभी लिखने का हौसला हुआ तो किस प्रकार की पुस्तकें लिखना चाहते
हैं।
पुस्तकों
का हमारे जीवन में महत्व होरेस मेन की इसी बात से समझा जा सकता है कि A house without books is like a room without
windows – अर्थात् पुस्तक विहीन गृह,
खिडकी रहित कमरे के समान है। इसलिए खुली हवा में साँस लेने के लिए यह ज़रूरी है
कि घर में पुस्तकें रखें। किन्तु एडवर्ड जॉर्ज बुलपर लिटन
की बात भी गाँठ बाँध लें – पुस्तकों पर अधिकार प्राप्त
करो परन्तु उन्हें अपने ऊपर अधिकार मत प्राप्त करने दो। जीवित रहने के लिए अध्ययन
करो, न कि अध्ययन के लिए जियो।
...
और इस पोस्ट का दरवाजा आपके लिए खोलने से पहले यह बताता चलूं कि थीब्स ने
अपने स्टडी-रूम के दरवाज़े पर यह लिख रखा था – “आत्मा के लिए औषध!”
*** *** ***
यह पोस्ट भी औषधि सम है :)
जवाब देंहटाएंअपनी आदत यह है कि पढ़ पाएं न पाएं,चारो ओर क़िताब होनी ज़रूर चाहिए।
जवाब देंहटाएं.. और इस पोस्ट का दरवाजा आपके लिए खोलने से पहले यह बताता चलूं कि थीब्स ने अपने स्टडी-रूम के दरवाज़े पर यह लिख रखा था – “आत्मा के लिए औषध!”
जवाब देंहटाएंबढ़िया समीक्षात्मक विश्लेषण .
पुस्तकें स्वान की तरह वफादार होतीं हैं .
कृपया यहाँ भी पधारें -
जानकारी :लेटेन्ट ऑटो -इम्यून डायबिटी
http://kabirakhadabazarmein.blogspot.in/
अब कैंसर के इलाज़ के लिए अतिस्वर चिकित्सा (अल्ट्रा साउंड वेव्ज़).
achchhi pustako ka sngrah,or pthan leta nahi kuchh deta hi hae
जवाब देंहटाएंआप की बात से सहमत हूँ पर क्या कीजै, दिल्ली की भाषा यही है - हरियाणवी, पंजाबी और हिंदी का मिश्रण!
जवाब देंहटाएंएयरपोर्ट के ज़िक्र से पोस्ट दमदार बन गई है.
जवाब देंहटाएंसब्जेक्ट भी भारी भरकम है, अब आराम से बैठकर पढ़ते हैं।
जवाब देंहटाएंदिल्ली एअरपोर्ट वाली बात तो एकदम सही कही आपने . कोलकाता एअरपोर्ट पर हमने देखा है भद्र जनो को किताब की स्टाल पर हिंदी में हिंदी की किताब बेचते हुए . . मुझे याद है मैंने ढाका के एअरपोर्ट पर बुक स्टाल में हिंदी की किताब देखी थी . कोई गुमनाम शिक्षा विद कह गया है . "हमे क्या काम दुनिया से मदरसा है वतन अपना , मरेंगे हम किताबो में शफें होगे कफ़न आपना ".बाकी सच में आत्मा की औषधि ही होती है किताबे.
जवाब देंहटाएंकिताबें सच में ज़रूरी हैं...... सुंदर लेख
जवाब देंहटाएंशुरू से ही कहा करता था मैं कि अगर मुझे उम्र-कैद की सज़ा देनी हो तो ऐसे कमरे में बंद करना जिसमें सिर्फ किताबें हों!!! आज भी बिना किताबों के मुझे नींद नहीं आती!! मेरे लिए तो सचमुच औषधि के समान हैं पुसतकें!!
जवाब देंहटाएंइस बार फुर्सत में हलकी फुल्की बात की जगह गहरी बातें कह गए आप!!
पुस्तकों पर सुंदर विश्लेषण .... यह औषध हमें अपने घर के आस पास नहीं मिल पाती :(:(
जवाब देंहटाएंआत्मा के लिए औषध सी...
