शनिवार, 2 अप्रैल 2011

फुरसत में ... जब किस्‍मत खराब हो तो दोना पत्तर भी दुश्मन हो जाता है!

फुरसत में ...

जब किस्‍मत खराब हो तो दोना पत्तर भी दुश्मन हो जाता है!

IMG_0568मनोज कुमार

अंग्रेजी में कहतें हैं ‘डाउन द मेमेरी लेन’! कभी-कभी जब हम यादों के गलियारें में विचरते हैं तो कई बार बड़ा अद्भुत, रोमांचक और अविश्‍वसनीय किस्‍सा याद आ जाता है।

बिहार की माटी में कुछ है ऐसा कि कितना भी पढ़ लिख लें, माटी अपनी जकड़न छोड़ती ही नहीं! जब माटी की बात होती है तो लोग इसे गांव से जोड़ देते हैं, और गांव में रहने वाले को गंवार और जब गंवार की बात आती है तो सट् से लोगों के सामने आ जाता है बिहार।

मानो बिहार और गंवार पर्यायवाची हो!

हमारे लिए तो दोनों ही फ़ख्र है का विषय है। फ़ख्र है कि हमें आज भी माटी जकड़े है। पैर जमीन पर ही रहता है हमारा, और मन माटी में ही। हम जितने गंवार होते हैं उतना ही अपनी माटी, सभ्‍यता और संस्‍कृति से जुड़े रहते हैं। अब इस जुड़न को कई लोग बैकवार्ड” कह देते हैं या समझ लेते हैं, तो कहें, समझें - बिहार माने बैकबार्ड, बैकवार्ड माने बिहारी!!

खैर यह अपना संस्‍कार था, है। मुज़फ़्फ़रपुर के ब्रह्मपुरा रेलवे कॉलोनी के टाइप टू क्‍वार्टर से जो ज़िंदगी का सफर शुरू हुआ, वह आज अलीपुर, कोलकाता के टाइप सिक्‍स तक पहुंचा है। पर माटी” ने न हमारा साथ छोड़ा और न हमने माटी का। यह साथ तब तक रहेगा, जब तक हम ही माटी में न मिल जाएं!

आज जो कहने जा रहा हूँ, यह बात उन्‍हीं दिनों की है जब उसी ब्रह्मपुरा रेलवे कॉलोनी के टाईप टू क्वार्टर में रहने वाले लड़के की शादी ठीक हो गई राजधानी पटना के प्रोफेसर कॉलोनी में रहने वाली लड़की से। आज याद आ गई। फुर्सत में आज हैं या नहीं कह नहीं सकते। क्योंकि जब ‘वो’ आज बीमार हैं, बेड रेस्‍ट में, ऐसे में हमें भी तो रेस्‍ट में ही होना चाहिए। हैं या नहीं, कह नहीं सकते। रेस्ट में, यानी फ़ुरसत में ....! बैठे-बैठे दिमाग भी कुराफ़ात सोचने लगता है। कहते हैं न ख़ाली दिमाग शैतान का घर होता है। सो हम पहुंच गए ‘डाउन द मेमोरी लेन’ में ... और याद करने लगे उस कुराफ़ात को जो शादी के ठीक बाद हमने की थी।

पारम्परिक ढंग से जिन विशेषणों से बिहारियों को नवाजा जाता रहा है, वे एक-एक कर हम पर भी लागू होते थे। होते भी क्‍यों नही, हरकतें ही वैसी करते थे हम। पक्के बिहारी जैसी। अब देखिए न शादी के बाद हनीमून जैसी परंपरा में विश्‍वास था या नहीं, आज ठीक से याद नहीं, पर हनीमून पर बीवी को ले जाने की न हममें उस जमाने में हिम्‍मत थी, न हिमाकत। बहुत सारा आइडिया फ़िल्मों से मिल जाता है। हमारे ज़माने में फ़िल्मों में दो फूल हवा से हेल-मेल कर, सारा वाकया दर्शकों की बुद्धि पर छोड़ देते थे, समझने के लिए। अब उस ज़माने में हनीमून नाम से कोई फ़िल्म भी नहीं बनी थी। तो घर में हनीमून का नाम भी लेना ऐसा माना जाता था मानों किसी ‘ए’ सर्टिफ़िकेट वाली फ़िल्म का नाम ले लिया हो। अगर घर से बाहर भी निकल लेते तो गली-मुहल्ले में चर्चा होने लगती कि लेकर निकल पड़ा नई नवेली दुल्हन को!

