फ़ुरसत में ... 96
मुझे मेरा दोस्त मिल गया!
फ़ुरसत में हूं।
कभी-कभी जब फ़ुरसत में होता हूं, तो चिन्तन-मनन की प्रक्रिया चल पड़ती है। आज भी कुछ ऐसा ही हो रहा है। आस-पास हमें हर दूसरा आदमी यह कहता हुआ मिल जाता है कि दुनिया बड़ी स्वार्थी है। ... और साथ में यह भी जोड़ देते हैं कि सच्चे दोस्त नहीं मिलते। भले ही अपने-आप में लाख कमी हो, दोस्तों में प्रायः दो गुण अवश्य ढूँढते हैं, एक मार्गदर्शक और दूसरा राज़दार! जब कभी भी हम मुसीबत में हों, किसी दोराहे पर अटक गए हों, तो वह हमें सही रास्ता सुझाए और जो व्यक्तिगत या विशेष योजना बने या जो बातें हम आपस में बांटें, उसे अपने तक ही सीमित रखे। कुल मिलाकर वह मेरी कमियों को भी दिखाए और हमारे साथ भी चले।
दुनिया की भीड़ में कौन सही दोस्त है, कौन नहीं, इसकी तलाश चलती रहती है। आज फुरसत में हम भी एक कोशिश करके देख ही लेते हैं। काफ़ी सोच-विचार के बाद, अब सही दोस्त की तलाश में निकलने को हम और हमारा मन उद्यत हैं। बस अभी निकलने को ही थे कि एक एस.एम.एस. आता है। ‘इनबॉक्स’ में जाकर उसे देखता हूं। लिखा है –
“दुनिया में कभी सही दोस्त की तलाश में बाहर मत निकलना ... चूँकि आजकल गर्मी प्रचंड है और मैं घर के अंदर ए.सी. चलाकर बैठा होता हूं।”
सोचता हूँ – “हुंह! कैसे-कैसे लोग! कैसी-कैसी बातें!!” मैं एस.एम.एस. डिलिट करके बाहर निकल पड़ता हूं। मेरे साथ मेरा मन भी चल पड़ता है और शुरू होती है हमारी तलाश भी। सही और सच्चे दोस्त की तलाश।
लोग मिलते हैं, बिछड़ जाते हैं। हम निर्णय करने में देर करते रहते हैं। दिल कहता है - यही सही है, मन कहता है - सही निर्णय पर पहुंचने के लिए समय चाहिए। इसी वाद-विवाद के बीच, हम मन की सुन लेते हैं। अब मन तो मनमौजी है - भटकता रहता है और जब अटकता है – देर हो चुकी होती है। तब तक सही निर्णय भी ग़लत हो जाता है। सही निर्णय, सही समय पर न लिया जाए, तो सही होते हुए भी ग़लत हो जाता है। ऐसे में देर से लिया गया सही निर्णय भी किसी काम का नहीं रहता।
कालिदास ने मालविकाग्निमित्र में कहा है, “सर्वज्ञस्यप्येकाकिनो निर्णयाभ्युपगमो दोषाय” अर्थात्अकेला व्यक्ति यदि सर्वज्ञ भी हो तो भी उसके निर्णय में दोष हो ही जाता है। अकेले तो मैं भी हूं। अकेले होने पर निर्णायक भी खुद ही बनना पड़ता है।
आचार्य हज़ारीप्रसाद द्विवेदी ने पुनर्नवा में कहा है, “निर्णायक को पांच दोषों से बचना चाहिए – राग, लोभ, भय, द्वेष और एकान्त में वादियों की बातें सुनना।” इनमें से सारे ही दोष हममें विराजमान हैं और एक हम हैं, सोचते हैं कि - हम जो चाहते हैं – मन जो चाहता है - वह नहीं होता। हां, यह सच है कि मेरा मनचाहा कभी भी नहीं होता। आखिर ऐसा क्यों होता है?
