फ़ुरसत में ... 100 : अतिथि सत्कार
मनोज
कुमार
“बेटा और लोटा परदेस में ही चमकते हैं” – एकदम खरी कहावत है यह। हमें ही देख लीजिए, पिछले 23 साल से परदेस
में ही अपनी चमक छोड़ रहे हैं। महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, पंजाब और बंगाल की भूमि
पर सेवा करते हुए दो दशक से अधिक हो गए। परदेस की पोस्टिंग, जब-जब गाँव-घरवालों
के मनोनुकूल रही, तब-तब आने-जाने वालों से घर भरा-पूरा रहा।
हमारे एक मित्र हैं डॉ. रमेश मोहन झा, जिन्हें हम झा जी बुलाते
हैं।
यदा-कदा हमारे ब्लॉग पर मेहमान की भूमिका भी अदा कर गए हैं। सप्ताह में
दो दिन तो उनके साथ भेंट-मुलाक़ात और बतकही हो ही जाती है। पता नहीं क्यों, मेरे लेखन से प्रभावित
रहते हैं और कभी-कभार उसकी प्रशंसा भी कर देते हैं। “गंगा सागर” यात्रा-वृत्तांत पढ़कर इतने प्रभावित
हुए कि गंगा सागर की यात्रा करके ही उन्होंने दम लिया।
हाल ही में, मैंने फ़ुरसतनामा में फ़िल्म “कहानी” की समीक्षा की थी। उसे पढ़कर वे
काफ़ी प्रभावित हुए और पिछले सप्ताह
उन्होंने कहा कि अब तो इस फिल्म को देखना ही होगा। और अपने निर्णय पर ज़ोर देकर
बोले –
“इसी
सप्ताहांत में देखूंगा।“ गुरुवार को जब दफ़्तर में उनसे भेंट हुई तो मैंने उनसे
पूछा, “देख आए ‘कहानी’? झाजी ने मायूस स्वर में कहा, “अरे अलग ही कहानी हो गई!
दोनों दिन (शनिवार-रविवार) इस कदर व्यस्त रहे कि फ़िल्म देख ही नहीं पाए। घर से
अतिथि आ गए थे। उनके बच्चों का यहां (कोलकाता में) इम्तहान था। सो उनके सत्कार में
ही लगा रहा।”
मेरे चेहरे की चमत्कारी मुसकान शायद वे पढ़ नहीं
पाए। अपने यहां भी स्थिति वही थी। “जो गति तोरी, सो गति मोरी” वाली स्थिति से मैं
भी गए सप्ताहांत गुज़र चुका था। आज कल अतिथि की परिभाषा भी बदल-सी गई है, जिसके आने
की कोई तिथि न हो, वाली स्थिति तो अब रही नहीं। अब तो मोबाइल पर अपने आने की
सम्पूर्ण सूचना देकर वे पधारते हैं, ताकि उनकी
आवभगत और स्वागत-सत्कार में कोई कमी न रह जाए। इसलिए अतिथि के स्थान पर, “सतिथि” कहकर ही काम चलाया जाना उचित जान पड़ता
है।
शुक्रवार की शाम एक
पुराने मित्र का बरसों बाद फोन आया, जो कि हाल-चाल से शुरू होते ही दूसरे वाक्य
में ‘हमें तो भूल ही गए, न फोन करते हो, न कोई खबर लेते हो’ पर आ पहुंचा। हमारी
प्रतिक्रिया की न तो उसे आवश्यकता थी, न ही परवाह। वह तो धारा-प्रवाह, बिना
कॉमा-फुल-स्टॉप बोलता गया, जिसका न कोई ओर था न छोर, हरि अनंत-हरि कथा अनंता। जब
वह अपने मन्तव्य पर पहुंचा, तब तक आरोप-प्रत्यारोप के पांच मिनट निपट चुके थे।
मन्तव्य स्पष्ट करते हुए बोला, बेटी जा रही है, तुम्हारे शहर में। उसकी मां तो
