फ़ुरसत में ...95
देखी ‘कहानी’, आप भी देखिए
मेरे लिए, इस सप्ताह की शुरुआत एक शानदार फ़िल्म से हुई। बहुत दिनों बाद एक ऐसी फ़िल्म देखी जिसमें शुरू से अंत तक थ्रिल बना रहा। आजकल हिंदी में ऐसी फ़िल्में बहुत कम ही बनती हैं। आम तौर पर हिंदी फ़िल्मों का पुनरावलोकन (रिव्यू) करते वक़्त अंग्रेज़ी अखबारों के समीक्षक पश्चिम का चश्मा पहन कर नाहक ही उसकी आलोचना करने लगते हैं। इस फ़िल्म के साथ भी ऐसा ही देखने-पढ़ने को मिला।
फिल्म “कहानी” भारतीय सिने-जगत के इतिहास में फिल्माई गई एक ऐसी कहानी है, जो वर्षों में एकाध बार लिखी जाती है और इस कहानी को परदे पर सफल बनाने में विद्या बालन ने जो महत्वपूर्ण योगदान दिया है, उसे सालों-साल तक याद किया जाता रहेगा। एक के बाद एक सशक्त किरदार निभाकर विद्या अपनी एक्टिंग का लोहा तो मनवा ही रही हैं, अब उन्होंने यह भी साबित कर दिया है कि वे सिर्फ़ अपने दम पर फ़िल्म को सफलता के शिखर तक ले जा सकती हैं, और उसे हिट करा सकती हैं।
“द डर्टी पिक्चर” के बाद, उन्हें न जाने किन-किन खिताबों से नवाज़ा गया, किंतु फ़िल्म “कहानी” में बिना किसी अंग-प्रदर्शन और ग्लैमर के उन्होंने साबित कर दिया है कि किसी चरित्र में जीवंत अभिनय के द्वारा कैसे जान फूंकी जा सकती है। पूरी फ़िल्म में न कोई नाच-गाना है, न कोई “ऊ ला ला” ही। मुख्य किरदार भी ऐसा जिसमें ग्लैमर या डर्टी दिखने और दिखाने का कोई चांस नहीं। एक महिला जो आठ-नौ महीने की गर्भवती है और उसका पति अचानक ग़ायब हो गया है। ऐसी कठिन परिस्थिति में उस महिला के लिए जीवन न तो सिल्क सा कोमल है न उसमें इश्क़िया होने का ही कोई चांस है। विद्या बालन ने ऐसी ज़बरदस्त पटकथा वाली इस फ़िल्म में उस ताकतवर स्त्री के किरदार को जीकर यह बताया है कि वे अपने उत्कृष्ट अभिनय के बल पर फ़िल्म में जान फूंक सकती हैं।
ग़ौर करने वाली बात है कि इस फ़िल्म में न कोई खान है, न कपूर, न ही कोई कुमार और न कोई फ़िल्म को हिट कराने वाला नाच-गाना, न आइटम नम्बर। फिल्म में जो प्रमुख पुरुष अभिनेता हैं उनके नाम से भी हिंदी फ़िल्म के दर्शक अनजान ही होंगे - परमब्रत चट्टोपाध्याय, नवाज़ुद्दीन सिद्दिक़ी और इंद्रनील सेनगुप्त। इन्होंने भी अपने जानदार अभिनय से फ़िल्म में जान डाल दी है। फिल्म की कहानी भी बड़ी साधारण सी है। विदेश (लंदन) में रहने वाली एक गर्भवती महिला अपने “मिसिंग हसबैंड” को ढ़ूंढ़ने कोलकाता आती है और एक होटल में ठहरती है। कोलकाता पुलिस की मदद से वह अपने पति की तलाश में कोलकाता के गली-मुहल्ले की ख़ाक छानती फिरती है।
