बुधवार, 29 फ़रवरी 2012

स्मृति शिखर से – 9 : वे लोग, भाग – 2

स्मृति शिखर से – 9 : वे लोग, भाग – 2

करण समस्तीपुरी

विगत अंक में कहा था कि धूसर ग्रामीण अंचल ऐसे अगणित मनुज-रत्नों से दीप्त है। इस शृंखला में ऐसे कुछ और नर-रत्नों को मैं याद करुँगा आपके साथ। आज फिर मेरे साथ हैं मेरे गाँव के ‘वे लोग’… जो रहते हैं मेरे स्मृति शिखर पर।

मेरे घर से पश्चिम मैथिल ब्राह्मणों का एक घर था। अब दो-चार घर हो गए हैं। उन्हीं घरों के पीछे था सरकार जी का कुआँ। कोई भ्रम मत पालिए। आज-तक ऐसी कोई सरकार नहीं हुई जो ऐसा कुआँ खुदवाए जिसमें सभी जाति-धर्म के लोग पानी पी सकें।

हमारे देखे वो मेरे टोले की सबसे बड़ी वृद्धा थी। लेकिन सिर्फ़ शरीर से। कमर झुक गई थी मगर नजर उतनी ही तेज और दांत ऐसे मजबूत की उस उम्र में भी पूरी सुपारी दांतों से तोड़ खाती थी। उनके सामने तो सब बच्चे ही थे… मेरे बाबा भी। लेकिन फिर भी बच्चों को लुभा-बुला कर पौराणिक कहानियाँ सुनाना बउनकी रुचियों में अग्रगण्य था। स्नेहमूर्ती इस कायस्थ महिला को टोले ही नहीं बल्कि गाँव के लोग भी ससम्मान सरकार जी कहते थे। उनकी छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी बात भी सर्वमान्य होती थी।

सरकार जी के कुएँ पर था एक विशाल आँवला वृक्ष और एक हनुमान-ध्वज। हनुमान जी का ध्वज यदि उँचाई में अधिक था तो आँवला पेड़ निश्चय ही चौड़ाई में। उस पेड़ की अनेक शाखा-प्रशाखाएँ थी। पत्तों से अधिक तो उसमें आँवला के फल लगते थे। लेकिन उस पेड़ के आँवले तोड़े नहीं जाते थे। हाँ, गिरे हुए आँवले पर सबका अधिकार था…। कोई भी चुनकर ले जा सकता था। लेकिन क्या मज़ाल कि कोई एक कंकड़ भी फेंके दे आँवला की डालियों पर…! सूरज की पहली किरण से सांझ के धुंधलके तक स्वयं सरकार जी का पहरा रहता था। सरकार जी को यूँ तो आँवले से कोई मोह नहीं था मगर भय यह था कि कहीं वह पत्थर कहीं हनुमान जी को न लग जाए। आँखों देखी बता रहा हूँ, आगे सरकार जी गईं और पीछे कुआँ। सरकार जी के गोलोकवासी होने के छः महीने के अंदर कुआँ भी पाताललोक चला गया। बेचारा आँवला कितने दिन रहता। वह भी सूख गया। हाँ, हनुमान जी का पताका अभी भी लहराया करता है।

सरकार जी के पाँच पुत्र थे। उन्हें वे पांच-पांडव कहती थीं। उन पांचों में रामजी बाबू मझले और जानकी बाबू चौथे आते थे। बड़े सूधो थे बाबू जानकी शरण। गाँव के रिश्ते से हमारे दादा लगते थे। गार्हस्थ्य में भक्ति-धर्म का वैसा निर्वाह करते मैंने शायद किसी को नहीं देखा। उनके लिए पूरी प्रकृति ही प्रभुमय थी।

गुजरात सरकार के स्वास्थ्य विभाग से सेवा-निवृत होकर गाँव में रहने आये थे। उनके आते ही पूरे गाँव में भक्ति की लहर दौड़ जाती थी। हर दूसरे दिन कीर्तन-भजन करवाते थे। कहीं अष्टयाम-नवाह होने की सिर्फ़ सूचना होनी चाहिए… उनका जाना तो निश्चित था।

यह बात बहुत पुरानी नहीं है। उस बार एक छोटा सा कैसेट-प्लेयर और मोरारी बापू, रमेश भाई ओझा और अन्य साधु-संतो के कीर्तन-प्रवचन के कैसेटों से भरा डब्बा लेकर रेवाड़ी आए थे। जब कहीं लाइव कीर्तन-भजन न हो रहा हो तो उन्ही कैसेट को बार-बार सुनते थे। टोले के बच्चे-बूढ़े को भी सुनने के लिए प्रेरित करते थे। हाँ, जवानों को नहीं। कहते थे वे कार्यकारी शक्ति हैं। मुझे भी उनके कैसेट प्लेयर पर साधु-संतो के प्रवचन सुनकर अच्छा लगता था। बहुत अच्छी हिंदी बोलते थे साधु लोग।

हाँ तो एक बार क्या हुआ कि जानकी बाबू कोई कैसेट सुन इतना आनंद-विभोर हुए कि उसे रोककर चल पड़े अन्यों को बुलाने। मुझे भी बुलाते आए थे। कृष्णबल्लभ बाबा, कन्हैया चचा… और कई लोग थे। उस पाँच मिनट में ही जानकी बाबा पाँच बार कह चुके थे कि वो कथा कितनी मर्मस्पर्शी थी। दरवाजे पहुँचते ही वे स्वयं लपक कर अंदर से कैसेट-प्लेयर लाकर बीच में रख प्लेय बटन दबा दिया। कैसेट बजने लगा….! जानकी बाबा फिर से आनंद-विभोर होने लगे,“…. आ…हा… हा…. ! जय श्री प्रभो…. ! आ… हा… हा….! आनंद-आनंद….! जय हो…! कितना मधुर भजन है….! कथा भी ऐसी ही है….! जय हो….! देखिए…. कृष्ण भगवान कह रहे हैं….!” जानकी बाबा आँख मूँदे ताली बजा-बजाकर झूम रहे थे और बोले जा रहे थे…. “जय हो…!”

