भारतीय काव्यशास्त्र – 105
आचार्य परशुराम राय
पिछले अंक में व्यभिचारिभावस्वशब्दवाच्यता, रसस्वशब्दवाच्यता,
स्थायिभावस्वशब्द- वाच्यता रसदोषों पर चर्चा की गई थी। इस अंक में अनुभाव
की कठिनाई से प्रतीति, विभाव की कठिनाई से प्रतीति और प्रतिकूल विभाव आदि
का ग्रहण रसदोषों पर चर्चा की जाएगी। पिछले अंक में कुछ पाठकों ने प्रतिक्रिया
करते हुए लिखा था कि पोस्ट स्पष्ट नहीं हो पायी है, समझने में कठिनाई हो रही है। यह बात मुझे पोस्ट लगने के बाद समझ में आई
कि लोगों को ऐसा क्यों लगा। अतएव, उन परिभाषिक शब्दों को स्पष्ट करने के लिए उनकी
एक बार फिर चर्चा की जा रही है।
रस को परिभाषित करते हुए आचार्य भरत कहते हैं-
विभावानुभावव्यभिचारिभावसंयोगाद्रसनिष्पत्तिः, अर्थात् विभाव, अनुभाव और
व्यभिचारिभाव (संचारिभाव) के संयोग से रस निष्पन्न होता है, उत्पन्न होता है या ये
विभाव, अनुभाव और व्यभिचारिभाव (संचारिभाव) रस की अनुभूति के कारक होते हैं। विभाव
रस के बाह्य कारक होते हैं और ये दो तरह के होते हैं- आलम्बन और उद्दीपन।
शृंगार रस में नायक या नायिका या दोनों आलम्बन होते हैं और चाँदनी,
नदी, बाग आदि उद्दीपन होते हैं। स्थायिभाव रस की अनुभूति के आंतरिक कारक
हैं। प्रत्येक रस का अपना अलग स्थायिभाव होता है, जैसे - रति (शृंगार रस), हास
(हास्य रस), शोक (करुण रस) आदि। रस की अनुभूति के समय शारीरिक और मानसिक
व्यापार अनुभाव कहलाते हैं- जैसे रौद्र रस में नथुनों का फूलना, आँखें
लाल-लाल होना आदि। प्रत्येक रस के अनुभाव भी विभाव की भाँति अलग-अलग होते हैं।
अनुभाव की तरह व्यभिचारिभाव भी आंतरिक रस की अनुभूति से उत्पन्न शारीरिक और मानसिक
व्यापार या अभिव्यक्ति है। आचार्य भरत लिखते हैं कि जो रसों में सक्रिय होते हैं
और उन्हें (रसों को) पुष्टकर आस्वादन के योग्य बनाते हैं, वे व्यभिचारिभाव कहलाते
हैं। इनकी कुल संख्या 33 है, जैसे- निर्वेद, ग्लानि, ईर्ष्या, आलस्य आदि। ये रसों
के अनुसार अलग-अलग नहीं होते। रस के निष्पन्न होने में इनकी अनुभूति होने में इन
कारकों के विभिन्न व्यतिक्रमों से व्यवधान उत्पन्न होने पर ही रसदोषों का जन्म
होता है।
अब अपने मूल विषय पर वापस लौटते हैं और अनुभाव की कठिनाई से प्रतीति, विभाव
की कठिनाई से प्रतीति और प्रतिकूल विभाव आदि का ग्रहण रसदोषों पर चर्चा
प्रारंभ करते हैं।
जहाँ काव्य में अनुभावों की प्रतीति होने में कठिनाई हो, वहाँ अनुभाव की कठिनाई
से प्रतीति रसदोष होता है। जैसे-
कर्पूरधूलिधवलद्युतिपूरधौतदिङ्मण्डले शिशिररोचिषि
तस्य यूनः।