पटना यूनीवर्सिटी में गंगा प्रदूषण का प्रोजेक्‍ट आया था, उसके लिए हम जे.आर.एफ. चुन लिए गए थे और उस जमाने में हमें 800 रुपये मिलते थे। अपनी उस नई-नई बनी हैसियत से मन में ख्‍याल आया था कि अब साइकिल का त्‍याग कर दें और एक पेट्रोल पर चलने वाली गाड़ी ले लिया जाए। होंडा-फोंडा नया-नया बाजार में आया था। पर अपनी हैसियत उतनी जवान भी नहीं हो पाई थी कि उसे अफ़ोर्ड कर पाते। ... और बजाज के तीनों मॉडलों में ऐसी लाइने लगती थी कि हम वर्षों इंतज़ार ही करते रह जाते। उस समय बाजार में टीवीएस-50 मोपेड नयी-नयी आयी थी। हजार रुपया देकर बाक़ी के 400 रुपये के मंथली इन्‍सटालमेंट में ले आए थे उसे। और पटना स्‍टेशन पर के हनुमान मंदिर में भगवान को बेसन के लड्डू का भोग भी लगा आए। विघ्न हरना देवा!

शादी के बाद बीवी को शौक चर्राया ... ‘कहीं बाहर चलते हैं!’ हमे लगा क्‍या अजीब प्रस्‍ताव है। नई दुल्‍हन को लेकर कैसे बाहर निकलेंगे? पर उनकी जिद के आगे झुकना पड़ा। हम दोनों, पैर वाले रिक्‍शे पर निकले। अशोक राजपथ पर आते ही लगा हम सम्राट अशोक ही हैं और यह रिक्‍शा हमारी शाही सवारी है। दुष्‍टों की संख्‍या न तब कम थी न आज। एक दो ने फब्तियां कसी, एक दो ने यहां तक कह डाला कि क्‍या ‘......!!’ लेकर जा रहा है। जिस शब्‍द का इस्‍तेमाल उसने किया था, बहुत आपत्तिजनक न होते हुए भी, हमारा संस्‍कार उसे लिखने से रोक रहा है। आप समझ तो गए ही होंगे? अपनी पत्‍नी के साथ जाने पर यह कमेंट था, अन्य कोई होती तो ...?!

खैर, इन तानों से विचलित श्रीमती जी का प्रस्‍ताव आया, ‘वापस चलते हैं।’ आज्ञाकारी पति की तरह हमने रिक्‍शा मुड़वा लिया। पर, तभी ख्‍याल आया कि रिक्‍शे के मंद गति से चलने पर मंद बुद्धि वालों की फब्तियां कुछ ज़्यादा चुभ ही रहीं थी, सो हनीमून पर तो कहीं गए नहीं, अब आज कहीं जाने के लिए निकले ही हैं तो एक और नुस्खे को भी आजमा ही लेते हैं। अपनी शाही सवारी, मोपेड कब काम आएगी!

हम निकले। फर्राटे के साथ टीवीएस-50 ने ज्योंही 35 किमी की रफ्तार पकड़ी तो हमें बॉबी का वह दृश्‍य याद आ गया जब ऋषि कपूर डिंपल के साथ छोटी वाली राजदूत पर जाता है।

अब समस्‍या यह थी कि आगे क्‍या किया जाए? कहां जाया जाय? अशोक राजपथ खत्‍म होते ही गांधी मैदान आया। पहले भी कहा है कि फिल्म हमारी ज़िंदगी की अनेक समस्‍याओं का हल ढूंढ देती है। गांधी मैदान में कुछ खास पल बिताने को ठान हम घुस पड़े। कुछ देर इधर-उधर नज़रें डालने के बाद एकान्‍त की जगह एक कोने में ढूंढ ही ली। बैठ गए।

