भारतीय काव्यशास्त्र - 102
आचार्य परशुराम राय
पिछले अंक में साकांक्षता, अपदयुक्तता और सहचरभिन्नता अर्थदोषों पर
चर्चा की गयी थी। इस अंक में प्रकाशितविरुद्धता और विध्ययुक्तता अर्थदोषों
पर चर्चा की जाएगी।
इस दोष के लिए काव्यप्रकाश में निम्नलिखित श्लोक उद्धृत किया गया है। वैसे इसे
अन्य दोषों के लिए भी उद्धृत किया गया है। इसमें उत्प्रेक्षा के माध्यम से किसी
राजा की स्तुति करते हुए कहा गया है कि उसकी कीर्ति समुद्र तक फैली हुई है। राजा
के युद्धप्रिय और उदार होने के कारण उसकी पत्नी लक्ष्मी (सम्पदा) ने कीर्ति को
दूती बनाकर अपने पिता समुद्र के पास शिकायत करने के लिए भेजा और साथ ही सन्देश भी
कि यह (राजा) तो तलवार पर ही लट्टू रहता
है, मुझको तो पूछता ही नहीं, उपभोग करने के लिए मुझे इसने अपने सेवकों को दे दिया
है। साथ ही अपनी सौत रूपी तलवार की चरित्रहीनता का भी बहुत ही सुन्दर चित्र खींचा
है-
लग्नं रागावृताङ्ग्या सुदृढमिह
ययैवासियष्ट्यारिकण्ठे
मातङ्गानामपीहोपरि परपुरुषैर्या च दृष्टा पतन्ती।
तत्सक्तोSयं न किञ्चिद् गणयति
विदितं तेSस्तु तेनास्मि दत्ता
भृत्येभ्यः श्रीनियोगाद् गदितुमिव गतेत्यम्बुधिं यस्य कीर्तिः।।
अर्थात् जो तलवार रागयुक्त (राग अर्थात् रक्त या अनुराग से युक्त) हो शत्रुओं
के गले पर गिरी हो और अन्य लोग जिसे मातंगों ( हाथियों या चांडालों) पर भी गिरते
देख चुके हैं, उसी पर सक्त (आसक्त या
तत्पर) होकर यह राजा मेरी (राज्यलक्ष्मी या धन की) थोड़ी भी चिन्ता नहीं करता।
आपको मालूम होना चाहिए कि उसने मुझे (राज्यलक्ष्मी या धन को) अपने सेवकों के अधीन
कर रखा है। मानो लक्ष्मी की आज्ञा से राजा की कीर्ति यह सन्देश लेकर उनके (लक्ष्मी
के) पिता समुद्र के पास पहुँची है।
यहाँ विदितं तेSस्तु (आपको मालूम होना चाहिए) उपवाक्य से यह विरुद्ध अर्थ प्रकाशित हो रहा है कि लक्ष्मी
राजा को छोड़कर जा रही है। अतएव यहाँ प्रकाशितविरुद्धता अर्थदोष है।
जहाँ काव्य में विधि की अयुक्तता पाई जाय, तो वहाँ विध्ययुक्तता अर्थदोष होता
है। यहाँ आचार्य मम्मट ने दो उदाहरण दिए हैं। पहले उदाहरण में समास के कारण विधेय
गौण होने के कारण इस दोष की उपस्थिति बताई गयी है। यहाँ यह स्पष्ट करना आवश्यक है
कि जहाँ विधेय का अविमर्श होता है उसे अविमृष्टविधेयांश दोष माना गया है। लेकिन अविमृष्टविधेयांश
दोष अर्थदोष न होकर समास दोष है।
दूसरे उदाहरण में तपस्वी द्वारा साधना की सघनता को पहले कम कठिन त्याग, फिर
उससे कठिन और अन्त में सबसे अधिक कठिन साधना का उल्लेख न करके कठिनतम से सरलतम के
क्रम में किया गया है। इस कारण से इस दोष को इंगित किया गया है। जबकि इससे
मिलते-जुलते दो अर्थदोष- प्रसिद्धविरुद्धता और विद्याविरुद्धता का उल्लेख किया जा
चुका है। इन दोनों अर्थदोषों और विध्ययुक्ता दोष में अन्तर यह है कि
प्रसिद्धविरुद्धता लोक में या काव्य जगत में प्रचलित मान्यताओं का विरोध पाया जाता
है, जबकि विध्ययुक्तता अर्थदोष के लिए यह आवश्यक नहीं है। इसी प्रकार विद्याविरुद्धता
में कविता में शास्त्रीय मान्यताओं का विरोध पाया जाता है, लेकिन विध्ययुक्तता
अर्थदोष में क्रम का अभाव देखा जाता है।
अब पहले उदाहरण को लेते हैं। यह श्लोक वेणीसंहार नाटक से लिया गया है। अपने
पिता आचार्य द्रोण के वध के बाद दुर्योधन को आश्वासन देते हुए शत्रुओं से बदला
लेने के लिए उत्सुक अश्वत्थामा की उक्ति है-
प्रयत्नपरिबोधितः स्तुतिभिरद्य
शेषे निशामकेशवमपाण्डवं भुवनमद्य निःसोमकम्।
