रविवार, 1 अप्रैल 2012

भारतीय काव्यशास्त्र – 106

भारतीय काव्यशास्त्र – 106

आचार्य परशुराम राय

पिछले अंक में अनुभाव की कठिनाई से प्रतीति, विभाव की कठिनाई से प्रतीति और प्रतिकूल विभाव आदि का ग्रहण रसदोषों पर चर्चा की गयी थी। इस अंक में पुनर्दीप्ति, अकांड-प्रथन, अकांड-छेदन, अंग-विस्तार, अंगी का अननुसंधान, प्रकृति विपर्यय और अनंग का वर्णन रसदोषों पर चर्चा की जाएगी

यहाँ जिन दोषों को आज चर्चा के लिए लिया जा रहा है, वे प्रबन्धकाव्यों (महाकाव्य, खण्काव्य, नाटक आदि) में ही पाए जाते हैं, प्रकीर्ण काव्यों में इनकी सम्भावना नहीं के बराबर होती है। अतएव इनको परिभाषित कर काव्य-विशेष में इनकी उपस्थिति का यहाँ संकेत मात्र किया जाएगा।

जहाँ एक ही रस का बार-बार उद्दीपन हो वहाँ पुनर्दीप्ति रसदोष कहलाता है। जैसे महाकवि कालिदास कृत कुमारसंभव के चतुर्थ सर्ग में कामदेव को भगवान शिव द्वारा भस्म कर दिए जाने के बाद रति-विलाप का वर्णन। इसमें करुण रस को प्रारम्भ करने के लिए अथ शब्द का प्रयोग किया गया है और पुनः शब्द से उस रस को फिर से उद्दीप्त किया गया है।

अकांड-प्रथन का अर्थ है असमय में किसी रस को विस्तार देना, अर्थात् जहाँ बिना अवसर के किसी रस का वर्णन किया जाय, वहाँ अकांड-प्रथन रसदोष होता है। जैसे वेणीसंहार नाटक के द्वितीय अंक में महाभारत के युद्ध में भीष्म आदि अनेक वीरों की मृत्यु हो जाने के बाद दुर्योधन के संयोग शृंगार का वर्णन।

अकांड-छेदन का अर्थ है असमय में रस का भंग होना, अर्थात् किसी काव्य में किसी रस का वर्णन करते समय असमय में ही उसे भंग कर दिया जाए, छोड़ दिया जाए वहाँ अकांड-छेदन रसदोष होता है या ऐसे वर्णन को अकांड-छेदन रसदोष कहते हैं। जैसे महावीरचरित के द्वितीय अंक में भगवान राम और परशुराम के संवाद में वीररस के चरम उत्कर्ष के समय कंगन खोलने जा रहा हूँ राम की यह उक्ति रसानुभूति में बाधा उत्पन्न करती है।

जहाँ काव्य में अंग का अर्थात् अप्रधान का अत्यन्त विस्तार के साथ वर्णन किया जाय, वहाँ अंगविस्तार रसदोष माना जाता है। जैसे हयग्रीववध नाटक में भगवान विष्णु प्रधान नायक हैं, किन्तु उसमें हयग्रीव के कार्यकलापों का नायक की अपेक्षा अधिक विस्तार से वर्णन किया गया है। वैसे कहा गया है कि वंशवीर्यश्रुतादीनि वर्णयित्वा रिपोरपि अर्थात् शत्रु के वंश, वीर्य, श्रुत (प्रसिद्धि) आदि का वर्णन से भी नायक के प्रताप का अतिशय दिखाया जा सकता है। लेकिन हयग्रीववध नाटक में हयग्रीव के जल-विहार, वन-विहार आदि का विस्तार से वर्णन किया गया है और यह किसी भी प्रकार नायक (विष्णु) के शौर्य की वृद्धि में सहायक नहीं है। अतः इसमें अंगविस्तार रसदोष माना गया है।

जब काव्य में रस के अंगी (प्रधान नायक या नायिका) को विस्मरण हो जाय, उसे अंगी-अननुसंधान रसदोष कहते हैं। जैसे रत्नावली नाटक के चतुर्थ अंक में वाभ्रव्य के आ जाने पर विजयवर्मा के वर्णन को सुनने में लीन नायक उदयन कथानक की मुख्य नायिका रत्नावली (सागर में डूबने के कारण सागरिका नाम से जानी जानेवाली) को भुला दिया गया है। अतएव इस प्रसंग में अंगी-अननुसंधान रसदोष है।

प्रकृति विपर्यय रसदोष समझने के लिए नायकों की प्रकृति समझना आवश्यक है। नायको को प्रथम तीन प्रकार का बताया गया है- दिव्य, अदिव्य और दिव्यादिव्य। इन्द्र आदि देवताओं को दिव्य, मनुष्य का नायक के रूप में वर्णन अदिव्य और भगवान के अवतारों- राम, कृष्ण आदि को दिव्यादिव्य नायक माना गया है। पुनः इनको धीरोदात्त (वीररस प्रधान), धीरोद्धत (रौद्ररस), धीरललित (शृंगार रस) और धीरप्रशान्त (शान्तरस) चार प्रकार का बताया गया है। इस प्रकार ये बारह प्रकार के होते है और ये बारह पुनः तीन भागों में विभक्त किए गए हैं- उत्तम, मध्यम और अधम। अतएव कुल मिलाकर 36 प्रकार के नायक बताए गए हैं। इन सभी नायकों में स्थित रति, हास, शोक, अद्भुत आदि स्थायिभावों के वर्णन का प्रावधान तो है, किन्तु दिव्य और दिव्यादिव्य नायकों का संभोगशृंगार का वर्णन माता-पिता के संभोगशृंगार के वर्णन समान अनुचित है। अतएव यदि इस प्रकार का वर्णन काव्य में पाया जाता है, तो वहाँ प्रकृति-विपर्यय रसदोष होता है। जैसे- कुमारसम्भव में भगवान शिव व माँ पार्वती के शृंगार का वर्णन होने के कारण प्रकृति-विपर्यय रसदोष है।

जब काव्य में रस के लिए आवश्यक या उपयोगी वर्णन को स्थान न देकर अनुपयोगी वर्णन किया गया हो, तो वहाँ अनंग का वर्णन रसदोष माना जाता है। जैसे कर्पूरमञ्जरी नाटिका में प्रथम यवनिका के बाद नायिका और स्वयं द्वारा वसन्त-वर्णन को महत्त्व न देकर बन्दियों द्वारा किए गए वसन्त वर्णन की राजा द्वारा प्रशंसा की गयी है। अतएव इस कारण इस प्रसंग में अनंग-वर्णन रसदोष है।

इस अंक में बस इतना ही।

6 टिप्‍पणियां:

  1. आचार्य जी रस दोषों की विस्तार से चर्चा और विवेचना बहुत ज्ञानवर्धक है और संग्रहणीय भी.

    बहुत आभार.

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  2. बहुत ज्ञानवर्धक और संग्रहणीय पोस्ट..आभार..

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  3. आचार्य जी! बहुत ही सुन्दर और सहज प्रस्तुति!!

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  4. पुनः आपकी काव्य शास्तियां/ विश्लेषण पसंद आये , जो परिमार्जन व शुद्धियों के कारक हैं ,प्रेरक हैं बहुत - बहुत बधाईयाँ , आप दोनों को ....

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