भारतीय काव्यशास्त्र – 110
आचार्य परशुराम राय
पिछले अंक में आलम्बन ऐक्य, आश्रय ऐक्य और विरोधी
रसों का निरन्तरता के साथ वर्णन से काव्य में आए रसदोषों के परिहार पर चर्चा की
गयी थी। रसदोषों के परिहार से सम्बन्धित शेष स्थितियों पर यहाँ चर्चा की जाएगी।
विरोधी रसों के कारण उत्पन्न रसदोष तीन स्थितियों
में दोष नहीं माने जाते। एक तो जहाँ विरोधी रस स्मर्य़माण (स्मरण से) होकर आये हों, दूसरा जहाँ विवक्षा में साम्य हो (अर्थात्
विरोधी रस समान रूप से महत्त्वपूर्ण हों) और तीसरा जहाँ विरोधी रस किसी प्रधान रस
के अंग के रूप में आये हों-
स्मर्यमाणो विरुद्धोSपि साम्येनाथ विवक्षितः।
अङ्गिन्यङ्गत्वमाप्तौ यौ न दुष्टौ परस्परम्।। (काव्यप्रकाश 7.65)
निम्नलिखित श्लोक में स्मरण के माध्यम से विरोधी रस
शृंगार के विभाव, अनुभाव और व्यभिचारिभावों का वर्णन करुण रस के वर्णन के समय आया
है। यह श्लोक युद्धभूमि में अपने पति के कटकर पड़े हाथ को देखकर उसकी पत्नी की
उक्ति है -
अयं स रशनोत्कर्षी पीनस्तनविमर्दनः।
नाभ्यूरुजघनस्पर्शी नीवीविस्रंसनः करः।।
अर्थात् यह वही हाथ है, जो सहवास के समय मेरी करधनी
को हटाता था, मेरे बड़े-बड़े स्तनों का मर्दन करता था, नाभि, ऊरु, जघन-स्थल का
स्पर्श करता था और नीवी (नाड़ा) को खोलता था।
यहाँ ध्यातव्य है कि पति का कटा हुआ हाथ देखकर पति
के साथ सहवास के समय व्यतीत दिनों की याद रानी को आती है। यहाँ स्मरण से संयोग
शृंगार के विभाव, अनुभाव और विभाव आदि का वर्णन करुण रस को पुष्ट करते हैं। अतएव
यहाँ विरोधी शृंगार और करुण परस्पर विरोधी रसों का वर्णन होने से भी रसदोष नहीं
होता। वैसे एक और स्थिति बनती है, और वह यह कि यहाँ शृंगार रस कवि का इष्ट प्रधान
करुणरस के अंग के रूप में वर्णित हुआ है। यह भी रसदोष के निराकरण का साधन है,
जिसकी चर्चा आगे की जाएगी।
विरोधी रसों के कारण आनेवाले रसदोषों के परिहार की
अगली स्थिति है विरोधी रसों की साम्य-विवक्षा। इसके लिए आचार्य मम्मट ने
निम्नलिखित श्लोक उद्धृत किया है-
दन्तक्षतानि कसदैश्च विपाटितानि
प्रोद्भिन्नसान्द्रपुलके भवतः शरीरे।
दत्तानि रक्तमनसा मृगराजवध्वा जातस्पृहैर्मुनिभिरप्यवलोकितानि।।
अर्थात् आपके शरीर पर रक्तपिपासु प्यारी सिंहनी (या
स्त्री) के दाँतों और नाखूनों के बने चिह्नों को मुनि लोग भी अत्यन्त ललचायी आँखों
से देखते हैं।
तात्पर्य यह कि भगवान बुद्ध के शरीर पर सिंहनी के
दाँतो और नखों के चिह्न भी उतने ही आकर्षक लगते हैं, जैसे किसी प्रेमी पुरुष के
शरीर पर सहवास के समय उसकी प्रियतमा के दाँतों और नाखूनों के निशान देखकर किसी
सामान्य व्यक्ति के मन में शृंगार की भावना सक्रिय हो जाती है। यहाँ विरोधी शृंगार
और वीररस (दयावीर) को समान महत्त्व देना कवि का अभीष्ट है। अतएव यहाँ रसदोष नहीं
होगा।
यह श्लोक सम्भवतः भगवान बुद्ध के शरीर पर किसी
