शनिवार, 14 अप्रैल 2012

फ़ुरसत में ... इतनी जल्दी नहीं मरूंगा ...!

फ़ुरसत में-98

इतनी जल्दी नहीं मरूंगा ...!

मनोज कुमार

आज फ़ुरसत में हूं। पिछले सप्ताह दिल्ली गया था। अरुण चंद्र राय से राधारमण जी के दफ़्तर में भेंट हुई। मुझे तो पहली बार ‘योजना आयोग’ के भवन में जाने का और राधारमण जी के सौजन्य से किसी सरकारी दफ़्तर के कैंटीन में ‘सितारा’ होटल के बराबर का लंच करने का अवसर प्राप्त हो रहा था और मैं इस सौभाग्य पर हर्षित था। ‘योजना आयोग’ के भवन में गुज़ारे गए उस दो-तीन घंटे के वक़्त साथ ही अरुण और राधारमण जी के साथ की गई चर्चा पर फिर कभी फ़ुरसत में बात करूँगा। आज तो मुझे जिस विषय में कहना है वह, जो शेष है

वहां से जब चलने लगा तो अरुण ने मुझे एक पुस्तक थमाई और कहा, “सर! इसे पढ़कर देखिएगा। आपको निश्चित पसंद आएगी।” आने के बाद सप्ताह इतनी तेज़ी से और व्यस्तता में बीता कि उस पुस्तक को पढ़ ही नहीं पाया। आज फ़ुरसत में था, तो उसे उलटने-पुलटने लगा। जैसे ही उसकी भूमिका पढ़ना शुरू की– कि पुस्तक ने ऐसा बांध लिया कि उसके अंतिम पृष्ठ तक पढ़ गया। आज उस पुस्तक की चर्चा यहां नहीं करूंगा। .... उस पुस्तक के बारे में तो आप “राजभाषा हिंदी” ब्लॉग पर पढ़ ही सकते हैं। आज तो मैं बस इतना ही कहने आया हूँ कि – इतनी जल्दी नहीं मरूंगा मैं। घबराइए मत, वास्तव में उस पुस्तक को पढ़ने के क्रम में, जब यह इस शीर्षक पर मेरी नज़र ठहरी, तो मेरी इसमें जिज्ञासा जगी। इस कविता में जो दो-तीन दृष्टांत दिए गए हैं, वे मुझे बहुत-बहुत अपने-से लगे, मानो खुद पर घटित-से हुए हों।

एक तो रेलवे के क्वार्टर का ज़िक्र और दूसरे पिता जी के रेलवे की नौकरी करने का ज़िक्र .. इन्हीं साम्यों से अपनी बात शुरू करता हूं। इन्हें पढ़कर कुछ पुरानी बातें याद हो चली हैं। वाकया अस्सी के दशक के शुरुआती दिनों का है। तब मैं स्नातक का छात्र हुआ करता था। मेरे पिता जी पूर्वोत्तर रेलवे के एक साधारण कर्मचारी थे और हम ब्रह्मपुरा रेलवे कॉलोनी मुज़फ़्फ़रपुर के टाईप-II क्वार्टर के क्वार्टर संख्या 168-A में रहा करते थे।

टाईप-II क्वार्टर में 10X12 के दो कमरे हुआ करते थे, इसके अलावा एक किचन, एक टॉयलेट और एक बाथरूम। वह संयुक्त-परिवार का युग था और घर में 10-12 जन तो हमेशा रहते ही थे, जिनमें पिछली पीढ़ी के दादा और नानी भी शामिल थे। हम भाई-बहन उच्च कक्षा के स्तर पर आ चुके थे –उन सभी लोगों के बीच ही हमें पढ़ने की आज़ादी हासिल थी। समय के साथ, पढ़ने-रहने के क्षेत्र के विस्तार की आवश्यकता महसूस हुई और हमने बाहर के बरामदे को घेर कर अपना आश्रय-स्थल (अध्ययन-स्थल) निर्मित किया। एक चौकी डाली और उससे सटाकर एक टेबुल, पढ़ने के लिए इससे अधिक और क्या सुविधा चाहिए!

