गुरुवार, 7 अक्तूबर 2010

आँच-38 :: हरीश प्रकाश गुप्त की लघुकथा “प्रतिबिम्ब” की समीक्षा

आँच-38

हरीश प्रकाश गुप्त की लघुकथा “प्रतिबिम्ब” की समीक्षा


आचार्य परशुराम राय

पाठकों की प्रतिक्रियाओं का प्रतिबिम्ब है आँच का यह अंक। पिछले दिनों श्री हरीश प्रकाश गुप्त की एक लघुकथा “प्रतिबिम्ब” इसी ब्लाग पर पढ़ने को मिली थी। इस लघुकथा पर टिप्पणियों को पढ़ने के बाद ऐसा लगा कि इसे आँच चढ़ाया जाय।

हरीश जी को मैं पिछले तीन-चार साल से जानता हूँ। स्वभाव से बड़े ही मितभाषी हैं और उनका यह गुण उनकी रचनाओं में देखने को मिलता है। शब्द-संयम (ECONOMY OF WORDS) के प्रति काफी सजग रहते हैं- अपने दैनिक जीवन और लेखन, दोनों में।

कथानक पर चर्चा करने के पहले पात्रों का परिचय आवश्यक लगता है। क्योंकि कथाकार की लेखनी भी काफी मितभाषी है। इस कथानक के सक्रिय पात्र केवल दो हैं -स्मृति और कल्पना। अन्य पात्र स्मृति के पिता, माँ, बड़ा भाई निलय, भाभी, छोटी बहनें अलीना और अलीशा परिवेशजन्य स्मरण से आए हैं, अपनी भूमिका लेकर। प्रत्यक्ष रूप से नहीं। इसी दल में शामिल हैं कल्पना का बेटा अविरल।

कथानक के चार चरण होते हैं - प्रारम्भ, विकास, चरमोत्कर्ष और अन्त। स्मृति अपनी सहेली कल्पना से मिलने उसके घर गयी है। यहीं से कथानक प्रारम्भ होता है। कुछ ऐसे आत्मीय होते हैं जिनका सामीप्य हमारे जीवन को प्रतिबिम्बित करने लगता है। इस कथानक प्रतिबिम्ब’ की घटनाएँ भी ऐसी ही हैं। सहेली के आने पर कल्पना चाय-नास्ते की व्यवस्था में जुट जाती है। इस बीच अकेले बैठी स्मृति के मानस-पटल पर कल्पना के सान्निध्य में जीवन के बिम्ब उभरने लगते हैं। ये ही कथानक को विकास की ओर अग्रसर करते हैं। इतने में कल्पना मिठाई लेकर आती है और अपने प्रश्न से अन्तस में खोई स्मृति के दरवाजे पर दस्तक देती है और वह अपने अतीत से निकलकर वर्तमान प्रवेश करती है।

इसके बाद कल्पना सामने रखी हुई मिठाइयों की ओर संकेत करते हुए खाने का आग्रह करती है। स्मृति प्रश्न का उत्तर देती हुई मिठाई उठाती है और उसके लड़के अविरल के बारे में पूछताछ करती है। अविरल अपनी परीक्षा में मेरिट में आया है। अतएव उसकी खुशी में शामिल होने के लिए और प्रोत्साहित करने के लिए उसे वह एक पार्टी देना चाहती है। यहीं कथानक का अन्त हो जाता है।

पूरी कथा का केन्द्र बिदु स्मृति है। शेष पात्र केवल उसके व्यक्तित्व के व्याख्याता हैं। स्मृति एक ऐसी लड़की है जिसे अपने माता-पिता और बड़े भाई के होते हुए भी परिवार की पूरी जिम्मेदारी उठानी पड़ी। यहाँ तक कि अपनी छोटी बहनों के विवाह की भी। लेकिन वह स्वयं अविवाहित है। उसने अपनी गृहस्थी नहीं बनाई।

अपनी गृहस्थी के अवकाश को उसने माता-पिता, भाई, बहनों, सहेली आदि की गृहस्थियों से ही भर रखा है। उन्हीं के पारिवारिक संबंधों में अपना प्रतिबिम्ब देखती है। उसकी प्रारम्भ की मजबूरी अब समर्पण बन चुकी हैं।

वैसे भारतीय समाज में लड़कियाँ इस प्रकार के दायित्व बोध से विरत मानी जाती हैं। माता-पिता का उत्तरदायित्व सभाँलने का अधिकार बेटों तक ही सीमित माना जाता है। लेकिन कहीं-कहीं ऐसे विरल संयोग भी देखने को मिलते हैं कि बड़े भाइयों के होते हुए भी बेटी को यह कार्य करना पड़ता है। यदि इसे दूसरी दृष्टि से देखा जाए तो प्रायः ऐसा होता है कि कुछ लोग अपने उत्तरदायित्वों से पलायन करने के आदी होते हैं और जो दायित्व उठा लेता है, उसी के कंधे पर जिम्मेदारियों का बोझ डालते जाते हैं। यदि कहीं विषय परिस्थिति उत्पन्न होती है, तो उत्तरदायित्व के अलावा शेष सब बाँटकर अलग हो जाते हैं। इसके बावजूद भी, आवश्यकता के समय उससे अपनी अपेक्षाएँ नहीं छोड़ते। ऐसी मानसिकता देखने को प्रायः मिल जाती है।

