स्मृति शिखर से... 12
वे लोग, भाग - 4
शहर की उप्लब्धियों को मैं सलाम करता हूँ किन्तु यह कहूँ कि गाँव में उर्वरता अधिक होती है तो आपलोग भी सहमत होंगे...! उर्वरता सिर्फ़ भूमि की नहीं बल्कि व्यापक अर्थों में। किन्तु मैं यह कहूँ कि गाँव में रचनात्मकता अधिक होती है तो? यदि यह कहूँ कि गाँव में जिजीविषा अधिक होती है तो? और यदि यह कहूँ कि गाँव में सहजता अधिक होती है तो? और अगर मैं यह भी कहूँ कि गाँव में नैसर्गिक प्रतिभा अधिक होती है तो? हो सकता है आप सहमत नहीं हों मगर मैंने देखा है। या मेरे इस विश्वास का कारण यह भी हो सकता है कि मैंने शहर अधिक नहीं देखा है। हाँ अनुभव किया है कि प्रतिभा का संपोषण शहरों में सुलभ होता है। इन दो अनुभूतियों के बीच ‘वे लोग’ मेरी स्मृति में चित्रित हो जाते हैं। आज के अंक में अलग-अलग भावभूमि पर अंकित कुछ जीवन-चित्र।
जिजीविषा : वो मेरे गाँव के नहीं थे। मेरे जिला, जवार या प्रांत के भी नहीं थे। कहा जाता है कि उनका घर इलाहाबाद था। संपन्न परिवार था। किन्तु भाग्य ने समस्तीपुर में ला छोड़ा। बड़ी लंबी कहानी है और करुण भी। वहीं से फ़ौज में भर्ती हो गए। कायस्थ थे। कृष्णमुरारी लाल सक्सेना। उनका विवाह मेरे ही गाँव में हुआ। आनुवांशिक विरासत में मिले तल्ख तेवर सेना का अनुशासन भी नहीं बाँध सका। किसी बात पर अन-बन हो गई और नौकरी को लात मार कर सक्सेनाजी घर आ बसे। गाँव में पाहुनजी या मिलिट्री बाबू के नाम से जाने जाते थे। कल तक उनके द्वारा लाए जाने वाले फ़ौजी शराब से स्नान करने वाले उन्हें सूखे हाथों तिलांजली देने में देर नहीं लगाई।
परिजनों की परीक्षा भी दीर्घ नहीं थी। इनका अनुशासन उन्हे पसंद नहीं था और उनकी स्वतंत्रता इन्हें। संघर्ष का अंत शीघ्र हो गया। बेचारे परिवार से परित्यक्त हो गए। थोड़ी से जमा पूँजी से एक छोटी-सी दुकान शुरु किया किन्तु उधारी और मीत-व्ययिता से कभी भेंट हुई नहीं थी। जल्दी ही शून्य पर आ गए। संपन्नता से विपन्नता की यात्रा बड़ी छोटी थी। बड़ी लंबी जिंदगी कटी थी फ़टेहाली में। गाँव के मेहमान थे मगर मुफ़्तखोर नहीं। यावज्जीवन याचना नहीं कि वरन श्रम कर दिन का भोजन जुटा लेते थे। रात का भोजन मेरे बाबा की तरफ़ से निश्चित था। दिन में कहीं काम नहीं मिलने पर बाबा उन्हे दरवाजे पर उग आए घास छीलने का काम दे देते थे क्योंकि उन्हे पता था कि मिलिट्री बाबू बिना काम किए नहीं खाएँगे और बाबा के सामने कोई भूखा रह जाए तो महापाप था।
वर्षों तक इसी प्रकार जीते रहे। जहाँ छोटी सी कठिनाई में लोगों का चरित्र डगमगा जाता है वहीं साक्षात दरिद्रा देवी के निवास के बावजूद याचना, बेईमानी, चोरी... उनके निकट भी नहीं फ़टक सकी थी। हाँ, मुँहजोरी ने अब तक साथ बनाए रखा था। जीवन के अंतिम चरण में वृद्धावस्था पेंशन मिलने लगा था। परिस्थितियों ने संचय सिखा दिया था। दो तीन दिनों का अस्वास्थ्य हुआ था। प्रत्यूष काल में पड़ोसियों ने कराहट नहीं कुछ ओजस्वी पुकार सुनी थी।
प्रातः दरबाजा खुला था। सामने एक चौकी पर मिलिट्री बाबू लेटे हुए थे। गले में बटुआ था जिसमें संचित किए हुए कुछ रुपए। सिरहाने एक संदूकची थी जिसमें कुछ मृत कारतूस और दो मेडल थे। मेरा सौभाग्य और यूँ कहें मेरा कर्तव्य भी... उन्हे भी पहला काँधा मैंने ही दिया था। मृत्योपरांत परिजन आए...। आठ-आठ आँसू रोए। लौकिक-वैदिक ऋति से श्राद्ध कर्म किया। भारी-भरकम भोज-भात भी। शायद उनकी आत्मा को तृप्ति मिली हो।