उन दिनों मेरा रूटीन ग़ज़ब का था। सुबह नौ-दस बजे तक घर से निकल जाता था, यार दोस्तों के यहां। गप-शप, पढ़ाई-लिखाई, घुमाई-फिराई करते रात के दस बजे के बाद ही घर लौटने का मेरा क्रम था। घर के लोग नियम से नौ, साढ़े-नौ बजे तक खा-पीकर सो जाते थे। घर का दरवाजा बंद कर दिया जाता था। मेरा खाना-पीना बाहर के टेबुल पर ढंक कर रखा होता। बिजली तो प्रायः नहीं ही रहती थी, इसलिए किरासन तेल से जलने वाला एक लालटेन भी मेरे टेबुल पर कम रोशनी में जलता रखा रहता था।

जिस रोज का वाकया सुनाने जा रहा हूं, उस रात साढ़े दस बजे घर लौटा था। टेबुल पर रखा खाना चौकी पर बैठकर खाया और फिर उसी चौकी पर सोने का इंतजाम करने लगा। सबसे पहले मसहरी को बिछौने के नीचे दबाया, उसके बाद पैर की तरफ़ रखी भागलपुरी चादर, जो ओढ़ने के काम आती थी, को उठाया। उसके उठाते ही, क़रीब ढाई-तीन हाथ का एक सांप लहराता हुआ चादर के नीचे से निकला।

मेरी, काटो तो खून नहीं वाली, स्थिति हो गई। मसहरी को लिए-दिए मैं तो किसी अनजाने आवेग से कूद गया। मेरे गिरने की ‘धम्म’ की आवाज़ और उसके बाद मेरे मुंह से निकलते गूं-गूं और घिघियाने की आवाज़ से घर के अन्य सदस्यों की नींद टूटी। दरवाजा खोल वे बाहर आए और मुझे ज़मीन पर पड़ा देख पूछने लगे – क्या हुआ है? किसी तरह गूं-गां, घी-घी करते हुए मैंने उन्हें समझाया कि बिस्तर पर सांप है। टेबुल पर रखे लालटेन की रोशनी मध्यम थी, और उसमें सब कुछ स्पष्ट दिखने लायक पर्याप्त रोशनी भी नहीं थी। टॉर्च की रोशनी में उस सांप को ढूंढ़ने की प्रक्रिया शुरू हुई। बिस्तर आदि को हटाया गया, चौकी को उसके स्थान से हिलाया गया, तब कहीं जाकर उस सरीसृप ने भागना शुरू किया और फ़र्श पर रेंगता हुआ पानी के निकास के लिए बनाए गए छिद्र से निकलकर घर से बाहर अंधेरे में गुम हो गया।

इस घटना के बाद मां बोली थी, “बइच गेले रे बऊआ! नई त आईए ...” (बच गए मेरे बच्चे, नहीं तो आज ही ...)! एक माँ अपने पुत्र के विषय में इस वाक्य को पूरा भी तो नहीं कर सकती!

तब तक मेरा भय कम हो चुका था। मैंने हंसते हुए कहा था, “एत्ते जल्दी नई न मरबऊ”। (इतनी जल्दी नहीं मरूंगा)

आज इस पंक्ति को एक कविता के शीर्षक के रूप में देख कर, मुझे वह वाकया याद आ गया। ये पंक्तियां उस काव्य-संग्रह वह, जो शेष है की है, जिसे मैं आज पढ़ रहा था और इसके रचयिता हैं श्री राजेश उत्साही जी।

मैं राजेश उत्साही जी से कभी मिला नहीं, मगर यह पढ़कर वह, जो उन्हें कहना था …” ऐसा लगा मुझे कि – खूब-खूब मिला हूं उनसे। रचनाकार उत्साही से परिचय तो रहा है मेरा, ब्लॉगर उत्साही से नहीं। “ब्लॉगर” तो पढ़ने लायक़ रचनाओं के सृजन के अलावा भी बहुत कुछ करता रहता है। लेकिन जो सृजन में मस्त रहता है, उसे और कुछ पढ़ने, गढ़ने और करने की फ़ुरसत कहां होती है!