लेकिन यहाँ एक बेटी, शायद परिस्थितिवश, अपने माता-पिता के दायित्वों को अपना दायित्व समझ लेती है। जिसके पिता की आयु और अर्थ जनित मजबूरियों ने उसके दायित्व-बोध को वृद्ध बना दिया है, जिसके अनुभवों की लाठी भी पुरातन के खण्डहर में दूसरी पीढ़ी डाल चुकी है। ऐसी अवस्था में सांसारिक संबंधों से विरक्त होने के अलावा उसके पास कोई विकल्प नहीं बचता। फिर अपनी नियति पर टिकी माँ की आँखें निष्प्रभ हो जाती हैं। माता-पिता के लिए यहाँ एक ही कसक है, जो सामान्यतया हर माता-पिता की होती है और वह है स्मृति के विवाह की । क्योंकि अन्य दो बेटियों का विवाह हो चुका है। भारतीय समाज में हमें विवाह के प्रति एक विचित्र सोच देखने को मिलती है कि बड़े का विवाह पहले होना चाहिए, विशेषकर लड़कियों के मामले में। वैसे जब लड़कों की बात करते हैं, तो वहाँ भी यही स्थिति है। यदि छोटे लड़के की शादी पहले हो जाती है, तो बड़े लड़के का विवाह होना काफी कठिन हो जाता है।

स्मृति का बड़ा भाई इस कुंठा का शिकार है कि उसकी छोटी बहन उससे अच्छा सेटिल है उसका स्टेटस उससे बड़ा है। इस कुण्ठा ने भाई और भाभी दोनों में ईर्ष्या को जन्म दे दिया। लेकिन स्मृति में इस प्रकार के भावों के पोषण का सर्वथा अभाव है। छोटी बहनें विवाह के बाद अपनी अपनी गृहस्थी में व्यस्त हो गयी। स्मृति अपने एकाकीपन के साथ अपने व्यावसायिक जीवन में व्यस्त रहती है। कभी-कभार अवकाश के क्षणों में अपने संबंधों को ताजा करने तथा उन्हीं में अपने प्रतिबिम्ब को खोजने निकल पड़ती है।

संवाद औपचारिकता की सीमा में ही हैं। या यों कहना चाहिए कि संवाद केवल औपचारिकता वाले ही हैं। वास्तविक संवाद तो अनभिव्यक्त है। ऐसे ही परिवेश, मानसिकता और भावों का मनोवैज्ञानिक चित्रण प्रस्तुत करती है यह लघुकथा। यह लघुकथा शिल्प आदि के विविध मानकों पर यह पूरी तरह खरी उतरती है।

20 टिप्‍पणियां:

  1. प्रतिबिम्ब की समीक्षा अच्छी लगी.
    regards

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  2. बहुत अच्छी समीक्षा ...लेकिन मैं अभी तक नहीं समझ पायी कि पिता अपनी जिम्मेदारियों से क्यों निर्लिप्त हैं ...

    ऐसी स्थिति तब दिखाई देती है जब सिर पर पिता का साया न हो ....

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  3. राय जी के द्वारा एक और अच्छी समीक्षा!धन्यवाद.

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  4. समीक्षा तो शानदार है, कई सवाल भी उठाती है....



    __________________________
    "शब्द-शिखर' पर जयंती पर दुर्गा भाभी का पुनीत स्मरण...

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  5. समीक्षा तो है ही लाजवाब मगर अगर साथ मे उस कहानी का लिंक भी लगा देते तो ज्यादा आनंद आता।

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  6. वाह ! मजा आ गया....... ! समीक्षक की दृष्टि किनती सूक्ष्म होनी चाहिए, यह सीखने को मिला आज. कथा के भाव की गहराइयों को सरल शब्दों द्वारा सामाजिक आईने बखूबी ढाला है आपने. धन्यवाद !

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  7. आपकी समीक्षा से गुज़रना एकदम नए अनुभव से गुज़रना है क्योंकि इसमें यथार्थ इकहरा नहीं है, बल्कि यहां आज के जटिलतम यथार्थ को उघाड़ते अनेक स्तर हैं।

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  8. समीक्षा का विज्ञान आज समझ आया... मैंने भी समीक्षा लिखी है, लेकिन आचार्य जी का समीक्षा शिल्प देखकर कह सकता हूँ कि वे एक महासागर हैं और मैं किनारे बैठकर सिर्फ कंकड़ ही चुनता रहा!!

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  9. सुन्दर भाव और अभिव्यक्ति के साथ बेहतरीन प्रस्तुती!

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  10. @sangeeta swaroop: sangeeta ji, aapki tippani ke liye bahut bahut dhanyawaad.Aapke prashna ke uttar mein sirf itna hi kaha ja sakta hai ki yah laghu katha ek satya ghatna par aadharit hai aur iss prakar ka parivesh bahut hi viral hota hai.Punah aapka dhanyawaad..

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  11. @Manoj Kumar, Karan Samastipuri, chala bihari blogger banne: Utsahvardhan ke liye aur mere prati prayog kiye gaye sandarbh shabdon ke liye bahut bahut dhanyawaad...

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  12. अब न तो इस प्रकार के त्याग की ज़रूरत है और न ही स्वयं को सेट्ल करने के प्रति विद्रोह की भावना के अभाव को स्वीकार करने का युग है।

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  13. "संवाद औपचारिकता की सीमा में ही हैं। या यों कहना चाहिए कि संवाद केवल औपचारिकता वाले ही हैं। वास्तविक संवाद तो अनभिव्यक्त है। ऐसे ही परिवेश, मानसिकता और भावों का मनोवैज्ञानिक चित्रण प्रस्तुत करती है यह लघुकथा।" कई बार समीक्षा रचना के प्रति जिज्ञासा जगती है.. और यह ऐसी ही समीक्षा है..

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