रविवार, 30 सितंबर 2012

भारतीय काव्यशास्त्र – 125


भारतीय काव्यशास्त्र – 125
आचार्य परशुराम राय
पिछले अंक में वक्रोक्ति अलंकार पर चर्चा की गयी थी। इस अंक में अनुप्रास अलंकार पर चर्चा की जाएगी।
वर्णों की समानता (आवृत्ति) को अनुप्रास कहा गया है- वर्णसाम्यमनुप्रासः। भले ही व्यंजनों के साथ संयुक्त स्वरों में समानता न हो, लेकिन व्यंजनों में समानता होनी चाहिए। ऐसा होने पर अनुप्रास अलंकार होगा। अनुप्रास की व्युत्पत्ति की गई है - अनुगतं प्रकृष्टश्च न्यासः इति अनुप्रासः। इसका अभिप्राय वही है जो ऊपर दिया गया है। अनुप्रास  के तीन भेद किए गए हैं- छेकानुप्रास, वृत्त्यानुप्रास और लाटानुप्रास।
छेक का अर्थ होता है चतुर। शायद इसका प्रयोग चतुर लोग ही करते हों। छेकानुप्रास में वर्णों की आवृत्ति एक बार होती है। जैसे-
ततोSरुणपरिस्पन्दमन्दीकृतवपुः  शशी।
दध्रे कामपरिक्षामकामिनीगण्डपाण्डुताम्।।
हिन्दी की निम्नलिखित कविता इसके लिए उद्धृत की जा रही है-
बगरे  बीथिन  में  भ्रमर, भरे अजब अनुराग।
कुसुमित कुंजन में फिरत, फूल्यो स्याम सभाग।।
जहाँ एक या अनेक वर्णों की एक बार से अधिक आवृत्ति हो, वहाँ वृत्त्यानुप्रास होता है। वृत्त्यानुप्रास में वृत्ति शब्द समझना आवश्यक है। यहाँ वृत्ति का अर्थ रीति, संघटना, शैली या मार्ग से है। इसमें  गुण का भी समन्वय देखा जाता है। आचार्य उद्भट ने अपने काव्यालङ्कार-संग्रह नामक ग्रंथ में तीन प्रकार की वृत्तियों का उल्लेख किया है - उपनागरिका (मधुरा), कोमला और परुषा।
आचार्य मम्मट ने उपनागरिका की परिभाषा यों की है- माधुर्यव्यञ्जकैर्वर्णैरु-पनागरिकोच्यते, अर्थात् माधुर्य व्यंजक वर्णों की जहाँ आवृत्ति हो, वहाँ उपनागरिका वृत्त्यानुप्रास होता है। आचार्य वामन ने इसे वैदर्भी कहा है। इसके लिए आचार्य मम्मट ने निम्नलिखित श्लोक उद्धृत किया है-
अनङ्गरङ्गप्रतिमं  तदङ्गं   भङ्गीभिरङ्गीकृतमानताङ्ग्याः।
कुर्वन्ति यूनां सहसा यथैताः स्वान्तानि शान्तापरचिन्तनानि।।
अर्थात्  कामदेव की रंगशाला की तरह स्तनों के भार से नतांगी (झुके हुए शरीरवाली) की चेष्टाओं ने उसके (नायिका के) शरीर को अपने अधीन कर लिया है कि ये चेष्टाएँ (हाव-भाव) युवकों के चित्त को तुरन्त अन्य विषयों की चिन्ता से मुक्त कर अपने में रमा लेती हैं।
हिन्दी में कवि देव रचित निम्नलिखित कवित्त उपनागरिका वृत्त्यानुप्रास के लिए उद्धृत किया जा रहा है-
मंद-मंद चढ़ि चल्यो चैत-निसि चंद चारु,
मंद-मंद  चाँदनी  पसारत  लतन तें। 
मंद-मंद जमुना-तरंगिनि हिलोरैं लेति,
मंद-मंद मोद मंजु-मल्लिका-सुमन तें।
देव कवि मंद-मंद सीतल सुगंध पौन,
देखि छबि छीजत मनोज छन छन तें।
मंद-मंद मुरली बजावत अधर धरे,
मंद-मंद निकस्यौ मुकुंद मधुबन तें।।
मानस की ये पंक्तियाँ इस वृत्त्यानुप्रास का एक आदर्श उदाहरण हैं-
कंकन किंकिनि नूपुर धुनि सुनि। कहत लखन सन राम हृदय गुनि।
कोमला वृत्त्यानुप्रास में माधुर्य और ओज में प्रयुक्त होनेवाले वर्णों को छोड़कर अन्य वर्णों की आवृत्ति होती है, अर्थात् य, र, ल, व, स आदि वर्णों की आवत्ति पाई जाती है। कुछ लोग इसे ग्राम्या वृत्ति भी कहते हैं। आचार्य उद्भट इसे कोमला और आचार्य वामन पाञ्चाली मानते हैं। इसके लिए काव्यप्रकाश में निम्नलिखित श्लोक उद्धृत किया गया है। इसमें एक वियोगिनी बाला की दशा का वर्णन किया गया है-
अपसारय घनसारं  कुरु हारं दूर एव किं कमलैः।
अलमलमालि मृणालैरिति वदति दिवानिशं बाला।।
अर्थात् रात-दिन बाला यही कहती रहती है कि हे सखि, कपूर को हटाओ, हार को तो दूर ही रखो, इन कमल के फूलों का क्या काम, अर्थात् ये भी व्यर्थ हैं।
हिन्दी में एक कविता की निम्नलिखित पंक्तियाँ इस वृत्त्यानुप्रास का उदाहरण हैं-
नवल कँवल हू ते कोंवल चरन हैं।
परुषा वृत्यानुप्रास में ओज गुण में प्रयुक्त होनेवाले कठोर वर्णों और संयुक्ताक्षरों की आवृत्ति होती है। इसलिए भयानक, वीर, रौद्र आदि रसों में इसका प्रयोग किया जाता है। आचार्य वामन इसे गौडी और आचार्य उद्भट परुषा कहते हैं। काव्यप्रकाश में निम्नलिखित श्लोक इसके लिए उद्धृत किया गया है। यह श्लोक हनुमन्नाटकम् में रावण की उक्ति है -
मूर्ध्नामुद्वृत्तकृत्ताविरलगलद्रक्तसंसक्तधारा-
धौतेशाङ्घ्रिप्रसादोपनतजयजगज्जातमिथ्यामहिम्नाम्।
कैलासोल्लासनेच्छाव्यतिकरपिशुनोत्सर्पिदर्पोधुराणां
दोष्णां चैषां किमेतत्फलमिह नगरीरक्षणे यत्प्रयासः।
अर्थात् उद्धत होकर लगातार कंठ से बहती अविरल रक्त की धार से भगवान शिव के चरणों के धोने से उनकी कृपा से प्राप्त विजय से जगत में मिथ्या महत्ता को प्राप्त मेरे इन दस सिरों और कैलास को उठाने की इच्छा से आविष्ट उत्कट अभियान के गर्व से युक्त मेरी भुजाओं का क्या यही फल है कि अपनी इस नगरी की रक्षा के लिए मुझे प्रयास करने की आवश्यकता आ पड़ी।
हिन्दी के लिए मानस की निम्नलिखित पंक्तियाँ इसके लिए उदाहरण रूप में ली जा सकती हैं -
जाना प्रताप ते रहे  निर्भय  कपिन्ह  रिपु माने फुरे।
चले बिचलि मर्कट भालु सकल कृपाल पाहि भयातुरे।।
हनुमंत अंगद नील नल  अतिबल  लरत रन बाँकुरे।
मर्दहिं दसानन कोटि कोटिन्ह  कपट  भू भट अंकुरे।।
जहाँ पदों की आवृत्ति होती है, वहाँ लाटानुप्रास होता है। पदों की आवृत्ति में पुनरुक्ति दोष तथा पुनरुक्तवदाभास अलंकार होने की सम्भावना बनती है। आचार्य मम्मट ने इसकी परिभाषा इस प्रकार की है -
शाब्दस्तु लाटानुप्रासो भेदे तात्पर्यमात्रतः।
अर्थात् तात्पर्य मात्र से भेद होने पर शब्द की आवृत्ति हो, तो लाटानुप्रास होता है।
दक्षिणी गुजरात को लाट देश कहा जाता था। वहाँ के लोगों प्रिय होने या वहाँ के कवियों द्वारा ऐसा प्रयोग किए जाने के कारण ही इसे लाटानुप्रास कहा जाता है। इसके लिए काव्यप्रकाश में निम्नलिखित श्लोक उद्धृत किया गया है-
यस्य न सविधे दयिता दवदहनस्तुहिनदीधितिस्तस्य।
यस्य न सविधे दयिता दवदहनस्तुहिनदीधितिस्तस्य।।
अर्थात् जिसके समीप प्रियतमा नहीं है, चन्द्रमा उसके लिए दावानल की तरह हो जाता है और प्रियतमा जिसके पास होती है, दावानल उसके लिए चन्द्रमा की तरह शीतल अर्थात् आनन्ददायक होता है।
हिन्दी की निम्नलिखित कविता इसके उदाहरण के रूप में द्रष्टव्य है-
राम हृदय जाके नहीं, बिपति सुमंगल ताहि।
राम हृदय जाके, नहीं बिपति सुमंगल ताहि।।
इस अंक में बस इतना ही। अगले अंक में अनुप्रासालंकार पर कुछ और चर्चा होगी।