कुछ पल ही बीते थे कि जैसे हड्डी सूंघते कुत्ते पहुंच जाते हैं, कुछेक मनचले उधर भी आ पहुंचे। हमारी शांति में एक बार फिर खलल पड़ी। उनकी घूरती और ललचाई निगाहों के साथ भद्दी टिप्‍पणियों ने हमें वहां से उठ जाने पर विवश किया। हमने एक बार फिर श्रीमती जी को मोपेड पर बिठाया। आगे बढ़े। बेलीरोड क्रॉस कर दानापुर की तरफ बढ़ने लगे तो ... श्रीमती जी का आग्रह हुआ, ‘इधर कहां चले?’ मैंने कहा, ‘जहां तक मन होगा .. साथ साथ घूमेंगे। जब से शादी हुई, कहीं घूमना-फिरना हुआ नहीं। आज जी-भर कर घूमेंगे। ..... और आप इतनी दूर-दूर क्यों हैं? ज़रा बॉबी की डिम्‍पल स्‍टाइल में मुझे पकड़ कर बैठिए, न।’

‘सब देख रहे हैं।’ संकोच की दीवार उन्‍हें ऐसा करने नहीं दे रही थी और वे अपने पति के साथ भी शहर के दूर-दराज वाले इलाके में जाने में भयभीत थीं। उनकी वापस लौटने की जिद ने मुझे बेमन से मोपेड घुमाने को मजबूर किया। मन थोड़ा खिन्‍न भी था। कुछ पल साथ रहकर भी साथ नहीं बिता पाए।

उनके तर्क में दम नजर आया मुझे कि ‘ये भी कोई गाड़ी है जिस पर हनीमून न मना पाने की कमी पूरी की जाए। ... सब देख रहे हैं।’

वापस उन्‍हें उनके घर छोड़ हम बढ़ गए धीरज चाचा के घर की तरफ। हमारे जान-पहचान में वही तो एक थे जिनके पास फिएट गाड़ी थी। अब अपनी नई-नई हुई पत्‍नी को उस पर घुमाने का ख्‍याल आया। विश्‍वास था कि धीरज चाचा इंकार नहीं करेंगे। तब तक दिन बीत चुका था। शाम का धुधंलका भी बढ़ गया था। हवा में ठंढ भी बढ़ गई थी। थोड़ी बहुत कंप-कंपी भी लग रही थी।

धीरज चाचा के घर का गेट खोल कर हमने आहाते में प्रवेश किया तो देखा वे गार्डेन में पानी के नल के नीचे बैठ स्‍नान करने में व्‍यस्‍त थे। मेरे आश्‍चर्य का ठिकाना न रहा। साबुन के झाग से पूरा चेहरा भरा था और वे फिर भी साबुन मले जा रहे थे। मैंने कहा, “चाचा ये क्‍या? इतनी ठंढ में आप स्‍नान कर रहे हैं? वह भी खुले में! बीमार पड़ जाएंगे!!”

धीरज चाचा अधीर होकर बोले, “क्‍या करें बेटा? लोग घर में बिना स्‍नान किए घुसने ही नहीं दे रहे थे।”

मैं कुछ भी नहीं समझ पाया। फिर से पूछा “पर हुआ क्‍या?”

मेरे सवाल का सीधा जवाब न देते हुए धीरज चाचा बोले,

जब खराब हो नछत्तर, दुश्‍मन होवें दोना-पत्तर!

“बेटा किस्‍मत ही खराब है मेरी। अच्‍छा भला साइंस कॉलेज से आ रहा था। अभी रानीघाट पहुंचा ही नहीं था कि ज़ोर की हवा चली। मुझे अहसास हुआ कि मेरे सिर पर कुछ गिरा है। अचानक सिर पर आई इस आफत पर हाथ गया तो पाया कि यह एक पत्ता वाला दोना है। किसी ने खिचड़ी, दही, सब्‍जी आदि खाकर बाक़ी के बचे जूठन सहित दोना को अपने घर की खिड़की के छज्‍जे पर फेंक दिया था। हवा चलने से वह मेरे सिर पर आ गिरा। पूरी जूठन अपने विचित्र स्‍वाद, गंध और रस के साथ मेरे सिर एवं चेहरे पर फैल गई। ऐसे में मन घिन से भर गया। अब, तुम्हीं सोचो बेटा बिना स्‍नान किए गुजारा था क्‍या?”