मैंने ब्लॉगर राजेश से परिचय न होने की बात इस संदर्भ में की कि यहां (ब्लॉग जगत में) दोस्ती (या परिचय) आदान-प्रदान की होती है, चैट-चाट की होती है, लिंक-फिंक की होती है। राजेश जी से शायद ही इस तरह की मेरी कभी कोई बात हुई हो, कम से कम मुझे तो याद नहीं…! इसके बावज़ूद, उनमें कुछ ऐसी बातें थीं, जो मुझे उनके ब्लॉग तक खींच ही लाती थीं। उनमें से एक हैं उनके द्वारा की गई टिप्पणियां। उनकी कुछेक टिप्पणियां वार करती थीं, चोट पहुंचाती थीं, ऐसा लगता था मानों ‘सटाक’ से लगा हो। पर यह उनका खास अंदाज़ था, … है!

यह आदमी तो हिम्मती है। सबसे ज़्यादा राजेश जी को लेकर अगर मेरी किसी से बात हुई तो वह अरुण से हुई है। राजेश जी जम कर उसकी आलोचना करते थे। और मन-ही-मन मैं सोचता कि ये उत्साही जी उत्साहित कम हतोत्साहित ज़्यादा करते हैं। राजेश जी से क्षमा याचना सहित यह बातें कहना चाहूंगा कि ये मेरे तबके विचार थे, जब मेरी मुलाक़ात उनसे नहीं हुई थी। उनसे मेरी मुलाक़ात तो आज ही हुई है। और वह भी वह, जो शेष है ... के ज़रिए।

वह, जो शेष है ... राजेश जी का पहला काव्य-संग्रह है। इसमें उन्होंने बड़ी बेबाकी से अपनी बातें रखी हैं, -- वह जो मुझे कहना है ...के माध्यम से – और इसमें एक संपादक के साथ हुए पत्र-व्यवहार का ज़िक्र करते हुए लिखा है, - यदि मुझे किसी की रचना पर प्रतिक्रिया देनी होगी, तो मैं उसके बारे में जो ईमानदारी से सोचता हूं वही कहूंगा।

राजेश जी ने इस ईमानदारी को संजोकर रखा है और दुआ है कि वह ईमानदारी उनकी पूँजी के रूप में सुरक्षित रहे। कम-से-कम इस ब्लॉग-जगत में ईमानदारी से कहने वाले बहुत कम हैं।

38 टिप्‍पणियां:

  1. क्या बात है ..इस बार की फुर्सत में हम भी पढ़ना चाहेंगे उत्साही जी की पुस्तक.

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  2. सृजन में लीन यूँ ही कीर्तिमान स्थापित करती रहे आप सबों की लेखनी और हमें प्रेरणा मिलती रहे!
    सादर!

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  3. राजेश उत्साही जी से पिछले सप्ताह ही मुलाकात हुई, और हम भी उनका काव्य संग्रह पढ़ रहे हैं, एक ब्लॉगर और कवि से मिलने का अनुभव जल्दी ही हम भी लिखेंगे।

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  4. ईमानदारी सबसे बड़ी पूँजी है - आपने भी ईमानदारी से कहा है !

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  5. राजेश जी जैसे ईमानदारी से कहने वाले लोग बहुत कम हैं। ईमानदारी उनकी पूँजी है,....उनकी लेखनी से हमें प्रेरणा मिलती रहे!...मनोज जी आपका आलेख बहुत अच्छा लगा,....
    .
    MY RECENT POST...काव्यान्जलि ...: आँसुओं की कीमत,....

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  6. ...सच में,ईमानदारी से काम करने वाले बहुत कम हैं !

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  7. ईमानदारी से कहने वाले शायद इसलिए नहीं है क्यांकि ईमानदारी से कही हुई बात किसको
    पसंद आती है ? इसके लिये बड़ा धैर्य चाहिए ! बहुत अच्छी पोस्ट आभार !

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  8. इतनी जल्दी नहीं मरूँगा मैं ..... यह रचना राजेश जी के ब्लॉग पर पढ़ी है ... उनकी ईमानदारी के कारण ही उनकी टिप्पणियों की प्रतीक्षा रहती है ...