गुरुवार, 27 सितंबर 2012

आंच-120 : चांद और ढिबरी

आंच-120

चांद और ढिबरी

मेरा फोटोमनोज कुमार

मेरा फोटो

जिन्होंने वी.एस.नायपॉल, ए पी जे अब्दुल कलाम, रोहिणी नीलेकनी, पवन के वर्मा सहित कई लेखकों की पुस्तकों का हिंदी अनुवाद किया हो, उनकी साहित्यक सूझ-बूझ को अलग से रेखांकित करने की ज़रूरत मैं नहीं समझता। भारत सरकार में अनुवादक के पद का कार्यभार ग्रहण करने के पहले इन्होंने तीन साल तक प्रिंट मीडिया में काम कर के जीवन की जटिलता को काफ़ी क़रीब से समझने का अनुभव भी प्राप्त किया है। इनका नाम है दीपिका रानी। इस बार की आंच पर हमने इनकी कविता “चांद और ढिबरी” को लिया है। यह कविता इनके ब्लॉग ‘एक कली दो पत्तियां’ पर 20 सितम्बर 2012 को पोस्ट की गई थी।

दीपिका जी के ब्लॉग ‘एक कली दो पत्तियां’ पर पोस्ट की गई कविताएं पढ़ते हुए मैंने महसूस किया है कि कविता के प्रति दीपिका जी की प्रतिबद्धता असंदिग्ध है और उनकी लेखनी से जो निकलता है वह दिल और दिमाग के बीच कशमकश पैदा करता है। इस ब्लॉग पर मैंने यह भी पाया है कि ज़मीन से कटी, शिल्प की जुगाली करने वाली कविताओं के विपरीत उन्होंने सामाजिक सरोकारों के साथ कविताएं लिखी है। “चांद और ढिबरी” भी ऐसी ही एक रचना है।

यह कविता बहुत सरल भावभूमि पर रची गई है। रचना से रचनाकार तक यदि इस आम जुमले को मानकर चलें तो कह सकते हैं कि दीपिका जी भी एक सरल जीवन जीने की अभ्यस्त हैं और ज़मीन से जुड़े होने के कारण ग़रीब और हाशिए पर पड़े लोगों में उनका मन रमता है। साथ ही उनके दुख-सुख हर्ष-विषाद को लेकर अपनी संवेदना को कविता में विस्तार देती हैं। आलोच्य कविता का केन्द्र एक गरीब परिवार है। मां बुधिया, अपनी नन्हीं बच्ची, मुनिया के साथ एक झोंपड़ी में रहती है। बच्ची को अंधेरे से भय लगता है। बच्ची रात को जब डरकर उठती है, तो अंधेरे के कारण उसे मां की दुलार भरी आंखें और उसके माथे की लाल बिंदी नहीं दिखती। वह रो-रो कर अपनी भावना व्यक्त करती है और मां अपने अभाव का अफ़सोस। अपनी बच्ची को तसल्ली देने के लिए बुधिया अपनी झोंपड़ी में रात भर रोशनी रखना चाहती है। रात भर ढिबरी जलाए रखने के लिए उसे पहले से ही अपने अभावग्रस्त जीवन में और भी कई कटौतियां करनी पड़ती है, क्योंकि रात भर ढिबरी में मिट्टी तेल जलने से घर में जरूरत की अन्य चीजों में कटौती हो जाती है। ऐसी परिस्थिति में चांद की रोशनी घर में आ जाने से उसे किसी कृत्रिम रोशनी की जरूरत नहीं होती, और यह छोटी सी बात भी उसके लिए एक बड़ी राहत का सबब होती है। यहां अंधेरा अभावग्रस्त जीवन की ओर संकेत करता है और चांद की रोशनी एक दिलासा, एक वादा, एक सपने की ओर, जो आती तो है लेकिन रोज़ कम होती जाती है और आखिर में एक दिन घुप्प अंधेरा दे जाती है।

दीपिका जी ने “चांद और ढिबरी” में जीवन के जटिल यथार्थ को बहुत ही सहजता के साथ प्रस्तुत किया है। यह कविता किसी तरह का बौद्धिक राग नहीं अलापती, बल्कि अपनी गंध में बिल्‍कुल निजी है। इस कविता में बाज़ारवाद और वैश्वीकरण के इस दौर में अधुनिकता और प्रगतिशीलता की नकल और चकाचौंध की चांदनी में किस तरह अभावग्रस्त निर्धनों की ज़िन्दगी प्रभावित हो रही है, उसे कवयित्री ने दक्षता के साथ रेखांकित किया है।

imagesपरेशान बुधिया

अपनी झोंपड़ी में

रात भर जलाती है ढिबरी

हवाओं से आग का नाता

उसकी पलकें नहीं झपकने देता

रात भर जलती ढिबरी

कटौती कर जाती है

बुधिया के राशन में

कविता का अंत, वर्त्तमान समय के ज्वलंत प्रश्नों को समेट बाज़ारवादी आहटों और मनुष्य विरोधी ताकतों के विरुद्ध एक आवाज़ उठाता है। यह आवाज़ अपनी उदासीनताओं के साथ सोते संसार की नींद में खलल डालती है। कविता का अंत बताता है कि सपने देखने वाली बुधिया की आंखों की चमक और तपिश बरकरार है।

महबूब का चेहरा या

बच्चे का खिलौना नहीं

बुधिया का चांद तो एक ढिबरी है।

बुधिया जैसे लोग हमारे बी.पी.एल. समाज के चरित्र हैं, जो अपने बहुस्तरीय दुखों और साहसिक संघर्ष के बावजूद जीवंत है। इस कविता में ममतामयी मां के लिए बेटी की खुशियां मायने रखती हैं, उसका अपना अर्थशास्त्र नहीं, अपनी अन्य ज़रूरतें नहीं। यही जज़्बा उन्हें जीवन्त बनाए रखता है।

जब चांद की रोशनी

उसकी थाली की रोटियों में

ग्रहण नहीं लगाती

सोती हुई मां की बिंदी में उलझी मुनिया

खिलखिलाती है

इस कविता में त्रासद जीवन की करुण कथा है जिसमें कथ्य और संवेदना का सहकार है। कवयित्री ने ग़रीबों के जीवन के दुख की तस्वीर और आम जन की दुख-तकलीफ को बड़ी सहजता के साथ सामने रखा है। यह कविता अभावग्रस्त लोगों की दुनिया की थाह लगाती है। इसमें मां की ममता और निर्धनता का द्वन्द्व नहीं, स्पष्ट विभाजन है, जहां ममता के आगे सब कुछ पीछे छूट जाता है।

पारसाल तीज पर खरीदी

कांच की चूड़ियां भी

बस दो ही रह गई हैं।

चूड़ियों की खनक के बगैर

खुरदरी हथेलियों की थपकियां

मुनिया को दिलासा नहीं देतीं

यह एक ऐसी संवेद्य कविता है जिसमें हमारे यथार्थ का मूक पक्ष भी बिना शोर-शराबे के कुछ कह कर पाठक को झकझोर देता है। इस कविता की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इनमें ‘सामाजिक-बोध’ को यथार्थवादी ढंग से चित्रित करने का प्रयास दिखाई देता है। कवयित्री का दृष्टिकोण रूमानी न होकर यथार्थवादी है। इन्होंने साधारण जनता की बदहाली को किताबी आँखों से नहीं, बल्कि यथार्थ-बोध की आँख से अनुभव किया है।

काजल लगी बड़ी बड़ी आंखें

जब अंधेरे से टकरा कर लौट जाती हैं

मां के सीने से लगकर भी सोती नहीं

अंधेरी रातों में

कितना रोती है मुनिया

इस कविता को पढ़ने के बाद मुझे यह लगा कि इन मुद्दों पर लिखने की ज़रूरत है। हम सब मानते हैं कि समाज और संसार न्यायसंगत नहीं है। आम आदमी सामाजिक, राजनैतिक, प्रशासनिक व्यवस्था की चक्की के नीचे पिसता जा रहा है। इन मुद्दों को नज़रंदाज़ कर हवाई कविताएं लिखना भी उचित नहीं है। इसलिए जो है उससे बेहतर चाहिए, तो हमें इन मुद्दों को उठाना ही होगा, ताकि परिवर्तन आए। इस सहज-सरल कविता की अंतर्ध्वनियां देर तक और दूर तक हमारे मन मस्तिष्क में गूंजती रहती है। जीवन के बुनियादी मुद्दों पर केंद्रीत यह कविता हमें विचलित तो नहीं करती पर, यह सोचने के लिए बाध्य ज़रूर करती है कि अपने आसपास की जिंदगी से सरोकार रखने वाली इन स्थितियों के प्रति क्या हम असंवेदनशील हैं? मुझे लगता है कि इस कविता की धमक दूर तलक जाएगी।

सोमवार, 24 सितंबर 2012

बंजारा सूरज

बंजारा सूरज 

श्यामनारायण मिश्र



किसे पता था सावन में भी
लक्षण होंगे जेठ के
आ बैठेगा गिद्ध सरीखे
मौसम पंख समेट के

बंजारा सूरज बहकेगा
पीकर गांजा भंग
जंगल तक आतंकित होगा 
देख गगन के रंग
स्वाती मघा गुजर जायेंगे
केवल पत्ते फेंट के

नंगी धरती धूल 
ओढ़ने को होगी मजबूर
कुदरत भूल जायेगी
सारे के सारे दस्तूर
चारों ओर दृश्य दीखेंगे
युद्ध और आखेट के

आंखों के आगे अब
दुनिया जली जली होगी
बिकने को मजबूर
जवानी गली गली होगी
नंगे चित्र छपेंगे पन्ने 
पन्ने खाली पेट के