कृष्णबल्ल्भ बाबा की आँखें बड़ी-बड़ी थी। सामान्य अवस्था में स्नेह से भरी। भावुकता में सजल और आक्रोश में रक्तिम। एक बार फिर ऐसा लग रहा था कि उनकी आँखों में खून उतर आया हो…! जानकी बाबा इन सब से बेखबर तब तक आनंदमग्न रहे जब तक कि कृष्णबल्लभ बाबा चिल्ला न पड़े, “जानकी शरण….! ये क्या बजा रहे हो…? कहीं तुम्हारा दिमाग तो खराब नहीं हो गया…? या कहीं तेरी बुद्धी तो भ्रष्ट नहीं हो गई…?”

जानकी बाबा अकचकार जैसे होश में आए। घबराकर पूछे क्या हुआ? कृष्णबल्लभ बाबा ने सकोप अपनी बात दुहराई। जानकी बाबा ध्यान देकर सुनने लगे। कैसेट प्लेयर पर बज रहा था, “कोठे उपर कोठरी….! मैं उसपर रेल चला दुँगी….!” उन्होंने मुझसे पूछकर यह तसदीक किया कि वह जो बज रहा था वो भजन नहीं फ़ूहर फ़िल्मी गाना था।

जानकी बाबा के तो होश ही उड़ गए। बेचारे लिटरली रोने लगे, “एं… इस बाजा को क्या हो गया….? इस से पहले तो इसमें भजन-प्रवचन छोड़ कुछ नहीं बजा…! लगता है इसका मगज गड़बड़ा गया…! ये अपने मन से ऐसे फ़िल्मी गाना कैसे बजा सकता है?” बेचारे सूधो जन कैसेट बदलने से अच्छा मैकेनिक से संपर्क करना बेहतर समझे। उसी अवस्था में कैसेट-प्लेयर को उठा ले गए मैकेनिक के पास। वहाँ जाकर माजरा साफ़ हुआ कि किसी ने कैसेट बदल दिया था। मैकेनिक के मना करने के बावजूद उसे पचास रुपया देकर आए थे। तसल्ली इस बात की थी कि कैसेट-प्लेयर खराब नहीं हुआ था। किसी ने कैसेट बदल दिया था। उन्हें क्रोध जरा भी नहीं आया था। इस बार भजन ही बज रहा था और वे पुनः आनंद-विभोर हो गए थे।

सोमवार, 27 फ़रवरी 2012

सूर्यमुखी छंद लिये भटके


सूर्यमुखी छंद लिये भटके

श्यामनारायण मिश्र

अनचाहे चेहरे आवरण हुए
दंभों ने लिखी भूमिका
अपनी ही गफलत में
    बिना पढ़े पन्नों से
         मुड़े रहे हम।

पोर-पोर पंजों की टीस
    कुहनी से कंधों तक
    पिंडली  से  रीढ़  तक चढ़ी।
जिस-तिसकी की
    चिउंटी से चीथड़े हुई
         छाती से कील न कढ़ी।
हाथ कटे जगन्नाथ
    लकदक रथयात्रा
रोगन से लिपे पुते खड़खड़िया ढांचे में
    लोहे के एक मात्र
         धुरे रहे हम।

माथे में सूर्यमुखी छंद लिये भटके
         राहु केतु मुश्किल
             से उतरे।
परती में उग आये
    गद्यों के गुल्म गाछ
    कथ्यों पर तने रहे
         आक्षितिजे कोहरे।
हाथों में हाथ धरे
    हुक्कों में लीद भरे
    फूंकते अतीत की
    अखबारी बैठक से
         जुड़े रहे हम।

रविवार, 26 फ़रवरी 2012

भारतीय काव्यशास्त्र – 101

भारतीय काव्यशास्त्र – 101

आचार्य परशुराम राय

पिछले अंक में अनवीकृत, सनियमपरिवृत्त, अनियमपरिवृत्त, विशेषपरिवृत्त और अविशेषपरिवृत्त अर्थदोषों पर चर्चा की गई थी। इस अंक में साकांक्षता, अपदयुक्तता और सहचरभिन्नता अर्थदोषों पर चर्चा की जाएगी।

जहाँ काव्य में काव्य किसी पद की आकांक्षा बनी रह जाती है, वहाँ साकांक्षता अर्थदोष होता है। इसके लिए आचार्य मम्मट ने महावीरचरित नाटक से एक श्लोक उद्धृत किया है। यह श्लोक सीता के न प्राप्त होने से निराश रावण के प्रति उसके आमात्य माल्यवान की उक्ति है-

अर्थित्वे प्रकटीकृतेSपि न फलप्राप्तिः प्रभो प्रत्युत

द्रुह्यन् दाशरथिर्विरुद्धचरितो युक्तस्तया कन्यया।

उत्कर्षञ्च परस्य मानयशसोर्विस्रंसनं चात्मनः

स्त्रीरत्नञ्च जगत्पतिर्दशमुखो देवः कथं मृष्यते।।

अर्थात् हे प्रभो, (महाराज जनक के समक्ष) याचक बनने पर भी सीतारूपी फल आपको प्राप्त नहीं हुआ। बल्कि उलटे वह आपके विरोधी और शत्रु दशरथ के पुत्र राम को दे दी गयी। अपने शत्रु का उत्कर्ष, अपने मान और यश का अपकर्ष एवं स्त्री-रत्न की उपेक्षा जगत्पति दशानन कैसे सहन कर सकता है?

