सोमवार, 30 अप्रैल 2012

अपनी ही माटी से


अपनी ही माटी से

श्यामनारायण मिश्र

पेट और  मुंह की
पैशाचिक धुन पर
हदर-दुदुर नाच रहे लोग
मन की सारंगी
     छेड़ो तो चैन मिले।

नारों के रटने में
सारी गतिविधियों के
     मधुमय लय वर्तुल टूटे।
मंच तक पहुंचने में
सारे आदर्शों के
     चमकीले छत्र-चंवर छूटे।
गुंबद-मीनारों की
शक्लों में खड़े हुए
     जहां-तहां ढोंग के किले।

तोड़ो ये गमले
धरती पर रोपो
     नये नस्लवाली
          झूमे हरियाली।
जांतों से यंत्रों तक
आने दो गाने की
     धुरी वह पुरातन
          प्राचीन वह प्रणाली।
अपनी ही माटी से
स्रोत अगर फूटे तो
शायद यह सदियों से
धरी हुई छाती पर
     जलती चट्टान
          कुछ हिले।
***  ***  ***
चित्र : मनोज कुमार

रविवार, 29 अप्रैल 2012

भारतीय काव्यशास्त्र – 110


भारतीय काव्यशास्त्र – 110
आचार्य परशुराम राय
पिछले अंक में आलम्बन ऐक्य, आश्रय ऐक्य और विरोधी रसों का निरन्तरता के साथ वर्णन से काव्य में आए रसदोषों के परिहार पर चर्चा की गयी थी। रसदोषों के परिहार से सम्बन्धित शेष स्थितियों पर यहाँ चर्चा की जाएगी।
विरोधी रसों के कारण उत्पन्न रसदोष तीन स्थितियों में दोष नहीं माने जाते। एक तो जहाँ विरोधी रस स्मर्य़माण (स्मरण से) होकर  आये हों, दूसरा जहाँ विवक्षा में साम्य हो (अर्थात् विरोधी रस समान रूप से महत्त्वपूर्ण हों) और तीसरा जहाँ विरोधी रस किसी प्रधान रस के अंग के रूप में आये हों-
स्मर्यमाणो विरुद्धोSपि साम्येनाथ विवक्षितः।
अङ्गिन्यङ्गत्वमाप्तौ यौ न दुष्टौ परस्परम्।। (काव्यप्रकाश 7.65)
निम्नलिखित श्लोक में स्मरण के माध्यम से विरोधी रस शृंगार के विभाव, अनुभाव और व्यभिचारिभावों का वर्णन करुण रस के वर्णन के समय आया है। यह श्लोक युद्धभूमि में अपने पति के कटकर पड़े हाथ को देखकर उसकी पत्नी की उक्ति है -
अयं स रशनोत्कर्षी पीनस्तनविमर्दनः।
नाभ्यूरुजघनस्पर्शी नीवीविस्रंसनः करः।।
अर्थात् यह वही हाथ है, जो सहवास के समय मेरी करधनी को हटाता था, मेरे बड़े-बड़े स्तनों का मर्दन करता था, नाभि, ऊरु, जघन-स्थल का स्पर्श करता था और नीवी (नाड़ा) को खोलता था।
यहाँ ध्यातव्य है कि पति का कटा हुआ हाथ देखकर पति के साथ सहवास के समय व्यतीत दिनों की याद रानी को आती है। यहाँ स्मरण से संयोग शृंगार के विभाव, अनुभाव और विभाव आदि का वर्णन करुण रस को पुष्ट करते हैं। अतएव यहाँ विरोधी शृंगार और करुण परस्पर विरोधी रसों का वर्णन होने से भी रसदोष नहीं होता। वैसे एक और स्थिति बनती है, और वह यह कि यहाँ शृंगार रस कवि का इष्ट प्रधान करुणरस के अंग के रूप में वर्णित हुआ है। यह भी रसदोष के निराकरण का साधन है, जिसकी चर्चा आगे की जाएगी।  
विरोधी रसों के कारण आनेवाले रसदोषों के परिहार की अगली स्थिति है विरोधी रसों की साम्य-विवक्षा। इसके लिए आचार्य मम्मट ने निम्नलिखित श्लोक उद्धृत किया है-
दन्तक्षतानि कसदैश्च विपाटितानि प्रोद्भिन्नसान्द्रपुलके भवतः शरीरे।
दत्तानि रक्तमनसा मृगराजवध्वा जातस्पृहैर्मुनिभिरप्यवलोकितानि।।
अर्थात् आपके शरीर पर रक्तपिपासु प्यारी सिंहनी (या स्त्री) के दाँतों और नाखूनों के बने चिह्नों को मुनि लोग भी अत्यन्त ललचायी आँखों से देखते हैं।
तात्पर्य यह कि भगवान बुद्ध के शरीर पर सिंहनी के दाँतो और नखों के चिह्न भी उतने ही आकर्षक लगते हैं, जैसे किसी प्रेमी पुरुष के शरीर पर सहवास के समय उसकी प्रियतमा के दाँतों और नाखूनों के निशान देखकर किसी सामान्य व्यक्ति के मन में शृंगार की भावना सक्रिय हो जाती है। यहाँ विरोधी शृंगार और वीररस (दयावीर) को समान महत्त्व देना कवि का अभीष्ट है। अतएव यहाँ रसदोष नहीं होगा।
यह श्लोक सम्भवतः भगवान बुद्ध के शरीर पर किसी सिंहनी के दाँतों और नाखूनों के निशान को देखकर लिखा गया है। कहा जाता है कि एक बार एक भूखी सिंहनी को अपने बच्चे को खाने के लिए उद्यत देख भगवान बुद्ध स्वयं उसके सामने प्रस्तुत हो गए। कुछ के अनुसार यह जिन के जीवन की घटना है। विभिन्न टीकाकारों ने इस श्लोक में अन्य विरोधी रसों का भी उल्लेख किया है। उपर्युक्त निर्णय महामहोपाध्याय डॉ. गंगानाथ झा का है, जिसका उल्लेख काव्यप्रकाश पर उनकी अंग्रेजी टीका में हुआ है। माणिक्यचन्द्र आदि टीकाकारों के अनुसार इसमें शान्त और शृंगार रस का अविरोध दिखाना है। इसी प्रकार सारबोधिनी और सुधासागरकार ने बीभत्स और शृंगार का अविरोध दिखाया है।
निम्नलिखित श्लोक में यह बताया गया है कि जहाँ विरोधी रस स्वयं प्रधान न होकर किसी तीसरे प्रधान रस के अंग के रूप में आएँ, तो वहाँ रसदोष नहीं होता। यह श्लोक किसी कवि द्वारा अपने राजा की प्रशंसा में कहा गया है। इसे ध्वन्यालोककार ने भी अपने ग्रंथ ध्वन्यालोक में उद्धृत किया है -  
क्रामन्त्यः क्षतकोमलाङ्गुलिगलद्रक्तैः सदर्भाः स्थलीः
पादैः    पातितयावकैरिव   गलद्वाष्पाम्बुधौताननाः।
भीता       भर्तृकरावलम्बितकरास्त्वच्छत्रुनार्योSधुना
दावाग्नि  परितो  भ्रमन्ति  पुनरप्युद्यद्विवाहा  इव।।
अर्थात् (हे राजन्), कुश से युक्त जंगल में नंगे पाँव चलने से आपके शत्रु की रानियों के पैर की उँगलियों में कुश के चुभने से घाव हो गये हैं, जिनसे रक्त-स्राव होने से लगता है कि उनके पैरों में महावर लगा है, अपने आँसुओं से अपने मुख को धोकर भयभीत हुईँ वे अपने पतियों के हाथ पकड़े दावानल के चारों ओर परिक्रमा कर रही हैं।
यहाँ द्रष्टव्य है कि शत्रु की पत्नियों की दुर्दशा का वर्णन होने से करुण रस का वर्णन है। पति का हाथ पकड़कर दावानल के चारों ओर घूमने से विवाह करने का संकेत देकर शृंगार रस की अभिव्यक्ति भी हुई है। इन दोनों रसों का आलम्बन शत्रु की पत्नियाँ हैं। यहाँ विरोधी करुण और शृंगार रसों का आलम्बन-ऐक्य विरोध है। परन्तु इन दोनों में से कोई भी इस श्लोक में प्रधान रस नहीं है। बल्कि ये दोनों कवि के अन्दर स्थित उसकी अपनी राज-भक्ति के अंग बनकर रह गए हैं। अतएव यहाँ करुण और शृंगार के आलम्बन-ऐक्य के होते हुए भी रसदोष नहीं है।
इस अंक में बस इतना ही। अगले अंक में काव्यदोषों के परिहार की कुछ अन्य स्थितियों पर चर्चा की जाएगी।
******

