स्मृति शिखर से – 9 : वे लोग, भाग – 2
करण समस्तीपुरी
विगत अंक में कहा था कि धूसर ग्रामीण अंचल ऐसे अगणित मनुज-रत्नों से दीप्त है। इस शृंखला में ऐसे कुछ और नर-रत्नों को मैं याद करुँगा आपके साथ। आज फिर मेरे साथ हैं मेरे गाँव के ‘वे लोग’… जो रहते हैं मेरे स्मृति शिखर पर।
मेरे घर से पश्चिम मैथिल ब्राह्मणों का एक घर था। अब दो-चार घर हो गए हैं। उन्हीं घरों के पीछे था सरकार जी का कुआँ। कोई भ्रम मत पालिए। आज-तक ऐसी कोई सरकार नहीं हुई जो ऐसा कुआँ खुदवाए जिसमें सभी जाति-धर्म के लोग पानी पी सकें।
हमारे देखे वो मेरे टोले की सबसे बड़ी वृद्धा थी। लेकिन सिर्फ़ शरीर से। कमर झुक गई थी मगर नजर उतनी ही तेज और दांत ऐसे मजबूत की उस उम्र में भी पूरी सुपारी दांतों से तोड़ खाती थी। उनके सामने तो सब बच्चे ही थे… मेरे बाबा भी। लेकिन फिर भी बच्चों को लुभा-बुला कर पौराणिक कहानियाँ सुनाना बउनकी रुचियों में अग्रगण्य था। स्नेहमूर्ती इस कायस्थ महिला को टोले ही नहीं बल्कि गाँव के लोग भी ससम्मान सरकार जी कहते थे। उनकी छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी बात भी सर्वमान्य होती थी।
सरकार जी के कुएँ पर था एक विशाल आँवला वृक्ष और एक हनुमान-ध्वज। हनुमान जी का ध्वज यदि उँचाई में अधिक था तो आँवला पेड़ निश्चय ही चौड़ाई में। उस पेड़ की अनेक शाखा-प्रशाखाएँ थी। पत्तों से अधिक तो उसमें आँवला के फल लगते थे। लेकिन उस पेड़ के आँवले तोड़े नहीं जाते थे। हाँ, गिरे हुए आँवले पर सबका अधिकार था…। कोई भी चुनकर ले जा सकता था। लेकिन क्या मज़ाल कि कोई एक कंकड़ भी फेंके दे आँवला की डालियों पर…! सूरज की पहली किरण से सांझ के धुंधलके तक स्वयं सरकार जी का पहरा रहता था। सरकार जी को यूँ तो आँवले से कोई मोह नहीं था मगर भय यह था कि कहीं वह पत्थर कहीं हनुमान जी को न लग जाए। आँखों देखी बता रहा हूँ, आगे सरकार जी गईं और पीछे कुआँ। सरकार जी के गोलोकवासी होने के छः महीने के अंदर कुआँ भी पाताललोक चला गया। बेचारा आँवला कितने दिन रहता। वह भी सूख गया। हाँ, हनुमान जी का पताका अभी भी लहराया करता है।
सरकार जी के पाँच पुत्र थे। उन्हें वे पांच-पांडव कहती थीं। उन पांचों में रामजी बाबू मझले और जानकी बाबू चौथे आते थे। बड़े सूधो थे बाबू जानकी शरण। गाँव के रिश्ते से हमारे दादा लगते थे। गार्हस्थ्य में भक्ति-धर्म का वैसा निर्वाह करते मैंने शायद किसी को नहीं देखा। उनके लिए पूरी प्रकृति ही प्रभुमय थी।
गुजरात सरकार के स्वास्थ्य विभाग से सेवा-निवृत होकर गाँव में रहने आये थे। उनके आते ही पूरे गाँव में भक्ति की लहर दौड़ जाती थी। हर दूसरे दिन कीर्तन-भजन करवाते थे। कहीं अष्टयाम-नवाह होने की सिर्फ़ सूचना होनी चाहिए… उनका जाना तो निश्चित था।