विश्वास: गाँव में हजारों परिवार थे। हमारे टोले में सैंकड़ों। सभी परिवारों में मिलिट्री बाबू का आना-जाना था। मेरे यहाँ कुछ अधिक। शायद बाबा के कारण। हम तीनों भाइयों को मानते भी बहुत थे। मेरे मँझले भाई पर उनका कुछ अधिक स्नेह भी था। वह भी उन से कुछ अधिक ही घुला-मिला रहता था।
एक दिन मिलिट्री बाबू हमारे दरवाजे की घास छीलने के बाद दोपहर का भोजन कर वहीं खाट पर विश्राम कर रहे थे। दोपहर की उष्णता में पुरबाई ने निद्रा का उपहार भी दे दिया। तभी मेरे मझले भाई कि दृष्टि सोये हुए मिलिट्री बाबू के बाल-विहीन माथे और सामने पड़े घास के छोटे से ढेर पर गई। वह जन्मजात रचनाधर्मी था। सोचा मिलिट्री बाबू के माथे पर बाल तो नहीं है तो क्यों न घास ही जमा दिया जाए... ताकि उनका माथा भी हमारी तरह ढँका रहेगा। विचार तुरत कार्य में बदल गया।
सर पर घास पड़ते ही अपरिपक्व निद्रा भंग हुई। अनुशासनप्रिय मिलिट्री बाबू क्रोध से फ़ुँफ़कारने लगे। मेरा भाई भी वहीं खड़ा था और थोड़ी दूरी पर दूसरे परिवार का एक और लड़का खड़ा था। उन्हे समझते देर नहीं लगी कि यह किसने किया होगा। आव देखा न ताव उसके गालों पर एक झन्नाटेदार झापर रसीद करते हुए बाप-दादों की गालियाँ देने लगे। चोट खाए लड़के ने जब चीख कर यह कहा कि यह शरारत उसने नहीं यदु (मेरा भाई) ने की है तो और दो झापर पड़े और गालियाँ भी, “ह...रा...म...... एक तो अपने बाप से बड़े उमर के आदमी के साथ शरारत करता है और उपर से झूठ बोलकर यदु का नाम लेता है। मुँह तोड़ दूँगा यदि दुबारा झूठ बोला तो...!” उसे धक्का देकर भगा दिया तो हम दोनो भाई हँसने लगे। उन्होंने उसके बाद भी विश्वास नहीं किया कि उनके सिर पर घास यदु ने रखा था।
औदार्य – वे याचक नहीं थे। माँगना उन्हें पसंद नहीं था लेकिन अपनी आखिरी कौड़ी भी किसी को दे सकते थे। मैं बारहवी में पढ़ता था। किसी वैकल्पिक पाठ्यक्रम के लिए महाविद्यालय में शुल्क जमा करना था। यही कोई सौ रुपए। पिताजी थे नहीं और शायद होते तो भी पता नहीं उस समय उनके पास भी सौ रुपये होते या नहीं। अंतिम दिन। समय निकलता जा रहा था। पैसे मिलने के बाद मुझे साइकिल से कालेज जाना भी था जो हमारे घर से कोई दसेक किलोमीटर पर था।
मेरी हताशा माँ की परेशानी का सबब बन रही थी। मिलिट्री बाबू बीड़ी पीने के लिए दिया-सलाई लेने आए थे। मेरी उदासी और मेरी माँ की परेशानी का कारण जानकर उल्टे पैर लौट गए। फिर आए। मैले कुरते की जेब से सौ रुपए का एक कड़क नोट निकाल कर दिया था। शायद अपनी मेहनत-मजदूरी से बचा रखा होगा। लेने में संकोच पर डांटा भी था। माँ भी स्तब्ध रह गई। मेरे हाथ नहीं बढ़े। उन्होंने स्वयं मेरी जेब में रख दिया था। बाद में पिताजी ने उन्हें सौ रुपए वापस कर दिए... लेकिन मेरे उपर तो उनका उधार रहा ही। शायद उनकी अर्थी को काँधा देते हुए वही उधार मुझे कर्तव्यबोध करा रहा था।
नेत्र गीले हो गए बस
जवाब देंहटाएंशायद उनकी अर्थी को काँधा देते हुए वही उधार मुझे कर्तव्यबोध करा रहा था।
जवाब देंहटाएंबहुत प्रभावी प्रस्तुति,....