शनिवार, 28 अप्रैल 2012

फ़ुरसत में ... 100 : अतिथि सत्कार



फ़ुरसत में ... 100 : अतिथि सत्कार



मनोज कुमार

बेटा और लोटा परदेस में ही चमकते हैं –  एकदम खरी कहावत है यह। हमें ही देख लीजिए, पिछले 23 साल से परदेस में ही अपनी चमक छोड़ रहे हैं। महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, पंजाब और बंगाल की भूमि पर सेवा करते हुए दो दशक से अधिक हो गए। परदेस की पोस्टिंग, जब-जब गाँव-घरवालों के मनोनुकूल रही, तब-तब आने-जाने वालों से घर भरा-पूरा रहा।

हमारे एक मित्र हैं डॉ. रमेश मोहन झा, जिन्हें हम झा जी बुलाते हैं। यदा-कदा हमारे ब्लॉग पर मेहमान की भूमिका भी अदा कर गए हैं। सप्ताह में दो दिन तो उनके साथ भेंट-मुलाक़ात और बतकही हो ही जाती है। पता नहीं क्यों, मेरे लेखन से प्रभावित रहते हैं और कभी-कभार उसकी प्रशंसा भी कर देते हैं। “गंगा सागर” यात्रा-वृत्तांत पढ़कर इतने प्रभावित हुए कि गंगा सागर की यात्रा करके ही उन्होंने दम लिया।

हाल ही में, मैंने फ़ुरसतनामा में फ़िल्म “कहानी” की समीक्षा की थी। उसे पढ़कर वे काफ़ी  प्रभावित हुए और पिछले सप्ताह उन्होंने कहा कि अब तो इस फिल्म को देखना ही होगा। और अपने निर्णय पर ज़ोर देकर बोले “इसी सप्ताहांत में देखूंगा।“ गुरुवार को जब दफ़्तर में उनसे भेंट हुई तो मैंने उनसे पूछा, “देख आए ‘कहानी’? झाजी ने मायूस स्वर में कहा, “अरे अलग ही कहानी हो गई! दोनों दिन (शनिवार-रविवार) इस कदर व्यस्त रहे कि फ़िल्म देख ही नहीं पाए। घर से अतिथि आ गए थे। उनके बच्चों का यहां (कोलकाता में) इम्तहान था। सो उनके सत्कार में ही लगा रहा।”

मेरे चेहरे की चमत्कारी मुसकान शायद वे पढ़ नहीं पाए। अपने यहां भी स्थिति वही थी। “जो गति तोरी, सो गति मोरी” वाली स्थिति से मैं भी गए सप्ताहांत गुज़र चुका था। आज कल अतिथि की परिभाषा भी बदल-सी गई है, जिसके आने की कोई तिथि न हो, वाली स्थिति तो अब रही नहीं। अब तो मोबाइल पर अपने आने की सम्पूर्ण सूचना देकर वे पधारते हैं, ताकि  उनकी आवभगत और स्वागत-सत्कार में कोई कमी न रह जाए। इसलिए अतिथि के स्थान पर,  “सतिथि” कहकर ही काम चलाया जाना उचित जान पड़ता है।