शनिवार, 22 सितंबर 2012

फ़ुरसत में ... तीन टिक्कट महा विकट

फ़ुरसत में ... 110

तीन टिक्कट महा विकट

मेरा फोटोमनोज कुमार

हमारे प्रदेश में एक कहावत काफ़ी फ़ेमस है – तीन टिक्कट, महा विकट। इसका सामान्य अर्थ यह है कि अगर तीन लोग इकट्ठा हुए तो मुसीबत आनी ही आनी है। ऐसे ही कोई कहावत कहावत नहीं बनता है। कोई-न-कोई वाकया तो उसके पीछे रहता ही होगा। करण बाबू तो इसी पर एक श्रृंखला चला रहे थे .. आजकल उसे अल्पविराम दिए हैं। अब तीन टिकट महा विकट का भी ऐसा ही कोई न कोई वाकया ज़रूर होगा। जैसे तीन दोस्त ट्रेन से जाने के लिए निकले तीन टिकट लिया और गाड़ी किसी नदी पर से गुज़र रही थी, तो इंजन फेल हो गया; तीन टिकट लेकर तीन जने किसी बस से निकले, सुनसान जगह में जाकर उसका टायर बर्स्ट हो गया। तीन टिकट लेकर ट्राम में बैठे कि उसको चलाने वाली बिजली का तार टूट जाए। किस्सा मुख़्तसर ये कि तीन के साथ कोई न कोई बखेड़ा होना लिखा ही है।

जब घर से तीन जने निकलते, तो कोई न कोई टोक देता कि तीन मिलकर मत जाओ, तो दो आगे एक पीछे से आता, या एक आगे, दो पीछे से आते। एक मिनट-एक मिनट!!!! अरे हम इतना तीन तीन काहे किए हुए हैं, आप भी सोच में पड़ गए होंगे। अजी आज रात के बारह बजे हम भी तीन पूरे कर रहे हैं, पूरे तीन साल इस ब्लॉग जगत में। हो गया न हमारा भी तीन का फेरा। तो हमारे इस ‘मनोज’ ब्लॉग का भी तीसरा टिकट कट गया ना। अब तीन का टिकट आसानी से तो नहीं ही कटना था। विकट परिस्थिति को महा-विकट होना ही था ... देखिये हो ही गया। ‘फ़ुरसत में’ तो हैं हम, लेकिन कुछ लिखने का फ़ुरसत नहीं बन रहा, ‘आंच’ लगाते हैं, तो अलाव बन जाता है। स्मृति के शिखर पर आरोहण में बहुत कुछ विस्मृत और गुप्त-सा हो चला है। क्या बधाइयां, क्या शुभकामनाएं, सब व्यर्थ लगता है। तीन साल इस ब्लॉग-जगत में अपना सर्वश्रेष्ठ देते-देते हमारे लिए भी ‘तीन टिक्कट - महा-विकट’ वाली स्थिति हो गई है।

तीन पूरे हुए ! अब तो चौथ है !

तीन पूरे हुए,

अब तो चौथ है!

सोचता हूँ

कैसा ये एहसास है?

या कोई पूर्वाभास है?

 

आज फिर

फ़ुरसत में

फ़ुरसत से ही

लिखने बैठा हूं,

सीधा नहीं

पूरी तरह से ऐंठा हूं

इतने दिनों के बाद

फिर से ब्लॉग पर लिखना लिखाना

आने वाली चौथ का आभास है?

मैं सोचता हूँ

कैसा ये एहसास है?

या कोई पूर्वाभास है?

 

चींटियों को भी तो हो जाता है

अपनी मौत से पहले

ही अपनी मौत का आभास

मानो उम्र उनकी आ चुकी है

खत्म होने के ही शायद आस-पास।

 

उस समय जगती है उनकी प्रेरणा

कि ज़िन्दगी के दिन बचे हैं जब

बहुत ही कम

तो हो जाती हैं आमादा

वे करने को कोई भी काम भारी

और भी भारी

है ताज्जुब

चींटियां अपनी उमर के साथ

कैसे हैं बदलतीं काम अपने

और बदलतीं काम की रफ़्तार को भी!

 

चींटियाँ...

ये नाम तो सबने सुना ही होगा

पड़ा होगा भी इनसे वास्ता

चलते गली-कूचे, भटकते रास्ता.

लाल चींटी और कभी

काली सी चींटी

काट लेतीं और लहरातीं

खड़ी फसलें, कभी सब चाट जातीं

या घरों में बंद डिब्बों में भी घुसकर

सब मिठाई साफ़ कर जातीं हैं पल में

 

किन्तु हर तस्वीर का होता है

कोई रुख सुनहरा

चाटकर फसलों को ये

करती परागण हैं

जो फसलों को सहारा भी तो देता है.

 

यह ‘हिमेनोप्टेरा’

ना तेरा, न मेरा

सबका,

सामाजिक सा इक कीड़ा

इसे कह ले कोई भी

राम की सीता, किशन की मीरा

या जोड़ी कहे राधा किशन की

धुन की पक्की,

सर्वव्यापी स्वरूप उसका

गृष्म, शीतल, छांव, चाहे धूप

जंगल गाँव

पर्वत, खेत या खलिहान

भूरी, लाल, धूसर, काली

छोटी और बड़ी,

बे-पर की, पंखों वाली

दीवारों दरारों में

दिखाई देती है बारिश के पहले,

और वर्षा की फुहारों में

कभी मेवे पे, या मीठे फलों पर

दिख भी जाते हैं ज़मीं पर,

और पत्तों पर,

नहीं तो ढेर में भूसे के

डंठल में यहां पर

या वहां पर

बस अकेले ही ये चल देती हैं

और बनता है इनका कारवां.

बीज, पौधों के ये खाती हैं

कोई फंगस लगी सी चीज़ भी

खाती पराग उन फूल के भी

फिर मधु पीकर वहाँ से भाग जातीं

 

कितनी सोशल हैं,

कोलोनियल भी हैं

चाहे कुछ भी कह लें

किन्तु यह प्राणी ओरिजिनल हैं

ज़मीं के तल में

अपना घोंसला देखो बनाती

अलग हैं रूप इन कीटों के

इनके काम भी कैसे जुदा है

बांझ मादा को यहाँ कहते हैं ‘वर्कर’,

और बे-पर के सभी हैं ‘सोल्जर’

दुश्मन के जो छक्के छुड़ातीं

कोख जिनकी गर्भधारण को हैं सक्षम

‘रानी’ कहलातीं हैं

न्यूपिटल फ़्लाइट में

“प्रियतम” का अपने

मन लगाती, दिल भी बहलाती!

 

छिडककर फेरोमोन वातावरण में

वे प्रकृति की ताल पर

करती थिरककर नाच

अपने ‘नर’ साथी को जमकर लुभाती.

जो मिलन होता है न्यूपिटल फ़्लाइट में

बनता है कारण मौत का

उसके ही प्रियतम की

औ’ रानी त्यागकर पंखों को अपने

शोक देखो है मनाती

साथ ही वो देके अंडे

इक नयी दुनिया बसाती है

ऐसे में वर्कर भी आ जाती

मदद को

सोल्जर भी करतीं रखवाली

अजन्मे बच्चों की

कितने जतन से.

और उधर रानी को जो भी ‘धन’ मिला नर से

उसे करती है संचय इस जतन से

जिसके बल पर

देती रहती है वो

जीवन भर को अंडे

रूप लेते है जो फिर

चींटी का.

 

कैसे चीटियां

अपनी बची हुई आयु का कर अनुमान

करती हैं बचा सब काम

अंदाजा लगाकर मौत का

हो जाती हैं सक्रिय

 

निरन्तर अग्रसर होती हैं

अपने लक्ष्य के प्रति

और लड़ती है सभी बाधाओं से

टलती नहीं अपने इरादे से

नहीं है देखना उनको पलटकर

और न हटना है कभी पथ से

उन्हें दिखता है अपना लक्ष्य केवल!!

लक्ष्य केवल लक्ष्य, केवल लक्ष्य..!!

 

लक्ष्य भी कितना भला

कि ग्रीष्म ऋतु में ही

जमा भोजन को करना

शीत के दिन के लिए पहले से!

ताकि उस विकट से काल में

ना सामना विपदा से हो!

मालूम है उनको

समय अच्छा सदा रहता नहीं है

दुख व संकट का सभी को सामना

पड़ता है करना.

 

चींटियां

देतीं हैं नसीहत हैं

बुरा हो वक़्त फिर चाहे भला हो

हम भला व्यवहार अपना क्यों बिगाडें

सीख देती हैं

कि निष्ठा से, लगन से

काम की खातिर रहें तैयार

हर हालात से लड़कर

 

हमें देती हैं वे यह ज्ञान

जब संतोष धन आये

तो सब धन है ही धूरि समान

कैसे जब उन्हें शक्कर मिले तो

ढेर से वो बस उठातीं एक दाना

छोड़ देती हैं वो बाकी दूसरों के नाम.

समझातीं है हमको

उतना ही लो जितना तुमको चाहिए

क्षमता तो देखो अपनी तुम

संचय से पहले!

 

चींटियां

कहती हैं हमसे

जो कमी है, दूर उसको कर

जिसे पाना है उसको पा ही लेने की

करो कोशिश

सभी बाधाएं खुद ही ढेर हो जायेंगी

चूमेगी तुम्हारे पाँव खुद आकर

सफलता, कामयाबी!!!