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  9. ईमानदारी से कहने वाले बहुत कम रह गए हैं.
    जो दूसरे की ईमानदार टिप्पणी झेल सकें वे और भी कम हैं।
    जितने हैं वे ग़नीमत हैं।

    आपके सांप की घटना से हमें अपने सांप का वाक़या याद आ गया।
    रात के वक्त वह कड़ी से लटक रहा था।
    हमारी पुकार पर हमारे वालिद साहब आए अपनी बरछी से उसे वहीं बींध लिया हालांकि रात थी और रौशनी भी लालटेने ही की थी।
    ‘क़त्लल मूज़ी क़ब्लल ईज़ा‘ अर्थात घातक प्राणी को तकलीफ़ पहुंचाने से पहले ही मार देना जायज़ है।

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  10. कभी फ़ुरसत मिले तो मार्टिन लूथर साहब का नज़रिया पूर्ण जीवन के बारे में भी जानिएगा,
    इस लिंक पर
    http://kanti.in/issues/2012/april2012/Page-43.asp

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  11. सुलभाः पुरुषा राजन् सततं प्रियवादिनः।
    अप्रियस्य च पथ्यस्य वक्ता श्रोता च दुर्लभः।।

    अर्थात् प्रिय बोलनेवाले सदा उपलब्ध रहते हैं, लेकिन अप्रिय और हितकर वचन बोलनेवाला और सुननेवाला दोनों ही दुर्लभ होते हैं।
    बहुत अच्छा। साधुवाद।

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  12. अच्छा लगा राजेश जी के विषय में पढ़ कर ....सच्चाई में अद्भुत शक्ती होती है और गहन एहसास होते हैं ....
    सार्थक आलेख ....

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  13. ईमानदारी को चिन्हित करता फुरसत वाला आलेख. किताब के बारे में पढने की जिज्ञासा रहेगी .

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  14. सच्चे और ईमानदारों से मिल कर ख़ुशी होती है...एक ऐसे व्यक्तित्व से मिलवाने के लिए...शुक्रिया...

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  15. आज तो बड़े भाई और छते भाई दोनों का समागम दिख गया.. कमाल तो यह है कि हम भी आज उन्हीं के बारे में लिख कर आये हैं..
    रही बात इतनी जल्दी नहीं मारूंगा मैं की, तो भाई जी, भगवान आपको लंबी उम्र दे.. बहुत साँप आया और चला गया!! जीते रहिये!!

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  16. मैंने अपने प्रोफाइल में कुछ लिख नहीं रखा है। पर लगता है,धीरे-धीरे सब खुल जाएगा।
    मैंने अरुणजी से राजेश जी की पुस्तक उपलब्ध कराने का आग्रह किया है। आपकी पुष्टि के बाद उसके प्रति जिज्ञासा और बढ़ी है।

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    1. तो अरुण ने अभी तक नहीं दिया, ये तो सरासर नाइंसाफ़ी है। यह बात तो मेरे सामने ही हुई थी।

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    2. radharaman ji ko phone kiya tha kintu sadhuji kee bimari ke karan we uplabdh nahi ho sakte the.. isliye diya nahi.... unke agle fursat me dunga...

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  17. आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार के चर्चा मंच पर भी होगी!
    सूचनार्थ!
    --
    संविधान निर्माता बाबा सहिब भीमराव अम्बेदकर के जन्मदिवस की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ-
    आपका-
    डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  18. चलो यह भी अच्‍छा हुआ कि मनोज जी आपने मेरे बारे में फुरसत से फुरसत में जाना,फुरसत में पढ़ा और इस बहाने फुरसत से याद किया। बहुत बहुत आभारी हूं।

    और जहां तक अरुण जी की कविताओं की आलोचना की बात है तो वह तो मैं अब भी करता हूं और करता रहूंगा। साधुवाद उनको कि इसके बावजूद उन्‍होंने मेरी बारे में कोई नकारात्‍मक राय नहीं बनाई। और गुलमोहर पर प्रक‍ाशित मेरी कविताओं का संग्रह निकालने का प्रस्‍ताव भी उन्‍होंने ही दिया। चूंकि बात निकली है तो यहां यह भी सार्वजनिक रूप से कहना चाहूंगा कि संग्रह को प्रकाशित करने में सारा निवेश ज्‍योतिपर्व प्रकाशन का है मैंने उसमें एक नया पैसा नहीं लगाया है। हां कविताओं की पाण्‍डुलिपि तैयार करके अवश्‍य भेजी थी। कवर उन्‍होंने ही बनवाया है। मुझे छपी हुई दुनिया में लाने का श्रेय निसंदेह ज्‍योतिपर्व प्रकाशन को और अरुण जी को जाता है। आभार।