यहाँ अन्तिम चरण में वाक्य को स्त्रीरत्नं के पश्चात् उपेक्षितुं पद की आकांक्षा बनी हुई है। क्योंकि तीसरी पंक्ति में प्रयुक्त परस्य पद का सम्बन्ध उत्कर्ष पद के साथ किया जा चुका है। अतएव इसका (परस्य) सम्बन्ध भी स्त्रीरत्नं के साथ नहीं हो सकता। अतएव इसमें साकांक्षता अर्थदोष है।

निम्नलिखित दोहे में भी यह दोष देखा जा सकता है-

परम बिरागी चित्त निज, पुनि देवन को काम।

जननी रुचि पुनि पितु बचन,क्यों तजिहैं बन राम।।

यहाँ तजिहैं पद के पहले जाइबो पद की आकांक्षा बनी रह जाती है।

इसी प्रकार आँसू के निम्नलिखित कविता में भी इसे देखा जा सकता है-

परिरम्भ कुम्भ की मदिरा,

निस्स्वास मलय के झोंके,

मुख चन्द्र चाँदनी जल से

मैं उठता था मुँह धोके। (आँसू- जयशंकर प्रसाद)

यदि यहाँ देखा जाय, तो परिरम्भ कुम्भ की मदिरा के बाद पीता था और निस्स्वास मलय के झोंके के बाद लगते थे की आकांक्षा बनी रह जाती है। अतएव उक्त दोहे और कविता में भी साकांक्षता अर्थदोष है।

काव्य में जहाँ अनुचित स्थान पर अनावश्यक पद प्रयोग किए गए हों, वहाँ अपदयुक्तता अर्थदोष होता है। इसके लिए काव्यप्रकाश में आचार्य राजशेखर द्वारा विरचित बालरामायण से उद्धृत किया गया है। इस श्लोक सीता के वर के रूप में रावण के प्रस्ताव की विवेचना करते हुए उसके दूत से महाराज जनक के पुरोहित शतानन्द की उक्ति है-

आज्ञा शक्रशिखामणिप्रणयिनी शास्त्राणि चक्षुर्नवं

भक्तिर्भूतपतौ पिनाकिनि पदं लङ्केति दिव्या पुरी।

उत्पत्तिर्द्रुहिणान्वये च तदहो नेदृग्वरो लभ्यते

स्याच्चेदेष न रावणः क्व नु पुनः सर्वत्र सर्वे गुणाः।।

अर्थात् जिसकी आज्ञा इन्द्र के लिए शिरोधार्य है, शास्त्र जिसके नये चक्षु हैं, भूतनाथ महादेव में जिसकी अपार भक्ति है, लंका नामक प्रसिद्ध दिव्य नगरी जिसका निवास है, ब्रह्मा के वंश में जिसका जन्म हुआ है; इस प्रकार तो ऐसा दूसरा वर मिल नहीं सकता यदि वह रावण (दुराचारी) न होता। लेकिन सभी गुण किसमें मिल सकते हैं?

यह श्लोक स्याच्चेदेष न रावणः (यदि वह रावण न होता) यहीं समाप्त हो जाना चाहिए था। क्योंकि क्व नु पुनः सर्वत्र सर्वे गुणाः (हर जगह सभी गुण नहीं पाए जाते) ऐसा कहने पर सीता का विवाह रावण से करने में कोई बाधा नहीं है, बल्कि सीता उसी को देनी चाहिए; यहाँ इस प्रकार के अर्थ की प्रतीति होती है जो उचित नहीं है। अतएव यहाँ क्व नु पुनः सर्वत्र सर्वे गुणाः पदों का अनुचित स्थान पर अनावश्यक प्रयोग हुआ है। जिससे यहाँ अपदप्रयुक्तता अर्थदोष है।

जहाँ काव्य में सजातीय वस्तुओं के साथ विजातीय वस्तुओं का उल्लेख किया गया हो, अर्थात् उत्कृष्ट के साथ निकृष्ट का भी वर्णन किया गया हो, वहाँ सहचरभिन्नता अर्थदोष होता है। जैसे-

श्रुतेन बुद्धिर्व्यसनेन मूर्खता मदेन नारी सलिलेन निम्नगा।

निशा शशाङ्केन धृतिः समाधिना नयेन चालङ्क्रियते नरेन्द्रता।।

अर्थात् शास्त्र सुनने से बुद्धि, दुर्व्यसन से मूर्खता, मद से नारी, जल से नदी, चन्द्रमा से रात्रि, समाधि से धैर्य और नीति पूर्वक राज्य-संचालन से राजपद शोभित होते हैं।

इस श्लोक में श्रुति आदि उत्कृष्ट चीजों के साथ निकृष्ट अर्थवाले दुर्व्यसन और मूर्खता पद आ जाने से सहचरभिन्नता अर्थदोष है।