***

बुधवार, 19 सितंबर 2012

स्मृति शिखर से – 24 : डढ़िया वाली


 - करण समस्तीपुरी

उसका नाम मुझे नहीं मालूम लेकिन पूरा गाँव नहीं तो कम से कम दो-चार टोले में वह इसी नाम से प्रसिद्ध थी। हमारे टोले के सभी घरों में उसका आना-जाना था। जमींदारों के दरबार भी जाती रहती थी। मैंने उसे जब से देखा वह वृद्धा ही थी। लंबा कद था, सफ़ेद बाल, गेहुआँ रंग। गले और और बाजुओं में गोदना। वह एक करुणामयी, कर्मठ और अनुशासित महिला थी। थोड़ा ऊँचा सुनती थी मगर कोई बहिरी कह दे और उसने सुन लिया तो जुबान खींच लेने को आतुर।

मेरी दादी कहती थी किसी जमाने में उसका परिवार बड़ा समृद्ध था। डढ़िया वाली के देह पर गोदने की जगह स्वर्णाभूषण लदे होते थे। पति की बीमारी और फिर मृत्यु ने उसके शृंगार के साथ-साथ समृद्धि भी छीन लिया था। निश्छल महिला क्या जाने इस जग की रीति! बची-खुची संपत्ति सहानुभुति देने वाले लेते गए। एक पुत्र था जिसे बड़ा होने पर महज एक पक्का घर और कुछ कट्ठे जमीन विरासत में मिली किन्तु माँ की करुणा और संघर्ष का मोल तो दूर सम्मान भी न कर सका। न तो वह माँ को कोई कष्ट देता ना ही माँ को उससे कोई कष्ट था फिर भी बीच में एक भाजक रेखा थी जिससे माँ की ममता और और संतान का कर्तव्य दो पाटों में बँट जाता था। बेटा पहले रिक्शा चलाता था। गाँव में ही। माँ को खुशी थी। प्रातः-सायं मेहनतकश बेटे को देख छाती शीतल हो जाती थी। इधर जिस गति से परिवार बढ़ रहा था उसी गति से संसाधन घट रहे थे। बेचारा दिल्ली चला गया।

पृष्ठभूमि कोई हो, कुछ परंपराएँ, कुछ रुढियाँ, कुछ किंवदन्ति भारत के हर घर की सच्चाई है। शायद ‘सास-बहू’ संबंध भी इनमें से एक है। डढ़ियावाली का घर भी इसका अपवाद नहीं था। जब आत्मज ने नहीं समझा तो...! कभी-कभी आँखें नम हो जाती थीं किन्तु जर-शरीर से भी ममता का वही सोता कल-कल बहता था जो अमूमन किसी भी माँ में होता था। बेटे के बाद पोते-पोतियाँ को खाने-पीने का दुख न हो, इसलिए वह टोले के कुछ घरों में काम करने लगी थी। हमारा घर भी उनमें से एक था।

वह उस समय से हमारे घरों में आने लगी थी जब गाँव में जल की आपूर्ति कुएँ और तालाबों से होती थी। सुबह-सुबह कुएँ से पाँच-सात घरों में घड़ा भर-भर पानी पहुँचाने के बाद कुछ घरों में घर-आँगन भी बुहार आती। चौका-बरतन का काम उसके बाद होता था। बाद में घर-आँगन में चापा-कल हो जाने से बूढ़ी को भी कुछ आराम हुआ था। वैसे अवस्था बढ़ने के साथ-साथ शरीर का बल भी जाता रहा था।

बाद के दिनों में वह कुछेक घरों में ही जाती-आती रही थी। मेरी दादी और माँ से उसे कुछ अतिरिक्त स्नेह था। फलस्वरूप मुझ तीनों भाईयों से भी। थी वह दादी की उमर की ही मगर दादी को चाची बोलती थी। कभी-कभी लड़ भी लेती थी। अनुचित बात कभी भी किसी की भी नहीं सहती थी। काम-काज के बाद जब माँ उन्हें ‘खाना’ देने लगती तो वह रसोईघर में जा बर्तनों से ढक्कन हटाकर देख लेती थी कि उसमें हम तीनों भाइयों के दोहराने के लिए पर्याप्त भोजन बजा हुआ है या नहीं। यदि कम लगता तो अपने हिस्से से निकलवा देती और कभी-कभार तो बिल्कुल भी नहीं लेती थी, माँ के लाख जिद के बावजूद।

दरबार के जमींदार के घर भी जाती थी। संपन्नता से विपन्नता का विषरस पी रही वृद्धा का ईमान जाँचने की गरज से उन्होंने घर में कुछ आभूषण और नगदी बिखरे छोड़ दिए थे। डढ़ियावाली सारे घरों की झार-बुहार करने के बाद उन आभूषणों और नगदी गृहस्वामीनी को देते हुए बिफ़र पड़ी, “हूँ....! सब समझती हूँ मैं। आप जमींदारों के बटुए में भी एक टुक सुपारी न मिले और गहने-पैसे बिछौना पर बिखरे रहेंगे...? सब समझती हूँ...। आप मेरा ईमान जाँच रहे थे। अरे जब भगवान का दिया अपना सर से पैर तक का गहना नहीं रहा तो किसी के घर चोरी किए क्या रहेगा....!” बुढ़िया पैर पटकती हुई चली आई थी। लाख बुलावे के बाद भी उनके द्वारे कभी पैर नहीं दिया फिर।

डढ़िया, उसका मायके था। मेरे गाँव के पास ही पड़ता है। रेवाड़ी ढ़ाला चौक के उस पार। बूढ़ी जब भी नैहर जाती तो मेरी माँ से जरूर मिल कह जाती कि ज्यादा दिन नहीं रहेगी वहाँ। दादी के पैर छू जाती। वापसी में पैदल आये तो आये मगर जो भी पैसे हों उनमे से अपने पोते-पोतियों के लिए एक और हम तीनों भाइयों के लिए पाँवरोटी का तीन डब्बा जरूर लाती थी।

एक बार सन्नीपात के संक्रमण से मैं बहुत अधिक बीमार पड़ गया था। चालिस-पैंतालिस दिनों तक तेज ज्वर रहा। डढ़ियावाली सबका काम-धाम छोड़ हमारे घर ही बैठी देवी-देवताओं को गोहराती रही थी। कई ओझा और भगतीन के घरों के चक्कर भी लगा आई थी। बड़ी स्नेह-वत्सल थी। हमारे उपनयन में अतिथियों की भीड़ थी। संभालने के लिए उसकी भतीजी को भी बुला लिया था माँ ने। बुढ़िया गुस्सा गई। “ऐं...! हमरा बौआ सबके जनेऊ है और हम इतना भी काम नहीं कर सकते हैं?” सारा काम भाग-भाग कर करती रही थी। माँ की दी हुई नई साड़ी पहन कर बड़ी खुश हुई थी।

बेटे-बहू, पोते-पोतियाँ सब दिल्ली चले गए थे। डढ़िया वाली नहीं गई। जिंदगी के चौदह आने जिस मिट्टी में कट गए, जो अपने सभी सुख-दुःख का गवाह रहा उसे छोड़ कहाँ जाएँ! जीए यहाँ, मरने के लिए दिल्ली जाएँ!!” उसके अपने तर्क थे। गाँव में तो नहीं, अपने घर में अकेली रह गई। जब तक शरीर चला निर्वाह हुआ। जब अशक्त हो गई तो लादकर ले गए। बेचारी एक साल भी न रह सकी दिल्ली में। सर्दी ऐसी पड़ी कि लकवा मार गया। बेटा लाकर गाँव में छोड़ गया। बहू रह गई थी “सेवा” करने के लिए।


साल में तीन बार हमारे यहाँ घरी पावनि हुआ करता है। कुल-देवता को खीर-पूरी चढ़ाया जाता है। इतने दिनों में उसे तीनों घरी की तिथि याद हो गई थी। चँद्र टरै, सूरज टरै मगर बुढ़िया उस रात खाना नहीं खाती तब तक जब तक हमारे घर से कोई उसके लिए खीर-पूरी लेकर न जाए। डढ़िया वाली का इंतजार और उसकी बहू के व्यंग्य-वाण साथ-साथ चलते रहते थे...! जब माँ खाने में कुछ विशेष पकाती तो हमारे हाथों डढ़ियावाली के लिए भिजवा देती थी। मैं ज्यादातर जाने से कतराता था। मुझे उसे देखकर बड़ा दुख होता था। एक तो बुढ़िया रोने लगती थी और दूसरी उसकी दुरावस्था। बेचारी निर्धनता में भी साफ़-सफ़ाई का बड़ा ख्याल रखती थी और उस अवस्था में वह... मल-मूत्र के साथ घंटो खाट पर पड़ी रहती।

हर रविवार की भाँति पिताजी देखने गए थे। इस बार बहू की चिक-चिक नहीं दहारें गूँज रही थी। डेढ़ साल खाट पकड़ने के बाद बुढ़िया परलोक सिधार गई थी। मैंने बहुत दिनों बाद उसे देखा था। उसे नहीं उसके मृत शरीर को। बाहर पड़ी थी। शायद बाहर आकर ही मरी थी। बहू अलाप में रो-रो कर बता रही थी, रात के अंतिम पहर बुढ़िया उससे झगड़ा कर लकवाग्रस्त शरीर को बाहर घसीट लाई थी। आगे प्राण-पखेरू साथ न दिए।

सोमवार, 17 सितंबर 2012

करता छाया धूप एक जो धरती उसकी है

करता छाया धूप एक जो धरती उसकी है
श्यामनारायण मिश्र


सदियों  से  चलते  झूठे  बैनामे  और  बही
पुरखों ने खातों की ब्याही धरती कभी नहीं
तीसों दिन बारहों महीना
एक करे जो ख़ून पसीना
करता छाया धूप एक जो
धरती उसकी है
खेती नहीं शहर के तुन्दियल सेठों का धन्धा
छोटी   मेड़ें  तोड़  बनालो  एक  बड़ा  बन्धा
धोकर  सारे  मन  का  मैल
नाथ लो गांव  भरे का बैल
जो समूह में खड़ा हो गया
शक्ति उसकी है

गा-गा रोपो धान निराओ गा-गाकर क्यारी

पेड़  मचान  तले  कलेऊ  घर  में हो ब्यारी
ओ ! मेहनत कश बीवी बहना
सीख गया जो मिलकर रहना
अन्न्पूर्णा    गोद   ख़ुशी   से
भरती उसकी है

बुधवार, 12 सितंबर 2012

स्मृति शिखर से - 23 : मेरे जीवन का एक दिन


- करण समस्तीपुरी
अपने देश में सितंबर मास की एक विशेषता यह है कि राष्ट्रीय संस्कृति जीवंत हो उठती है। पहले शिक्षक-दिवस फिर हिन्दी-दिवस। दोनों का मेरे जीवन में महत्वपूर्ण स्थान है। मेरे सभी शिक्षकों का मेरे जीवन और चरित्र निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान रहा है। माता-पिता के उपरांत अध्यापकों का ऋण ही है जिससे कभी उॠण नहीं हुआ जा सकता। मैं अपने सभी गुरुओं को सादर नमन करते हुए हिन्दी देवी को स्मरण करता हूँ।

