स्मृति शिखर से – 10
करण समस्तीपुरी
ऋतुराज का मदमाता यौवन...! सोलह शृंगार सजी पीतवसना प्रकृति रानी...!! अलस मधुमास....!!! आज पुनः मुझे खींचे लिए जाता है मेरे गाँव। वैसे तो मेरे संसार का श्री गणेश ही मेरे गाँव से होता है। स्नातक की शिक्षा तक तो मुझे पता भी नहीं था कि गाँव से अलग भी कोई दुनिया होती है। मैं समझता था लोग दूर शहरों में रहते भले हैं मगर घर सब का गाँव में ही होता है। पता नहीं शायद अभी भी मैं ऐसा ही समझता हूँ।
मैं ने पर्व-त्योहार, हाट-बाजार, मेला-मंडप, रीति-व्यवहार सब-कुछ गाँव में ही देखा। सभी पर्वों का उल्लास न्यूनाधिक एक-सा ही होता है। होली में उस उल्लास की उद्दाम अभिव्यक्ति भी होती है या होती थी गाँवों में। बसंत-पंचमी के दिन देवताओं को गुलाल चढ़ाने के बाद फ़गुआ आ जाता था। फ़ाल्गुनी प्रकृति में मन को मत्त करने वाले सभी उपादान होते थे गाँव में... बौरी अमराई में कुहकती कोयलिया, सरसों और कुसुम के पीले फ़ूलों से सजे खेत, तरुओं में फ़ूटते रक्ताभ कोंपल, परदेसी प्रियतम के गृहागमन की प्रतीक्षारत आंगनाएँ...! मैं रीतिकालीन श्रृंगारिक कविता की कोमल-कंत पदावली नहीं लिख रहा...! सच्ची कहता हूँ... ये सब मैंने देखा है, प्रत्यक्ष।
कुछ वर्षों पहले एक कविता लिखी थी, “स्वागत बसंत”। एक सुधि पाठक की प्रतिक्रिया थी, “हर हाल में बसंत को अगर बसंत मान लेने की जिद हो, तो मेरा कहना व्यर्थ है कि जलवायु परिवर्तन ने बसंत को घायल कर दिया है।” आज मान भी लूँ किन्तु तभी तो मैंने बसंत को वैसा ही देखा था। गाँव के फ़्लोरल चार्मिंग में रहने वाला ग्लोबल वार्मिंग भला क्या जाने?
मेरे गाँव में पहले प्रत्येक शनिवार को कीर्तन हुआ करता था। वैसे तो मैं अक्सर जाया करता था किन्तु बसंत-पंचमी से होली के मध्य पड़ने वाले कीर्तनों में तो नियमित ही जाता था। क्योंकि उसमें सुर-ताल-लय की बंदिश से स्वतंत्रता थी। खूब तेज झांझ-करताल बजाकर फ़गुआ गाना बड़ा अच्छा लगता था, “लड़िका हो गोपाल... कूदि पड़े यमुना में....!” फ़गुआ को प्रायः राग धमार की तर्ज में गाया जाता है। हमारे इलाके में हर फ़ाग-गीत का समापन चलती ताल में होता था.... “बोलो द्वारिकानाथ सियावर रामचन्द्र की जय”। बड़ा अलबत्त लगता था। ढोलक-झांझ-मंजिरा सब एक साथ झनझना उठते थे...! हृदय के तार भी झंकृत हो जाते थे।
कीर्तन में प्रायः भक्ति-रस का फ़ाग ही गाया जाता था। कुछ फ़ाग गीत बड़े ही प्रचलित थे। “जियरा उदास गोरी सोचन लागी... आँगन टिकुली हेराय हो...!” और “नक-बेसरि कागा ले भागा... सैंय्या अभागा ना जागा...!” और “परदेसिया ले सेजिया सजाबे गोरिया... परदेसिया ले...!” इन फ़ाग-गीतों को अपसंस्कृति फ़ैलाने वाला फ़ूहर गीत समझा जाता था। तथाकथित सभ्य लोग इन्हे गाने से बचते थे। मगर विनोद चाचा अवसर और श्रोताओं के अनुसार इन्हे भी गाने से नहीं चूकते थे। बाद में मध्यकालीन साहित्य पढ़ते हुए पता चला कि ये सब विलक्षण श्रृंगारिक रचनाएँ हैं, जिनमें संयोग, वियोग, विप्रलंभ, ब्रीड़ा, मान-मनुहार आदि श्रृंगारिक पक्षों की बड़ी ही सरस व्यंजना है। फ़ाग गाते-गाते कीर्तन के मध्य में ही एक दूसरे को अबीर-गुलाल लगा देते थे। इस तरह से हमारी होली लगभग डेढ़ महीने तक चलती थी।