घबरा रही थी, हम बोले कि चाचा तो वहां पर है ही, फिर क्या सोचना? हम भी साथ जाते,
लेकिन एक ठो ज़रूरी काम से दिल्ली जाना है। तुम देख लेना। उसका मामा भी साथे है।
... मैंने बात के सिलसिले को विराम देने के हेतु से गाड़ी और बर्थ का नम्बर लिया और
फोन रख दिया।
सुबह-सुबह उठकर स्टेशन
पहुंचा तो मालूम हुआ कि गाड़ी चार घंटे लेट है। खैर चार घंटे बाद दुबारा स्टेशन
पहुंचा और मामा-भांजी को लेकर घर आया। उन्हें ड्रॉईंग रूम में छोड़ सब्जी-भाजी के
प्रबंध हेतु बाज़ार गया। बाज़ार से घंटे भर बाद लौटा तो पाया कि मामा की वाचालता से
पूरा घर गुंजायमान था। सोफ़े पर एक तरफ़ उनका पैंट-शर्ट किसी उपेक्षित प्राणी की तरह
पड़ा था और श्रीमान पालथी मार कर सोफे पर विराजमान थे। औपचारिकता निभाने मैं
भी बैठ गया। महोदय टीवी उच्चतम वौल्यूम पर सुनने के शौकीन लगे और हर बात पर प्रतिक्रिया
देने को तत्पर, अतः बात करते वक़्त वे अपनी आवाज़ को टीवी की आवाज़ से तेज़ रखने पर उतारू
रहते थे। घर में दोनों आवाज़ों का जो मिलाजुला स्टीरियोफोनिक सराउंड इफेक्ट पैदा हो
रहा था, वह भी ‘महाभारत’ के युद्ध के दृश्य के समय के बैकग्राउंड म्यूज़िक से मैच
करता हुआ था।
थोड़ी ही देर में महाशय
ऐसा खुले कि लगा जन्म-जन्मांतर का नाता हो। मेरी स्टडी टेबुल पर पड़े बैग पर उनकी
निगाहें गईं, तो प्रसन्नता की वह लकीर उनके चेहरे पर दिखी, मानों बिल्ली को दूध
दिख गया हो। बोले, “मेहमान! बैग तो ज़ोरदार है। आपको तो ऑफिसे से मिल जाता होगा।
इसको हम रख लेते हैं। आपको तो दूसरा मिलिए जाएगा।” संकोच से मेरा किसी नकारात्मक
प्रतिक्रिया न करना उनके लिए सकारात्मक प्रभाव उत्पन्न कर गया और उन्होंने बैग पर
क़ब्ज़ा जमा लिया। मेरे मन में बड़ा ही कसैला-सा विचार उमड़ा –
इन मेहमानों के चलते आए दिन न सिर्फ़
शनिवारों-रविवारों की हत्या होती है, बल्कि घर की संपदा पर भी डाका पड़ता है।
दोपहर अभी होने को ही थी
कि श्रीमान का स्वर टीवी की आवाज़ से ऊँचा हुआ –
“खाने में क्या बना है?” अभी हम जवाब देते उसके पहले
ही उनका दूसरा वाक्य उछल रहा था, “पटना में यदि आप होते तो बताते हम आपको कि माछ
कैसे बनता है?” फिर तो बातों-बातों में उन्होंने अपने अप्रकाशित अनमोल ज्ञान का
भंडार हमारे लिए खोल के रख दिया। बोलते रहे, “अरे इस जगह कोनो माछ मिलता है, सब
चलानी है, बस चलानी। तलाब का फ़रेस मछली का बाते अलग है। आइए कभी हमरे यहां तलाब का
मछली खिलाएंगे त आपको पता चलेगा कि मछली का मिठास क्या होता है? उसके सामने ई सब
मछली त पानी भरेगा। बिना मसल्ला के जो माछ बनता है उसको खाने का मज़ा त उधरे आता
है।” अपनी इस थ्यौरी को हमारे सामने