इसी को कहते हैं जब वक्‍त ही खराब हो तो दोना-पत्तर भी दुश्‍मन हो जाता हैं।

मैनें चाचा की बात सुन, अपने साथ हुए दिन भर के वाकए से ख़ुद को मिलाया तो पाया कि मेरा भी आज का दिन कुछ खराब-खराब ही जा रहा है। धीरज चाचा की तरह कोई अटपटा वाकया हो, उससे अच्‍छा है कि घर में ही आराम फरमाया जाए! मैं उल्‍टे पांव धीरज चाचा के घर से वापसी के लिए मुड़ा। वापसी में मन में ‘मुनीर’ का एक शेर घुमड़ रहा था –

लोग नाहक ही किसी मजबूर को कहते हैं बुरा,

आदमी तो अच्‍छे होते हैं, पर वक्‍त बुरा होता है।”

45 टिप्‍पणियां:

  1. ब्लाग-लेखन से साहित्य की नयी विधाओं का भी विकास हुआ है। संस्मरण जैसी निहायत ही व्यक्तिक विधा अब डायरियों से निकल कल्पनाओं का पुट ले पाठकों को आह्लादित कर रही है। एक छोटे से आलेख में आपने अपनी माटी से लगाव, क्षेत्र-विशेष की भावनाओं को आहत करने वालों पर व्यंग्य, मनुष्य की बढ़ती अपेक्षाएं, युवा समाज की रुग्न मानसिकता, पार्यावरण एवं सामजिक कर्तव्यों के प्रति गैर-जिम्मेदारी, अस्वच्छता, पोंगापंथी नियम एवं सहज मानवीय संकोच को बड़ी बारीकी से समेटा है। भाषा भी विषयानुकूल करवट ले रही है।

    धन्यवाद तो बनता है।

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  2. @ करण,
    आपके इस धन्यवाअद के लिए आभार!

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  3. @ करण,
    आपके इस धन्यवाद के लिए आभार!

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  4. मनोज भाई वह जमाना ही ऐसा था, आपको विवाह की वर्षगाँठ पर किस दिन बधाई दें?

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  5. @डॉ. अजीत गुप्त जी,
    सच कहा, वह ज़माना ही ऐसा था!!
    वर्षगांठ का लिंक नीचे है।
    फ़ुरसत में … क्या आलतू फ़ालतू कविता लिखने लगे हो

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  6. karan bhai se shat patisht sahmat hun
    blag lekhan ne kai nayi dishayen di hai, apka abhar

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  7. भाई साहब, ’डाऊन द मेमोरी लेन’ यात्रा अविस्मरणीय रही।
    लेकिन जब किसी ने फ़ब्ती कसी तो वहीं उसके कान के नीचे दो लगाने चाहिये थे, हमारी राय में तो।

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  8. अपनी जिन्दगी के नितांत निजी पहलुओं को सबके सम्मुख प्रस्तुत करना वैसे ही सहज नहीं होता है। परंतु अपने व्यक्तिगत जीवन की घटना के माध्यम से आपने अपनी भावनाओं के साथ साथ लोगों के कमेन्ट्स तक को बेहद ईमानदारी के साथ सरल सहज और रोचक भाषा में प्रस्तुत किया है। यह आपकी सरलता है। इसके लिए आपको बधाई।

    आपकी श्रीमती जी के शीघ्र स्वास्थ्य लाभ की ईश्वर से कामना करता हूँ।

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  9. भाई संजय जी, न तब किसी से झगड़ा-विवाद करने का स्वभाव था, न अब।

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  10. कोई जमाना ऐसा भी हुआ करता था ...
    वक़्त बुरा होता है , सही कहा ...
    रोचक प्रविष्टि !

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  11. @ वाणी जी,
    सही कहा ‘कोई जमाना ऐसा भी हुआ करता था’
    धन्यवाद।

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  12. मनोज जी बड़ी ईमानदारी से प्रस्तुत किया संस्मरण सच में बहुत पसंद आया.