मैंने जीवन की तेइस होली एक क्रम से मेरे गाँव में खेली है। उन में से प्रारंभिक कुछ शिशु होने के कारण याद नहीं। जहाँ से याद है वे सभी लग-भग एक जैसी थी। पूर्व संध्या पर होलिका-दहण के लिए पूरे गाँव में घूम-घूम कर जलावन एकत्रित करना... पहले याचना फिर हठ... फिर बलात और फिर भी बात न बने तो चोरी...! हा...हा...हा...हा...! एक बार तो गाँव के सबसे प्रभावशाली जमींदार के खलिहान से ही दाना झड़े सरसों के कई बोझे हमने छुप-छुपा कर उठा लिए थे। जमींदार साहब भी ऐसे कि आ पहुँचे बोझे वापस लेने किन्तु तब तक तो कई होलिका माई के ग्रास बन चुके थे... हाँ एकाध जरूर वापस ले गए। धमकियाँ बहुत मिली थी हमें लेकिन अगले ही दिन वो भी होली के रंगों के साथ ही धुल गईं।
मेरा घर चतुष्पथ अर्थात चौबट्टी पर था। बचपन से युवावस्था तक हमारी होली का आक्रमण बिन्दु यही होता था। हम में से कुछ प्रकट और कुछ छुपे होते थे। कई रंगों की कई बाल्टियाँ, बाँस की बनी पिचकारी... हर आने-जाने वाले पर रंग डालना है। यदि किसी प्रकार प्रकट होलैय्ये से बच भी गए तो छुपे हुए जरूर रंग देंगे।
थाने के दारोगाजी जा रहे थे, मोटरसाइकिल पर। हम में से किसी ने पिचकारी चला दी। सरकारी पोशाक पर खिचरी रंगों की मद्धिम धारियाँ क्या खींची, सहसा मोटरसाकिल ही रुक गई। कुछ भागे... कुछ खड़े रहे। जो खड़े रहे उनके भी पैर आँधी में पतले वृक्षों की भांति काँप रहे थे। दरोगाजी ने कड़क कर पूछा, “किसने पिचकारी चलाई थी...?” माफ़ी माँगने की गरज से एकाध बड़े-बुजुर्ग भी आ गए थे। दरोगाजी बड़े सुहृद निकले। कोई उत्तर न पाते हुए हँस पड़े और बोले, “जो भी है... उसका निशाना बड़ा पक्का है।” बाँए हाथ की अंगुलियों में दबी हुई बुझी सिगरेट दिखाते हुए बोले, “देखो... पिचकारी से जब ऐसा लक्ष्य बेधता है तो बंदूक से क्या करेगा...? एक दिन फ़ौज में जाएगा।” फिर हमारे रंग और अपने गुलाल से हम बच्चों के साथ खूब होली खेले थे, दरोगा जी।
एक ही दिन में होली के अनेक चरण होते थे। रंग, कीचर, पानी, गुलाल...! अंतिम चरण होता था अपराह्न में। गुलाल वाला। फ़ाग गाने का वो अंतिम दिन होता था वर्ष में। ढोल-झांझ बांध के हम लोग फ़गुआ-जोगिरा गाते-गाते दर-दर जाते थे...। होली गाते थे... ‘बोल जोगिरा सा...रा...रा...रा.....!’ मालपुआ, पिरुकिया (गुझिया), पान-सुपारी, कहीं-कहीं ठंढई से भी... होलैय्ये का स्वागत किया जाता था...! आह क्या रस था उनमें। आज उन्हें मैं जरूर ‘मिस’ करता हूँ। हर दरवाजा छोड़ने से पहले हम गाते थे, “सदा-आनंद रहे एहि द्वारे मोहन खेले होरी हो...!” यह पंक्ति लिखते हुए मेरी आँखें उसी तरह भर आई हैं जैसे उपर्युक पंक्ति सुनते ही भावुक गृहपतियों की आँखें सजल हो जाती थी... यह मनोरम दृश्य अब अगले साल ही होगा। लोग कहावत में कहते थे, “जो जीए सो खेले फ़ाग!” हाँ जो जीते थे उनके लिए अगले साल फ़ाग आ ही जाता था...! मैं यहाँ जी रहा हूँ... पिछले पाँच सालों से मैंने फ़ाग नहीं देखा...!