लगभग इसी आशय का निम्नलिखित दोहा भी इस दोष से दूषित है-

निसि ससि सों जल कमल सों, मूढ़ व्यसन सों मित्त।

गज मद सों नृप तेज सों, सोभा पावत नित्त।।

यहाँ भी मूढ़, व्यसन पदों के कारण सहचरभिन्नता अर्थदोष है।

इस अंक में बस इतना ही।

बुधवार, 22 फ़रवरी 2012

स्मृति शिखर से– 8: वे लोग, भाग - 1

-- करण समस्तीपुरी
बिहार प्रांत का सरैसा परगना। गंगा, गंडक और बागमती की धाराओं के बीच बसा है समस्तीपुर मंडल। पूरब दिशा में रास्ते का दसवां किलोमीटरी पत्थर पार करते ही मेरा गाँव शुरु हो जाता है। बीच से गुजरने वाली पूर्वोत्तर रेलपथ उसे दो भागों में बांट देता है। ठीक उसी तरह जैसे अंबूजा सिमेंट से बनी बीच की दीवार दो भाइयों के घरों को।
मेरी गाँव की मिट्टी उर्वरा तो है ही, बड़ी मृदु भी है। पहली बार उसी की गोद में कदम बढ़ाना सीखा था। असंख्य बार गिरा... चोट कभी नहीं लगी गोया ऐसा लगा कि माँ का कोमल अंक मेरे गात को सहला रहा हो। मेरे गाँव में पेड़-पौधे भी संवेदना रखते हैं। निदाघ जेठ में जब कहीं एक पत्ती भी ना हिल रही हो, मेरे घर के कोने पर खड़ा अंवाला पेड़ की छांव में हम भर दोपहरी बड़े आराम से गिल्ली-डंडा खेलते थे। सच में गर्मी का पता तक नहीं चलता था। अब वो पेड़ नहीं रहा... अबके पेड़ों में वह प्रकृति नहीं रही।
एक और पेड़ था, बरगद का। पोखर के किनारे। ये बड़ी-बड़ी जटाएं थी। साधु वृक्ष। उसकी टहनी क्या पत्ते-पत्ते लोग लदे रहते। झटकना-झिड़कना तो दूर कभी किसी को डराता तक नहीं था। प्रलय-प्रभंजन में भी सुस्थिर रहता था। और तो और उसकी दाढ़ी जैसी लंबी जटाओं को पकर कर हम झूलते रहते थे, कभी उफ़ तक नहीं कहा बेचारे ने...! आह...! क्या वात्सल्य था उस पेड़ में... बिल्कुल दादा जी की तरह।
पुराने जमाने का पेड़ था। स्वभाव भी पुराना ही था। नयी व्यवस्था ने उसकी जड़ें क्षीण कर दी थी। एक दिन पछुआ हवा के हल्के झोकें ने उसे जड़ से उखार फेंका। तब से उसकी छाँव में सदा कल-कल बहने वाला सरोवर भी सूख गया। अब तो षष्ठी-व्रत में सूर्य देवता को अर्घ्य देने के लिए भी दमकल से पानी भरना पड़ता है।
पुराना युग नहीं रहा। पुराने लोग नहीं रहे... बहुत कुछ मैंने नहीं देखा...। जो कुछ मैंने देखा उसकी सुखद स्मृति मेरे भविष्य की संपत्ति है। मैंने बड़ी सिद्दत से उन्हे संजोए रखा है। शायद ये उनके काम आ जाए जो अब उनमें से कुछ नहीं देख पाएंगे। एक शे’र अर्ज़ करता हूँ,
“पुराने लोग ग़जब का मिज़ाज रखते थे।
खुद को बेच पड़ोसी की लाज रखते थे।
सुना है भूख से वो लोग मर गए मंजर,
मुट्ठियों में जो छुपाकर अनाज रखते थे॥”
मेरे दादा जी भी ऐसे ही थे। हम उन्हें बाबा कहते थे। घर-परिवार की फ़िक्र उन्होंने कभी नहीं की। लेकिन उनकी जानकारी में गाँव में कोई भूखा-बीमार नहीं रहना चाहिए। अपनी पेंशन, कर्ज, उधार, चंदा या अपनी नई धोती या जमीन बेचकर भी दूसरों की मदद को तत्पर रहते थे। मझली फ़ुआ बोकारो में रहती थी। अभी भी रहती हैं। कई बार आने का आग्रह की थी। बाबा हर बार पैसे की तंगी का हवाला देकर टाल जाते थे। दो-चार बार मनि-आर्डर से पैसे भी भेजी थी। वह भी समाज-सेवा में चले गए। छोटे बाबा उन दिनों मुजफ़्फ़रपुर में रेलवे में कार्यरत थे। आखिर उन्हे कह कर आरक्षित टिकट भिजवाया था।
नियत यात्रा से एक सप्ताह पहले पड़ोस में रहने वालेP5160440_thumb[6] एक सज्जन के घर पुत्रोत्पन्न हुआ। प्रातः बेचारे बाबा के सामने आ बैठे, “जच्चा-बच्चा की देख-भाल कैसे होगी? घर में तो एक फूटी कौड़ी भी नहीं है।” बाबा की पेंशन महीने के पहले सप्ताह में ही समाप्त हो जाती थी। इतनी जल्दी कहीं से कर्ज-उधार मिलने की भी उम्मीद नहीं थी। बाबा ने रेल का आरक्षित टिकट उनके हाथों में देते हुए कहा, “इसे रद्द करवा लो... पचहत्तर रुपये मिल जाएंगे। अभी काम चल जाएगा। आगे के लिए और देखते हैं।” बाबा अब नहीं हैं लेकिन वह परिवार दिल्ली में सकुशल जीवन निर्वाह कर रहा है। वह नवजात अब तो व्यस्क और आत्म-निर्भर हो गया होगा।
धूसर ग्रामीण अंचल ऐसे अगणित मनुज-रत्नों से दीप्त है। जब कभी कार्य से निस्तार पाता हूँ, वो गाँव, वे दिन, वे लोग, वो बातें, वो हरे-सुनहरे खेत, खाली खेतों में चरते मवेशी, खेत के मेड़ों पर गाते चरवाहे, वो पेड़-पौधे, कुआँ-पोखर, वो आबोहवा.... सब कुछ चलचित्र की भाँति मेरी स्मृति में दौड़ने लगते हैं। इस शृंखला में ऐसे कुछ और नर-रत्नों को मैं याद करुँगा आपके साथ हफ़्ता-दर-हफ़्ता।