शुक्रवार की शाम एक पुराने मित्र का बरसों बाद फोन आया, जो कि हाल-चाल से शुरू होते ही दूसरे वाक्य में ‘हमें तो भूल ही गए, न फोन करते हो, न कोई खबर लेते हो’ पर आ पहुंचा। हमारी प्रतिक्रिया की न तो उसे आवश्यकता थी, न ही परवाह। वह तो धारा-प्रवाह, बिना कॉमा-फुल-स्टॉप बोलता गया, जिसका न कोई ओर था न छोर, हरि अनंत-हरि कथा अनंता। जब वह अपने मन्तव्य पर पहुंचा, तब तक आरोप-प्रत्यारोप के पांच मिनट निपट चुके थे। मन्तव्य स्पष्ट करते हुए बोला, बेटी जा रही है, तुम्हारे शहर में। उसकी मां तो घबरा रही थी, हम बोले कि चाचा तो वहां पर है ही, फिर क्या सोचना? हम भी साथ जाते, लेकिन एक ठो ज़रूरी काम से दिल्ली जाना है। तुम देख लेना। उसका मामा भी साथे है। ... मैंने बात के सिलसिले को विराम देने के हेतु से गाड़ी और बर्थ का नम्बर लिया और फोन रख दिया।

सुबह-सुबह उठकर स्टेशन पहुंचा तो मालूम हुआ कि गाड़ी चार घंटे लेट है। खैर चार घंटे बाद दुबारा स्टेशन पहुंचा और मामा-भांजी को लेकर घर आया। उन्हें ड्रॉईंग रूम में छोड़ सब्जी-भाजी के प्रबंध हेतु बाज़ार गया। बाज़ार से घंटे भर बाद लौटा तो पाया कि मामा की वाचालता से पूरा घर गुंजायमान था। सोफ़े पर एक तरफ़ उनका पैंट-शर्ट किसी उपेक्षित प्राणी की तरह पड़ा था और श्रीमान पालथी मार कर सोफे पर विराजमान थे। औपचारिकता निभाने मैं भी बैठ गया। महोदय टीवी उच्चतम वौल्यूम पर सुनने के शौकीन लगे और हर बात पर प्रतिक्रिया देने को तत्पर, अतः बात करते वक़्त वे अपनी आवाज़ को टीवी की आवाज़ से तेज़ रखने पर उतारू रहते थे। घर में दोनों आवाज़ों का जो मिलाजुला स्टीरियोफोनिक सराउंड इफेक्ट पैदा हो रहा था, वह भी ‘महाभारत’ के युद्ध के दृश्य के समय के बैकग्राउंड म्यूज़िक से मैच करता हुआ था।

थोड़ी ही देर में महाशय ऐसा खुले कि लगा जन्म-जन्मांतर का नाता हो। मेरी स्टडी टेबुल पर पड़े बैग पर उनकी निगाहें गईं, तो प्रसन्नता की वह लकीर उनके चेहरे पर दिखी, मानों बिल्ली को दूध दिख गया हो। बोले, “मेहमान! बैग तो ज़ोरदार है। आपको तो ऑफिसे से मिल जाता होगा। इसको हम रख लेते हैं। आपको तो दूसरा मिलिए जाएगा।” संकोच से मेरा किसी नकारात्मक प्रतिक्रिया न करना उनके लिए सकारात्मक प्रभाव उत्पन्न कर गया और उन्होंने बैग पर क़ब्ज़ा जमा लिया। मेरे मन में बड़ा ही कसैला-सा विचार उमड़ा इन मेहमानों के चलते आए दिन न सिर्फ़ शनिवारों-रविवारों की हत्या होती है, बल्कि घर की संपदा पर भी डाका पड़ता है।

दोपहर अभी होने को ही थी कि श्रीमान का स्वर टीवी की आवाज़ से ऊँचा हुआ “खाने में क्या बना है?” अभी हम जवाब देते उसके पहले ही उनका दूसरा वाक्य उछल रहा था, “पटना में यदि आप होते तो बताते हम आपको कि माछ कैसे बनता है?” फिर तो बातों-बातों में उन्होंने अपने अप्रकाशित अनमोल ज्ञान का भंडार हमारे लिए खोल के रख दिया। बोलते रहे, “अरे इस जगह कोनो माछ मिलता है, सब चलानी है, बस चलानी। तलाब का फ़रेस मछली का बाते अलग है। आइए कभी हमरे यहां तलाब का मछली खिलाएंगे त आपको पता चलेगा कि मछली का मिठास क्या होता है? उसके सामने ई सब मछली त पानी भरेगा। बिना मसल्ला के जो माछ बनता है उसको खाने का मज़ा त उधरे आता है।”  अपनी इस थ्यौरी को हमारे सामने परोसते-परोसते वे इतने उत्तेजित हो गए कि पालथी मारकर सोफे पर ही चढ़ गए। अब जिस मुद्रा में वे थे, उसे बैठना कहना उनकी शान में गुस्ताख़ी ही होगी।

थोड़ी देर रुक कर वे फिर बोले, “मेहमान! आप थोड़े मोटे दिख रहे हैं। देखिए दोपहर के भोजन और सुबह के नाश्ते के बीच अगर नींबू-पानी का शरबत पी लिया कीजिएगा ना, त मोटापा अपने-आप कम हो जाएगा। हम दीदी को बोलते हैं अभिये बनाकर लाने के लिए.” मैंने मन ही मन सोचा फ़रमाइश तो श्रीमान जी ऐसे कर रहे हैं, मानो हमारे स्वास्थ्य की चिंता में घुले जा रहे हों। शायद हमारी बातें किचन में पहुंच रही थी, इसीलिए थोड़ी ही देर में शरबत लिए श्रीमती जी हाजिर थीं।