यह बात बहुत पुरानी नहीं है। उस बार एक छोटा सा कैसेट-प्लेयर और मोरारी बापू, रमेश भाई ओझा और अन्य साधु-संतो के कीर्तन-प्रवचन के कैसेटों से भरा डब्बा लेकर रेवाड़ी आए थे। जब कहीं लाइव कीर्तन-भजन न हो रहा हो तो उन्ही कैसेट को बार-बार सुनते थे। टोले के बच्चे-बूढ़े को भी सुनने के लिए प्रेरित करते थे। हाँ, जवानों को नहीं। कहते थे वे कार्यकारी शक्ति हैं। मुझे भी उनके कैसेट प्लेयर पर साधु-संतो के प्रवचन सुनकर अच्छा लगता था। बहुत अच्छी हिंदी बोलते थे साधु लोग।
हाँ तो एक बार क्या हुआ कि जानकी बाबू कोई कैसेट सुन इतना आनंद-विभोर हुए कि उसे रोककर चल पड़े अन्यों को बुलाने। मुझे भी बुलाते आए थे। कृष्णबल्लभ बाबा, कन्हैया चचा… और कई लोग थे। उस पाँच मिनट में ही जानकी बाबा पाँच बार कह चुके थे कि वो कथा कितनी मर्मस्पर्शी थी। दरवाजे पहुँचते ही वे स्वयं लपक कर अंदर से कैसेट-प्लेयर लाकर बीच में रख प्लेय बटन दबा दिया। कैसेट बजने लगा….! जानकी बाबा फिर से आनंद-विभोर होने लगे,“…. आ…हा… हा…. ! जय श्री प्रभो…. ! आ… हा… हा….! आनंद-आनंद….! जय हो…! कितना मधुर भजन है….! कथा भी ऐसी ही है….! जय हो….! देखिए…. कृष्ण भगवान कह रहे हैं….!” जानकी बाबा आँख मूँदे ताली बजा-बजाकर झूम रहे थे और बोले जा रहे थे…. “जय हो…!”
कृष्णबल्ल्भ बाबा की आँखें बड़ी-बड़ी थी। सामान्य अवस्था में स्नेह से भरी। भावुकता में सजल और आक्रोश में रक्तिम। एक बार फिर ऐसा लग रहा था कि उनकी आँखों में खून उतर आया हो…! जानकी बाबा इन सब से बेखबर तब तक आनंदमग्न रहे जब तक कि कृष्णबल्लभ बाबा चिल्ला न पड़े, “जानकी शरण….! ये क्या बजा रहे हो…? कहीं तुम्हारा दिमाग तो खराब नहीं हो गया…? या कहीं तेरी बुद्धी तो भ्रष्ट नहीं हो गई…?”
जानकी बाबा अकचकार जैसे होश में आए। घबराकर पूछे क्या हुआ? कृष्णबल्लभ बाबा ने सकोप अपनी बात दुहराई। जानकी बाबा ध्यान देकर सुनने लगे। कैसेट प्लेयर पर बज रहा था, “कोठे उपर कोठरी….! मैं उसपर रेल चला दुँगी….!” उन्होंने मुझसे पूछकर यह तसदीक किया कि वह जो बज रहा था वो भजन नहीं फ़ूहर फ़िल्मी गाना था।
जानकी बाबा के तो होश ही उड़ गए। बेचारे लिटरली रोने लगे, “एं… इस बाजा को क्या हो गया….? इस से पहले तो इसमें भजन-प्रवचन छोड़ कुछ नहीं बजा…! लगता है इसका मगज गड़बड़ा गया…! ये अपने मन से ऐसे फ़िल्मी गाना कैसे बजा सकता है?” बेचारे सूधो जन कैसेट बदलने से अच्छा मैकेनिक से संपर्क करना बेहतर समझे। उसी अवस्था में कैसेट-प्लेयर को उठा ले गए मैकेनिक के पास। वहाँ जाकर माजरा साफ़ हुआ कि किसी ने कैसेट बदल दिया था। मैकेनिक के मना करने के बावजूद उसे पचास रुपया देकर आए थे। तसल्ली इस बात की थी कि कैसेट-प्लेयर खराब नहीं हुआ था। किसी ने कैसेट बदल दिया था। उन्हें क्रोध जरा भी नहीं आया था। इस बार भजन ही बज रहा था और वे पुनः आनंद-विभोर हो गए थे।