रविवार, 11 मार्च 2012

भारतीय काव्यशास्त्र – 103



भारतीय काव्यशास्त्र – 103
आचार्य परशुराम राय
पिछले अंक में प्रकाशितविरुद्धता और विध्ययुक्तता अर्थदोषों पर चर्चा की गयी थी। इस अंक में शेष तीन अर्थदोषों- अनवादायुक्तता, समाप्तपुनरात्तत्व और अश्लीलता पर चर्चा की जाएगी।
अनवादायुक्तता का अर्थ है अनुवाद की अयुक्तता। यहाँ अनुवाद का अर्थ ट्रांसलेशन नहीं है। काव्यप्रकाश पर अपनी अंग्रेजी टीका में महामहोपाध्याय डॉ. गंगानाथ झा ने इसके लिए अंग्रेजी का समानार्थी शब्द दिया है - Improper Adjunct, अर्थात् जो अनुबन्ध्य या अनुवाद्य़ के योग्य न होना अनुवादायुक्तत्व अर्थदोष है।
 आचार्य मम्मट ने इसके लिए निम्नलिखित श्लोक को उद्धृत किया है। इस श्लोक में कोई विरही व्यक्ति नीलकमल से अपनी प्रेयसी का पता पूछ रहा है। इसमें नीलकमल के लिए प्रयुक्त विशेषण सूचित करते हैं कि उसकी प्रेमिका उसके (नीलकमल के) पास अवश्य आई होगी। इसलिए वह उससे पता पूछते हुए कहता है-
अरे  रामाहस्ताभरण  भसलश्रेणिशरण   स्मरक्रीडाव्रीडाशमन    विरहिप्राणदमन।
सरोहंसोत्तंस प्रचलदल नीलोत्पल सखे सखेदोSहं मोहं श्लथय कथय क्वेन्दुवदना।।
अर्थात् हे सुन्दरियों के हाथ के आभूषण, हे भौंरों के समूह के आश्रयदाता, हे काम-केलि में लज्जा का शमन करने वाले, हे विरही लोगों के प्राणों का दमन करनेवाले, हे श्रेष्ठ सरोवरों की शोभा के जनक, चंचल दलों वाले (पत्तों), हे मित्र नीलकमल, मैं बहुत दुखी हूँ। मेरे मोह को दूर करो और बताओ कि चन्द्रवदनी कहाँ है।
यहाँ नीलकमल के लिए विरहिप्राणदमन (विरही लोगों के प्राणों का दमन करनेवाला) विशेषण से सम्बोधित किया है, जो अनुचित है। क्योंकि जो विरही लोगों के प्राणों का दमन करनेवाला है उससे एक विरही अपनी प्रियतमा का पता पूछकर अपने जीवन को खोजना चाहता है, यह युक्तियुक्त नहीं है। अतः यह श्लोक अनुवादायुक्तता अर्थदोष से दूषित है।
जहाँ काव्य में कथ्य समाप्त हो गया हो और पुनः उसे प्रारम्भ कर दिया जाय वहाँ समाप्तपुनरात्तता दोष होता है। काव्यप्रकाश में इसके लिए निम्नलिखित श्लोक उद्धृत किया गया है। इसे अन्य दोष के लिए भी पीछे लिया जा चुका है। यहाँ यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि एक ही काव्य में एक से अधिक दोष हो सकते हैं। दोष विशेष के सन्दर्भ में केवल उसे ही इंगित किया गया है।
लग्नं    रागावृताङ्ग्या    सुदृढमिह   ययैवासियष्ट्यारिकण्ठे
मातङ्गानामपीहोपरि     परपुरुषैर्या    च    दृष्टा   पतन्ती।
तत्सक्तोSयं न किञ्चिद् गणयति विदितं तेSस्तु तेनास्मि दत्ता
भृत्येभ्यः  श्रीनियोगाद्  गदितुमिव  गतेत्यम्बुधिं यस्य कीर्तिः।।
अर्थात् जो तलवार रागयुक्त (राग अर्थात् रक्त या अनुराग से युक्त) हो शत्रुओं के गले और अन्य लोग जिसे मातंगों ( हाथियों या चांडालों) पर भी गिरते देख चुके  हैं, उसी पर सक्त (आसक्त या तत्पर) होकर यह राजा मेरी (राज्यलक्ष्मी या धन की) थोड़ी भी चिन्ता नहीं करता, यह तो आपको मालूम है। यही नहीं, उसने मुझे (राज्यलक्ष्मी या धन को) अपने सेवकों के अधीन कर रखा है। मानो लक्ष्मी की आज्ञा से राजा की कीर्ति यह सन्देश लेकर उनके (लक्ष्मी के) पिता समुद्र के पास पहुँची है।
इस श्लोक में विदितं तेSस्तु (यह तो आपको विदित ही है) उपवाक्य पर कथ्य समाप्त हो जाता है और पुनः तेनास्मि दत्ता (उसने मुझे दे दिया है) कहकर बात उठा दी जाती है। अतएव यहाँ समाप्तपुनरात्तता अर्थदोष है।
जहाँ काव्य में अश्लीलता व्यंजित हो, वहाँ अश्लीलता अर्थदोष होता है। निम्नलिखित श्लोक में लज्जाजनक अश्लीलता व्यंजित होती है-
                  हन्तुमेव  प्रवृत्तस्य स्तब्धस्य विवरैषिणः।
                यथास्य जायते पातो न तथा पुनरुन्नतिः।।
     अर्थात् नाश करने के लिए उद्यत, उद्धत और छिद्रान्वेषी का जितना शीघ्र पतन होता है उतना शीघ्र उत्थान नहीं होता।
     इस श्लोक में एक उद्धत, अभिमानी एवं क्रूर व्यक्ति के विषय में बात कही गयी है। किन्तु इससे पुरुष के शिश्न (लिंग) की भी अभिव्यंजना होती है। अतएव यह श्लोक अश्लीलता अर्थदोष से दूषित है।
     इस अंक में बस इतना ही। अगले अंक से रसदोषों पर चर्चा प्रारम्भ होगी।  

3 टिप्‍पणियां:

  1. बड़ी ही सार्थक पोस्ट!! एक बार पुनः सहजता से इतने बारीक दोषों की चर्चा की गयी है.. और आज तो एक नई बात सीखने को मिली आचार्य जी!!
    फ़िल्मी गीतों में और कई बार संवादों में अश्लीलता अर्थदोष पाया जाता है.. टीवी के कई कार्यक्रम तो ऐसे संवादों के माध्यम से ही प्रसिद्धि प्राप्त करते हैं.. जिन्हें साधारणतः हम द्विअर्थी कह देते हैं, किन्तु आज जाना कि इन्हें अश्लीलता अर्थदोष कहते हैं!!
    बहुत ही ज्ञानवर्धक!!

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