सोमवार, 20 फ़रवरी 2012

गांव की ललक

गांव की ललक

श्यामनारायण मिश्र

अम्मा  की  डाली आदत सी
पुरखों से  मिली विरासत सी
    छोड़  नहीं  पाता  हूं
             गांव की ललक।

धड़कन में हंसों का शोर,
    आंखों में लहराता ताल।
सपनों  में  तैरती  रही,
    मछुआरी नौका की पाल।
हंसी में नहीं
    गगरी के
             कंठ की छलक।

दफ़्तर में ढूंढ़ता कुटुम्ब,
    अफसर में दादा का नेह-छोह।
देख चापलूसों की भीड़,
उबल - उबल पड़ता  विद्रोह।
पानी में आहत
पुरुषार्थ  की झलक।

मंडी में खेत के निशान,
    कोल्हू में सरसों  की गंध।
थका - थका ढूंढ़ता रहा,
    कविता में विरहा के छंद।
मिली नहीं चश्मे
        भींगती   पलक।

रविवार, 19 फ़रवरी 2012

भारतीय काव्यशास्त्र – 100


भारतीय  काव्यशास्त्र – 100
आचार्य  परशुराम राय
    आज काव्यशास्त्र शृंखला का 100 वाँ अंक प्रस्तुत करते हुए बहुत हर्ष हो रहा है। इस शृंखला की शुरूआत करते समय एक बार विचार आया था कि यह पाठकों की रुचि के अनुरूप हो भी सकेगी अथवा नहीं। बीच-बीच में कुछ व्यवधान भी आए, परन्तु, आप सब द्वारा इसे स्वीकार करने तथा मुझे निरंतर प्रोत्साहित करते रहने के फलस्वरूप यह शृंखला आज इस पायदान तक पहुँच सकी है। इस उपलब्धि के लिए मैं आप सबका आभारी हूँ।

पिछले अंक में प्रसिद्धविरुद्धता और विद्याविरुद्धता अर्थदोषों पर चर्चा की गयी थी। इस अंक में अनवीकृत, सनियमपरिवृत्त, अनियमपरिवृत्त, विशेषपरिवृत्त और अविशेषपरिवृत्त  अर्थदोषों पर चर्चा की जाएगी।
      जहाँ  काव्य में नवीनता का अभाव हो, वहाँ अनवीकृत अर्थदोष होता है। जैसे-
 प्राप्ताः श्रियः सकलकामदुघास्ततः  किं दत्तं  पदं शिरसि  विद्विषतां ततः  किम्।      
सन्नर्पिताः प्रणयिनो विभवैस्ततः किं कल्पं  स्थितं तनुभृतां तनुभिस्ततः किम्।।
      अर्थात् सम्पूर्ण इच्छाओं को पूरी करनेवाली सम्पत्ति मिल गयी, तो क्या हुआ? शत्रुओं के सिर पर पैर रख लिया, तो क्या हुआ? प्रियजनों को सम्पत्ति से मालामाल कर दिया, तो क्या हुआ? शरीर-धारी अपने शरीर कल्प-पर्यन्त धारण किये रहें, तो क्या हुआ? (अर्थात् आत्मज्ञान के अभाव में ये सारी उपलब्धियाँ व्यर्थ हैं।)
      यहाँ  कवि ने ततः किम् (इससे क्या हुआ) चारों चरणों में प्रयोग किया है, इसमें कोई नयी बात नहीं है। यदि यह कहा जाता कि आत्मज्ञान के बिना ये सारी उपलब्धियाँ व्यर्थ हैं, तो इसमें नयी बात होती। लेकिन इस श्लोक में ऐसा कोई उल्लेख नहीं किया गया है। अतएव यहाँ अनवीकृत अर्थदोष है।
      निम्नलिखित  श्लोक में बताया गया  है कि अनवीकृत दोष कैसे नहीं होता-
      यदि दहत्यनिलोSत्र किमद्भुतं यदि च गौरवमद्रिषु किं ततः।
      लवणमम्बु  सदैव  महोदधेः  प्रकृतिरेव  सतामविषादिता।।
      अर्थात् यदि अग्नि जलाती है, तो इसमें आश्चर्य क्या है? यदि पहाड़ों में गुरुता (भारीपन) है, तो इससे क्या? समुद्र का जल सदा खारा रहता है और कभी दुखी न होना सज्जनों की प्रकृति है।
      इस  श्लोक में भी कुछ समान ढंग से बात कही गयी है, परन्तु यहाँ यथार्थ की बातों  को बताकर यह स्पष्ट किया गया  है कि कभी दुखी न होना सज्जनों  की प्रकृति है। अतएव यह श्लोक उक्त दोष अर्थात्  अनवीकृत अर्थदोष से मुक्त है।
      अब  लेते हैं सनियमपरिवृत्त अर्थदोष को। यहाँ नियम का अर्थ बल देना या सीमित करना या अवधारण है और परिवृत्त का विपरीतता। तात्पर्य यह कि जहाँ सीमित करने की बात कहनी चाहिए, वहाँ बिना सीमित किए बात कही जाय, तो सनियमपरिवृत्त अर्थदोष होता है- 
      यत्रानुल्लिखितार्थमेव निखिलं  निर्माणमेतद्विधे-
      रुत्कर्षप्रतियोगिकल्पनमपि  न्यक्कारकोटिः  परा।
      याताः प्राणभृतां मनोरथगतीरुल्लङ्घ्य यत्सम्पद-
      स्तस्याभासमणीकृताश्मसु  मणेरश्मत्वमेवोचितम्।।
      अर्थात् चिन्तामणि के सामने ब्रह्मा की सम्पूर्ण सृष्टि निरर्थक लगती है, जिसके समान किसी अन्य की कल्पना करना भी इसका अपमान करना है, जिसकी सम्पत्ति प्राणियों के मनोरथों से भी परे है, अन्य पत्थरों के साथ मिल जाने पर जिसकी छाया के आभास से वे पत्थर भी चिन्तामणि के समान प्रतीत होते हैं, ऐसी स्थिति में चिन्तामणि की पत्थर-रूपता ही उचित है।
      इस  श्लोक में तस्याभासेन (उस मणि की छाया के आभास से) के स्थान पर छायामात्रेण (छाया मात्र से) प्रयोग करने से यह इस दोष से मुक्त हो जाता। मात्र शब्द से छाया शब्द को अधिक बल मिलता, उसका अवधारण होता। ऐसा न होने के कारण यहाँ सनियमपरिवृत्त अर्थदोष है।

