मंगलवार, 13 दिसंबर 2011

भगवान परशुराम-6


भगवान परशुराम-6


आचार्य परशुराम राय

पिछले अंक में द्वापर युग मे भगवान परशुराम के जीवन से जुड़ी कुछ घटनाओं का उल्लेख किया गया था। इस अंक में उनके शिष्य सुमेधा या हरितायन द्वारा विरचित त्रिपुरारहस्यम् पर चर्चा की जाएगी और अगले अंक में स्वयं भगवान परशुराम द्वारा विरचित श्रीपरशुरामकल्पसूत्रम् के विषय-वस्तु पर।
  
त्रिपुरारहस्य एक तंत्रशास्त्र का एक सर्वोत्कृष्ट वृहद् ग्रंथ है। अतएव इस ग्रंथ पर चर्चा करने के पहले तंत्रशास्त्र का एक छोटा सा परिचय आवश्यक लग रहा है। क्योंकि इस शास्त्र और इसके साधकों के विषय में सामान्य जनमानस में अनेक भ्रांतियाँ देखने को मिलती हैं। वास्तव में शब्द, ध्वनि और संकल्प द्वारा अपनी भावशक्ति से संसार की हर वस्तु पर नियंत्रण पाने की क्रिया की अधिष्ठात्री देवी को तंत्र कहा गया है। इसमें विभिन्न मातृका, वर्ण, शब्द, बिन्दु नाद आदि से युक्त मंत्रों, मंत्ररहित आभिचारिक क्रियाएँ, रहस्य-युक्त यंत्रों आदि का प्रयोग किया जाता है।  

तंत्र मानता है कि यह अखिल ब्रह्माण्ड आद्या शक्ति की अभिव्यक्ति है और उसी से अनुप्राणित है। तंत्र के अनुसार हमारी अधिकांश समस्याएँ इसलिए नहीं हैं कि हम ईश्वर को नहीं जानते, बल्कि इसलिए हैं कि हम जगत को नहीं जानते। भौतिक उपलब्धि को तंत्र आध्यात्मिक उन्नति में बाधक नहीं मानता। यह सभी भौतिक, शारीरिक और आध्यात्मिक विषयों को समान महत्त्व देता है। इसकी साधना की दीक्षा तीन स्तरों पर समय के अनुकूल होती है। पहला कदम होता है मंत्र-दीक्षा, दूसरा यंत्र-दीक्षा और तीसरा चक्र-पूजा। तन्त्र तीन मुख्य मतों में विभक्त है- समयाचार, कौलाचार और मिश्राचार

समयाचार की साधना में किसी प्रकार का कर्मकाण्ड या वस्तु की आवश्यकता नहीं होती। यह साधना आंतरिक ध्यान की प्रक्रियाओं पर आश्रित है और इसका अभ्यास सहस्रार चक्र पर किया जाता है, अर्थात् मानसिक साधना। इसमें शरीर को यंत्र के रूप में प्रयोग किया जाता है। इसमें शरीर की सृष्टि क्रम के अनुसार उपासना की जाती है। इस साधना का एकमात्र उद्देश्य मोक्ष की प्राप्ति है।

कौलाचार दो मार्गों में विभक्त है- दक्षिण मार्ग और वाम मार्ग। दक्षिण मार्ग के अनुयायी शुद्ध चीजों का उपयोग करते हैं और बाह्य उपासना पद्धति का आश्रय लेते हैं। सात्विक आचार-विचार और ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए इनका उद्धेश्य विभिन्न सिद्धियाँ उपलब्ध करना होता है। इस मार्ग के साधक किसी भी प्रकार सात्विकता को छोड़ने की कल्पना नहीं कर सकते। ये तन्त्र में निर्दिष्ट आवश्यकता के अनुसार विभिन्न यंत्रों को विभिन्न वस्तुओं से किसी चीज पर बनाकर प्रयोग  करते हैं।

वाममार्गी कौलाचारी साधक सात्विक और असात्विक का भेद नहीं करते। इनके लिए सृष्टि की कोई भी वस्तु अपवित्र नहीं है, बल्कि सम्पूर्ण सृष्टि दिव्य है। इस मार्ग की विभिन्न साधनाओं में मांस, मद्य, स्त्री या पुरुष संगम आदि अनेक ऐसी चीजों का प्रयोग विहित है, जो अन्य साधनाओं में निकृष्ट और त्याज्य मानी जाती हैं। इनका भी उद्देश्य विभिन्न सिद्धियाँ उपलब्ध करना है। यह मार्ग कभी भी साधक को पथ-भ्रष्ट होने की अनुमति नहीं देता, भले ही उक्त चीजों का उपयोग होता हो। इसलिए यह साधना सबसे कठिन है। क्योंकि इसमें ऐसी चीजों का प्रयोग होता है जो साधक को सिद्धि पाने से अधिक उसे पथभ्रष्ट होने में सहायक हैं। इसमें भी उपासना की बाह्य पद्धति का सहारा लिया जाता है और यंत्र दक्षिण मार्ग की ही भाँति बनाकर प्रयोग किए जाते हैं।

