रविवार, 8 अप्रैल 2012

भारतीय काव्यशास्त्र – 107


भारतीय काव्यशास्त्र – 107
आचार्य परशुराम राय
पिछले अंक में रसदोषों पर औपचारिक चर्चा समाप्त हो गयी थी। इस अंक में रसदोषों के अपवादों अथवा उन परिस्थितियों पर, जिनमें रसदोषों का परिहार होता है, चर्चा की जाएगी। आचार्य आनन्दवर्धन अपने ग्रंथ ध्वन्यालोक में अनौचित्य को सबसे बड़ा दोष मानते हैं। वे कहते हैं कि अनौचित्य से बढ़कर दूसरा कोई रसभंग का कारण नहीं है तथा औचित्य का काव्य में निर्वाह करना या वर्णन करना ही रस के परिपोषण का परम रहस्य है -
अनौचित्यादृते नान्यद् रसभङ्गस्य कारणम्।
औचित्योपनिबन्धस्तु    रसस्योपनिषत्परा।।
निम्नलिखित परिस्थिति में संचारिभाव का स्वशब्द से व्यक्त होने पर भी स्वशब्दवाच्यता दोष नहीं है। यह श्लोक रत्नावली नाटिका में मंगलाचरण में दिया गया  है। इसमें विवाह के बाद प्रथम समागम के लिए उत्सुक पार्वती की मानसिक और शारीरिक दशा का वर्णन करते हुए सभी के लिए कवि ने उन्हें (पार्वती को) कल्याणदायिनी होने की कामना की है-  
औत्सुक्येन कृतत्वरा सहभुवा व्यावर्तमाना ह्रिया
तैस्तैर्बन्धुवधूजनस्य   वचनैर्नीताभिमुख्यं  पुनः।
दृष्ट्वाग्रे वरमात्तसाध्वसरसा  गौरी  नवे संगमे
संरोहत्पुलका हरेण हसता श्लिष्टा शिवायास्तु वः।।
अर्थात् प्रथम समागम के समय उत्सुकता के कारण शीघ्रता करती और स्वाभाविक लज्जावश पीछे हटती, फिर परिवार की स्त्रियों द्वारा समझा-बुझाकर सामने लाई गयी, सम्मुख खड़े अपने वर (भगवान शिव) को देखकर भयभीत और रोमांचित पार्वती का हँसते हुए भगवान शिव ने आलिंगन कर लिया। इस प्रकार वे आलिंगित पार्वती आप सबका कल्याण करें।
यहाँ औत्सुक्य (उत्सुकता) और लज्जा व्यभिचारिभावों को स्वशब्दवाचक शब्दों से व्यक्त किया गया है, फिर भी यहाँ विद्वान स्वशब्दवाचक दोष नहीं मानते। कारण कि यदि इन शब्दों के द्वारा इन्हें यहाँ न कहा जाता, तो इस श्लोक में वर्णित त्वरा (शीघ्रता करती) और व्यावर्त्तन (मुड़ना, पीछे लौटना) अनुभावों से क्रमशः औत्सुक्य और लज्जा का बोध नियत हो पाता। क्योंकि ये अनुभावगत लक्षण क्रोध एवं भय की अवस्था में भी होते हैं। तएव ऐसी परिस्थिति में व्यभिचारिभावों का स्वशब्द से वाचक होने पर भी व्यभिचारिभाव-स्वशब्दवाच्यता रसदोष नहीं माना जाता।
इसी प्रकार बाध्यता के कारण मूल रस के विपरीत संचारिभावों (व्यभिचारिभावों) का कथन भी रसदोष न होकर गुणाधायक होता है। जैसे निम्नलिखित श्लोक में शृंगार और इसका विरोधी शान्त रस, दोनों के संचारिभावों का वर्णन किया गया है - तर्क, औत्सुक्य, मति (सोचना), स्मरण, शंका, दैन्य, धृति (धैर्य) और चिन्ता। इनमें औत्सुक्य, स्मरण, दैन्य और चिन्ता शृंगार रस के संचारिभाव हैं तथा तर्क या वितर्क, मति, शंका और धृति शान्तरस के। फिर भी, यहाँ प्रकृत रस शृंगार का पूरी तरह से परिपोषण हो रहा है -      
क्वकार्यं शशलक्ष्मणः क्व च कुलं भूयोSपि दृश्येत सा
दोषाणां प्रशमाय नः श्रुतमहो कोपेSपि कान्तं मुखम्।
किं वक्ष्यन्त्यकल्मषाः कृतधियः स्वप्नेSपि सा दुर्लभा
चेतः स्वास्थ्यमुपैहि कः खलु युवा धन्योSधरं धास्यति।।
अर्थात् कहाँ यह अनुचित कार्य और कहाँ चन्द्रमा का वंश (वितर्क)!  क्या फिर कभी वह देखने को मिल सकेगी (औत्सुक्य)? दोषों पर विजय पाने के लिए ही मैंने शास्त्रों को पढ़ा है (मति)। क्रोध में भी उसका मुख कितना सुन्दर लगता था (स्मरण)। मेरे इस व्यवहार पर विद्वान एवं धर्मात्मा लोग क्या सोचेंगे (शंका)? वह तो स्वप्न में भी दुर्लभ हो गयी है (दैन्य)। हे मन, धैर्य रखो (धृति)। न जाने कौन भाग्यशाली युवक उसके अधरामृत का पान करेगा (चिन्ता)?  
इस अंक में बस इतना ही। अगले अंक में कुछ अन्य परिस्थितियों पर चर्चा की जाएगी।
*****