      उक्त  दोष अर्थात् सनियमपरिवृत्त अर्थदोष के विपरीत स्थिति में अनियमपरिवृत्त अर्थदोष है, अर्थात् नियम के बिना (सीमित किए बिना) बात कहनी चाहिए, वहाँ उसके विपरीत कहा जाय। जैसे-
      वक्त्राम्भोजं सरस्वत्यधिवसति सदा शोण एवाधरस्ते
      बाहुः    काकुत्स्थवीर्यस्मृतिकरणपटुर्दक्षिणस्ते    समुद्रः।
      वाहिन्यः  पार्श्वमेताः क्षणमपि भवतो नैव मुञ्चन्त्यभीक्ष्णं
      स्वच्छेSन्तर्मानसेSस्मिन् कथमवनिपते! तेSम्बुपानाभिलाषः।।
      अर्थात् हे राजन्, आपके मुखरूपी कमल  में सदा सरस्वती (यहाँ नदी  और वाग्देवी) निवास करती है, आपका अधर ही शोण (सोन नदी एवं लाल रंग का) है, भगवान रामचन्द्र के पराक्रम को याद दिलाने वाली आपकी दाहिनी भुजा (राजचिह्न की मुद्रा से अंकित) दक्षिणी समुद्र है, ये वाहिनियाँ (एक पक्ष में नदियाँ और दूसरे पक्ष में सेनाएँ) कभी भी आपका साथ नहीं छोड़तीं, और आपके भीतर स्वच्छ मानस (मानसरोवर और दूसरे पक्ष में मन) के होते हुए आपको पानी पीने की कैसे इच्छा होती है?
      यह  श्लोक बल्लाल द्वारा विरचित भोजप्रबन्ध से लिया गया है। जिसका तात्पर्य है कि जिस राजा के मुँह में और समीप में सब नदियाँ है, उसे पानी पीने की इच्छा क्यों हो रही है। यहाँ शोण एवाधरस्ते (आपका अधर ही शोण है) में एव पद के प्रयोग से अधर पद पर बल दिया गया है, जो अनुचित है। क्योंकि जब मुख में सरस्वती है, चारों ओर वाहिनियाँ हैं तो इसके साथ कहना चाहिए था- अधर शोण है, न कि अधर ही शोण है। अतएव यह नियम विरुद्ध है, अर्थात् एव (ही) पद प्रयोग कर उसे सीमित नहीं करना चाहिए था। जैसे, कहा जाय कि केवल हम सभी लोग जाएँगे, तो यह गलत है। यहाँ केवल शब्द की आवश्यकता नहीं है। यह अनियमपरिवृत्त अर्थदोष पैदा कर रहा है। इसी कारण से इस श्लोक में अनियमपरिवृत्त अर्थदोष है।
      जहाँ  विशेष-वाचक पद का प्रयोग करना चाहिए, वहाँ सामान्य-वाचक पद प्रयोग किया जाय, अर्थात् विशेष के विपरीत कथन किय जाय तो विशेषपरिवृत्त अर्थदोष  होता है। जैसे-
      श्यामां श्यामलिमानमानयत  भोः सान्दैर्मषीकूर्चकैः
      मन्त्रं तन्त्रमथ प्रयुज्य हरत श्वोतोत्पलानां श्रियः।
      चन्द्रं चूर्णयत क्षणाच्च कणशः कृत्वा शिलापट्टिके
      येन द्रष्टुमहं क्षमे  दश दिशस्तद्वक्त्रमुद्राङ्किताः।।
        अर्थात् हे सेवकों, गाढ़ी काली स्याही की कूँचियों से इस (चाँदनी) रात को काली कर दो, श्वेत कमलों की शोभा को मंत्र-तंत्र का प्रयोग कर नष्ट कर दो और चन्द्रमा को शिला पर रखकर चूर्ण-चूर्ण कर दो, ताकि उसकी (प्रेमिका की) मुखमुद्रा से अंकित दसों दिशाओं को देख सकूँ।
      यहाँ  रात के लिए इसका सामान्य-वाचक शब्द श्यामा प्रयोग किया गया है। जबकि सन्दर्भ के अनुसार चाँदनी रात का विशेषवाचक शब्द ज्योत्सनी प्रयोग करना चाहिए था। ऐसा न होने से यहाँ विशेषपरिवृत्त अर्थदोष आ गया है।
      विशेषपरिवृत्त अर्थदोष के विपरीत है अविशेषपरिवृत्त अर्थदोष, अर्थात् जहाँ सामान्य-वाचक पद का प्रयोग करना चाहिए वहाँ विशेष-वाचक पद का प्रयोग किया जाय। जैसे-
      कल्लोलवेल्लितदृषत्परुषप्रहारै   रत्नान्यमूनि   मकरालय   मावमंस्थाः।
      किं कौस्तुभेन विहितो भवतो न नाम  याञ्चाप्रसारितकरः  पुरुषोत्तमोSपि।।
      अर्थात् हे समुद्र (मकरालय), अपनी लहरों  से कठोर पत्थरों का प्रहार करके इन रत्नों का अपमान मत करो। क्या इन्हीं रत्नों में  से केवल एक कौस्तुभ ने पुरुषोत्तम (भगवान विष्णु) को आपके सामने  हाथ फैलानेवाला याचक नहीं बना दिया था?
      यहाँ  द्रष्टव्य है कि समुद्र से निकली एक ही कौस्तुभ मणि  है, जो भगवान विष्णु के पास  है। इसलिए उसे कौस्तुभ  नाम से यहाँ अभिहित करने की आवश्यकता नहीं है। किं कौस्तुभेन विहितो भवतो न नाम के स्थान पर एकेन किं न विहितो भवतो स नाम कहना चाहिए था। नाम विशेष का उल्लेख होने के कारण यहाँ अविशेषपरिवृत्त अर्थदोष आ गया है।
इस अंक में बस इतना ही।