मिश्राचार मत समयाचार और कौलाचार के दक्षिण मार्ग का समन्वय है।

अब त्रिपुरारहस्य की बात करते हैं।  

जैसा कि ऊपर उल्लेख किया जा चुका है, त्रिपुरारहस्य भगवान परशुराम के शिष्य सुमेधा द्वारा लिखा गया ग्रंथ हैं। इस ग्रंथ क हरितायन संहिता भी कहते हैं, क्योंकि आचार्य सुमेधा को हरितायन नाम से भी जाना जाता है। त्रिपुरारहस्य के तीन खण्ड हैं - माहातम्य खण्ड, ज्ञान खण्ड, और चर्चा खण्ड। माहातम्य खण्ड में भगवान परशुराम और उनके शिष्य आचार्य सुमेधा के संवाद का संकलन है। ज्ञानखण्ड में भगवान दत्तात्रेय और भगवान परशुराम के संवाद को संकलित किया गया है। चर्चा खण्ड इतिहास का विषय बनकर रह गया है। यह ग्रंथ फिलहाल उपलब्ध नहीं है। इस ग्रंथ के प्रारम्भ में भगवान परशुराम का उल्लेख किया गया है। जिस अवसर का वर्णन मिलता है, उस समय भगवान परशुराम का निवास मलयगिरि के तपोवन में था। एक दिन आचार्य सुमेधा उनके पास गए और आदेश पाकर श्रद्धापूर्वक प्रश्न किए कि सांसारिक कामजन्य पीड़ा से पीड़ित मानवों के लिए पर-कल्याणकारी मार्ग क्या है? हे विपेन्द्र, यदि मुझे इसके योग्य समझें तो अवश्य बताएँ। क्योंकि करुणामूर्ति गुरु अपने शिष्य को गोपनीय वस्तु का भी ज्ञान करा देते हैं। हे भार्गव, बहुत पहले मैंने आपसे यह प्रश्न किया था, तो आपने कहा था कि कालक्रम से उचित अवसर आने पर इसका रहस्य आप मुझे बताएँगें, तब से आज सोलह वर्ष बीत चुके हैं। लेकिन इस प्रश्न ने मेरा पीछा नहीं छोड़ा

सुमेधा का प्रश्न सुनकर भगवान परशुराम थोड़ी देर तक मौन रहे, फिर अपने गुरु भगवान दत्तात्रेय द्वारा कभी पहले कही हुई बात का स्मरण करते हुए आचार्य सुमेधा को उपदेश दिया। गुरु-शिष्य के इस संवाद का संकलही त्रिपुरारहस्य-माहातम्य खण्ड हैं। इसमें कुल अस्सी अध्याय हैं और कुल श्लोकों की संख्या 6687 है।

     त्रिपुरारहस्य ' नम:' से प्रारम्भ होता है और 'त्रिपुरैव ह्रीं' पर अंत होता है। इसका संक्षिप्त रूप ब्रह्माण्डपुराण के उत्तराखण्ड में 'श्रीललितोपाख्यानम्' के नाम से उपलब्ध है। लक्ष्मी तंत्र में त्रिपुरारहस्य संक्षेप में पाया जाता है। इन वर्णनों में थोड़ा-बहुत अन्तर देखने को मिलता है। हो सकता है यह अन्तर सम्प्रदाय-भेद के कारण आए हों इसी प्रकार के अन्तर श्रीविद्या की साधना के विभिन्न सम्प्रदायों में भी देखने को मिलते हैं। इन्द्र, चन्द्र, कुबेर, मंत्र आदि द्वारा उपासिता श्रीविद्या की उपासना पद्धति में गुरु-शिष्य या सम्प्रदाय मतभेद से अनेकता के दर्शन होते हैं।

     त्रिपुरारहस्य का ज्ञानखण्ड भी साधना की दृष्टि से एक बहुत ही महत्वपूर्ण ग्रंथ है। भगवान दत्रातेय ने दीक्षा देकर भगवान परशुराम से कहा कि जाकर बारह वर्ष तक इसका अभ्यास करो और इसके बाद फिर मेरे पास आना। बारह वर्ष बाद जब भगवान परशुराम वापस अपने गुरु के पास आए तो उनके मन में अनेक प्रश्न थे। उन प्रश्नों का उत्तर देने के लिए उन्होंने अपने गुरु से श्रद्धानत होकर निवेदन किया। भगवान दत्तात्रेय ने उनके प्रश्नों के उत्तर बड़े सुन्दर ढंग से कथाओं के उदाहरण के साथ दि हैं। इस ग्रंथ में कुल बाइस अध्याय हैं और श्लोकों की संख्या 2263 है। केवल परिचय के रूप में इस ग्रंथ का यहाँ उल्लेख किया जा रहा है। कभी अवसर मिलने पर विस्तार से चर्चा की जाएगी।
     
इस अंक में बस इतना ही।

               

7 टिप्‍पणियां:

  1. तंत्रशास्त्र के सर्वोत्तम ग्रंथ त्रिपुरारहस्य के विषय में गहन जानकारी हेतु आभार !

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  2. "त्रिपुरारहस्य" ग्रंथ के बारे में अच्छी जानकरी प्रदान करता हुआ यह पोस्ट अच्छा लगा । समय मिले तो मेरे पोस्ट "साहिर लुधियानवी" पर आएं । धन्यवाद ।

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