एक हाथ में शरबत का गिलास थाम उन्होंने दूसरे से अपने थैले का मुंह खोला और एक पोटली मेरी श्रीमती जी की तरफ़ बढ़ाते हुए बोले, -- “ये आपकी मां ने भिजवाया है। ठेकुआ, खजूर और निमकी है।” मेरी श्रीमती जी ने पोटली का बड़ा आकार और उसके अन्दर के सामान की मात्रा के अनुपात में भारी अन्तर पाया तो उनके चेहरे के भाव में स्वाभाविक परिवर्तन आया। शायद उसे भांपते हुए महाशय ने जल्दी-जल्दी कहना शुरू कर दिया, “इसमें जो था वह थोड़ा कम है। गाड़ी लेट हो रही थी, त हम सोचे कि अब क्या रस्ता-पैरा का खाएं। साथे त खाने का सामान हइए है, वहां जाकर क्या खाएंगे, अपना हिस्सा अभिए खा लेते हैं।” यह बोलकर वे हा-हा-हा करके हंसने लगे।

थोड़ी देर बाद लघुशंका निवारण के लिए जब महाशय के चरणकमल स्नानगृह में पड़े तो वहां उन्हें खुले हुए वाशिंग मशीन के दर्शन हुए और उनकी बांछें खिल गईं। उनका हर्षित स्वर फूट पड़ा, -- अरे मेहमान वाह! इ त कपड़ा धोने का मशीन है। रस्ता में सब कपड़ा पसीना से खराब हो गया है। जब मशीन चलिए रहा है त हम सबको धोइए लेते हैं।इतना कह कर उन्होंने उस मशीन का जी भर कर सदुपयोग किया और यहां तक कि अपने धुले हुए कपड़े भी धो डाले। मन ही मन मैं दुहरा रहा था, -- मंगनी के चन्दन, लगा ले रघुनन्दन।

भोजन का समय हो चुका था। हम डायनिंग टेबुल पर जमे। भोजन परोसे जाते ही महाशय की ट्वेन्टी- ट्वेन्टी की शतकीय पारी शुरू हो गई। थाली में रोटी गिरती नहीं कि वह सीमा-रेखा के बाहर पहुंच जाती थी। मतलब जितनी तेजी से वह उनकी तरफ़ पहुंचती, उससे भी अधिक तेज़ी से उनके उदरस्थ हो जाती थी। ऐसा लग रहा था कि उन्हें जुगाली की भी फ़ुरसत नहीं थी। ऐसे दृश्य को देख कर मेरे मन में यह उमड़ा –

हनुमान की पूंछ में लग न पाई आग।
लंका सारी जल गई गए निशाचर भाग॥
लगभग एक रीम रोटियों को निगलते हुए उदरस्थ कर चुकने के बाद, भाई साहब बेड पर पसरे और पलक झपकते ही उनके स्टीरियोफोनिक नासिका गर्जन ने पूरे घर में आतंक फैलाना शुरू कर दिया। उस ध्वनि का प्रवाह श्वांस के उच्छवास और प्रच्छ्वास के साथ कभी द्रुत तो कभी मध्यम लय में अपनी छटा बिखेर रहा था। ध्वनि का उखाड़-पछाड़ घर के अध्ययनशील प्राणियों की एकाग्रता दिन में भी भंग कर रहा था। ऐसा होता भी क्यों नहीं आखिर उनके आरोह-अवरोह कभी पंचम स्वर तो कभी सप्तम सुर में लग रहे थे। घर की लीला अब मेरे बर्दाश्त के बाहर थी। खिन्न होकर मैंने घर के बाहर निकल जाने में ही अपनी भलाई समझी।

जब मैं दो-ढाई घंटे बाद घर वापस आया, तो उन्हें हाथ में रिमोट पकड़े टीवी देखता पाया। किसी बेचैन आत्मा की तरह सोफा पर दोनों पांव रख कर वे बंदर की तरह उकड़ूं बैठे थे और जितनी देर मैं उनके पास रुका उतनी देर वे सौ से भी अधिक के टीवी के चैनलों पर कूदते-फांदते रहे। हमारा तो न्यूज़ तक सुनना दूभर हो गया था, मानों महाशय विवेक को ताक पर धर कर आए थे। मैंने सो ही जाने में अपनी भलाई समझी।

सुबह जब उठा तो श्रीमती जी द्वारा पहला समाचार सुनने को मिला कि भाई साहब का पेट बेक़ाबू हो गया है। मैंने मन ही मन कहा, -- जब माले मुफ़्त .. दिले बेरहम हो तो यह तो होना ही था। तभी महाशय जी दिखे। उन्होंने अपना नुस्खा खुद ही बताया, -- “तनी दही-केला खिला दीजिए   ऊहे पेट बांध देगा।” उनकी इच्छा फौरन पूरी की गई। पलक झपकते ही उन्होंने आधा किलो दही और आधा दर्जन केले पर अपना हाथ साफ किया और मांड़-भात खाने की अपनी फ़रमाइश भी सामने रख दी। फिर हमारी तरफ़ मुखातिब होकर बोले, -- “अब हम त ई अवस्था में बचिया के साथ नहिए जा पाएंगे। आपही उसको परीक्षा दिला लाइए।”

इधर हम झटपट तैयार होकर परीक्षा केन्द्र जाने की तैयारी कर रहे थे, उधर महाशय जी मांड़-भात समाप्त कर उपसंहार में दही-भात खा रहे थे। मुझे लगा इससे बढ़िया तो यही होता कि महाशय का पेट खराब ही न हुआ होता। बच्ची को परीक्षा दिला कर जब शाम घर वापस आए तो वे हमसे बोले, -- “मेहमान जी आप त बड़का साहेब हैं। तनी देखिए कौनो टिकट-उकट का जोगाड़ हो जाए।” इंटरनेट की दौड़-धूप के बाद हमने अपने पैसे से उनके टिकट का इंतज़ाम किया और उन्हें स्टेशन पहुंचा कर वापस घर आकर दम लिया।