वर्ष दो हजार चार में मैं पहली बार होली में अपने गाँव से दूर था। फ़ुआ के घर, बोकारो इस्पात नगर में। बड़े भैय्या का विवाह हुआ था। पहली बार भाभी के साथ होली खेलने का लोभ संवरण नहीं कर पाया था।
वो होली भी कमाल थी। भाभी के स्वेत-तनु-चर्म का तो हमने बहुत ख्याल रखा था मगर उनके मायके वाले नहीं बच पाए। हमें शहर में नया समझ हुँकार भड़ते आए और हमारी रणनीति के आगे बेचारे बनकर गए। वो हमें ललकारते रहे.. मगर हम तब तक नहीं निकले जब तक कि उनकी झोली खाली न हो गई। दरअसल हमारे न निकलने से उत्तेजित हो वो अपने साथ लाये सारे रंग-गुलाल पुष्टकाय बड़े भैय्या पर ही खर्च कर दिए। उनके दिवालिया होते ही भैय्या ने संकेत दिया और हम सब भाई एक-एक कर सामने। अब बेचारे बेवस से ताकते रहे और हम ने उनकी खूब होली मचाई थी। होली का एक पहर तो भाभी और उनके नैहर वालों के संग खाते-खेलते बीत गया...! मगर दूसरे पहर के बाद से गाँव बहुत याद आया था।
सुना है कि अब गाँव में भी होली वैसी नहीं रह गई है। लोग होली नहीं गाते हैं। गले मिलने की बजाए इस अवसर का इस्तेमाल लोग गले काटने या गले फ़ँसाने के लिए करते हैं। किसी के द्वारे अब ‘सदा-आनंद’ नहीं गाया जाता है। सुदूर दक्षिण भारतीय नगर बंगलोर में पहले उस तरह की होली नहीं होती थी। अब तो होने लगी है। पिछले दो वर्षों से तो हम होलिका-दहण भी कर रहे हैं और होली भी गा रहे हैं। ढोलक नहीं तो कनस्तर ही सही... झांझ नहीं तो थाल ही सही...! हाँ, यहाँ जोगिरा पकड़ने के लिए प्रमोद चाचा, सत्तन साह, मौलवी मियाँ या लक्खन दास नहीं होते हैं। मुझे अकेले ही जोगिरा गाना पड़ता है... किन्तु स्थानीय बंधु-बांधव ‘बोल जोगिरा सा...रा...रा..रा...!’ कर उत्साहित जरूर करते हैं। इनके जोगिरा सा...रा...रा...रा... में भी वही उद्दाम अभिव्यक्ति होती है। बस फ़र्क यही रह जाता है मानो वतन से दूर एक कोयल वर्षों बाद फिर अपनी बोली बोलना चाह रही हो।
संसद और विधान-सभाओं में नित्य ही होली होती है। देश में आज-कल में होली है। कुछ प्रदेशों में तो दो दिन पहले ही होली (विधानसभा मतगणना) हो गई। मेरे कार्यालय में होली का अवकाश नहीं है। किन्तु मैं तो अभी से अतीत के रंगों में रँगने लगा हूँ। आपको भी रंग दिया...! बातों के मालपुए परोस हीं दिए हैं तो बस अब जोगिरा भी सुनते जाइए...
“संसद और विधानसभा में रोज मचत हैं होली...!
नेताजी के धोती फ़ाटे, नेताइन के चोली....!!” देख-देख...रे... देख... जोगिरा सा...रा...रा...रा.....!”
भैय्या रे होली है....!
“गुड मार्निंग-गुड मार्निंग, वेरी गुड सर...!
कहना है वाजिब तो है किसका डर...?
लाया हूँ जोगिरा भैय्या घर से बनाकर...!
सुनले सकल पंच जरा कान लगाकर...!!” जोगिरा.... सा...रा...रा...रा...!
“अरे छोट मुँह बात बड़ी सुन ले जानी।
कहता हूँ सच्ची पोल्टिस की कहानी...!
राहुल बाबा हाय-हाय, हाय अडवानी...!