जवाब देंहटाएंबेहतरीन पोस्ट!
Sach hai pustak aatma ke liye aousadhi hoti hai...bahut sundar.....
जवाब देंहटाएंभाषायी पाखण्ड कम होने के स्थान पर बढ़ता ही जा रहा है। हिन्दी और अंगेजी में चाहे-अनचाहे वही सम्बंध बन गया है जो किसी गाँव और शहर में होता है। प्रकाशन और पाठक के मामले में हमें चेक गणराज्य से सीखना चाहिये।
जवाब देंहटाएंएक बार मैंने अपने मित्रों से किसी अच्छी हिंदी पुस्तक का नाम बताने को कहा तो उत्तर में मुझे ढेरों अंग्रेजी की किताबे पता चली :(
जवाब देंहटाएंhidndi ke sath chal rahi dohri neeti ko ujagar kiy..nij bhasha unnati ahai sab unnati ko mool.bin nij bhasa gyan ke mite na hiy ko shool...aapka yah lekh jagrook karta hai hame..kitabein na khareedne se sambadhit prem chand ke gahri bhavna ko main samajh gaya..lekha ko aaur sath me bhasa ko promote karne ke liye yah jaruri hai kee kitabein khareedi jaayein,,main ise bhavisya me amal karoonga..tamam behtarin bicharkon ke bicharon ko jaane ka mauka mila..sadar badhayee aaur sadar praam ke sath
जवाब देंहटाएंबहुत सार्थक आलेख...पुस्तकें हाथ में आते ही एक अदभुत ऊर्जा देती हैं..
जवाब देंहटाएंKitaben insan ki sab se achee dost hoti hain aur aap jis bhasha mein padhta hain usko kitab mil jaye to aanad Dugna ho jata hai ...
जवाब देंहटाएंDili airport ki to poocho nahi ... Hindi ki kitaben Bhi penguin prakashan ki milti hain ... Achaa Hindi Sahitya to milta hi nai ...
“आत्मा के लिए औषध!”……सच कहा है ………और हमारे लिये तो हैं ही औषध ………तभी तो कहा गया है मनुष्य का सबसे बडा मित्र पुस्तकें होती हैं।
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया लिखा है आपने मनोज जी.. किताबों पर इतना सारगर्भित और संतुलित लेख शायद पहली बार पढ़ा है। हिंदी पुस्तकों के प्रति लोगों का पूर्वाग्रह दूर करने की जरूरत है.. जिसे ढंग से अंग्रेजी नहीं आती, वह भी दूसरों पर रौब जमाने के लिए अंग्रेजी का उपन्यास हाथ में लेकर बैठता है, चाहे वह सड़कछाप उपन्यास क्यों न हो लेकिन हिंदी किताबें हाथ में लेते ही उसे शर्म आने लगती है कि लोग क्या कहेंगे कि हिंदी वाला है..
जवाब देंहटाएंवैसे पूर्वाग्रह किसी भी भाषा के लिए स्वस्थ नहीं है। घोर हिंदी वादी होकर दूसरी भाषाओं की (यदि हमें आती हो:)) अच्छी पुस्तकों को न पढ़ना भी गलत है।
जवाब देंहटाएंपुस्तकें सोच की पूर्णता का सारांश होती है।
जवाब देंहटाएंप्रेरक -
जवाब देंहटाएंआभार ।।
पुस्तक आत्मौषधि सही, सुनो थीब्स का पक्ष ।
बिन पुस्तक का घर लगे, बिन खिड़की का कक्ष ।
बिन खिड़की का कक्ष, पुस्तकें चखते बेकन ।
निगल जाय कुछ मस्त, पचाते उत्तम लेकिन ।
पुस्तक पढ़ें मनोज, खरीदें खुद से भरसक ।
प्रेमचंद की बात, मान कर पढ़िए पुस्तक ।।
yaatra ke dauran pustak padhne ke romanch ke liye pichhale dino mai ne bhi khuchh kitaabein khareedi thee... lekin ab unhe ghar baith kar hee padhna padega.... :)
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया....................