चूंकि यह फ़िल्म एक सस्पेंस थ्रिलर है, इसलिए इससे ज़्यादा कहानी बताना उन पाठकों के प्रति अन्याय होगा जिन्होंने यह फ़िल्म नहीं देखी है, लेकिन इतना कह सकता हूं कि शुरू से आखिर तक सांस रोके देखने को आप बाध्य हो जाएंगे। फिल्म में न किसी तरह के अनावश्यक लाईट-साउंड इफ़ेक्ट के द्वारा लोगों में डर पैदा करने की कोशिश की गई है, न फालतू की कोई कार चेज़िंग या मारधाड के दृश्य के द्वारा जबरन रोमांच ही ठूंसा गया है। अगर कुछ इस फ़िल्म को अन्य फ़िल्मों से अलग करता है, तो वह है सारे कलाकारों का सशक्त अभिनय, और उससे भी बढकर फ़िल्म का चुस्त निर्देशन। और फिल्म की रफ़्तार को दर्शकों के दिल की धडकन से मुकाबला करने वाली एडिटिंग के बिना फिल्म का यह रोमांच कभी संभव नहीं होता। एक भी फ़ालतू दृश्य नहीं, एक भी अनावश्यक डायलॉग नहीं। चुस्त पटकथा के कारण यह फ़िल्म इतनी सशक्त बन पड़ी है कि रोमांच अपने चरम पर है।
“झंकार बीट्स” से अपनी पहचान बनाने वाले फ़िल्म के निर्देशक सुजॉय घोष ने कोलकाता के परिवेश को दिखाने के लिए अनावश्यक रूप से फुटेज़ खाने की ज़रूरत नहीं समझी है, फिर भी कोलकाता का शायद ही कोई रंग छूटा हो। फ़िल्म अपनी रफ़्तार में चलती रहती है और कोलकाता का परिवेश, उसके गुण और उसकी विशेषताएं खुद-ब-खुद सामने आती रहती है। कोलकाता के परिवेश का इससे बढ़िया चित्रांकन शायद ही किसी फ़िल्म में देखा होगा। यह कमाल एक कुशल व प्रभावशाली संपादन और निर्देशन से ही संभव हो सका है। विशाल शेखर ने फ़िल्म में संगीत दिया है और अमिताभ बच्चन की आवाज़ में कविगुरु रविन्द्र नाथ टैगोर के गीत “एकला चलो रे” की प्रस्तुति भाव-विभोर कर देती है। यह गीत दर्शकों के लिए एक ऐसा कलात्मक उपहार है, जिसे आप वर्षों तक नहीं भूल पायेंगे।
फ़िल्म विद्या बालन की है, जो विद्या (बिद्या का नहीं) का ही किरदार निभाती है। कभी परिस्थितियों के आगे विवश भारतीय नारी बनकर अपने गुस्से का इज़हार करती, तो कभी बच्चों के साथ खुशियाँ शेयर करती हुई और कभी अपनी जान जोखिम में डालकर रोमांचक कारनामे अंजाम देती हुई, फिर भी कमाल ये कि ये सब कहीं से बनावटी या ज़बरदस्ती थोपा हुआ नहीं लगता।
इस “मस्ट सी” फ़िल्म में विद्या बालन का अभिनय कम से कम उन आलोचकों का मुंह ज़रूर बंद कर देगा जो उनके श्रेष्ठ अभिनय के लिए मिले राष्ट्रीय पुरस्कार पर उंगली उठा रहे थे।
वाह ..
जवाब देंहटाएंजरूर देखेंगे !!
अब तो देखना ही पडेगा...
जवाब देंहटाएंइसकी कहानी , प्रोमोज और अब आपकी समीक्षा, इसे देखने के लिए ललचा रहे हैं ...
जवाब देंहटाएंमुझे यह फिल्म बहुत ही बकवास बोरियत भरी और भारतीय मन के प्रतिकूल लगी ...मगर मैं आपकी समझ ,रुझान की कद्र करता हूँ!
जवाब देंहटाएं:):)
हटाएंफिल्म देखी है , बहुत अच्छी लगी....
जवाब देंहटाएंसुँदर समीक्षा . देखते है जल्दी ही..
जवाब देंहटाएंदेख आये विद्या नहीं बिद्या बागची को। कोलकता के सीन और पिक्चर अच्छी लगी। :)
जवाब देंहटाएंआपकी संस्तुति पर देख आते हैं।
जवाब देंहटाएंदेखते हैं यह कहानी है या फ़साना !!