बादल-मुलायल के हुआ सोना-चानी...!
नीचे से ऊपर है बहता पानी...!
सोनिया जी राजा, मनमोहन रानी....!” जोगिरा... सा...रा...रा...रा.....!
(बुरा न मानें होली है …!)
होली की हार्दिक शुभकामनाएं आपको भी और अपने सभी पाठकों को भी।
जवाब देंहटाएंगाँव की होली के साथ राजनीति की होली भी खेल ली आपने .... बहुत अच्छी प्रस्तुति :):) होली का रंग चढ़े हुये
जवाब देंहटाएंहोली की शुभकामनायें
बहुत बढ़िया प्रस्तुति,
जवाब देंहटाएंकरण जी,..सपरिवार होली की बहुत२ बधाई शुभकामनाए...
RECENT POST...काव्यान्जलि ...रंग रंगीली होली आई,
होली की शुभकामनायें .
जवाब देंहटाएंबढ़िया संस्मरण ...होली की हार्दिक शुभकामनाएँ ...
जवाब देंहटाएंसटीक और सामयिक अभिव्यक्ति.
जवाब देंहटाएंहोली की हार्दिक बधाई.
जोगिरा... सा...रा...रा...रा.....
जवाब देंहटाएंकरण जी , आज पढने के बाद टिपण्णी करने से आपने आप को नहीं रोक पाया . करीब एक दशक बाद गांव में होली खेलने का मौका मिला है. बदलाव आया है गांव के वातावरण में फिर भी अभी भी जीवन्तता बाकी है फाग की . अभी भी सुरेन्द्र काका की ऊँची आवाज में फाग गीत सुनाई देते है और रामकीरत चौबे जोगीरा गाते हुए. हम तो काल गांव आते ही पूछ लिए की भैया शाम को घर घर घूमकर होली गीत गए जायेंगे ना . उत्तर हाँ में मिलते ही अपनी बांछे खिल गई . अपरान्ह के लिए हमने नया चकाचक सफ़ेद कुरता पैजामा सीलवा लिया है जी . नाक बेसरी कागा ले भगा से लेकर बाजत ताल मृदंग ढोल डंफ मधुर मधुर सुर , फिर से जीने की तमन्ना है .आनंदम आनदम .
जवाब देंहटाएंचले चकल्लस चार-दिन, होली रंग-बहार |
जवाब देंहटाएंढर्रा चर्चा का बदल, बदल गई सरकार ||
शुक्रवारीय चर्चा मंच पर--
आपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति ||
charchamanch.blogspot.com
कारन बाबू! एकदम से डाउन द मेमोरी लेन में धकेल दिए आप.. का कहें अब त ऊ सब इतिहास का हिस्सा लगता है.. ई का बैठे हुए हैं अप्पर होली का कोनों हुडदंग नहीं सुनाई दे रहा है.. स्मृति के शिखर पर ई सब याद करना बहुत आनंद दायक है.. जोगीरा शानदार है!!
जवाब देंहटाएंआपको अऊर दुल्हिन को दाम्पत्य जीवन का पहिला होली मुबारक..जीवन में यह सारे रंग भर जाएँ!!
साप्ताहिक कीर्तन और उत्सवों का आनन्द गाँवों की सामाजिकता का सतत आधार है
जवाब देंहटाएंसंस्मरण पढ़कर मुझे भी अपने गाँव की होली की याद आ गयी ! क्या वो दिन हुआ करते थे ! अब तो जैसे त्योहारों का रंग फीका होता जा रहा है ,सब कुछ सिमटता जा रहा है !
जवाब देंहटाएंआपको सपरिवार होली की शुभकामनाएँ !
जीवन्तता का राग- फाग.
जवाब देंहटाएंबातों के मालपुए.......bahot swadisht hain.
जवाब देंहटाएंबढ़िया प्रस्तुति...
जवाब देंहटाएंहोली की सादर शुभकानाएं...
“जो जीए सो खेले फ़ाग!”
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी प्रस्तुति
बहुत अच्छी प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंजोगीरा मस्त बना है करन भाई... अपनी होली सी लगी.... सच कहा है कि गाँव में भी अब होली वैसी नहीं रही... हमारे यहाँ कपल काका यानी कपलेश्वर जादव मरे हैं... होली गाने वाला ही नहीं रहा.... दाम्पत्य जीवन की पहली होली की देर से ही लेकिन शुभकामना...
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