सिंहनी के दाँतों और नाखूनों के निशान को देखकर लिखा गया है। कहा जाता है कि एक
बार एक भूखी सिंहनी को अपने बच्चे को खाने के लिए उद्यत देख भगवान बुद्ध स्वयं
उसके सामने प्रस्तुत हो गए। कुछ के अनुसार यह जिन के जीवन की घटना है। विभिन्न
टीकाकारों ने इस श्लोक में अन्य विरोधी रसों का भी उल्लेख किया है। उपर्युक्त
निर्णय महामहोपाध्याय डॉ. गंगानाथ झा का है, जिसका उल्लेख काव्यप्रकाश पर उनकी
अंग्रेजी टीका में हुआ है। माणिक्यचन्द्र आदि टीकाकारों के अनुसार इसमें शान्त और
शृंगार रस का अविरोध दिखाना है। इसी प्रकार सारबोधिनी और सुधासागरकार ने बीभत्स और
शृंगार का अविरोध दिखाया है।
निम्नलिखित श्लोक में यह बताया गया है कि जहाँ
विरोधी रस स्वयं प्रधान न होकर किसी तीसरे प्रधान रस के अंग के रूप में आएँ, तो
वहाँ रसदोष नहीं होता। यह श्लोक किसी कवि द्वारा अपने राजा की प्रशंसा में कहा गया
है। इसे ध्वन्यालोककार ने भी अपने ग्रंथ ध्वन्यालोक में उद्धृत किया है -
क्रामन्त्यः क्षतकोमलाङ्गुलिगलद्रक्तैः सदर्भाः
स्थलीः
पादैः पातितयावकैरिव गलद्वाष्पाम्बुधौताननाः।
भीता
भर्तृकरावलम्बितकरास्त्वच्छत्रुनार्योSधुना
दावाग्नि परितो भ्रमन्ति
पुनरप्युद्यद्विवाहा इव।।
अर्थात् (हे राजन्), कुश से युक्त जंगल में नंगे
पाँव चलने से आपके शत्रु की रानियों के पैर की उँगलियों में कुश के चुभने से घाव
हो गये हैं, जिनसे रक्त-स्राव होने से लगता है कि उनके पैरों में महावर लगा है,
अपने आँसुओं से अपने मुख को धोकर भयभीत हुईँ वे अपने पतियों के हाथ पकड़े दावानल
के चारों ओर परिक्रमा कर रही हैं।
यहाँ द्रष्टव्य है कि शत्रु की पत्नियों की दुर्दशा
का वर्णन होने से करुण रस का वर्णन है। पति का हाथ पकड़कर दावानल के चारों ओर
घूमने से विवाह करने का संकेत देकर शृंगार रस की अभिव्यक्ति भी हुई है। इन दोनों
रसों का आलम्बन शत्रु की पत्नियाँ हैं। यहाँ विरोधी करुण और शृंगार रसों का
आलम्बन-ऐक्य विरोध है। परन्तु इन दोनों में से कोई भी इस श्लोक में प्रधान रस नहीं
है। बल्कि ये दोनों कवि के अन्दर स्थित उसकी अपनी राज-भक्ति के अंग बनकर रह गए
हैं। अतएव यहाँ करुण और शृंगार के आलम्बन-ऐक्य के होते हुए भी रसदोष नहीं है।
इस अंक में बस इतना ही। अगले अंक में
काव्यदोषों के परिहार की कुछ अन्य स्थितियों पर चर्चा की जाएगी।
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बहुत सही और सार्थक जानकारी के लिए आभार..
जवाब देंहटाएंज्ञानवर्धक आलेख हर बार की तरह सुंदर जानकारी समेटे हुए. आभार आचार्य जी.
जवाब देंहटाएंउपयोगी आलेख। आभार,
जवाब देंहटाएंआपके ज्ञान का हमें लाभ मिल रहा है।
जवाब देंहटाएंसार्थक प्रस्तुति... अच्छी जानकारी
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
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