लीलाशिरोंSशुकनिवेषविशेषक्लृप्तिव्यक्तस्तनोन्नतिरभून्नयनावनौ
सा।।
अर्थात् चन्द्रमा के उदय होने से कर्पूर के
चूर्ण के समान श्वेत चाँदनी से दिङ्मंडल प्रकाशित हो रहा है। ऐसे में सिर पर इस
प्रकार घूँघट डाले कि उसके स्तन का उभार स्पष्ट हो। इस प्रकार वह उस नवयुवक की
दृष्टि की परिधि में आ गयी।
यहाँ शृंगार रस के आलम्बन विभाव के रूप में
नायिका और उद्दीपन विभाव के रूप में चन्द्रमा का वर्णन तो है, लेकिन इन विभावों के
परिणाम स्वरूप नायक में उत्पन्न होनेवाले अनुभावों - स्वेद, रोमांच आदि के वर्णन
का अभाव होने के कारण इनकी (अनुभावों की) प्रतीति होने में कठिनाई है। जिससे
शृंगार रस के निष्पन्न होने में या तो व्यवधान उत्पन्न होता है, या तो बिलम्ब होता
है। इसलिए यहाँ अनुभाव की कष्ट से प्रतीतिजनित रसदोष है।
जहाँ काव्य में विभावों की प्रतीति में कठिनाई
हो, वहाँ विभाव की कठिनाई से प्रतीति रसदोष होता है। जैसे-
परिहरति रतिं मतिं लुनीते स्खलति भृशं परिवर्तते च
भूयः।
इति बत विषमा दशास्य देहं परिभवति प्रसभं किमत्र कुर्मः।।
अर्थात् वह बेचैन
रहता है, उसका विवेक नष्ट हो गया है, लड़खड़ाता है, लोटने-पोटने लगता है। इस
प्रकार उसका शरीर अत्यन्त भयावह दशा को प्राप्त हो गया है। समझ में नहीं आता कि
ऐसी स्थिति में क्या किया जाय?
यहाँ बेचैनी, लड़खड़ाना आदि केवल अनुभावों का
वर्णन किया गया है और ये अनुभाव विप्रलम्भ शृंगार और करुण रस दोनों में ही पाए
जाते है। आलम्बन विभाव के रूप मे प्रियतमा का कथन न होने के कारण इस विभाव का
अनुमान बड़ी कठिनाई से हो पाता है। इसके अतिरिक्त यह भी संदेह होता है कि उस
व्यक्ति की वर्णित दशा किसी बीमारी विशेष के कारण तो नहीं है। अतएव यहाँ विभाव-कष्टकल्पना
रसदोष है।
निम्नलिखित हिन्दी दोहे में भी विभाव और
अनुभाव की कठिनाई से प्रतीति देखने को मिलेगी-
हिमकर किरण पसारकर, जब देता
आनंद।
तब
वह हँसती दृग नचा, खिल उठता मुखचंद।।
इसमें नायिक आलम्बन
विभाव और चन्द्रमा उद्दीपन विभाव है। लेकिन नायक के प्रेम को व्यक्त करने वाले
अनुभावों की प्रतीति में कठिनाई हो रही है। इसी प्रकार, यहाँ नायक के उल्लेख के
अभाव में यह कहना कठिन है कि नायिका का हँसना, आँख का नचाना, मुखचंद का खिलना
प्रेमगत है या मात्र स्वाभाविक विलास, यह स्पष्ट नहीं हो रहा है।
जब काव्य में इस प्रकार के विभावों का वर्णन हो,
जिससे अपेक्षित रस के प्रतिकूल विभाव का ग्रहण होता है, वहाँ प्रतिकूल विभाव
आदि का ग्रहण रसदोष होता है। निम्नलिखित श्लोक इसका उदाहरण है। अपनी रूठी
प्रियतमा को मनाने के लिए उसके प्रति नायक की यह उक्ति है-