शनिवार, 18 फ़रवरी 2012

फ़ुरसत में … प्रेम-प्रदर्शन

फ़ुरसत में … 92

प्रेम-प्रदर्शन

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मनोज कुमार

एक वो ज़माना था जब वसंत के आगमन पर कवि कहते थे,

डाउनलोड करें (1)अपनेहि पेम तरुअर बाढ़ल

कारण किछु नहि भेला ।

साखा पल्लव कुसुमे बेआपल

सौरभ दह दिस गेला ॥ (विद्यापति)

आज तो न जाने कौन-कौन-सा दिन मनाते हैं और प्रेम के प्रदर्शन के लिए सड़क-बाज़ार में उतर आते हैं। इस दिखावे को प्रेम-प्रदर्शन कहते हैं। हमें तो रहीम का दोहा याद आता है,

रहिमन प्रीति न कीजिए, जस खीरा ने कीन।

ऊपर से तो दिल मिला, भीतर फांके तीन॥

खैर, खून, खांसी, खुशी, बैर, प्रीति, मद-पान।

रहिमन दाबे ना दबत जान सकल जहान॥

हम तो विद्यार्थी जीवन के बाद सीधे दाम्पत्य जीवन में बंध गए इसलिए प्रेमचंद के इस वाक्य को पूर्ण समर्थन देते हैं, “जिसे सच्चा प्रेम कह सकते हैं, केवल एक बंधन में बंध जाने के बाद ही पैदा हो सकता है। इसके पहले जो प्रेम होता है, वह तो रूप की आसक्ति मात्र है --- जिसका कोई टिकाव नहीं।”

उस दिन सुबह-सुबह नींद खुली, बिस्तर से उठने जा ही रहा था कि श्रीमती जी का मनुहार वाला स्वर सुनाई दिया, “कुछ देर और लेटे रहो ना।”

जब नींद खुल ही गई थी और मैं बिस्तर से उठने का मन बना ही चुका था, तो मैंने अपने इरादे को तर्क देते हुए कहा, “नहीं-नहीं, सुबह-सुबह उठना ही चाहिए।”

“क्यों? ऐसा कौन-सा तीर मार लोगे तुम?”

मैंने अपने तर्क को वजन दिया, “इससे शरीर दुरुस्त और दिमाग़ चुस्त रहता है।”

अब उनका स्वर अपनी मधुरता खो रहा था, “अगर सुबह-सुबह उठने से दिमाग़ चुस्त-दुरुस्त रहता है, तो सबसे ज़्यादा दिमाग का मालिक दूधवाले और पेपर वाले को होना चाहिए।”

“तुम्हारी इन दलीलों का मेरे पास जवाब नहीं है।” कहता हुआ मैं गुसलखाने में घुस गया। बाहर आया तो देखा श्रीमती जी चाय लेकर हाज़िर हैं। मैंने कप लिया और चुस्की लगाते ही बोला, “अरे इसमें मिठास कम है ..!”

श्रीमती जी मचलीं, “तो अपनी उंगली डुबा देती हूं .. हो जाएगी मीठी।”

मैंने कहा, “ये आज तुम्हें हो क्या गया है?”

“तुम तो कुछ समझते ही नहीं … कितने नीरस हो गए हो?” उनके मंतव्य को न समझते हुए मैं अखबार में डूब गया।

मैं आज जिधर जाता श्रीमती जी उधर हाज़िर .. मेरे नहाने का पानी गर्म, स्नान के बाद सारे कपड़े यथा स्थान, यहां तक कि जूते भी लेकर हाजिर। मेरे ऑफिस जाने के वक़्त तो मेरा सब काम यंत्रवत होता है। सो फटाफट तैयार होता गया और श्रीमती जी अपना प्रेम हर चीज़ में उड़ेलती गईं।

मुझे कुछ अटपटा-सा लग रहा था। अत्यधिक प्रेम अनिष्ट की आशंका व्यक्त करता है।

जब दफ़्तर जाने लगा, तो श्रीमती जी ने शिकायत की, “अभी तक आपने विश नहीं किया।”

मैंने पूछा, “किस बात की?”

बोलीं, “अरे वाह! आपको यह भी याद नहीं कि आज वेलेंटाइन डे है!”

ओह! मुझे तो ध्यान भी नहीं था कि आज यह दिन है। मैं टाल कर निकल जाने के इरादे से आगे बढ़ा, तो वो सामने आ गईं। मानों रास्ता ही छेक लिया हो। मैंने कहा, “यह क्या बचपना है?”