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    1. राजेश जी बहुत बहुत आभार. आपकी पुस्तक प्रकाशित कर मैं अभिभूत हूं, उपलब्धि मानता हूं..श्री नामवर सिंह जी दूरदर्शन पर वरिष्ठ कवि मदन कश्यप जी के साथ शनिवार को साहित्य पर चर्चा करते हैं.. आपकी पुस्तक पर भी करेंगे. कब नहीं मालूम मुझे.

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    2. राजेश जी, यह बात आपने सार्वजनिक कर बड़ा ही नेक काम किया है। एक प्रकाशक के रूप में ज्योति प्रकाशन और उसके सहयोगियों को नाहक ही बदनाम किया जाता रहा है।

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    3. राजेश जी की पुस्तक के विमोचन के उपरांत, तुरत उनसे मैंने फोन पर बात की और तब भी उन्होंने यही कहा था मुझसे.. दिल्ली में जब उनसे मुलाक़ात हुई तब भी उन्होंने इसे दोहराया. ज्योतिपर्ब प्रकाशन ने कई लोगों के सपनों को साकार किया है.

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  19. विष्णु जी शेष शैया पर ही सोते हैं वे तो अजर अमर हैं:)

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  20. बहुत सुन्दर और रोचक आलेख ...आभार

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    1. इसी हफ्ते उत्साही जी के ब्लॉग से परिचित हुआ |
      संतोष त्रिवेदी जी कृपा से |
      सत्य और खरी -खरी बात करने वालों की ब्लॉग जगत ही क्या दुनिया में भी कमी है -

      aabhaar

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    2. रविकर भाई,राजेश जी का 'गुलमोहर' आपकी नज़रों से कैसे रह गया,बहरहाल आभार !

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  21. उत्साही जी से परिचित हूँ लेकिन बस दूर दूर से ही लेकिन उनकी टिप्पणी खरी होती हें और जो खरी होती है वह निष्पक्ष और कुछ देने वाली होती हें. उनके काव्य संग्रह को प्राप्त कर पढ़ने की इच्छा को जल्दी ही पूरी करूंगी.

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  22. प्रकाशक के लिए एक बढ़िया टाइटिल ज्ञानपीठ सा लगता है. पुस्तक चर्चा देख अच्छा लग रहा है.. मनोज जी के दोनों ब्लॉग, सलिल जी के ब्लॉग... हर जगह..
    ..कहना चाहूँगा की अभी शुरुआत भर है..

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  23. pustak sameeksha bahut badiya lagi..
    ...Utsahi ji ki is pustak mein mujhe to sangharsh mein jeeti jaagti "Neema" kavita dil ko chhu gayee...
    ..prastuti hetu aabhar!

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  24. सुन्दर और बहुत बहुत रोचक आलेख ...आभार

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  25. आपकी सभी प्रस्तुतियां संग्रहणीय हैं। .बेहतरीन पोस्ट .
    मेरा मनोबल बढ़ाने के लिए के लिए
    अपना कीमती समय निकाल कर मेरी नई पोस्ट मेरा नसीब जरुर आये
    दिनेश पारीक
    http://dineshpareek19.blogspot.in/2012/04/blog-post.html

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  26. इस पुस्तक और लेखक से अभी साक्षात्कार शेष है।

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  27. रोचक संस्मरण और किताब का संदर्भ...
    सादर।

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  28. ईमानदारी सबसे बड़ी पूँजी है …………यही उनकी वास्तविक पहचान है और हमेशा बनी रहे यही दुआ है हमारी भी……………आपने राजेश जी का चंद शब्दो मे जो परिचय दिया है वह काबिल-ए-तारीफ़ है ………राजेश जी वहाँ से देखना शुरु करते हैं जहाँ से हम सब बंद करते है और यही उनकी रचनात्मकता की विशेषता है। उनके लेखन की एक अलग ही शैली है जो उन्हे दूसरों से अलग बनाती है।राजेश जी को बधाई और आपका आभार्।

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