परोसते-परोसते वे इतने उत्तेजित हो गए कि पालथी मारकर सोफे पर ही चढ़ गए। अब जिस
मुद्रा में वे थे, उसे बैठना कहना उनकी शान में गुस्ताख़ी ही होगी।
थोड़ी देर रुक कर वे फिर
बोले, “मेहमान! आप थोड़े मोटे दिख रहे हैं। देखिए दोपहर के भोजन और सुबह के नाश्ते
के बीच अगर नींबू-पानी का शरबत पी लिया कीजिएगा ना, त मोटापा अपने-आप कम हो जाएगा।
हम दीदी को बोलते हैं अभिये बनाकर लाने के लिए.” मैंने मन ही मन सोचा फ़रमाइश तो
श्रीमान जी ऐसे कर रहे हैं, मानो हमारे स्वास्थ्य की चिंता में घुले जा रहे हों।
शायद हमारी बातें किचन में पहुंच रही थी, इसीलिए थोड़ी ही देर में शरबत लिए श्रीमती
जी हाजिर थीं।
एक हाथ में शरबत का
गिलास थाम उन्होंने दूसरे से अपने थैले का मुंह खोला और एक पोटली मेरी श्रीमती जी
की तरफ़ बढ़ाते हुए बोले, -- “ये आपकी मां ने भिजवाया है। ठेकुआ, खजूर और निमकी है।”
मेरी श्रीमती जी ने पोटली का बड़ा आकार और उसके अन्दर के सामान की मात्रा के अनुपात
में भारी अन्तर पाया तो उनके चेहरे के भाव में स्वाभाविक परिवर्तन आया। शायद उसे
भांपते हुए महाशय ने जल्दी-जल्दी कहना शुरू कर दिया, “इसमें जो था वह थोड़ा कम है।
गाड़ी लेट हो रही थी, त हम सोचे कि अब क्या रस्ता-पैरा का खाएं। साथे त खाने का
सामान हइए है, वहां जाकर क्या खाएंगे, अपना हिस्सा अभिए खा लेते हैं।” यह बोलकर वे
हा-हा-हा करके हंसने लगे।
थोड़ी देर बाद लघुशंका निवारण
के लिए जब महाशय के चरणकमल स्नानगृह में पड़े तो वहां उन्हें खुले हुए वाशिंग मशीन के
दर्शन हुए और उनकी बांछें खिल गईं। उनका हर्षित स्वर फूट पड़ा, -- “अरे मेहमान वाह! इ त कपड़ा धोने का मशीन है। रस्ता में
सब कपड़ा पसीना से खराब हो गया है। जब मशीन चलिए रहा है त हम सबको धोइए लेते हैं।” इतना कह कर उन्होंने उस मशीन का जी भर कर सदुपयोग किया
और यहां तक कि अपने धुले हुए कपड़े भी धो डाले। मन ही मन मैं दुहरा रहा था, -- “मंगनी के चन्दन, लगा ले रघुनन्दन।”
भोजन का समय हो चुका था।
हम डायनिंग टेबुल पर जमे। भोजन परोसे जाते ही महाशय की ट्वेन्टी- ट्वेन्टी की शतकीय पारी शुरू हो गई। थाली में रोटी गिरती नहीं कि वह सीमा-रेखा के
बाहर पहुंच जाती थी। मतलब जितनी तेजी से वह उनकी तरफ़ पहुंचती, उससे भी अधिक तेज़ी
से उनके उदरस्थ हो जाती थी। ऐसा लग रहा था कि उन्हें जुगाली की भी फ़ुरसत नहीं थी। ऐसे दृश्य को देख कर मेरे मन में यह उमड़ा –
हनुमान की पूंछ में लग न
पाई आग।
लंका सारी जल गई गए निशाचर भाग॥
लगभग एक रीम रोटियों को निगलते हुए उदरस्थ कर चुकने
के बाद, भाई साहब बेड पर पसरे और पलक झपकते ही उनके स्टीरियोफोनिक नासिका गर्जन ने
