बुधवार, 11 अप्रैल 2012

स्मृति शिखर से… 13 : एस डी ओ की गलती


main aur mera dost_thumb[1]
- करण समस्तीपुरी
जीवन में कुछ घटनाएँ ऐसी होती है, जिसकी स्मृति अनायास ही मन को गुदगुदा जाती है। आप अकेले में भी हँसी नहीं रोक पाते हैं। सामयिक परिदृश्य में इसका बड़ा महत्व है अन्यथा आज मानव जीवन भौतिक सुविधाओं के जंगल में प्यासे पथ-विस्मृत व्याधे जैसा है.... ! समृद्धी ने जीवन से सहज हास्य-बोध छीन लिया है। ऐसे में अतीत के प्राचीर से झाँकती कतिपय ऐसे स्मृतियाँ हैं, जो बरबस आपके अधरों को फ़ैलने का अवसर दे देती हैं। मैं उन स्मृतियों को संजो कर रखता हूँ। कभी अकेले में इन्हें चेतन मन में उतार लेता हूँ। कभी मित्रों के साथ। कभी-कभी तो इन्ही सुखद स्मृतियों के सहारे अपरिचित सहयात्रियों के साथ सुदीर्घ यात्रा भी सहास तय कर लेता हूँ। आखिर कुछ हल्की-फ़ुल्की बातें भी बाँटनी चाहिए।
विद्यालय के दिनों में जटा झा मेरे सहपाठी थे। ब्रह्मन कुलोत्पन्न। गौर वर्ण, हृष्ट-पुष्ट। प्रशस्त ललाट के उपर सघन जटाएँ और लंबी चोटी। साक्षात हास्यावतार। जीवंत हास्य। बोलने में तुतलाते थे और अधिकांश ध्वनियों का अनुनासिक उच्चारण ही करते थे। गीत खूब गाते थे। उनकी आवज में गीत भी स्टेंड-अप कामेडी बन जाते थे।
जब हम अष्टम कक्षा में थे तभी जटा झा का विवाह हो गया था। उनका वयस हमसे कोई आठ-दस साल अधिक रहा होगा। विवाहोपरांत डेढ मास तक श्वसुरालय में रहने के बाद गाँव आए थे। मुखमंडल और अरुणाभ हो गया था। अनेक सरस संस्मरण और आपबीती लाए थे। सुनकर बलात हँसी आ जाती थी।
जटा झा अपने कार्य-व्यपार में अनुभवी, निपुण और निष्ठावान थे। भोज एवं भोज्य-पदार्थों का बड़ा ही सम्मानIMG0670A_thumb करते थे। श्वसुरालय में नित्य प्रातः शुद्ध दुग्धपान किया करते थे। शुद्ध दुग्ध। पहले दिन दूध में किसमिस डालकर दिया गया था। जटा झा श्वसुरालय के हास-परिहास से भी परिचित थे। बड़ी ही सहजता से दूध से किसमिस छानकर फ़ेंक दिया। साली-सरहजों ने रोकना चाहा था, “ओझा जी...! यह मेवा है।” मगर जटा झा रेवाखंड के पंडित हैं। दृढ़ विश्वास के साथ बोले, “अच्छा...! यह पैंतरा किसी और को सिखाइएगा...! जिंदगी भर हम बकरिये चराए हैं और हमें बकरी का भेनारी पहचानना आप-लोगों से नहीं सीखना होगा...! दूध में नहीं डालना चाहिए। दूध तो बर्बाद नहिए करेंगे...। आज छानकर पी लेते हैं मगर कल से ऐसा मजाक मत कीजिएगा।”
हम दशम कक्षा में पहुँच गए। बोर्ड की परीक्षा के लिए पंजियन का समय आ गया। जटा झा बड़ी दुविधा में थे। वर्ग-प्रोन्नति परीक्षा में उन्हें मेरी उत्तर-पुस्तिका के नकल की पूरी छूट मिली हुई थी किन्तु यही व्यवस्था बोर्ड-परीक्षा में भी होगी, इस बात पर संशय था मगर प्रधानाध्यापक ठाकुरजी के प्रोत्साहन और आश्वासन के बाद जटा झा ने बोर्ड की परीक्षा के लिए पंजियन कराने का निश्चय कर लिया परिवार से विद्रोह कर के।
पंजियन का निर्णय तो कर लिया मगर यक्ष प्रश्न यह कि तस्वीर कैसे उतरवाएं? जटा झा के मन में पहली बार कैमरे के सामने आने का उत्साह के स्थान पर एक अनजान मशीन का अज्ञात भय था। बड़े हिम्मत से बड़े भाई-साहब ले गए थे समस्तीपुर तस्वीर उतरवाने। कक्ष का द्वार बंद होते ही पंडित जी की भी बत्ती गुल होने लगी। फोटू भैय्या ने जब उनके समक्ष तस्वीर उतारू यंत्र व्यवस्थित किया तो लगे बेचारे सुबकने... “भैय्या ओ भैय्या... !”