हम चाहते हैं कि सब कुछ परफेक्ट हो, हमारे मन मुताबिक। मगर ऐसा होता नहीं। होने को कुछ और हो जाता है - पर वो नहीं होता जो हम चाहते हैं। फलतः हम स्व-निर्धारित व्यवस्था और मनोनुसार जीवन जी नहीं पाते।
जीवन में ऊँच-नीच, तो लगी ही रहती है। दाएं-बाएं, और आगे-पीछे भी। मनोनुसार जीवन नहीं चलता। इसका चलना-न-चलना हमारे हाथ में होता भी नहीं। लेकिन हम अपने जीवन में कुछ परफेक्ट मोमेंट्स भर तो सकते ही हैं। कुछ पंक्तियां याद आती हैं -
कैनवास पर तस्वीरें बनाने चला था
भरा रंग उस पर, मुझे जो मिला था
पर हुआ वही, जो था नसीब में होना
रीता रहा मेरे जीवन का कोई कोना
चलो ढूंढ़ें एकांत अपने लिए
जहां बना सकें वह तस्वीर मनचाही।
दुर्भाग्य, ऐसा हुआ नहीं, हर-बार तस्वीर अधूरी रह गई। आज फिर ऐसी किसी जगह की तलाश आ गया हूं।
एकांत और मौन है मेरे पास।
चहुं ओर पसरा मौन
मुझे मेरे करीब लाता है
मेरा स्वर निकल कर नयन से
मेरे मन में प्रवेश पाता है
मौन मन को भाता है
जग – जीवन से प्यार गहराता है।
इस एकांत में एक दिव्य-ज्योति दिखती है। एक आकृति जो हज़ार रंग लिए है – कुछ कहती है – अस्पष्ट – धुंधले मन पर वह अंकित होता है --- “तू करता है वह – जो तू चाहता है और होता वह है – जो मैं चाहता हूं!”
--- हां – हां – हां ... ... पर क्या करूं ?
-- “तू वो कर जो मैं चाहता हूं, फिर वह होगा जो तू चाहता है।”
***
आकृति अब नहीं है। वह शून्य में विलीन हो गई है।
अहा! आज जो मेरी एटर्नल-जर्नी हुई .. वह बहुत ही अच्छी रही। इस जर्नी से एक मोरल ऑफ द स्टोरी तो मिली ही मुझे –
“दिन में एक बार अपने आप से बात कर ही लेनी चाहिए, नहीं तो हम दुनिया के सबसे अच्छे दोस्त के मिलने का अवसर गंवा बैठते हैं।”
- फ़ुरसत में आज अपने से मिला – मुझे मेरा सही दोस्त मिल गया!
***
ये एटर्नल-जर्नी ही तो नहीं करना चाहता कोई.
जवाब देंहटाएंबहुत सार्थक चिंतन कर लिया आज फुर्सत में.
हम निर्णायक बनने का प्रयास करते हैं तो मन में क्षोभ आ जाता है, नायक बनने को प्रयास करते हैं तो निराशा आ जाती है, बस किसी तरह लायक ही बने रहें।
जवाब देंहटाएंसच बात है.. खुद से मुलाकात हो जाए, तो क्या बात है।
जवाब देंहटाएं"फुर्सत में" में निखार आता जा रहा है.. आपके अन्य स्तंभों की तुलना में "फुर्सत में" और "देसिल बयना" के बाद "स्म्र्तिती शिखर से" (आजकल अनियमित) व्यक्तिगत अनुभवों से ओत-प्रोत होते हैं, इसलिए पाठक इनसे स्वयं को संबद्ध पाता है..
जवाब देंहटाएंस्वयं को खोज पाना बहुत कठिन कार्य है.. स्वयं से वार्तालाप समाधि की ओर पहला कदम है और स्वयं के अंदर विराजमान परमात्मा से मिलन के मार्ग का पहला पत्थर!!
बहुज्त ही सुन्दर सीख देती हुई पोस्ट!! कुंडली में स्थित कस्तूरी का पता!!
बहुत अच्छी सीख देती प्रस्तुति सर...
जवाब देंहटाएंसादर आभार।
फुरसत में आज तो आप गोता लगा के मोती चुन लाये . अच्छा हुआ अपना साक्षात्कार कार लिया आपने .मुबारक इस अध्यात्मिक यात्रा से प्राप्त सुखानुभूति के लिए .