हमने अभी चैन की सांस ली ही थी कि दरवाज़े की घंटी बजी। दरवाज़ा खोला तो लंबी-चौड़ी खींसे निपोरे श्रीमान जी नज़र आए। हम कुछ पूछते उसके पहले खुद ही बखान करने लगे, -- “गाड़ी छह घंटा लेट था, त हम सोचे कि पलेटफारम पर क्या बैठना, घरे चलते हैं वहीं चाह-वाह पी आते हैं।” दूसरी बार हमने कोई रिस्क नहीं ली। उन्हें छोड़ने न सिर्फ़ प्लेटफॉर्म तक गए बल्कि उस अतिथि रूपी बैताल को गाड़ी रूपी वृक्ष पर टांगकर ट्रेन के खुलने तक का वहीं इंतज़ार करते रहे और अपनी पीठ के वैताल को उतारकर घर वापस आए और एक कटे वृक्ष की तरह बिस्तर पर गिर पड़े।

मेरी इस व्यथा को सुनने वालों को बता दूँ कि यह सब मैं झा जी को सुना रहा था. झा जी जो अबतक मेरी इस आपबीती को तन्मयता के साथ सुन रहे थे, हंसने लगे। फिर उन्होंने कहना शुरू किया, -- “हमारे एक दोस्त हैं। वे भी ऐसे ही एक विकट अतिथि से जो उनके दूर के संबंधी भी थे, बड़े परेशान रहा करते थे। एक बार उनके इस दूर के संबंधी ने फोन किया, कि वे फलानी तारीख को आ रहे हैं, उन्हें स्टेशन आकर रिसिव कर लें। इस महाशय ने झट से कह दिया था, -- उन दिनों तो हम शहर से बाहर रहेंगे। दूर के संबंधी थोड़ा निराश हुए। बोले, -- कोई बात नहीं, हम होटल में रह लेंगे।

“एक दिन वे जब शाम को घर से बाज़ार जाने के लिए निकल ही रहे थे कि देखते हैं कि उनका दूर का संबंधी टैक्सी से उतर रहा है। बेचारे हैरान परेशान उलटे पांव घर की तरफ़ वापस भागे। उनके संबंधी ने उन्हें पुकारा पर उसकी पुकार को अनसुनी कर वे तेज़ कदमों से चलते रहे। संबंधी भी ढीठ की तरह उनका पीछा करता रहा। उन्होंने घर के दरवाज़े पर लगे कॉल-बेल को दबाया घर का दरवाज़ा खुला और उनकी पत्नी प्रकट हुई। वे अपनी पत्नी पर ही बिफर पड़े। लगे ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाने आजकल तुम कोई काम ढंग से करती ही नहीं हो। घंटा भर लगता है दरवाज़ा खोलने में। घर में एक भी सामान ठीक से अपनी जगह पर नहीं होता ऊपर से अनाप-शनाप बकती रहती हो ...। दो-चार मिनट ख़ामोश उनकी पत्नी अवाक हो सारी बातें सुनती रही। जब उसने देखा कि बे-सिर पैर के आरोप के साथ पति चिल्लाए जा रहे हैं, तो उसने भी ज़ोर-ज़ोर से पति को फटकारना शुरू कर दिया। दोनों के बीच महासंग्राम इस स्थिति तक पहुंच चुका था कि कभी भी यह मल्ल-युद्ध में तबदील हो सकता था। संबंधी महोदय ने ऐसी विकट स्थिति देखी तो घबड़ाकर वहां से खिसक लिए। संबंधी के खिसकते ही पति शांत होकर पत्नी को समझाने लगे अरी लक्ष्मी मैं तो उस घर पधार रहे विकट संबंधी के सामने यह नाटक कर रहा था, ताकि वह हमें लड़ता देख चला जाए। भला हुआ वह चला गया, वरना सोचो तुम्हारा क्या हाल होता? मैं कोई सचमुच तुम्हें थोड़े ही डांट रहा था। यह सुन अभी पत्नी शांत ही हुई थी कि संबंधी महोदय सीढ़ी के नीचे से निकल कर सामने आए और बोले तो भाई साहब मैं भी सचमुच का थोड़े ही गया हूं।”

यह वाकया खत्म कर झा जी ठठा कर हंस पड़े। मैंने भी उनका साथ दिया और कहा, -- झा जी लोग कहते हैं कि अतिथि देवो भव। ज़रा सोचिए और आप ही निर्णय कीजिए कि ऐसे अतिथि देवो भव हैं कि दानवो …!
***

बुधवार, 25 अप्रैल 2012

स्मृति शिखर से – 15 : वे लोग, भाग – 5


स्मृति शिखर से 15

वे लोग, भाग 5

करण समस्तीपुरी

कहावतें मेरी स्मृति के अभिन्न अंग रहे हैं। लोकोक्तियाँ मेरी जीवनचर्या में समायी रही हैं। बल्कि यूँ कहें कि मेरी परवरिश ही कहावतों के बीच हुई तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। मेरी दादीजी आंचलिक कहावतों की इनसायक्लोपिडिया थी। हर अवसर और हर चरित्र के लिए उनके पास एक जीवंत कहावत हुआ करती थी।

कहावतों की विरासत उनके सभी बच्चों को मिली। हमें कभी कहावतों में प्रशंसा और कभी निंदा मिलती रही। पिताजी के शब्दों में तो छोटे भाई का स्टेटस अपडेट था, “रमता जोगी बहता पानी...!” उसकी यायावरी प्रवृति का को अभिव्यक्त करने के लिए इस से अच्छा क्या हो सकता है। घर में तो वह सोने और खाने के अलावे एक पल के लिए भी नहीं रहता था, अन्यत्र भी ढूँढ़ना सरल नहीं था। अभी यहाँ, ... अगले क्षण खादी भंडार पर। जब भी कोई उसके संबंध में पूछता पिताजी कभी सामान्य और कभी खीझ कर बोलते थे, “रमता जोगी और बहता पानी... का कौन ठिकाना...! कब कहाँ।”
यह कहावत कितनी बार सुनी होगी। अभी भी सुनता हूँ गाँव जाने पर। जब भी सुनता हूँ मन में एक तस्वीर उभरती है। औसताधिक लंबाई, कृषकाय, गौर-वर्ण, बड़ी-बड़ी आँखें, लंबा चेहरा, छूरी की तरह खड़ी नाक, गले तक लटकती दाढ़ी, बड़े-बड़े बाल, घुटने तक लटकता लंबा कुर्ता...! नहीं ये कवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का शब्द-चित्र नहीं है।