जवाब देंहटाएंविद्या-बालन का श्रेष्ट अभिनय ।
जवाब देंहटाएंकमाल का कॉम्पैक्ट कमेन्ट किया है कोलकाता के कल्चर के कसाव से उपजी "कहानी" का!! बहुत सधी हुई समीक्षा की है आपने.. शत प्रतिशत सहमत हूँ इस फिल्म के विषय में आपकी प्रतिक्रिया से!! हमारे यहाँ तो मल्टीप्लेक्स में यह हाउस फुल चल रही है!! कल देखने का मन है!! धन्यवाद आपके रेकमेंडेशन के लिए!!
जवाब देंहटाएंekdam sadhee hui sampoorn sameekcha......bahut achchi lagi.
जवाब देंहटाएंachchhi samiksha
जवाब देंहटाएंमनोज जी,...बहुत अच्छी समीक्षा लगी,इस मूवी को अब जरूर देखुगा,....
जवाब देंहटाएंसुन्दर व कलात्मक समीक्षा..
जवाब देंहटाएंफिल्म देखने वाली है सच में ... बंधे रखती है अंत तक ... आपकी समीक्षा उत्सुकता बढ़ा देगी सबके मन में ...
जवाब देंहटाएंवाह सर क्या बात है बहुत ही बढ़िया समीक्षा की है आपने पढ़कर मज़ा आ गया लगता है समीक्षा करना आपसे सीखना होगा :) सिखायेगे ना...:)
जवाब देंहटाएंफिल्म कोई भी रही हो.विद्द्या ने अपने किरदार के साथ हमेशा न्याय किया है और यही उसकी खासियत है कि फिल्म को किसी ओर के कंधे पर ले चलने के लिए नहीं छोडती वह.
जवाब देंहटाएंबढ़िया समीक्षा की है देखनी ही है यह फिल्म बस मौका लगे.
फिल्म के बारे मेन जिस तरह आपने लिखा है देखने को मन लालायित हो उठा है ... आभार ...
जवाब देंहटाएंकई वर्ष बाद कोई फिल्म देखेने का मन हुआ। जयप्रकाश चौकसे की फिल्म समीक्षायें भरोसे के लायक होती हैं। उसी को पढ़कर "कहानी" देखेने गया था। सभी पात्रों ने अपने किरदार से न्याय करने में लेश भी कोताही नहीं की है। कहानी की कहानी भी आम कहानियों से अलग है। मनोज भैया की समीक्षा से लगता है कि उन्होंने पूरी फिल्म बड़े ही ध्यान से देखी है।
जवाब देंहटाएंab aap itani tarif kar rahe hai to jarur ye film dekhenge...
जवाब देंहटाएंसमीक्षा पढ़कर फिल्म देखने की इच्छा हो रही है। देखें कब मौका मिलता है।
जवाब देंहटाएंमैंने भी देखी है। वाकई लाजवाब है फिल्म और विद़या बालन का अभिनय भी।
जवाब देंहटाएंफिल्म देखी...बेहतरीन फिल्म...विद्या बालन का अभिनय और आप की अन्य सभी बातें सही हैं...इस फिल्म को जरुर देखा जाना चाहिए।
जवाब देंहटाएंजब से कहानी देखी इस पर एक पोस्ट लिखने की इच्छा है...
जवाब देंहटाएंक्या फिल्म है, सब कुछ कसा हुआ... बड़े दिनों बाद आई देखने लायक फिल्म...
सादर.
बहुत दिनों से हॉल में मूवी नहीं देखी है...लगता है देखनी पड़ेगी...
जवाब देंहटाएंबहुत दिनों बाद थियेटर में जाकर फिल्म देखी। जहाँ आजकल नायिका प्रधान फिल्में नहीं आ रही हैं वहाँ विद्या बालन अपने दम पर पूरी फिल्म को आगे ले जाती हैं। आपने सही लिखा है कि बिना किसी ग्लेमर के तड़के के फिल्म दर्शकों को अन्त तक बांधे रखती है। शायद ऐसे दर्शक जो सीटी बजाने वाले दृश्यों के लिए ही फिल्म देखते हैं, उन्हें जरूर निराशा हाथ लगेगी। लेकिन नि:संदेह बहुत दिनों बाद ऐसी फिल्म देखने को मिली। बस कलकत्ता का अन्दरूनी सच देखकर दुख हुआ कि लोग इतनी गन्दगी में कैसे रह लेते हैं? लेकिन निदेशक ने बहुत खूबी से शहर को दर्शाया है।
जवाब देंहटाएंलगता है देखनी पड़ेगी...
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