हमारे गाँव के विद्यालयों में शिक्षा हिन्दी-माध्यम से होती है। किन्तु मुझे हिन्दी में सुलेख और शुद्ध-लेखन की महिमा का ज्ञान प्राप्त हुआ एक विज्ञान-शिक्षक से। अंसारी बाबू। नाम तो पढ़ा ही होगा पिछले अंक में। बड़े ही सुहृद शिक्षक थे। तदोत्तर माध्यमिक कक्षाओं में श्री गणेश बाबू और ठाकुर जी जैसे शिष्य-वत्सल अध्यापकों का सानिध्य मिल गया। ठाकुरजी उस वित्तरहित उच्च विद्यालय के प्रधानाचार्य थे और गणेश बाबू हिन्दी के अध्यापक।
उपर्युक्त अध्यापक-द्वेय की अध्यापन शैली बड़ी रोचक है। श्रीवर ठाकुरजी ज्ञान के अक्षय-कोष हैं। रेवाखंड में उनकी प्रतिष्ठा एक ऐसे लोकप्रिय संपूर्ण शिक्षक की है जिन्हें कला एवं साहित्य विषयक सभी संकायों में निपुणता प्राप्त है। उनके पाठन-शैली की सबसे बड़ी विशेषता थी उसकी जीवंतता। वे सिर्फ़ विषयगत ज्ञान तक ही सीमित नहीं रहते थे। विषयानुसार वे वेद, उपनिषद, स्मृति, शे’र-ओ-शायरी, ग़जल, लोकगीत, लोक-संस्कृति यहाँ तक कि फिल्मी गानों तक के पुट देते रहते।

गणेश बाबू का शिक्षण-शिल्प अभिनयात्मक था। वे किसी पाठ के वाक्यों को नाटकों के संवाद की तरह बोलते थे। रचना और रचनाकार की पृष्ठभूमि, एक-एक अंश के शाब्दिक अर्थ, भावार्थ, काव्य-तत्व, साहित्यिक मर्म तक का परिचय करवा देते थे। विशेषतः भक्तिकालीन कवियों को पढ़ाते हुए उन्होंने मेरे अंदर हिन्दी साहित्य के लिए जो अनुराग उत्पन्न कराया कि फिर मैं उससे अलग कभी नहीं हो पाया। महाविद्यालय में विज्ञान के मोह ने घेरा अवश्य था किन्तु साहित्य के आवेग ने शीघ्र ही मुक्ति दिला दी।

स्नातक-स्नातकोत्तर कक्षाओं में भाषा, साहित्य, साहित्यिक विधा, साहित्यकार, रस-अलंकार, आलोचना, समीक्षा, भाषा- विज्ञान यही सब होता रहा। मैं आरंभ से ही कुछ कल्पनाजीवी रहा हूँ। वास्तविक संसार से अलग भी मेरा एक संसार है, जिसमें मैं सांसारिक दायित्वों से विलग उन्मुक्त विचरण करता रहता हूँ। कभी-कभी उसी कल्पनालोक से फूट पड़ती है कोई काव्य-किरण या कथाधारा। कभी कोई हास्य। तीस बसंत पार करने के बावजूद मेरा कल्पनालोक बालावस्था की तरह चंचल है। इसमें अक्सर निरर्थक और उटपटांग विचार भी आते रहते हैं।
पाँच-सात वर्षों तक साहित्य-साहित्यकारों को घोंट-घोंट कर पीता रहा किन्तु एक लालसा कल्पनालोक में ही पूरी हो पाती थी। लालसा यह जानने की कि साहित्यकार भला अपने वास्तविक जीवन में होते कैसे हैं? क्या उनमें कोई परामान्विक शक्ति होती है? या वे भी हमारी तरह हमारे ही समाज के सामान्य प्राणी हैं? पुस्तकों में इतनी अच्छी-अच्छी बातें लिखने वाले क्या बोलते भी वैसे ही हैं? क्या किताबों के वही आदर्श उनके व्यावहारिक जीवन में भी होते हैं? आदि-आदि। ये सभी प्रश्न या तो अनुत्तरित रह जाते अथवा मेरी कल्पना ही उसका कुछ मनपसंद उत्तर गढ़ लेती।

धीरे-धीरे कविता-कहानी लिखने की प्रक्रिया बढ़ी तो कुछ परिचितों ने हास्य के लिए, कुछ ने उपहास के लिए और कुछ ने उत्साह के लिए मुझे भी ‘साहित्यकार’ कहना शुरु कर दिया। मैं बड़ी दुविधा में पड़ जाता। एक बात और रही है कि मैं अपने आचरण के प्रति बड़ा सजग रहता हूँ। मैं अभी तक स्वयं को हिन्दी साहित्य का महज एक विद्यार्थी ही समझता हूँ किन्तु तभी बड़ी कठिनाई हो जाती थी। मैं सोचता चलो कहने वालों का मान रखने के लिए ही सही किन्तु साहित्यकार सुलभ आचरण तो कर लूँ। लेकिन मुश्किल ये कि मैं ने किसी साहित्यकार को देखा ही नहीं था। उनका आचरण भला क्या जानता! जीवन अपने रास्ते बढ़ता गया।

पत्रकारिता के क्षेत्र में आने के बाद कुछ ऐसे लोगों से भेंट अवश्य हुई जिनमें साहित्य के लिए अनुरक्ति थी और कुछ ऐसे लोग भी मिले जो स्वनाम पर एकाध पुस्तकों का ‘जुगाड़’ लगा स्वयं पर साहित्यकार का लेबल चस्पा कर पब्लिसीटी पाने का कोई अवसर नहीं गँवाना चाहते थे। शायद उस क्षेत्र में रहता तो किसी सच्चे साहित्यकार से भी भेंट हो ही जाती। किन्तु नैतिक विवशता नें पत्रकारिता से मोहभंग करवा दिया और व्यवसायिक एवं पारिवारिक दायित्वों ने उस ‘लालसा’ को निद्रासन दे दिया।

सन 2009 में चाचाजी (मनोज कुमार) हिन्दी का ब्लाग आरंभ कर मेरी लेखनी में भी स्याही भरने लगे। जीवन एक बार फिर व्यवसायिक राजपथ के समांतर उन्ही पुरानी पगडंडियों पर भागने को मचलने लगा। काव्य-प्रसून, कथांजलि, देसिल-बयना, आँच, फ़ुर्सत में, काव्यशास्त्र...! वह लालसा फिर जग गयी। साहित्यकार को देखने की लालसा। साहित्यकार से मिलने की लालसा। उन्हें स्पर्श कर यह निश्चित कर लेने की लालसा कि वे भी इसी समाज के स्थूल प्राणी ही हैं। किन्तु ये प्राणी मिलेंगे कहाँ? यह प्रजाति या तो तेजी से विलुप्त होती जा रही है या कुकुरमुत्ते की तरह ऐसे उग रही है कि भ्रम चहुँ दिश। जो नामचीन हैं वहाँ तक पहुँचना दुर्लभ और जिनका नाम नहीं है उनकी पहचान कठिन।
कुछ मेरी भी बात ...
मित्रों!
जब ब्लॉगिंग में पहला कदम रखा था, तो कल्पना भी नहीं की थी कि यह सफर एक हज़ारवीं पोस्ट तक पहुँच जाएगा। पर आज यह सपना सच हुआ। आपके प्रोत्साहन की ऊर्जा हमें मिलती रही और हम निरंतर आगे बढ़ते रहे। लगभग तीन साल पहले इसी महीने में इस ब्लॉग पर पहली पोस्ट प्रकाशित की गई थी और आज हम हाज़िर हैं हज़ारवीं पोस्ट के साथ। हमें इस बात का संतोष है कि हमने एक भी ऐसी पोस्ट नहीं प्रकाशित की जिससे ब्लॉग जगत की मर्यादा को सामान्यतः और किसी ब्लॉगर को विशेषतः क्षति पहुंचती हो।
इस ब्लॉग की कई रचनाओं को विभिन्न मंच, साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में स्थान प्राप्त हुआ। ... और आज हज़ारवीं पोस्ट तक आते-आते इस ब्लॉग की रचनाओं को जो सम्मान मिला है उसने हमारा मनोबल काफ़ी बढ़ाया है और हमें आत्मसंतुष्टि प्रदान की है। ऐसे में इसी ब्लॉग पर स्व. आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री से हमारी भेंट-वार्ता की पांच अंकों की श्रृंखला का “अलोचना” जैसी प्रतिष्ठित सहित्यिक पत्रिका, जिसके प्रधान संपादक डॉ. नामवर सिंह हैं, के ताज़े अंक (पैंतालीस) में स्थान मिलना एक बड़ी उपलब्धि है।
जहाँ यह अवसर हमारे लिए गर्व और उत्साह का है वहीं एक उत्तरदायित्व के बोध का भी है. अतःहम और अधिक जिम्मेदारी के साथ इस ब्लॉग जगत में अपनी भूमिका निभाते रहें, इस प्रण के हम अपनी पूरी टीम के सदस्य सर्व श्री परशुराम राय, हरीश गुप्त करण समस्तीपुरी और सलिल वर्मा के साथ आपके स्नेह और प्रोत्साहन की आकांक्षा रखते हैं! - मनोज कुमार