मैंने तो उन्हें गाँव में ही देखा था। नहीं-नहीं...! वे मेरे गाँव के नहीं थे। लाल-चाचा और कन्हैय्या चाचा को समस्तीपुर में मिले थे। समस्तीपुर रेलवे स्टेशन पर। विराटनगर (नेपाल) जाने का मार्ग और साधन पूछ रहे थे। फ़ारबीसगंज उतरकर जाना होगा। छोटी लाइन की गाड़ी जाती है। फ़िर वो इनलोगों से बातें करने लगे। सज्जन विराटनगर में आहूत किसी संगीत-समारोह में भाग लेने जा रहे थे। सूरज अस्ताचल पर बढ़ चला था। गाड़ी आई। चली गई। चाचाओं ने याद दिलाई। उन्होंने कहा, “मुसाफ़िर हूँ यारों... न घर है न ठिकाना...! मुझे कोई विराटनगर नहीं जाना...! वो तो आप लोगों से बात करने की गरज से मैंने झूठ बोल दिया था।”

वे अपरिचित थे। अज्ञात । “अज्ञात कुलशीलस्य वासो देयो न कस्यचित!” उन्होंने झूठ बोला था। तथापि चाचा जी को उनकी भंगिमा और वचन भरोसे योग्य लगे थे। पूछा, “मेरे गाँव चलेंगे?” वे सहर्ष तैय्यार हो गए। 12 किलोमीटर साइकिल पर दोहरी सवारी कर वे लोग गाँव पहुँच गए। रेवाखंड में रात्रि का सन्नाटा पसर चुका था। शहर में तो कभी-कभी अपना भोजन भी नहीं बनता मगर गाँव में अभी भी रात को एकाध लोगों के अतिरिक्त भोजन पकाने की परंपरा है। भोजनोपरांत पूछा, “हारमोनियम है?” “हाँ।” “ले आओ..!” चाचा जी ने हरमोनियम रख दिया।

मुक्ताकाश देहरी में बाबा के तख्त पर बैठ अपरिचित महाशय शुरु हो गए। शीत-निशा की निरवता में राग-रागिनी की छटा बिखरने लगी। उनकी आवाज बहुत मीठी नहीं मगर सुरीली थी। सम्मोहन था उनमें। हरमोनियम पर अंगुलियाँ बिजली की तरह थिड़कती थी। स्वर में अतिसूक्ष्म शाहिद कपूर दोष था। को उच्चारण करते थे। “कागा जा... वे... जा...! मोवे पिया के संदेशवा ला... वे... ला... !” प्रताप सिंह नाम था उनका। उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले के रहने वाले थे। उन्होंने बताया था।

प्रातः हमारे पड़ोस में एक ग्रामीण गायक अभ्यास कर रहे थे। प्रताप सिंह की नींद खुल गई। चाचा जी को जगा दिया, “अरे ये कौन .... स्वर लगा रहा है....?” स्वर की दिशा में चलकर उनके घर और अभ्यास तक पहुँच गए। कुछ बातें हुई। चुनौती भी मिली... रामायण गाने की। उन्हीं के हारमोनियम पर शुरु हो गए। दो घंटे तक...! अविराम गाते रहे। उन्हें तुलसीदास की रामचरित मानस, दोहावली, कवितावली, सूरसागर और मीरा के अधिकांश पद कंठस्थ थे। पड़ोसी गायक ने प्रशंसित भाव से सिर नवा दिया था।

गायन के अतिरिक्त, तबला, ढोलक, बाँसुरी, सारंगी, सितार आदि पारंपरिक भारतीय वाद्य-यंत्रों के बादन में भी वे सिद्धहस्त थे। संगीत सिखाने की भी अद्भुत कला थी उनमें। किन्तु कोई गलत सुर लगाये ये बरदाश्त नहीं था। बहुत तेज डाँट देते थे। फिर प्यार से सिखाने लगते थे। गाँव और आस-पड़ोस में उनकी प्रसिद्धी फ़ैलने लगी थी। गाँव में होने वाले कीर्तन-भजन, सांगितिक-सांस्कृतिक कार्य-क्रमों में वे अवश्य बुलाए जाते थे। अस्थाई निवास मेरे या कन्हैय्या चाचा के घर पर होता था।

मेरे बाबा को उन्हें भोजन देने में कोई कठिनाई नहीं थी किन्तु आवास देने से डरते थे। “अज्ञातकुलशीलस्य वासो देयो न कश्यचित!” इसका कोई पता-ठिकाना नहीं है। अजनबी। कहीं मेरे पोते (मुझे) को उठा ले गया तो? बाबा मुझे उनके पास भी नहीं फ़टकने देते थे। मुझे उनके पास जाना अच्छा लगता था। मुझे भी वो बहुत प्यार करते थे। मैं उस समय सातवीं कक्षा में पहुँच गया था। कभी-कभी वे मुझे रासायन और जीव विज्ञान और अँगरेजी पढ़ा दिया करते थे। बड़ा अच्छा पढ़ाते थे। अँगरेजी पाठ के संवाद तो वे नाटकों की तरह ही बोलते थे। पढ़ाते-पढ़ाते संगीत की बारीकियाँ भी समझाने लगते थे। यह उनके स्वभाव में शामिल था। बाबा के अतिरिक्त घर के सभी लोगों का विश्वास उन पर जम गया था।