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  13. आद. मनोज जी,
    माटी की खुशबू उठे,यादों की बौछार ,
    वक़्त नहीं कम कर सका, मन का गहरा प्यार !
    बीते दिनों की यादों की ऐसी जीवंत तस्वीर देखकर पाठक स्वयं उन पलों को आत्मसात करने लगता है ! इतने सारे रंगों को एक साथ सजोना आपकी कलम की विशेषता है !
    आभार !

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  14. तब होता ही ऐसा था .पर अब उसी की यादें कितनी मधुर हो उठी हैं .आप दोनों स्वस्थ-प्रसन्न रह कर खूब मन से घूमें-फिरें मौज करें ,अब तक तो दायित्वों से भी निवृत्त हो गए होंगे !

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  15. मजेदार!
    कामना है कि बाबी वाली डिम्पल के एहसास मिलते रहें आज भी।

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  16. इतने सालों बाद बहुत सारी यादें नजरों के सामने घूम गयी आपका ये संस्मरण पढकर . मजेदार संस्मरण

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  17. वक्त वक्त की बात होती है मगर जिस तरह वर्णन किया यूँ लगा सामने ही घटित हो रहा है सब्।

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  18. श्रीमती जी रेस्ट पर तो क्या यादें आज ताज़ा की हैं ... मिट्टी से जुड़े रहने की महक अच्छी लगी ...हनीमून का नाम लेना जैसे " ए " सर्टिफिकेट वाली फिल्म .:):)

    कुल मिला कर संस्मरण सजीव और सुन्दर ...इस संस्मरण से भी देसिल बयना की सुगंध आ रही है ...

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  19. @ संगीता जी,
    सही फ़रमाया आपने। संस्मरण तो बहाना था, इस नए इज़ाद किए देसिल बयना को पहुंचाने का और करण को एक और नुस्खा देने का कि वह इसे अपने अंदाज़ में पेश करे।

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  20. मनोज जी ,

    अपनी निजी जिंदगी का इतना रोचक संस्मरण प्रस्तुत करने के लिए धन्यवाद स्वीकारें |

    बीते दिनों में कुछ भी कमी रही हो , मगर मज़ा भरपूर था..... १००%

    अपनी माटी का प्यार ही तो अपना अस्तित्व है | अपनी माटी से बिलगाव पूरे जीवन की चूलें हिलाकर

    रख देता है |

    भाभी जी अति शीघ्र स्वस्थ हों , पुराने दिनों की सुखद स्मृतियाँ फिर आपके जीवन को हर्षोल्लास से

    भर दें ...यही हार्दिक शुभ कामना है |

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  21. संस्मरण विधा में आप माहिर हैं...

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  22. आपने बहुत फुर्सत में और बड़ी सादगी से अपने जीवन के महत्त्वपूर्ण पलों को कहीं गंभीर कहीं चटपटेदार बनाते हुए संस्मरण के रूप में पढ़ने का अविस्मर्णीय अवसर दिया.वाक़ई आपकी लेखन शैली अद्भुत है.आपकी wife के शीघ्र स्वस्थ होने की कामना करता हूँ.

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  23. सच है जब किस्मत खराब होती है तो यही होता है।

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  24. manoj ji

    wah din bahut hi aaccha din tha...

    yeh soch kar kabhi likhe bahut majadaar post hogi...
    aap ka har din subh ho yeh hamari kamana hai...

    jai baba banaras...

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  25. बहुत मजेदार संस्मरण माटी की खुशबू से सरावोर, इमानदारी से किया गया सहज वर्णन. बहुत बधाई.

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  26. बड़ी ईमानदारी से प्रस्तुत मजेदार संस्मरण.....आपने अपनी माटी से लगाव, क्षेत्र-विशेष की भावनाओं को आहत करने वालों पर व्यंग्य एवं सहज मानवीय संकोच को बड़ी बारीकी से समेटा है। बहुत पसंद आया.