जीवटता भारी पड़ती है जीवन की समस्याओं पर, व्यक्तित्व अडिग रहता है।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति ।
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रस्तुति। मेरे नए पोस्ट पर आपका इंतजार रहेगा । धन्यवाद ।
जवाब देंहटाएंhttp://vangaydinesh.blogspot.in/2012/02/blog-post_25.html
http://dineshpareek19.blogspot.in/2012/03/blog-post_12.html
सराहनीय पोस्ट, आभार.
जवाब देंहटाएंकरण बाबू! अद्भुत व्यक्तित्व से मिला दिए आप!! एकबारगी सिरचन याद आ गया. सोचते हैं कि कहाँ गए ये लोग, कहाँ गया गाँव का वो माहौल. विषयान्तर न होगा यदि यहाँ मैं प्रिय स्वप्निल की कविता की कुछ पंक्तियाँ उद्धृत करूँ, शायद इसी से कारण उजागर हो मूल्यों के क्षरण का:
जवाब देंहटाएं.
चहेंटुआ पहले ठाकुर साब किहाँ
काम करता था
सड़क बनते ही
बम्बई भाग गया
अब बर्तन धोता है
एगो होटल में...!
सड़क पक्की होने से
खाली सड़क पक्की होती है
नहीं पक्का होता गांव का भाग्य,
हाँ
बढ़ जाता है खतरा
गांव के सहर चले जाने का
या सहर के गांव में घुस जाने का।
समस्या जीवन का दूसरा नाम है...सराहनीय पोस्ट
जवाब देंहटाएंआपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल बृहस्पतिवार 05-04-2012 को यहाँ भी है
जवाब देंहटाएं.... आज की नयी पुरानी हलचल में ......सुनो मत छेड़ो सुख तान .
कुछेक पल को रोक ले रही है निस्सृत संवेदनाएं..
जवाब देंहटाएंHARDIK ABHAR KARAN BABU......NETRA NAM BHELA SAN....SAH-YOGI SAB KUSHAL-KSHEM PUCHHI RAHAL ACHHI......?????????
जवाब देंहटाएंSADAR.
करन भाई उनका उधार तो अब भी होगा ही... कुछ ऋणों से हम मुक्त नहीं हो सकते... बढ़िया संस्मरण... गाव की बहुत याद आ रही है...
जवाब देंहटाएंकभी कुछ पल जीवन के,लगता है कि चलते चलते कुछ देर ठहर जाते हैं.
जवाब देंहटाएंभावुक कर गई पोस्ट.
ऐसे व्यक्तित्व के दर्शन का सौभाग्य हमारा भी रहा है। हां आपकी तरह कंधे तो न दे सका।
जवाब देंहटाएंसलिल जी की बातें मुझे प्ररित करती हैं यह कहने को कि कहां गए वे लोग! और आपकी इस रचना को अपनी ही कविता की कुछ पंक्तियां समर्पित करता हूं।
मक्खियाँ तक अब नहीं
करती हैं भिन- भिन,
आम के दरख़्तों पर
ठिठुरे से दिन।
सब गए शहर कहे
अम्मा की झाँव।
बहुत भावुक करने वाली रचना है, करनबाबू। वैसे भी सभ्यता गाँवों में ही पैदा होती है और शहर के रूप में विकसित होती है। साधुवाद।
जवाब देंहटाएंमिलिट्री बाबू के बारे में जान कर मन भावुक हो गया ... वो ऋण तो क्या उतरेगा हाँ कुछ बोझ हल्का हो गया होगा ...
जवाब देंहटाएंचरित्र ! - इसी को कहते होंगे !
जवाब देंहटाएंकुछ उधार जिंदगी भर चुकता नहीं होते ....ऐसा ही कुछ आपके साथ भी था .....अंतिम पंक्तियाँ ..मार्मिक
जवाब देंहटाएंआत्मगौरव की मिसाल ऐसे ही लोगों से कायम है...
जवाब देंहटाएंकुछ व्यक्तित्व ही ऐसे होते हैं ....मनः पटल पर अमिट छाप छोड़ देते हैं ....चाह कर भी यादें मितटी ही नहीं ...
जवाब देंहटाएंकुछ व्यक्तित्व ऐसे ही होते हैं ,अमिट छाप छोडते हैं मनः पटल पर ...
जवाब देंहटाएंसचमुच! अच्छा लगा करण बाबू!
जवाब देंहटाएं