अब वे गाँव में अजनबी नहीं रहे थे। घुल-मिल गए थे। तीज-त्योहार, भोज-भात में उन्हें भी निमंत्रण मिलता था। अनेक लोगों को उन्होंने कुछ न कुछ गाना-बजाना सिखा दिया। काश...! बाबा मुझे भी उनका सामिप्य दे देते! गाँव के एक संपन्न गृहस्थ परिवार ने उन्हें अपना लिया था। वे उनके एकलौते पुत्र को संगीत की शिक्षा देते थे और परिवार उन्हें रोटी-कपड़ा और मकान! वे यायावर थे अधिक दिनों तक टिक नहीं सके। किन्तु कुछ ही दिनों में अपने शिष्य के संगीत की जड़ इतनी मजबूत कर चुके थे कि आज वह इसी कला की बदौलत अपनी जीविका सगर्व चला रहा है। आज वह युवक लोकगायन में प्रसिद्धि के मार्ग पर है।

वहाँ से उड़ कर समस्तीपुर शहर में अपना नीड़ बनाया था। वहाँ भी कन्हैया चाचा, लक्षमण जी भैय्या का सहयोग रहा। कुछेक संगीतालयों में शिक्षण कार्य मिल गया और कुछेक घरों में सामान्य ट्युशन। एक कमरे के किराए का घर संगीत के स्वरों से गुलजार होने लगा था। एक साइकिल खरीद ली थी। गाँव आते-जाते रहते थे। शनिवार को निश्चित आते थे। सांझ के कीर्तन में भाग लेते। रविवार गाँव में बिताकर सोमवार प्रातः कार्य-स्थल को चल पड़ते थे।

इधर कुछ सप्ताह से गाँव नहीं आए थे। शायद अस्वस्थ्य होंगे। लेकिन पिछली बार तो इतनी खाँसी और हल्के बुखार के बावजूद गाँव आए थे। मुझे अच्छा नहीं लगा था। और कई लोग भी उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे। कुछ दिनों बाद लोग उनसे मिलने पहुँचे। उनके किराये की कोठरी पर। बंद पड़ी थी। अनियमित कई दिनों तक मिलने का प्रयास जारी रहा। वे नहीं मिले। अगले महीने का किराया नहीं मिला तो मकान-मालिक ने लक्षमण जी से शिकायत किया। कहीं बाहर गये होंगे...! आएंगे तो दे देंगे।

अगले महीने मकान मालिक ने उनके परिचितों की उपस्थिति में दरवाजे का ताला तोड़ दिया। सारा सामान पड़ा ही हुआ था। उनके कपड़े भी। साइकिल भी। बस हारमोनियम नहीं था। हाँ...! एक भावुक कर देने वाला पत्र था। उन्होंने हमारे गाँव के सभी लोगों का आभार व्यक्त किया था। मेरा भी नाम लिखा था। लिखा था कि वे योगी हैं। संगीत उनकी साधना है। वे ब्रह्मांड के हर कण में संगीत की ही खोज करते हैं। समय और भूगोल की सीमा उनके योग को बांध नहीं सकता। एक स्थान पर अधिक दिन ठहरने से उनका अन्वेषण ठहर जाएगा। उन्हें तलाश है नए आकाश की, नई जमीन की, नए सुरों के, नए साज के, नए लोगों की, नई संस्कृति की...! इस गाँव में उन्हें जो मिला वो तब तक की यात्रा में सर्वश्रेष्ठ था। यदि संयोग दुबारा आता है तो वे भी इस गाँव में आना पसंद करेंगे।

एक संयोग दुबारा नहीं आता। वे भी नहीं आए। उनके पत्र का आशय सुना था। उस संयोग की प्रतीक्षा करता रहा। काश वे अब जाएँ तो मैं भी हारमोनियम बजाऊंगा...! गाऊंगा...! नहीं तो तबला ही सीख लूँगा...! वे नहीं आए। जैसे आए थे वैसे चले गए। बहुत कुछ अर्जित किया था। कुछ लेकर नहीं गए। अपितु जो ले सका उसे कुछ न कुछ देकर ही गए थे। कहाँ से आए थे... कहाँ गए... किसी को नहीं मालूम!

“बहती हवा सा था वो... उड़ती पतंग सा था वो....! कहाँ गया उसे ढूँढ़ो...!” थ्री इडियट्स का यह गाना और पिताजी की वह कहावत सुनता हूँ तो उनकी छवि आँखों में उतर आती है। मेरे स्मृति शिखर पर वे हमेशा गाते रहते हैं, “झनन...ननन..नन... बाजे घुँघरवा...! ऐ...री...! सखी कैसे जाउँ मैं घरवा....! झनन... ननन... नन.... बाजे घुँघरवा...!” पहली बार जो उन्होंने गाया था। 

सोमवार, 23 अप्रैल 2012

छेनी को आदत है


छेनी को आदत है

श्यामनारायण मिश्र


दूर कन्दराओं से
पुरखों के दिए हुए
     आदिम गण-गोत लिये
     हम चचेरों के
            शहर  पहुंचे।
     जीवन की जोत लिये
     हम अंधेरों के
            शहर  पहुंचे।

कहीं किसी कोने में
सिर्फ़ सांस लेने को
सांसत से निकलें तो
     हम अपना सूर्य उगा लेंगे।
सदियों से कोल्हू में
जुते हुए लोगों के
माथे में सूर्यमुखी मंत्र जगा देंगे।
पत्थर की घाटी से
रिसे हुए जीवन के
आदिम रस-स्रोत लिए
     हम सपेरों के
            शहर  पहुंचे।

सारी सृजनात्मक
पीड़ाएं पीकर हम
फेकेंगे मंच पर उजाले
     चाह नहीं परदे पर दिखने की।
पत्थर पर चली हुई
छेनी को आदत है
कठिनाई काट-काटकर
     अपना इतिहास स्वयं लिखने की।
प्रलय की तरंगों पर
तिरे हुए पौरुष के
     आदिम जल पोत लिए
     हम मछेरों के
            शहर  पहुंचे।
***  ***  ***
चित्र : आभार गूगल सर्च