जवाब देंहटाएं“दिन में एक बार अपने आप से बात कर ही लेनी चाहिए, नहीं तो हम दुनिया के सबसे अच्छे दोस्त के मिलने का अवसर गंवा बैठते हैं।”
जवाब देंहटाएंबहुत ही अच्छी सीख देती आपकी यह पोस्ट ...आभार
फ़ुरसत में आज अपने से मिला – मुझे मेरा सही दोस्त मिल गया!
जवाब देंहटाएंखुद से मिलना बड़ी बात है .मिलते हम रोज़ हैं पर गौर नहीं करते .फटका -रके उस स्व : को आगे बढ़ जातें हैं .उसकी साफ़ अनदेखी कर जातें हैं जबकी वह हमें हर पल आगाह करता रहता है .
आपकी आज की पोस्ट काफी रोचक और उत्साहवर्धक है। कभी किसी सन्त की कही बात पढ़ रहा था, जिसमें लिखा था कि प्रतिदिन एकान्त में बैठकर थोड़ी देर तक स्वयं से बात करनी चाहिए और अपने मन का अभियन्ता बनना चाहिए। आभार।
जवाब देंहटाएंआपका पोस्ट "मुझे मेरा सही दोस्त मिल गया". पढ़ा. प्रस्तुति काफी रोचक लगी । आचार्य हज़ारीप्रसाद द्विवेदी ने पुनर्नवा में कहा है, “निर्णायक को पांच दोषों से बचना चाहिए – राग, लोभ, भय, द्वेष और एकान्त में वादियों की बातें सुनना।”
जवाब देंहटाएंइस पर कहना चाहूंगा कि एकांत में वादी की बात सुनना बुरा नही है लेकिन निर्णायक को चाहिए कि उसे इस बात से जरूर संतुष्ट होना चाहिए कि वादी की बातों में कितनी सत्यता है अन्यथा निर्णायक की नजर में प्रतिवादी की वह साख नही रह जाएगी जिसका वह वास्तविक हकदार है । धन्यवाद ।
“दिन में एक बार अपने आप से बात कर ही लेनी चाहिए, नहीं तो हम दुनिया के सबसे अच्छे दोस्त के मिलने का अवसर गंवा बैठते हैं।”
जवाब देंहटाएंbahut sundar ......
बहुत बढ़िया.............
जवाब देंहटाएंसच है खुद को पाया...खुद को समझा....इतना ही बहुत है आत्म-संतुष्टि के लिए...
अच्छी शुरुवात है किसी दोस्त को पाने की....
सादर...
सच है खुद से बड़ा और सच्चा कोई और दोस्त नहीं...सुन्दर...
जवाब देंहटाएंEK DAM SAHI EKAANT ME KHUD SE BAAT KARNA HI CHAHIYE...KHUD (ANTARAATMA)SE BEHTAR DOST TO KOI HO HI NAHIN SKATA ISHWAR USI KE JARIYE HUME SAHI GALAT KI EK JHALAK TO BATA HI DETA HAI...BAHUT ACHHI POST.
जवाब देंहटाएं“तू वो कर जो मैं चाहता हूं, फिर वह होगा जो तू चाहता है।”
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- फ़ुरसत में आज अपने से मिला – मुझे मेरा सही दोस्त मिल गया!
बहुत बढ़िया ..... गहन चिंतन ,मनन करके ही ऐसी पोस्ट लिखी जा सकती है ....
लिखना खुद से मिलना है और आपने मनोज दा! यह भेंट शानदार तरीके से की है .खुद से मिलना और तरीके से ऐसे ही मिलना .मिलते रहना .
जवाब देंहटाएंब्लॉग पे आपकी द्रुत टिपण्णी लेखन की आंच में एक जोर की फूंक मार देती है .
Virendra Sharma लिखना खुद से मिलना है और आपने मनोज दा! यह भेंट शानदार तरीके से की है .खुद से मिलना और तरीके से ऐसे ही मिलना .मिलते रहना .
जवाब देंहटाएंब्लॉग पे आपकी द्रुत टिपण्णी लेखन की आंच में एक जोर की फूंक मार देती है .