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  27. MANOJ JI , SANSMARAN MEREE SABSE
    ZIADA PRIY VIDHAA HAI . JAB BHEE
    KOEE SANSMARANAATMAK LEKH YAA
    KAHANI MAIN PADHTA HOON TO USMEIN
    KHO JAATAA HOON . AAPKE IS SANSMARAN MEIN KHO GAYAA HOON .
    LEKH MUN KO BHARPOOR SPARSH KARTA
    HAI . VAKAEE VO KYA ZAMAANAA THAA!
    SUNDAR AUR SAHAJ PRASTUTI KE LIYE
    AAPKO BADHAAEE .

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  28. “लोग नाहक ही किसी मजबूर को कहते हैं बुरा,

    आदमी तो अच्‍छे होते हैं, पर वक्‍त बुरा होता है।”
    ...vykt kee maar jab padti hai to achhe achhon ke hosh thikane aa jaate hai..
    bahut badiya prasuti.. aabhar

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  29. मनोज जी आशा है आपकी श्रीमती जी अब स्वस्थ होंगी... बाकी नए नए व्याह में ये सब होता ही है... आप तो फब्तियां पर चुप रह गए... लेकिन हम तो एक बार बस में जा रहे थे गाँव से दरभंगा.... रास्ते में एक आदमी बीडी पी रहा था.. पत्नी कुछ असहज हो रही थी... मैंने मना किया तो वो कुछ अड़ गया... फिर क्या था हिंदी फिल्म के हीरो की तरह उसके मुह से बीडी छीन उसके चेहरे पर रगड़ने ही जा रहे थे वो उतर के भाग गया... दब्बू से कविहृदय में इतनी हिम्मत कहाँ से आयी थी नहीं पता.... और एक बात कहू मनोज जी.. जो लोग हनीमून नहीं मानते हैं उनका हनीमून जिंदगी भर चलता है.. सो हनीमून एन्जॉय कीजिये... और करते रहिये...

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  30. आदरणीय मनोज जी,
    आपका यह आलेख मन की गहराइयों में उतर गया.अपनी माटी से लगाव तो अपने-आप में सबसे बड़ा सृजन श्रोत है साहित्य का.आपकी इस रचना ने अनायास ही फणीश्वर नाथ रेणू जी की याद ताजा कर दी.अपनी मिटटी से,अपनी यादों से जुड़े रहना नसीब वालों को हो ही नसीब होता है.इससे पहले भी मुजफ्फरपुर के बारे में आपका संस्मरण पड़ा था.आपकी रचना हमेशा एक ताजगी और अपनापन लिए बढ़ती है.यह हमारा सौभाग्य है कि आपकी लेखनी हमें भी अपनी माटी से जोड़े रखती है.

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  31. बहुत सुन्दर, जब इसको पढ़ रहा था तो प्रसाद जी की निम्नलिखित पंक्तियाँ मन में कौंध गयीं-
    जो घनीभूत पीड़ा थी मस्तक में समृति सी छाई।
    दुर्दिन में आँसू बनकर वह आज बरसने आई।।

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  32. नमस्कार,
    सच कहा है आपने, मिट्टी गे जुड़े लोग आखिर अपनी संसृति से कट कैसे सकते है? आपने जिस इमानदारी से अपनी अप बीती बयां की है उससे न केवल स्संस्कृतिक लगाव का पता चलता है अपितु यह इस बात को भी प्रदर्शित करता है की यदि सच्चाई को शालीनता के साथ कहा और लिखा जाय तो तो उसके सौन्दर्य और सम्प्रेषण की बराबरी मष्तिस्क की उपजी रचनाये कभी नहीं कर सकती. नैसर्गिक सौदर्य और कृत्रिम सौदर्य में यही तो मूल भूत अंतर है. गाव से जुडा रहनेवाला व्यक्ति मै भी हूँ और बिहार से सटा होने के नाते बहुत कुछ बिहार जैसा ही है, लेकिन सब कुछ नहीं. जनपद बलिया का निवासी हूँ और गंगा तट के गाव भरसर का वासी. गंगा जी की गोद में तीन-तीन घर समां गए लेकिन तट को छोड़ने का मन अब भी नहीं करता. प्रकृति और संस्कृति दोनों से आंतरिक लगाव महसूस करता हूँ. सच तो यह है कि राजधानी लखनऊ में रह कर भी आचार-विचार-व्यवहार से अभी तक ठेठ गवई ही हूँ. शायद इसी लिए इसमें अपना प्रतिबिम्ब भी देख रहा हूँ औं अपनी तश्वीर भी. मन की इस सिधी सपाट अभिव्यकि ने साहित्य और ब्लॉग जगत में एक नई विधा को जन्म दिया है. इसका पल्लवन और पोषण होना चाहिए. यह आत्म चितन तो है ही एक परिवर्तन के साथ तुलना करने का अवसर भी प्रदान करता है जिससे हम स्वयं जान सकते हैं की अब हम किधर जा रहे हैं? यह जीवन की सबसे बड़ी उपलब्द्धि है.
    इस सरल किन्तु निश्छल अभिव्यक्ति के लिए आभार. नव वर्ष और नवरात्रि की मंगल कामनाएं.