पूरे घर में आतंक फैलाना शुरू कर दिया। उस ध्वनि का प्रवाह श्वांस के उच्छवास और
प्रच्छ्वास के साथ कभी द्रुत तो कभी मध्यम लय में अपनी छटा बिखेर रहा था। ध्वनि का
उखाड़-पछाड़ घर के अध्ययनशील प्राणियों की एकाग्रता दिन में भी भंग कर रहा था। ऐसा
होता भी क्यों नहीं आखिर उनके आरोह-अवरोह कभी पंचम स्वर तो कभी सप्तम सुर में लग
रहे थे। घर की लीला अब मेरे बर्दाश्त के बाहर थी। खिन्न होकर मैंने घर के बाहर
निकल जाने में ही अपनी भलाई समझी।
जब मैं दो-ढाई घंटे बाद
घर वापस आया, तो उन्हें हाथ में रिमोट पकड़े टीवी देखता पाया। किसी बेचैन आत्मा की
तरह सोफा पर दोनों पांव रख कर वे बंदर की तरह उकड़ूं बैठे थे और जितनी देर मैं उनके
पास रुका उतनी देर वे सौ से भी अधिक के टीवी के चैनलों पर कूदते-फांदते रहे। हमारा
तो न्यूज़ तक सुनना दूभर हो गया था, मानों महाशय विवेक को ताक पर धर कर आए थे।
मैंने सो ही जाने में अपनी भलाई समझी।
सुबह जब उठा तो श्रीमती
जी द्वारा पहला समाचार सुनने को मिला कि भाई साहब का पेट बेक़ाबू हो गया है। मैंने
मन ही मन कहा, -- जब माले मुफ़्त .. दिले बेरहम हो तो यह तो होना ही था। तभी
महाशय जी दिखे। उन्होंने अपना नुस्खा खुद ही बताया, -- “तनी दही-केला खिला दीजिए – ऊहे पेट
बांध देगा।” उनकी इच्छा फौरन पूरी की गई। पलक झपकते ही उन्होंने आधा किलो दही और
आधा दर्जन केले पर अपना हाथ साफ किया और मांड़-भात खाने की अपनी फ़रमाइश भी सामने रख
दी। फिर हमारी तरफ़ मुखातिब होकर बोले, -- “अब हम त ई अवस्था में बचिया के साथ नहिए
जा पाएंगे। आपही उसको परीक्षा दिला लाइए।”
इधर हम झटपट तैयार होकर
परीक्षा केन्द्र जाने की तैयारी कर रहे थे, उधर महाशय जी मांड़-भात समाप्त कर
उपसंहार में दही-भात खा रहे थे। मुझे लगा इससे बढ़िया तो यही होता कि महाशय का पेट
खराब ही न हुआ होता। बच्ची को परीक्षा दिला कर जब शाम घर वापस आए तो वे हमसे बोले,
-- “मेहमान जी आप त बड़का साहेब हैं। तनी देखिए कौनो टिकट-उकट का जोगाड़ हो जाए।”
इंटरनेट की दौड़-धूप के बाद हमने अपने पैसे से उनके टिकट का इंतज़ाम किया और उन्हें
स्टेशन पहुंचा कर वापस घर आकर दम लिया।
हमने अभी चैन की सांस
ली ही थी कि दरवाज़े की घंटी बजी। दरवाज़ा खोला तो लंबी-चौड़ी खींसे निपोरे श्रीमान
जी नज़र आए। हम कुछ पूछते उसके पहले खुद ही बखान करने लगे, -- “गाड़ी छह घंटा लेट
था, त हम सोचे कि पलेटफारम पर क्या बैठना, घरे चलते हैं वहीं चाह-वाह पी आते हैं।”
दूसरी बार हमने कोई रिस्क नहीं ली। उन्हें छोड़ने न सिर्फ़ प्लेटफॉर्म तक गए बल्कि
उस अतिथि रूपी बैताल को गाड़ी रूपी वृक्ष पर टांगकर ट्रेन के खुलने तक का वहीं