12 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर ,सार्थक प्रस्तुति......आभार..

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  2. मुझे तो यह स्तंभ पढ़ने में सबसे अधिक आनंद इस बात से प्राप्त होता है कि जिन बातों को कविता या साहित्य पढते समय अनुभव किया करता हूँ, उनकी यहाँ व्याख्या मिल जाती है तथा उनके लिए कोई पद अथवा परिभाषा मिल जाती है..!!
    यह विषय इतना दुरूह होते हुए भी इतना सरल हो सकता है, यहीं जाना है मैंने. परमात्मा ने उम्र अब कम बाकी छोड़ी है मेरे खाते में.. नहीं तो यह सब एक शिष्य की तरह सीखने की चेष्टा करता!!
    आभार आचार्य जी!!

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  3. ज्ञान वृद्धि करने के लिए आभार..

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  4. बड़े काम की बातें पाता चलती हैं यहाँ ..आभार.

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  5. yah blog to chintan ka blog hai..bahut see baatein abhi bhee samajh me nahi aa pa rahi hain..lekin buniyad to ban hee rahi hai...sadar adhayee ke sath

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  6. बहुत सुन्दर वाह!
    आपकी यह ख़ूबसूरत प्रविष्टि कल दिनांक 09-04-2012 को सोमवारीय चर्चामंच पर लिंक की जा रही है। सादर सूचनार्थ

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  7. बहुत सुन्दर वाह!
    आपकी यह ख़ूबसूरत प्रविष्टि कल दिनांक 09-04-2012 को सोमवारीय चर्चामंच पर लिंक की जा रही है। सादर सूचनार्थ

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  8. सलिल भाई, आपकी उम्र काफी लम्बी है। अभी तो आप युवक हैं। मैंने जब इन विषयों को पढ़ा था एक काफी लम्बा अरसा बीत चुका है। 1981 में साहित्याचार्य किया। इसके बाद लगभग तीस वर्षों तक इस विषय को न पढ़ने की आवश्यकता पड़ी और न ही इच्छा हुई। 2009 में मनोज कुमार जी ने इच्छा व्यक्त की कि इस विषय पर एक स्तम्भ शुरू किया जाय। फिर मैंने काफी उनके साथ तर्क-वितर्क भी हुआ कि इतनी पुस्तकें लिखी जा चुकी है। उन्हें पढ़नेवालों का अभाव है। फिर क्यों निरर्थक प्रयास किया जाय। किन्तु उनके कुछ तर्कों के आगे झुकना पड़ा और यह सिलसिला निकल पड़ा। यह तो नहीं जानता कि यह उपयोगी है कि नहीं, पर इतना जरूर है कि भारतीय काव्यशास्त्र ब्लॉग जगत में उपलब्ध हो जाएगा।
    यदि मेरे जैसा जाहिल आदमी इतना कर सकता है, तो आप जैसा सुबुद्ध और साहित्य का मर्मज्ञ बहुत शीघ्र इसे आत्मसात कर सकता है। आप जैसी पैनी दृष्टि भी मेरे पास नहीं है। यहाँ आभार व्यक्त करने के अलावा मेरे पास और कोई शब्द नहीं है।

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