उन्होंने तो मानों ठान ही लिया था, “आज का दिन ही है, छेड़-छाड़ का ...”

मैंने कहा, “अरे तुमने सुना नहीं टामस हार्डी का यह कथन – Love is lame at fifty years! यह तो बच्चों के लिए है, हम तो अब बड़े-बूढ़े हुए। इस डे को सेलिब्रेट करने से अधिक कई ज़रूरी काम हैं, कई ज़रूरी समस्याओं को सुलझाना है। ये सब करने की हमारी उमर अब गई।”

“यह तो एक हक़ीक़त है। ज़िन्दगी की उलझनें शरारतों को कम कर देती हैं। ... और लोग समझते हैं ... कि हम बड़े-बूढ़े हो गए हैं।

“बहुत कुछ सीख गई हो तुम तो..।”

वो अपनी ही धुन में कहती चली गईं,

“न हम कुछ हंस के सीखे हैं,

न हम कुछ रो के सीखे है।

जो कुछ थोड़ा सा सीखे हैं,

तुम्हारे हो के सीखे हैं।”

images (1)मैंने अपनी झेंप मिटाने के लिए विषय बदला, “पर तुम्हारी शरारतें तो अभी-भी उतनी ही अधिक हैं जितनी पहले हुआ करती थीं ...”

उनका जवाब तैयार था, “हमने अपने को उलझनों से दूर रखा है।”

उनकी वाचालता देख मैं श्रीमती जी के चेहरे की तरफ़ बस देखता रह गया। मेरी आंखों में छा रही नमी को वो पकड़ न लें, ... मैंने चेहरे को और भी सीरियस कर लिया। चेहरे को घुमाया और कहा, “तुम ये अपना बचपना, अपनी शरारतें बचाए रखना, ... ये बेशक़ीमती हैं!”

अपनी तमाम सकुचाहट को दूर करते हुए बोला, “लव यू!”

और झट से लपका लिफ़्ट की तरफ़।

शाम को जब दफ़्तर से वापस आया, तो वे अपनी खोज-बीन करती निगाहों से मेरा निरीक्षण सर से पांव तक करते हुए बोली, “लो, तुम तो खाली हाथ चले आए …”

“क्यों, कुछ लाना था क्या?”

बोलीं, “हम तो समझे कोई गिफ़्ट लेकर आओगे।”

मन ने उफ़्फ़ ... किया, मुंह से निकला, “गिफ़्ट की क्या ज़रूरत है? हम हैं, हमारा प्रेम है। जब जीवन में हर परिस्थिति का सामना करना ही है तो प्रेम से क्यों न करें?

लेकिन वो तो अटल थीं, गिफ़्ट पर। “अरे आज के दिन तो बिना गिफ़्ट के नहीं आना चाहिए था तुम्हें, इससे प्यार बढ़ता है।”

मैंने कहा, “गिफ़्ट में कौन-सा प्रेम रखा है? ...” अपनी जेब का ख्याल मन में था और ज़ुबान पर, “जो प्रेम किसी को क्षति पहुंचाए वह प्रेम है ही नहीं।” मैंने अपनी बात को और मज़बूती प्रदान करने के लिए जोड़ा, “टामस ए केम्पिस ने कहा है – A wise lover values not so much the gift of the lover as the love of the giver. और मैं समझता हूं कि तुम बुद्धिमान तो हो ही।”

उनके चेहरे के भाव बता रहे थे कि आज ... यानी प्रेम दिवस पर उनके प्रेम कभी भी बरस पड़ेंगे। मेरा बार बार का एक ही राग अलापना शायद उनको पसंद नहीं आया। सच ही है, जीवन कोई म्यूज़िक प्लेयर थोड़े है कि आप अपना पसंदीदा गीत का कैसेट बजा लें और सुनें। दूसरों को सुनाएं। यह तो रेडियो की तरह है --- आपको प्रत्येक फ्रीक्वेंसी के अनुरूप स्वयं को एडजस्ट करना पड़ता है। तभी आप इसके मधुर बोलों को एन्ज्वाय कर पाएंगे।

मैंने सोचा मना लेने में हर्ज़ क्या है? अपने साहस को संचित करता हुआ रुष्टा की तरफ़ बढ़ा।

“हे प्रिये!”

“क्या है ..(नाथ) ..?”

“(हे रुष्टा!) क्रोध छोड़ दे।”

“गुस्सा कर के मैं कर ही क्या लूंगी?”

“मुझे अपसेट (खिन्न) तो किया ही ना ...”

“हां-हां सारा दोष तो मुझमें ही है।”

“चेहरे से से लग तो रहा है कि अब बस बरसने ही वाली हो।”

“तुम पर बरसने वाली मैं होती हूं ही कौन हूं?”

“मेरी प्रिया हो, मेरी .. (वेलेंटाइन) ...”

“वही तो नहीं हूं, इसी लिए ,,, (अपनी क़िस्मत को कोस रही हूं) ...”

"खबरदार! ऐसा कभी न कहना!!"

"क्यों कहूंगी भला! मुझे मेरा गिफ्ट मिल जो गया. सब कुछ खुदा से मांग लिया तुमको मांगकर!"

"........................"

***

हमारे जीवन में हमारा प्रेम-प्रदर्शन इसी तरह होता आया है।

इस पथ का उद्देश्य नहीं है श्रांति भवन में टिक रहना

किन्तु पहुंचना उस सीमा पर जिसके आगे राह नहीं

अथवा उस आनन्द भूमि में जिसकी सीमा कहीं नहीं। (जयशंकर प्रसाद)

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