उन्हीं दिनों प्रादेशिक समाचार पत्र के अंतर्जालीय प्रारूप में एक दो-चार पंक्तियों की खबर पढ़ी। दर्जन भर पशु-पक्षियों के पालन-पोसन हेतु हिन्दी के प्रख्यात कवि आचार्य जानकीबल्लभ शास्त्री को अपने घर के जमीन का एक हिस्सा ‘फिर’ बेचना पड़ा। उनकी कविता पढ़ी थी नवम या दशम कक्षा में। ‘किसने वह बाँसुरी बजाई’। मन बरबस उस बाँसुरी के स्वर को ढुँढने लगा। यूँ तो आचार्य जी रहते हमारे पास के शहर मुजफ़्फ़रपुर में ही थे किन्तु उनसे मिलने की योजना सुदूर दक्षिण भारतीय शहर बंगलोर में आने के बाद बनी। छठ-पूजा में घर जाना निश्चित हुआ। चाचाजी (इस ब्लाग के व्यवस्थापक) से बात हुई तो उन्होंने तत्क्षण अनुमति, सहमति और साहचर्य का भरोसा दे दिया।

नवंबर 2010, हम सभी लोग गए मुजफ़्फ़रपुर। चाचाजी का आरंभिक जीवन उसी शहरclip_image001 में बीता था किन्तु कथित विकास के बयार ने अपने शहर को भी अजनबी कर दिया था। एक छोटे से संघर्ष के बाद ब्रह्मपुरा रेलवे कालोनी के अपने उस निवास को ढ़ूंढ पाए जिनमें उनका बचपन, तरुनाई और छात्र जीवन बीता था। भावुक हो गए थे। भावनात्मक स्मृतियों का एक युग साथ आई चाचीजी के आँखों से भी गुजर गया था। दुल्हन बन कर पहली बार उसी घर में जो आई थीं।

चाचाजी हम सभी को बताने लगे कि तब जहाँ और जिस चौकी पर हम बैठे थे वहीं और उसी तरह की एक चौकी पर बैठ उन्होंने प्राथमिक से स्नातकोत्तर तक की पढ़ाई और फिर सिविल-सेवा की तैय्यारी भी आरंभ किया था। भावनाओं के आवेग ने कंठ तो अवरुद्ध कर ही दिया था चाचाजी की पनियाई आँखें भी कुछ खोज रही थी, शायद चौकी से लगा रहने वाला वह मेज जिस पर उनकी किताबें और केरोसिन से जलने वाली लालटेन रहा करते थे।
उसी शहर में आचार्य जानकीबल्लभ शास्त्री भी रहते थे। ‘चतुर्भुज-स्थान’ के पास। उस स्थान की विसंगति देखिए कि भगवान विष्णु के नाम पर बसा मुहल्ला उत्तर बिहार के सबसे बड़े ‘रेड-लाइट’ एरिया के रूप में जाना जाता है। रामबाग रोड से होकर जाना पड़ता है। रामबाग...! चाचाजी की आँखों में यादों का एक दौर उमर आया था। इसी रास्ते पर तो जिला स्कूल हुआ करता था... उनकी माध्यमिक शिक्षा का मंदिर।

प्रगति की तेज गति ने शहर के यातायात की गति को अत्यंत ही मंद कर दिया। उस पर से तुर्रा यह कि हवाई-पुलों ने आने और जाने वाली सड़कों को भी बाँट दिया था। बड़े संघर्ष के बाद हम आचार्य जानकी बल्लभ शास्त्री जी का घर खोज पाए। ‘निराला-निकेतन’। एक बड़े से नीले काष्ठ-फ़लक पर सफ़ेद अक्षरों में अंकित था। सिर किसी तीर्थ सी श्रद्धा से नत हो गया। मुख्य-द्वार से कोई बीस मीटर की दूरी पर बने दो-मंजिला भवन के देहरी में बिछी चौकी पर आचार्य जानकीबल्लभ शास्त्री विराजमान थे। कृषकाया पर आधे बाँह की बनियान और कमर से नीचे धोती लपेटे। शरीर का निम्नार्ध पक्षाघात से शून्य हो चुका था।

प्रांगण में अनेक गाएँ और बैल बँधे थे। उनमें से कुछ खा और कुछ पगुरा रहे थे। clip_image001[5]कुत्ते-बिल्लियों की निर्भय अठखेलियाँ चल रही थी। कुत्ते-बिल्लियों के बच्चे साधिकार आचार्यजी की गोद में, काँधे पर, सिर पर, विछावन पर खेल रहे थे। शास्त्रीजी कभी उन्हे सस्नेह सहलाते और कभी सामने पड़े बिस्किट के डब्बे से बिस्किट तो कभी कटोरे में भर-भर कर दूध पिलाते थे। मानवेत्तर प्राणियों के लिए एक महामानव के हृदय में इतनी सदय संवेदना देखकर मन श्रद्धावनत हो गया।

सच में वह निराला-निकेतन था। आचार्यजी के अनुसार निराला-निकेतन के दरबाजे सबके लिए खुले थे। चाहे वह मनुष्य हो, पशु-पक्षी या कोई। जो चाहे, आए, रहे। वे किसी को भगाएँगे नहीं, जाने को नहीं कहेंगे। उस परिसर के अंदर जो भी आए उसका भोजन और आश्रय देना शास्त्रीजी के कर्तव्यों में सबसे ऊपर था।

उम्र नब्बे के पार हो चली थी लेकिन वाणी में वही ओज था। शुद्ध हिन्दी बोलते थे किन्तु क्लिष्ट नहीं। बीच-बीच में कई बात भूल जाते। उन्हें दुहराते थे। स्मृति की कड़ियाँ टूट रही थी मगर छूट नहीं पाती थी। बड़ी ही आनंद-दायक सुदीर्घ वार्ता हुई। उनके जीवन की अंतिम बड़ी भेंटवार्ता। बड़े ही अपनेपन से बतियाए थे। हमारे अबोध, नादान, तार्किक सभी प्रश्नों के उत्तर दिए। अपने निराले जीवन की हरेक परत खोलते गए। उनके समय, उनका साहित्य और उनका व्यक्तित्व से संबंधित हमारी सभी जिज्ञासाओं का शमन अपने स्नेहिल वाणी में सयंत उत्तरों से करते रहे।

आचार्यजी का व्यकित्व उद्दात था। जिजीविषा उद्दाम थी। उनके आदर्श उनके व्यवहारों में निरुपित थे। पितृदेवो भवः! उन्होंने अपने आवास में ही एक मंदिर बनवाकर पिता clip_image001[19]की मुर्ति स्थापित करवा दी थी और नित्य प्रति उन्हीं की पूजा करते थे। जीव मात्र के लिए स्नेह! दर्जनों पालतू और यायावर पशु उनकी संवेदना में समादृत थे। कर्म ही पूजा है! शिक्षण और साहित्य-साधना ही उनके तीर्थ-व्रत थे। जहाँ पर दिन में बैठने में भी हमें मच्छरों से महाभारत करना पड़ रहा था वहीं शास्त्री जी रात-रात भर जग कर कई प्रबंध काव्य रचे। जन भावना का गायक! सिर्फ़ उपलब्धि पूछने पर यह कहते हुए पद्मश्री सम्मान ठुकरा देना कि जब मेरी उपलब्धि ही पता नहीं है तो सम्मान क्यों दे रहे हैं किन्तु मेरे आग्रह पर छियानबे वर्ष की उम्र में भी राग केदार के अलाप के साथ प्रसिद्धि और लोकप्रियता का पर्याय गीत ‘किसने यह बाँसुरी बजाई’ गाकर सुनाते हैं। औदात्त प्रणय...! उस समय भी ‘राधा’ नामक प्रबंध काव्य में छपी अर्धांगिनी के चित्र को देख उनकी आँखों ने जैसे प्रणय की मूक परिभाषा कह दिया हो। अतिथि देवो भवः! बीमार पत्नी को भी हमारे आगमन की सूचना देने की व्याकुलता। दोनों प्राणी की शारीरिक अशक्तता के बावजूद भोजन करके जाने का आग्रह और विदा लेते समय पुनः आने का अनुरोध...! उनके कहे एक-एक वाक्य सूक्ति से लगते हैं। जैसे “मैं भाग्यशाली हूँ इस अर्थ में कि मुझे कोई जानता ही नहीं है।” “प्रेम करना एक बात है और प्रेम पर भाषण करना एक और बात।” “अच्छे लोग बीमार ही रहते हैं। बीमार नहीं रहेंगे तो या तो पियक्कड़ हो जाएँगे या पागल।” जीवन के तिक्त अनुभवों ने उनकी सूक्तियों में चमत्कारिक व्यंग्यार्थ भर दिये हैं।

शास्त्रीजी से हुई भेंट को दो साल हो गए। उनकी भी इच्छा थी और हमने भी सोच रखा था कि अब जब कभी गाँव जाएँगे उनसे मिलकर आयेंगे। किन्तु अगली बार हमारी गाँव-यात्रा से पहले ही आचार्यजी गोलोक-प्रस्थान कर गए। ‘निराला-निकेतन’ में बीते एक-एक पल को हमने ब्लाग पर पहले से ही संजोए रखा है। सत्य कहूँ तो मेरे जीवन से यदि वह एक दिन निकाल दें तो बाकी हिस्सा अत्यंत हल्का हो जाएगा। वह एक दिन मेरी पूरी जिन्दगी है। किन्तु आज उन्हें स्मृति के शिखर पर लाने का श्रेय मैं श्री सचिन पूरी जी को देना चाहूँगा।

सचिन पूरी जी (+91-9860224624) महाराष्ट्र के अहमदपुर शहर में अध्यापन कार्य करते हैं। आचार्य जानकी बल्लभ शास्त्री के कृतित्व पर शोध-कार्य कर रहे हैं। पिछले दिनों सचल दूरभाष यंत्र की घंटी बजी। उधर से एक अनजान पुरुष आवाज आई। वे किसी पत्रिका में मेरा ‘इंटरव्यू’ छपने पर बधाई दे रहे थे। रातो-रात सेलिब्रिटी होने के भाव को छिपाते हुए मैंने साश्चर्य कहा कि आजतक किसी पत्र-पत्रिका को इंटरव्यू दिया ही नहीं मैं ने तो छपा कैसे ? तब उन्होंने बताया कि मेरा नहीं (वही तो...! मैं कब से इतना बड़ा सेलिब्रिटी हो गया?) बल्कि आचार्य जानकी बल्लभ शास्त्री जी का वह इंटरव्यू छपा है जो हमने किया था। पत्रिका है “आलोचना”। वहीं से मेरा नंबर भी उन्हें मिला। यही सज्जन हैं सचिन पूरी। तभी तो मैंने उन महानुभाव को धन्यवाद कह दिया किन्तु विश्वास अब हो रहा है जब ‘आलोचना’ का वह अंक हाथ में है। मैं नहीं जानता किन्तु यदि यह उपलब्धि है तो मैं इसे आज इस ब्लाग के हजारवें प्रविष्टी के साथ आपसे शेयर करता हूँ। इसके वास्तविक अधिकारी आप ही हैं।