इंतज़ार करते रहे और अपनी पीठ के वैताल को उतारकर घर वापस आए और एक कटे वृक्ष की
तरह बिस्तर पर गिर पड़े।
मेरी इस व्यथा को सुनने
वालों को बता दूँ कि यह सब मैं झा जी को सुना रहा था. झा जी जो अबतक मेरी इस
आपबीती को तन्मयता के साथ सुन रहे थे, हंसने लगे। फिर उन्होंने कहना शुरू किया, --
“हमारे एक दोस्त हैं। वे भी ऐसे ही एक विकट अतिथि से जो उनके दूर के संबंधी भी थे,
बड़े परेशान रहा करते थे। एक बार उनके इस दूर के संबंधी ने फोन किया, कि वे फलानी
तारीख को आ रहे हैं, उन्हें स्टेशन आकर रिसिव कर लें। इस महाशय ने झट से कह दिया
था, -- उन दिनों तो हम शहर से बाहर रहेंगे। दूर के संबंधी थोड़ा निराश हुए। बोले,
-- कोई बात नहीं, हम होटल में रह लेंगे।
“एक दिन वे जब शाम को
घर से बाज़ार जाने के लिए निकल ही रहे थे कि देखते हैं कि उनका दूर का संबंधी
टैक्सी से उतर रहा है। बेचारे हैरान परेशान उलटे पांव घर की तरफ़ वापस भागे। उनके
संबंधी ने उन्हें पुकारा पर उसकी पुकार को अनसुनी कर वे तेज़ कदमों से चलते रहे।
संबंधी भी ढीठ की तरह उनका पीछा करता रहा। उन्होंने घर के दरवाज़े पर लगे कॉल-बेल
को दबाया – घर का दरवाज़ा खुला और
उनकी पत्नी प्रकट हुई। वे अपनी पत्नी पर ही बिफर पड़े। लगे ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाने – आजकल तुम कोई काम ढंग से करती ही नहीं हो। घंटा भर
लगता है दरवाज़ा खोलने में। घर में एक भी सामान ठीक से अपनी जगह पर नहीं होता – ऊपर से अनाप-शनाप बकती रहती हो ...। दो-चार मिनट
ख़ामोश उनकी पत्नी अवाक हो सारी बातें सुनती रही। जब उसने देखा कि बे-सिर पैर के
आरोप के साथ पति चिल्लाए जा रहे हैं, तो उसने भी ज़ोर-ज़ोर से पति को फटकारना शुरू
कर दिया। दोनों के बीच महासंग्राम इस स्थिति तक पहुंच चुका था कि कभी भी यह
मल्ल-युद्ध में तबदील हो सकता था। संबंधी महोदय ने ऐसी विकट स्थिति देखी तो घबड़ाकर
वहां से खिसक लिए। संबंधी के खिसकते ही पति शांत होकर पत्नी को समझाने लगे – अरी लक्ष्मी मैं तो उस घर पधार रहे विकट संबंधी के
सामने यह नाटक कर रहा था, ताकि वह हमें लड़ता देख चला जाए। भला हुआ वह चला गया,
वरना सोचो तुम्हारा क्या हाल होता? मैं कोई सचमुच तुम्हें थोड़े ही डांट रहा था। यह
सुन अभी पत्नी शांत ही हुई थी कि संबंधी महोदय सीढ़ी के नीचे से निकल कर सामने आए
और बोले – तो भाई साहब मैं भी
सचमुच का थोड़े ही गया हूं।”
यह वाकया खत्म कर झा जी
ठठा कर हंस पड़े। मैंने भी उनका साथ दिया और कहा, -- झा जी लोग कहते हैं कि अतिथि देवो
भव। ज़रा सोचिए और आप ही निर्णय कीजिए कि ऐसे अतिथि देवो भव हैं कि दानवो …!
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