आपकी बात से पूरी तरह से सहमत . कलम सबसे अच्छी साथी होती है और फिर अकेले होने का अहसास नहीं रहता है इसके हाथ में आते ही सोच जिस तेजी से एक नई दिशा में चल देती है. फुरसत में बहुत अच्छा शोध किया.
जवाब देंहटाएंसबसे ज़रूरी है अपने आप पर गौर करना। अपने चलने,उठने-बैठने,सोने,हंसने,गंभीर होने- प्रत्येक के प्रति आत्म-स्मरण रखना कि अभी मैं अमुक अवस्था में हूं। सिर्फ एक दिन यह प्रयोग करते ही हम आश्चर्य में पड़ जाते हैं कि कितना बाहर-बाहर घूमते रहे अब तक और कितने अंजान थे खुद से ही।
जवाब देंहटाएंaakhiri panktiyon men aapne bahut satik bat kah di......... bahut sunder.
जवाब देंहटाएंयह आप अच्छा किये कि इस बहाने आप अपने से मिल लिए ! आज की जो जीवनशैली हो गई है उसमें हमारे पास अपने लिए ही समय नहीं मिलता.सबसे बड़ी खुशी मुझे तभी होती है जब एकांत में मैं ,मेरे गम और अँधेरा रहता है !
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर प्रस्तुती आप के ब्लॉग पे आने के बाद असा लग रहा है की मैं पहले क्यूँ नहीं आया पर अब मैं नियमित आता रहूँगा
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत धन्यवाद् की आप मेरे ब्लॉग पे पधारे और अपने विचारो से अवगत करवाया बस इसी तरह आते रहिये इस से मुझे उर्जा मिलती रहती है और अपनी कुछ गलतियों का बी पता चलता रहता है
दिनेश पारीक
मेरी नई रचना
कुछ अनकही बाते ? , व्यंग्य: माँ की वजह से ही है आपका वजूद:
http://vangaydinesh.blogspot.com/2012/03/blog-post_15.html?spref=bl
फ़ुरसत में आज अपने से मिला – मुझे मेरा सही दोस्त मिल गया!wah....kya baat hai.....
जवाब देंहटाएंस्वयं से बात करके ही असली आत्मविश्वास मिलता है ...!!सकारात्मकता से भरपूर स्वयं कि स्वयं तक यात्रा ...
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया विचार ...!!
हम स्वयं अपने सबसे अच्छे मित्र है ...सही लग रहा है ...
जवाब देंहटाएंसार्थक चिंतन .
हाँ - हम स्वयं ही अपने सबसे अच्छे मित्र हैं - यह सच हो सकता है | परन्तु दूसरों के क्यों नहीं ? या दूसरे हमारे "सच्चे मित्र" नहीं ऐसा क्यों ?
जवाब देंहटाएंशायद मित्र की definition थोड़ी स्वार्थ वाली बनाई है हमने - वह - जो मुझे comfortable करे - short run में भी और long term में भी !!! शायद सवाल यह न हो की "मेरा सच्चा मित्र कौन है" बल्कि यह हो की " मैं किस किस का सच्चा मित्र हूँ" तो ज्यादा मित्र नज़र आयेंगे अपने आस पास ? शायद हमें कुछ कम demanding होना चाहिए, मित्र की तलाश में ?
ham jante hue bhi ki hamare ander jo baitha hai vahi hamara sabse acchha aur saccha dost hai lekin ye dil to pagal hai na....bahar muh marne ki aadat jo pad gayi hai aur fir ye bechara abhishapt bhi to hai na (beshak vo nari dil hi abhishapt hai, lekin purush bhi us abhishap se jyada door nahi ja paye hain) ki apni baat khud hi se kah k tasalli nahi pa leta jab tak kisi aur ke aage apna dukhda na ro le....
जवाब देंहटाएंbahut sunder vishleshan kiya hai apne is soch ka...vicharneey aur sanmarg dete ye fursat k pal bahut gyan-vardhak hote ja rahe hain.
aabhar aadhyaatam ki or le jane k liye.
स्वयं से बातें करना सबसे बढ़िया यात्रा है... फुर्सत में चिंतन अच्छा लगा...
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