सोमवार, 10 सितंबर 2012

अब ख़ुशी के गीत गाना व्यर्थ है

अब ख़ुशी के गीत गाना व्यर्थ है

श्यामनारायण मिश्र

जल रहीं धू-धू दिशाओं की चिताएं

अब ख़ुशी   के गीत गाना व्यर्थ है

 

जो मसीहा    शांति के संदेश लाए

जी चाहता है पांव उसके चूम लूं

जहां मिटती   हो   ग़रीबी दीनता

वह मदीना और मथुरा घूम लूं

किंतु लगता है हवेली से डरा हर एक

काबा – चर्च -  मठ     असमर्थ    है

 

बाज़ार से संसद भवन की कुर्सियों तक

कुछ   लुटेरों   के   भयानक   हाथ    फैले

और औसत    आदमी   ग़म   खा    रहा

पी   रहा   कुंठा   घुटन   के  द्रव विषैले

हालात  का   चाबुक   उधेड़े   जा   रहा

रोज़   कोमल    चेतना     की पर्त   है

 

ज़रा   पानी     को     शिराओं    के     उबालो

बन गया यदि ख़ून तो कुछ काम आएगा

बिंब   दूषित   नालियों   में इस महाजन के

देख    कुढ़ता  और   कितनी   देर   जाएगा

घूटन    तो   परिवेश  में  वैसे  बहुत    है

निश्वास  का  तेरे   भला  क्या  अर्थ  है

रविवार, 9 सितंबर 2012

नारी ब्लॉग के माध्यम से एक विचार-विमर्श का आयोजन

नारी ब्लॉग के माध्यम से एक विचार-विमर्श का आयोजन किया जा रहा है। यह एक प्रशंसनीय प्रयास है। इसे प्रतियोगिता का रूप दिया गया है जिसमें 15 अगस्त 2011 से 14 अगस्त 2012 के बीच में पब्लिश की गयी ब्लॉग प्रविष्टियाँ आमंत्रित की गई हैं।

इस आयोजन के लिए विषय हैं –

1. नारी सशक्तिकरण

2. घरेलू हिंसा

3. यौन शोषण

ऐसी सूचना दी गई है कि यदि आयोजक के पास 100 ऐसी पोस्ट के लिंक आ जाते हैं तो हमारे 4 ब्लॉगर मित्र जज बनकर उन प्रविष्टियों को पढ़ेगे . प्रत्येक जज 25 प्रविष्टियों मे से 3 प्रविष्टियों को चुनेगा . फिर 12 प्रविष्टियाँ एक नये ब्लॉग पर पोस्ट कर दी जायेगी और ब्लॉगर उसको पढ़ कर अपने प्रश्न उस लेखक से पूछ सकता हैं। उसके बाद इन 12 प्रविष्टियों के लेखको को आमंत्रित किया जायेगा कि वो ब्लॉग मीट में आकर अपनी प्रविष्टियों को मंच पर पढ़े , अपना नज़रिया दे और उसके बाद दर्शको के साथ बैठ कर इस पर बहस हो। दर्शको में ब्लॉगर होंगे . कोई साहित्यकार या नेता या मीडिया इत्यादि नहीं होगा . मीडिया से जुड़े ब्लॉगर और प्रकाशक होंगे . संभव हुआ तो ये दिल्ली विश्विद्यालय के किसी  कॉलेज के ऑडिटोरियम में मीट का आयोजन किया जाएगा ताकि नयी पीढ़ी की छात्र / छात्रा ना केवल इन विषयों पर अपनी बात रख सके अपितु ब्लोगिंग के माध्यम और उसके व्यापक रूप को समझ सके . इसके लिये ब्लोगिंग और ब्लॉग से सम्बंधित एक व्याख्यान भी रखा जायेगा .

12 प्रविष्टियों मे से सर्वश्रेष्ठ 3 का चुनाव उसी सभागार में होगा दर्शको के साथ .

ब्लॉग मीट दिसंबर 2012 में रखने का सोचा जा रहा हैं लेकिन ये निर्भर होगा की किस कॉलेज मे जगह मिलती हैं .

आप से आग्रह हैं अपनी ब्लॉग पोस्ट का लिंक  इस लिंक (नारी ब्लॉग) के कमेन्ट मे छोड़ दे।

नारी ब्लॉग और इस कार्यक्रम के आयोजक की कोशिश हैं कि हर चार महीने मे एक बार विविध सामाजिक मुद्दों पर इसी तरह के विचार-विमर्श का सिलसिला चलता है।

आप अपने विचार और इस आयोजन में भाग लेने के लिए कृपया इस लिंक पर जाएं और अधिक से अधिक संख्या में भाग लेकर आयोजन को सफल बनाएं –

http://indianwomanhasarrived.blogspot.in/2012/09/15-2011-14-2012.html    नारी ब्लॉग

गुरुवार, 6 सितंबर 2012

आँच –119


आँच –119
                       आचार्य परशुराम राय 
                     
आँच के पिछले अंक में श्री देवेन्द्र पाण्डेय की कविता पहिए की गयी समीक्षा पर विद्वान मित्रों एव पाठकों ने काफी रोचक टिप्पणियाँ की हैं। मैंने कुछ बातों का प्रत्युत्तर दिया और बाद में अपने ही उत्तरों पर बहुत क्षोभ हुआ। यह सोचकर कि क्या यह आवश्यक था। हो सकता है मेरे उत्तर से उन्हें ठेस पहुँची हो। कवि धूमिल या आदरणीय डॉ.नामवर सिंह आदि के नाम पर मनोनुकूल विचार नहीं बनाए जा सकते। उस समय धूमिल की कविताएँ मेरे पास नहीं थीं। इसलिए साक्ष्य के अभाव में बातें करना या प्रत्युत्तर देना उचित नहीं जान पड़ा। पर प्रत्युत्तर दे डाला। फिर एकाएक विचार आया क्यों न इस पर एक अलग से आँच का उपांक लिखा जाए।

सबसे पहले कविता में प्रवाह की बात करते हैं। जब कविता में प्रवाह की बात की जाती है, तो पता नहीं लोग बिदक क्यों जाते हैं। माना जाता है कि हिन्दी में छन्द-मुक्त कविता का प्रारम्भ महाकवि निराला ने किया। इस प्रकार की कविता के विषय में अपनी पुस्तक पंत और पल्लव में उल्लेख करते हुए वे लिखते हैं कि आधुनिक कविता का आधार कवित्त (एक प्रकार का वार्णिक वृत्त या छंद) है। हालाँकि उनकी छन्दमुक्त कविताओं में मात्रिक छंदों का प्रयोग भी मिलता है। यह एक अलग चर्चा का विषय है। इसे उनकी रचनाओं को लेकर देखा जा सकता है। यहाँ  सवैया, कवित्त और दोहा की एक-एक पंक्ति लेकर छन्दमुक्त कविता के रूप में ढालकर देखते हैं -

सवैया                                 कवित्त
पुर ते                                 चंचला चमाके
निकसी रघुबीर बधू                       चहुँ ओरन ते
धरि धीर                               चरजि गई थी
दए मग में डग द्वै।                      फेरि
                                     चरजन लागी री।
दोहा
सुनहुँ भरत
भावी प्रबल
बिलखि कहेउ मुनिनाथ।

आप निराला की किसी कविता को लें, इसी प्रकार की प्रांजलता मिलेगी। प्रवाह गद्य में भी पाया जाता है। लेकिन दूसरे प्रकार का। इसके लिए किसी भी सशक्त लेखक को ले सकते हैं, चाहे डॉ. विद्यानिवास मिश्र हों या डॉ. नामवर सिंह। वैसे गद्य प्रवाह का आनन्द जितना परमपूज्य आचार्य रजनीश जी या परमपूज्य श्री जे. कृष्णमूर्ति में मुझे मिला उतना अन्य में नहीं। कविता में प्रांजलता और बिम्बों को अछूत समझने वाले लोगों के लिए मैं यहाँ कविवर धूमिल की कविताओं से कुछ पंक्तियाँ यहाँ उद्धृत कर रहा हूँ-    

भलमनसाहत 
और मानसून के बीच में 
ऑक्सीजन का कर्ज़दार हूँ
मैं अपनी व्यवस्थाओं में 
बीमार हूँ                                                                                   (उसके बारे में)
        
जो छाया है, सिर्फ़ रात है
जीवित है वह - जो बूढ़ा है या अधेड़ है
और हरा है - हरा यहाँ पर सिर्फ़ पेड़ है

चेहरा-चेहरा डर लगता है
घर बाहर अवसाद है
लगता है यह गाँव नरक का
भोजपुरी अनुवाद है।                                                     (गाँव)