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  33. लोग नाहक ही किसी मजबूर को कहते हैं बुरा,
    आदमी तो अच्‍छे होते हैं, पर वक्‍त बुरा होता है ..

    अपने संस्मरण को आपने समाज, विचार अपनी मिट्टी से जोड़ दिया है ...
    सरल भाषा में सोंधी सी खुश्बू आ रही है इस लेख से ... और अंत में मुनीर साहब का ये शेर .... बहुत लाजवब ...

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  34. मनोज जी बधाई और आभार। आज ही राय साहब से कह रहा था कि आपको और उनको इस ब्लॉग पर पढकर एक दिमागी सुकून मिलता है। करण जी ने एकदम सही लिखा है कि संस्मरण बहुत बढ़िया ढंग से प्रस्तुत हो रहे हैं। आपके इस संस्मरण को पढ़ते-पढ़ते न जाने कितनी दमित यादें, किस्से और एहसास ताजा हो गए। मैं भी हैदराबाद के पुराने शहर का रहने वाला हूँ और ऐसे कई व्यक्तिगत और अन्य वाकिये यह लिखते हुए ताजा हो चलें हैं। अक्सर कमियाँ और मजबूरियाँ हमें कुछ सीखाती हैं जो तत्क्षण तो समझ नहीं आतीं पर बाद में इसकी कीमत पता चलती है। हमारे जमीन से जुड़े होने में इनकी भूमिका नकारी नहीं जा सकती।
    इस संस्मरण कि एक और खास बात है कि अक्सर दूसरों के संबंध में इस तरह के प्रसंग लिखने में तो कोई अड़चन महसूस नहीं करते पर खुद पे गुजरे हाल को बयां करना दिलेर ईमानदारी का प्रतीक है। अतः बधाई और आभार। दिल को छूने वाली लेखनी।

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  35. बहुत ही सुन्दर और रोचक संस्मरण है...माटी की खुशबू से सराबोर..:)
    अच्छा समय चुना ये संस्मरण लिखने का...भाभी जी भी उन स्मृतियों में खो कर अपनी अस्वस्थता भूल गयी होंगी...
    आशा है....अब बिलकुल स्वस्थ होंगी वे...शुभकामनाएं

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  36. वाह बहुत ही जीवंत संस्मरण एक एक सीन जैसे आँखों के सामने चलता सा.
    वैसे अब तो जमाना बदल गया है:तब की कसार अब निकाल लें ...

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  37. me to is sansmaran ko padh kar hans hans ke lot pot ho gayi...aur vo kahavat yaad aayi....ki sir mundaate hi ole pade...ha.ha.ha.

    bechare majnu miyaan...ha.ha.ha.ha..ye bhi khoob rahi.

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  38. इसमें कोई शक नहीं है कि ऐसे संस्‍मरण में फुरसत में मनोज जी ही लिख सकते हैं। अंदाज पसंद आया।

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  39. मन का कोना कोना गमक गया भाईजी...

    अब तारीफ़ को शब्द कहाँ से ढूंढ कर लाऊं.......

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  40. वाह !आपका यह संस्मरण बहुत रोचक है, नई-पुरानी हलचल न होती तो यह पढ़ने को ही न मिलता !

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आपका मूल्यांकन – हमारा पथ-प्रदर्शक होंगा।