जवाब देंहटाएंपुस्तक की खुराक अतिआवश्यक......
दिन में तीन दफा..............
सादर
अनु
किताबें तो ऑक्सीजन हैं जी ..इनके बिना भी क्या जीना..बढ़िया पोस्ट.
जवाब देंहटाएंपुस्तकें हमारे मनोविकास के साथ-साथ...हमारे व्यवहार को बेहतर बनाने में भी सहायक हैं। पुस्तकों के संबंध में बहुत अच्छी सूक्तियां दी हैं आपने इस आलेख में। मुझे थोरो की एक सूक्ति और स्मरण हो आई-पुराना कोट पहनो और नई पुस्तकें खरीदो।
जवाब देंहटाएंऎसा भी तो होता है है ना :
जवाब देंहटाएंपुस्तक पढ़ना भी नहीं चाहते हैं, पर पुस्तकों की भिक्षा मांगने में नहीं शरमाते। उठाते हैं ले जाते हैं फिर कभी नहीं लौटाते हैं।
बिल्कुल होता है।
हटाएंmahaan logo ki baatain yad karte batate...bahut kuchh baato baato me hi samajh samjha diya. sach kaha....pustaken aisi aushdhi hai jo man ko aatma ko buddhi ko vitamin,proteen,iron sab kuchh to de deti hai...inke liye bhi to aushdhi ki bahut jarurat hai.
जवाब देंहटाएंsunder lekh.
सबसे अच्छे मित्र से मिलवाने के लिए शुक्रिया...
जवाब देंहटाएंसचमुच किताबें ज्ञान व मनोरंजन ही नही मानव का निर्माण करतीं हैं । अच्छी किताबों से बडी दौलत कुछ नही ।
जवाब देंहटाएंपुस्तकों पर इतने संक्षेप में आपने बहुत ही गहन बातें बतायीं है। पुस्तकें अनजाने में गूढ़ बातों को हमारे अन्दर बो देती हैं और हमें पता नहीं चलता। ये बिना विरोध जताए एक मित्र की तरह सलाह देती रहती हैं। साधुवाद।
जवाब देंहटाएंpustkon se achha mitr aur koi nahi ho sakta ....mera to yahi anubhav hai,
जवाब देंहटाएंsundar post .....
सही विष्लेषण. हिंदी पुस्तकों की उपलब्धता सीमित है. फिर नौजवानों में हिंदी किताब हाथ में लेने में भी संकोच है. हां अंग्रेजी की नोवेल साथ में हो दुसरे पर अलग इम्प्रेसन पड़ता है ऐसी सोच शायद इसका कारण हो सकता है. हिंदी किताबों की सीमित बिक्री भी किताबों की कम उपलब्धता का कारण हो सकती है.
जवाब देंहटाएंअंग्रेजी का ढोंग बहुत खलता है। मैं हैदराबाद गया था तो होटल मालिक से हिंदी में ही बोले जा रहा था। वह उत्तर अंग्रेजी में दे रहा था। एक समय आया जब वह भी हिंदी बोलने लगा। मैने कहा.. मैं शुरू से जानता था कि आप हिंदी बोल सकते हो। वह मुस्कराया।:)
जवाब देंहटाएंपुस्तकों का क्रेज इधर ब्लॉगिंग ने कम किया है। वही समय का अभाव। हाँ, यात्रा में लैपटॉप ले जाने के बजाय पुस्तकें ले जाना पसंद करता हूँ। पुस्तक खरीदना अच्छी आदत है। खरीदेंगे तो देर सबेर पढ़ने का मन भी करेगा।
आपकी इस पोस्ट से पढ़ने-लिखने वालों को उर्जा मिलेगी।
..आभार।
आज पुस्तक दिवस है. आज के दिन आपके इस आलेख को पढना विशेष महत्व रखता है... आप से मिलकर लगता है किसी महाकाव्य से मिल रहा हूं...
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