इयं परिसमाप्यते रणकथाSद्य दोःशालिनामपैतु रिपुकाननातिगुरुरद्य भारो भुवः।।
अर्थात् आज पूरी रात ऐसे सोओगे कि सबेरे चारणों द्वारा स्तुतिगान करते हुए
बड़ी कठिनाई से जगाए जा सकोगे। आज संसार श्रीकृष्ण, पाण्डवों और सोमवंश (आचार्य
द्रोण का सिर काटनेवाले धृष्टद्युम्न) से विहीन हो जाएगा। आज से बाहुबल पर गर्व
करनेवाले इन क्षत्रियों की युद्धकथा का ही अन्त हो जाएगा (जैसा भगवान परशुराम ने
किया था)। आज पृथ्वी का शत्रु-समूहरुपी भार दूर हो जाएगा।
यहाँ शयितः प्रयत्नेन बोध्यसे (सोए हुए तुम प्रयत्न से जगाए जाओगे) विधेय
है। लेकिन प्रयत्नपरिबोधितः समास में आ जाने से यह गौण हो गया है। अतएव इस
श्लोक में विध्ययुक्तता अर्थदोष है।
नीचे के उदाहरण में, जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है, कठिनतम साधना से सरलतम
साधना का उल्लेख किया गया है, जबकि पहले सरल, फिर उससे कठिन क्रम का उल्लेख किया
जाना चाहिए। इस श्लोक में धार्मिक तपस्वी बनकर ढोंग करनेवालों पर व्यंग्य किया गया
है-
वाताहारतया जगद्विषधरैराश्वास्य निःशेषितं
ते ग्रस्ताः पुनरभ्रतोयकणिकातीव्रव्रतैर्बर्हिभिः।
तेSपि
क्रूरचमूरुचर्मवसनैर्नीताः
क्षयं लुब्धकै-
र्दम्भस्य स्फुरितं विदन्नपि जनो जाल्मो गुणानीहते।।
अर्थात् विषधर सर्पों ने पवन पर आश्रित रहकर जीने का व्रत लेकर संसार को खाली
कर दिया, वर्षा की बूँदों पर आश्रित रहकर जीवन यापन का व्रत लेनेवाले मोरों ने उन
ढोंगी सर्पों को खा लिया और मृगचर्म धारण करनेवाले ढोंगी व्याधों (साधुओं) ने उन
मोरों का नाश कर दिया। यह संसार ऐसे ढोंग भरे व्यवहार को जानते हुए भी (इन
ढोंगियों में) इन गुणों की अपेक्षा करता है।
यहाँ पहले सरल साधना मृगचर्म धारण करने, फिर उससे कठिन साधना जल पर जीवन
निर्वाह करने और अन्त में सबसे कठिन साधना केवल हवा के आहार पर जीवित रहने का क्रम
ठीक है। लेकिन इस श्लोक में इन्हें इसके विपरीत क्रम में रखा गया है। इसलिए इसे
विध्ययुक्तता अर्थदोष से दूषित बताया गया है।
अगले अंक में शेष तीन अर्थदोषों पर चर्चा की जाएगी। इस अंक में बस इतना ही।
बहुत बहुत आभार -
जवाब देंहटाएंशुभकामनायें ||
बहुत अच्छी प्रस्तुति!
जवाब देंहटाएंरंगों के पावन पर्व होली की हार्दिक शुभकामनाएँ!
बहुत सुन्दर व्याख्या हमें अपने मास्साहब डॉ जगदीश चन्द्र शर्मा साहब याद आ गए .हिंदी साहित्य पढ़ाते थे हमें इंटर मिदियेत साइंस में डी.ए .वी. इंटर कालिज बुलंदशहर में वर्ष था १९६२-६३.
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया भाव अभिव्यक्ति,
जवाब देंहटाएंNEW POST...फिर से आई होली...
खूबसूरत रचना...
जवाब देंहटाएं@ नीचे की पोस्ट में तेरे नाल लव हो गया... और खर्च करो कमाना खुद आ जाएगा...
बेहतरीन...
बहुत ही बेहतरीन पोस्ट |होली की शुभकामनाएं |
जवाब देंहटाएंजब की हम थोड़े परिश्रम से अधिक की आस रखते हैं , आखिर कुंठा का शिकार होते हैं, आपकी पोस्ट उन वीथिकाओं से रूबरू कराती जिनको आज कहीं हम दूर छोड़ आये हैं ,यथार्थतः वे ही हमारी खुशियों की मञ्जूषा है , बहुत -२ आभार आपका / शस्नेह होली की मुबारकबाद समस्त स्नेहीजनों व परिजनों को...../
जवाब देंहटाएंआचार्य जी! आप जब इन दोषों को बताते हैं तब जाकर पता चलता है कि ये दोष हैं.. अगर सचमुच इस तरह के प्रयोग दिख जाएँ तो साधारणतः इसे सही प्रयोग ही मान लिया जा सकता है!! बहुत ही ज्ञानवर्धक है यह पोस्ट!!
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