प्रसादे वर्तस्व प्रकट्य
मुदं संत्यज रुषं
प्रिये शुष्यन्त्यङ्गान्यमृतमिव ते सिञ्चतु वचः।
निधानं सौख्यानां मक्षणमभिमुखं स्थापय मुखं
न मुग्धे प्रत्येतुं
प्रभवति गतः कालहरिणः।।
अर्थात्, हे प्रिये,
मान जाओ, थोड़ा मुस्करा दो, गुस्सा छोड़ दो, तुम्हारी नाराजगी से मेरे सूखते जा
रहे अंगों को अपनी वाणी रूपी अमृत से सींच दो, मेरे सभी सुखों के आधार अपने सुन्दर
मुख को मेरे सामने करो। क्योंकि हे मुग्धे, गया हुआ यह काल रूपी हिरण पुनः लौटकर
नहीं आता।
इस शलोक में कालरूपी हिरण पुनः वापस नहीं
आएगा (बीता हुआ समय लौटकर नहीं आता) कथन से यौवन की अनित्यता रूपी विभाव शान्त
रस को निष्पन्न करनेवाले निर्वेद व्यभिचारिभाव को प्रकाशित करता है। जो शृंगार रस
के प्रतिकूल है, जबकि यहाँ कवि का अभीष्ट शृंगार का वर्णन है। इसलिए यहाँ प्रतिकूल-विभाव-ग्रहण
रसदोष है।
प्रतिकूल विभावादि का ग्रहण रसदोष के लिए
हिन्दी की निम्नलिखित कविता ली जा रही है -
मधु कहता है ब्रजबाले, उन पद-पद्मों का करके ध्यान।
जाओ जहाँ पुकार
रहे हैं श्रीमधुसूदन
मोद निधान।
करो प्रेम मधुपान शीघ्र ही यथासमय
कर यत्न विधान।
यौवन के सुरसाल
योग में कालरोग है अति बलवान।
यहाँ भी कालरोग पद यौवन की अनित्यता
का संकेतक है, जो शान्त रस में आलम्बन विभाव होता है। जबकि शृंगार रस का वर्णन कवि
का अभीष्ट है। अतएव इसमें भी प्रतिकूल-विभाव-ग्रहण रसदोष है।
इस अंक में बस इतना ही।
जी आभार ||
जवाब देंहटाएंज्ञानवर्धक आभार.
जवाब देंहटाएंज्ञानवर्धन के लिये बहुत शुक्रिया. हर बार की तरह सुंदर जानकारी.
जवाब देंहटाएंसरल शब्दों में सटीक उदाहरण द्वारा आपने अंतर को स्पष्ट किया है। बड़ा ही रोचक अंक रहा।
जवाब देंहटाएंकिसी भी साहित्य का परिमार्जन उसकी विधाओं के अनुरूप प्रयोग धर्म व संश्लेषित कत्थ्य के अनुरूप आचरण निहितार्थ होता है , यद्यपि की रचना की शाश्त्रियता व भाव व्यक्ति विशेष का होता है ,फिर भी अनुबंधों का होना जरुरी ही नहीं स्वीकार्य भी है ..... श्रेष्ठ रसायन व समीकरण अपेक्षानुरूप साधुवाद जी /
जवाब देंहटाएंबहुत ही अच्छी प्रस्तुति ।
जवाब देंहटाएं---काव्य में प्रचलित दोषों का सुन्दर वर्णन....
जवाब देंहटाएं---कालजयी शाश्वत व शास्त्रीय साहित्य के लिये रचना में इन सारे दोषों का निराकरण आवश्यक है....परंतु सामान्य जन के लिये व्यवहारिक साहित्य में ये दोष खूब स्वीकार्य हैं महान से महान प्रसिद्ध रचनाकारों के काव्य में भी..... साथ ही साथ यह भी सच है कि यदि सामान्य जन को भी ग्यान के स्तर पर ऊंचा उठाना है तो काव्य के मानक तो रखने ही पडेंगे।