हवा गरम है
और धमाका एक हलकी-सी रगड़ का
इंतज़ार कर रहा है
कठुआये हुए चेहरों की रौनक
वापस लाने के लिए
उठो और हरियाली पर हमला करो
जड़ों से कहो कि अंधेरे में
बेहिसाब दौड़ने के बजाय
पेड़ों की तरफदारी के लिए
ज़मीन से बाहर निकल पड़े
बिना इस डर के कि जंगल
सूख जाएगा।
यह सही है कि नारों को
नयी शाख नहीं मिलेगी
और न आरा मशीन को
नींद की फुरसत
लेकिन यह तुम्हारे हक में हैं
इससे इतना तो होगा ही
कि रुखानी की मामूली-सी गवाही पर
तुम दरवाज़े को अपना दरवाज़ा
और मेज़ को
अपनी मेज कह सकोगे। 
                                                         (सिलसिला)
     कविवर धूमिल बिम्बों को अछूत नहीं मानते थे। इनकी शब्द-योजना में लाक्षणिक प्रयोग की बहुलता है। या यों कहिए कि इनकी कविताओं में नए मुहावरे और लक्ष्यार्थ पाठक को अभिभूत कर देते हैं। इनकी कविताओं में प्रांजलता का कहीं अभाव नहीं है। यह याद दिलाना चाहता हूँ इनका काल साठोत्तरी कविताओं का काल है। छंदों के ज्ञाता यदि इन कविताओं में एक सतर्क नजर डालें, तो उन्हें इनमें भी छंद नजर आएँगे।

इसे दुर्भाग्य कहा जाय या सौभाग्य कि इनकी रचनाओं को एक विशेष खेमे द्वारा हाइजैक कर लिया गया और अन्य खेमों ने इनकी ओर देखने का कष्ट नहीं किया या इनकी कविताओं का अध्ययन उस खेमे से बाहर करने का कोई साहस नहीं जुटा पाया। हो सकता है ऐसा हुआ भी हो और मुझे पढ़ने का सुअवसर न मिल सका हो। जहाँ तक मुझे पढ़ने को मिला एक खेमे विशेष के हितों को सिद्ध करनेवाले आयामों का विश्लेषण ही किया गया है। इनकी कविताओं के ऐसे कई पहलू हैं, जिनपर विद्वान लोग चर्चा करें, तो अच्छा रहेगा।

कविता के विषय में उनके मन्तव्य को समग्रता में देखना होगा। अपने मन के अनुकूल एक वाक्य को लेकर उनकी पूरी दृष्टि को वैसा ही मान लेना बेमानी होगा। श्री अनूप शुक्ल के फुरसतिया ब्लॉग पर उद्धृत आभार सहित कविता के विषय में उनके कुछ विचार यहाँ दिये जा रहे हैं- 

1.  कविता
घेराव में
किसी बौखलाये हुये
आदमी का संक्षिप्त एकालाप है।
2.  कविता
भाष़ा में
आदमी होने की
तमीज है।
3.  कविता
शब्दों की अदालत में
अपराधियों के कटघरे में
खड़े एक निर्दोष आदमी का
हलफनामा है।

  धूमिल की काव्यशैली, भाव-भंगिमा आदि को समझने के लिए मात्र एक चश्मे से देखने के बजाय खुली आँख और खुले मन से देखने और समझने की आवश्यकता है, अपनी अक्षमता को छिपाने के लिए नहीं।

     अब आगे बढ़ते हैं इस (/) चिह्न की ओर जिसको लेकर काफी हाय-तौबा मची। इसकी शुरुआत, जहाँ तक मेरी समझ है, व्यावसायिक पत्रों में अपनी अनभिज्ञता को ढकने के लिए प्रयोग हुआ और आज भी हो रहा है, ताकि अपने मनोनुकूल उसे व्याख्यायित किया जा सके। जहाँ तक मैंने हिन्दी भाषा पढ़ी है, विराम चिह्नों में इसका उल्लेख नहीं किया गया है। वर्तमान में केन्द्रीय विद्यालय के लिए प्रकाशित दो ख्यातिलब्ध विद्वानों द्वारा लिखित व्याकरण की पुस्तक में विराम चिह्नों पर चर्चा तक नहीं हुई है। भाषा के प्रारम्भिक दौर में इनका प्रयोग नहीं होता था। परन्तु लिखित भाषा को समझने में कठिनाई को दूर करने के लिए इनका प्रचलन शुरु हुआ। इनके अभाव में प्रायः सही भाव समझने में कठिनाई होती है और पाठक कुछ का कुछ समझ लेता है, जैसे इस वाक्य को देखिए- उसे रोको मत जाने दो। इसे पढ़कर पाठक क्या समझेगा - उसे जाने देना है या रोकना है, विराम चिह्न के सही प्रयोग के बिना समझना कठिन है।

जैसा कि पाठक विद्वानों ने चर्चा की है कि (/) का प्रयोग समकालीन कविता में ऐसे विन्यासपरक संकेतों का चलन समाप्त हो चुका है और इसके स्थान पर पंक्ति बदलकर लिखना या (/) चिह्न का प्रचलन शुरु हो गया है। इस विषय में कुछ कहना उचित नहीं है। क्योंकि शायद समकालीन कविता मैंने नहीं पढ़ी है। इसका प्रयोग कविता में ब्लॉग पर ही देखा है, अन्यत्र नहीं।
कुछ मित्रों ने तो यहाँ तक कह डाला है कि कविता एकदम परफेक्ट है और आचार्य परशुराम राय के विचारों से सहमत नहीं हैं। यहाँ पाठकों के लिए तो नहीं, हाँ कवि के लिए मेरा सुझाव है कि प्रशंसक और विरोधी दोनों ही मनुष्य के विकास में बाधक होते हैं। पहिए कविता में बिखराव बहुत है। रिक्शेवालों के लिए चीटियों की तरह अन्नकण मुँह में दबाए विशेषण का प्रयोग पूरे सन्दर्भ में अनावश्यक है, अतएव कवि को सदा जागरूक होकर लोगों के विचारों को ग्रहण करना चाहिए। क्योंकि भीड़-भाड़ में प्रायः सभी वाहन धीरे-धीरे चलने लगते हैं। यदि आदरणीय सलिल वर्मा की बात मान लें कि बालकनी से देखा गया दृश्य हो सकता है, तो और भी वाहन, जैसे सायकिल आदि के लिए क्यों नहीं लिखा गया। कहने का तात्पर्य यह कि कविता लिखने के बाद उसमे प्रयुक्त सभी पदों का उपयुक्तता के आधार पर मूल्यांकन स्वयं करना चाहिए। यही नहीं और भी ऐसे पद अनावश्यक पड़े हैं। एक पंक्ति में यही कहूँगा कि इसे कविता योग्य रूप देने के लिए पुनरावलोकन करने की आवश्यकता है। पूरी कविता का निचोड़ यह है कि कविता उतनी स्तरीय नहीं है, जैसा प्रशंसकों ने बताया है। केवल एक तथ्य को प्रकाशित करने के लिए कि पहियों पर दौड़नेवाले मनुष्य की अन्तिम यात्रा बिना पहिए की होती है, के लिए जो विस्तार दिया गया है, उसकी जरूरत नहीं है। क्योंकि वर्णन सामान्य है, अन्यथा बाह्य प्रकृति का भी समावेश होता।

 कवि के बचाव पक्ष में कमर कसने का कोई कारण नहीं समझ में आया। क्योंकि कोई ऐसी अनर्गल बातें उसमें नहीं लिखी गई थीं और न ही उसे कूड़ा कहा गया है। कुछ मित्रों की टिप्पणियाँ मुद्दे से हटकर थीं। उनका उद्देश्य जो भी रहा हो, कोई मायने नहीं रखता। नये विचार सुविधाजनक हों, कोई बात नहीं, लेकिन पुरातन इतने खटकने नहीं चाहिए। बिजली चली जाती है तो सुविधाकारक नवीन उपकरण काम नहीं करते। प्राकृतिक सुविधाएँ ही काम करती हैं। पाठ्यक्रमों में हम सूर, तुलसी, कबीर आदि को स्थान देना पिछड़ेपन की पहिचान समझते हैं। इसलिए उन्हें पाठ्यक्रमों से हटाने के लिए मुर्दाबाद, जिन्दाबाद के नारे लगाने में हम नहीं हिचकते। लेकिन मेरी समझ में नहीं आता कि इनसे अधिक कौन आधुनिक है। रामचरितमानस का पाठ करते हैं। पर कविवर धूमिल आदि को पढ़ते हैं। एक बहुत बड़ा तबका है जो मानस का पाठकर मुक्ति की आशा करता है। लेकिन कविवर धूमिल को पढ़कर नहीं। कविवर धूमिल, आदरणीय डॉ.नामवर सिंह आदि जिनके नाम लिए गए हैं, वे ही केवल काव्य-जगत के नियन्ता नहीं हैं। दूसरी बात कि जो कविता लिखते हैं, उनमें से कितनों ने इन्हें पढ़ा है या जो इनको समझते हैं। मैं यह भी बता दूँ कि मैंने उक्त रचनाकार एवं आलोचक को पढ़ा है और उनका आदर करता हूँ, और उनके विचार कालातीत नहीं हैं।

       अंत में एक हाइकू उसके दो अनुवाद दिए जा रहे हैं। एक जापानी हाइकू के अंग्रेजी अनुवाद का हिन्दी के दो प्रसिद्ध कवियों द्वारा किए गए अनुवाद नीचे दिए जा रहे हैं। मैं उनके नाम यहाँ जानबूझकर नहीं दे रहा हूँ। टिप्पणी में कहीं दूँगा -
The old pond      एक पुराना तालाब                   ताल पुराना 
A frog jumps in   और उछलते मेढक की आवाज         कूदा दादुर
Plop.           पानी के अन्दर।                    गडुप।         
  
आप सभी काव्य-मर्मज्ञों से अनुरोध है कि बताएँ कौन सा अनुवाद अच्छा है, चाहे शैली की दृष्टि से या शिल्प या काव्यात्मकता की दृष्टि से या ओवर आल।

यहाँ नाम इसलिए नहीं दे रहा हूँ कि खेमेबाजी न शुरु हो जाय।

इस अंक का समापन निम्न पंक्तियों से करते हुए इस स्तम्भ से विदा ले रहा हूँ-


बन्दउ ब्लॉग प्रमुख गन चरना।

छमहु जानि दास निज सरना।।

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