रविवार, 22 अप्रैल 2012

भारतीय काव्यशास्त्र – 109


भारतीय काव्यशास्त्र – 109
-         आचार्य परशुराम राय
पिछले अंक में चर्चा की गयी थी कि विरोधी रसों के आलम्बन ऐक्य, आश्रय ऐक्य और निरन्तरता के साथ काव्य में वर्णन होने से रस दोष होते हैं। काव्यशास्त्रियों ने इनके परिहार के तरीके बताए हैं कि आलम्बन ऐक्य और आश्रय ऐक्य से बचने के लिए आवश्यक है कि विरोधी रसों के आलम्बन और आश्रय को अलग-अलग कर दिया जाय तथा विरोधी रसों की निरन्तरता से बचने के लिए दो विरोधी रसों के बीच किसी अविरोधी रस के वर्णन का समावेश करना चाहिए।
     आज के इस अंक में उपर्युक्त परिहारों के कुछ उदाहरण लेकर चर्चा करना अभीष्ट है। जहाँ तक आलम्बन और आश्रय के ऐक्य के कारण रसदोषों का प्रश्न है तो इनका परिहार उन्हें अलग कर देने से हो जाता है। तात्पर्य यह कि विरोधी रसों के आलम्बन विभाव को अलग-अलग आलम्बनों द्वारा वर्णन किया जाय, तो रसदोष नहीं होता। इसी प्रकार विरोधी रसों के लिए भिन्न-भिन्न आश्रयों का वर्णन करने से रसदोष का परिहार होता है। जैसे वीर और भयानक, दो परस्पर विरोधी रसों के आलम्बन और आश्रय नायक और प्रतिनायक को बनाया जाय, तो रसदोष का परिहार हो जाएगा। इस प्रकार की स्थिति की संभावना नाटकों, उपन्यासों या प्रबंधकाव्यों आदि में ही बनती है। लेकिन फुटकल काव्यों में भी यदि इस प्रकार की सम्भावना हो, परिहार का मार्ग यही है।
दो विरोधी रसों का निरन्तरता के साथ वर्णन के कारण उत्पन्न रसदोषों के परिहार के उपाय के लिए बीच में किसी अविरोधी रस का वर्णन करके परिहार बताया गया है। ध्वनि-सम्प्रदाय के प्रवर्तक और ध्वन्यालोक के रचयिता आचार्य आनन्दवर्धन का यही मत है-
रसान्तरान्तरितयोरेकवाक्यस्थयोरपि।
निवर्तते हि रसयोः समावेशे विरोधिता।। (ध्वन्यालोक 3.27)
अर्थात् एक ही वाक्य में स्थित दो रसों के बीच में अन्य रस का समावेश होने पर विरोध नहीं होता।   
     इस मत को सभी ध्वनिवादी आचार्यों ने स्वीकार किया है, चाहे आचार्य मम्मट हों या आचार्य विश्वनाथ या अन्य कोई और।
विरोधी रसों की निरन्तरता के कारण दोष को दूर करने के लिए ध्वन्यालोककार ने इसके लिए निम्नलिखित तीन श्लोकों को उद्धृत किया है। आचार्य मम्मट ने भी उसे विशेषक (तीन श्लोकों में समाप्त होनेवाले वाक्यार्थ को विशेषक कहा जाता है) उदाहरण के रूप में लिया है-
भूरेणुदिग्धान्नवपारिजातमालारजोवासितबाहुमध्याः।
गाढं शिवाभिः परिरभ्यमाणान्सुराङ्गनाश्लिष्टभुजान्तरालाः।।
सशोणितैः क्रव्यभुजां स्फुरद्भिः पक्षैः खगानामुपवीज्यमानान्।
संवीजिताश्चन्दनवारिसेकैः   सुगन्धिभिः   कल्पलतादुकूलैः।।
विमानपर्यङ्कतले  निषण्णाः  कुतूहलाविष्टतया   तदानीम्।
निर्दिश्यमानांल्ललनाङ्गुलीभिर्वीराः स्वदेहान् पतितानपश्यन्।।
अर्थात् नवीन पारिजात की माला से सुवासित वक्षवाले, सुरांगनाओं द्वारा उनकी भुजाओं से आलिंगित, चन्दन के जल से सिंचित, कल्पलता के सुगंधित दुकूलों से हवा किए जानेवाले, विमान के पर्यंक (पलंग) पर बैठे वीरों ने ललनाओं द्वारा अंगुलियों से दिखाए जाने पर युद्धभूमि में पड़े अपने शरीरों को कुतूहल पूर्वक देखा, जो पृथ्वी पर धूल से सने थे, सियारियाँ उन्हें (शरीरों को) कसकर पकड़कर नोच रहीं थीं और मांसभक्षी पक्षी खून के भींगे अपनी पाँखों से उनपर हवा कर रहे थे (एक शव से उड़कर दूसरे शव पर जा रहे थे और मांस नोच खा रहे थे)।
इसमें इस मान्यता का वर्णन दिया गया है कि युद्धभूमि में वीरगति पाने पर वीरों को स्वर्ग मिलता है। युद्ध में वीरगति को प्राप्त वीरों को सुरांगनाएँ दिव्य विमानों से स्वर्ग ले जा रही हैं और वे उन्हें उनके मृत शरीरों की ओर अपनी अंगुलियों से संकेतकर दिखा रही हैं।
यहाँ शृंगार और वीभत्स दो विरोधी रसों के वर्णन में वीराः पद द्वारा वीर रस का व्यवधान देकर रसदोष का परिहार किया गया है।
इस अंक में बस इतना ही। अगले अंक में रसदोषों के परिहार के शेष तीन उपायों पर सोदाहरण चर्चा की जाएगी।   
*****