जैसे ही फोटु भैय्या कैमरे के पीछे अपनी आँख लगाते थे जटा झा जोर-जोर से रोने लगते थे। उन्हें शायद यह भय था कि मशीन का क्या ठिकाना... उपर से वो आदमी कैमरे में ऐसे देखता है जैसे सिपाही निशाना लगाता है। कहीं फोटो-मशीन से गोली निकल गई तो गए काम से। बड़े भैय्या आकर समझाए। वहीं फोटू भैय्या के बगल में खड़े रहे तब जटा झा तस्वीर खींचवा पाए। उसमें भी तुर्रा यह कि तस्वीर उतारू यंत्र से जैसे ही प्रकाश की चमक बिखरी कि जटा झा रोते-चीखते भागे.... “बाप...रे बाप....! हम कहे थे न भैय्या....! मशीन का कोनो ठिकाना नहीं.... देखे न कैसे लुत्ती फ़ेंका...! नहीं भागते तो झरकिए जाते न...!” आज की पीढ़ी के लिए मशीन ही सब कुछ है मगर जटा झा मशीन पर बहुत कम विश्वास करते हैं। दुर्घटना के भय से गाँव से समस्तीपुर या तो पैदल चले जाते हैं या ताँगे से। बस-जीप का कोई भरोसा नहीं करते।
इस प्रकार फ़ोटू खिचाई की विधि संपन्न हुई। पंजियन भी हो गया। जटा झा दसवी की बोर्ड परीक्षा में शामिल भी हो गए।IMG0485A_thumb[5] पहले दिन की परीक्षा में जटा झा को बहुत क्रोध आया। बेचारे ठगे से महसूस कर रहे थे। मन ही मन ठाकुरजी को बहुत कोंसा। उनकी बैठक हमसे बहुत अलग हो गई थी। नकल की छूट थी किन्तु गंभीर संकट यह था कि उन्हे सब पर भरोसा नहीं था। कुछ समय के बाद पंडीजी हठात मेरे पीछे वाली बेंच पर बैठ गए। विक्षक महोदय पंडित जी की लिखावट से ही उनकी योग्यता भाँप गए थे। दयावश उन्हे इच्छानुसार बैठने की अनुमति दे दी। अगले दिन से वही व्यवस्था रूढ हो गई।
उस समय दलसिंह सराय में नव पदस्थापित अनुमंडलाधिकारी प्रशासकीय आतंक था। शैलेश कुमार। उस समय के जंगलराज में भी विधि-व्यवस्था के प्रतीक थे। परीक्षा का तीसरा दिन था। संस्कृत का पत्र। पहली घंटी बजने के साथ ही अनुमंडलाधिकारी महोदय सवाहन-सदल पहुँच गए हमारे परीक्षा केन्द्र पर। अन्य अधिकारी आते थे और जाते थे किन्तु महोदय का काफ़िला तो हमारे केन्द्र पर ही ठहर गया था।
एक-एक छात्र की जाँच कर रहे थे। हमारी बैठक सभा-भवन में थी। सहयोगियों सहित अधिकारी महोदय पहुँचे। मैंने विद्यालय से लेकर विश्वविद्यालय की परीक्षाओं तक अवसर के अनुकूल या प्रतिकूल कभी किसी की नकल नहीं की और न ही किसी से कभी सहायता लिया। मैं निःशंक लिख रहा था। मेरे ठीक पीछे बैठे जटा झा की जाँच-परताल स्वयं अनुमंडलाधिकारी महोदय ने शुरु किया। उनके पास कोई चीट-पुर्जा नहीं मिला। अधिकारी महोदय को आश्चर्य हुआ। फिर उन्होंने उनके प्रवेश-पत्र की जाँच शुरु की। जटा झा ने पालीथीन के थैले में यतन से रखा हुआ अपना प्रवेश-पत्र खोल दिया। उनकी तस्वीर से उन्हें पहचानना मुश्किल था। उनके तस्वीर उतरवाने की कथा आप उपर पढ़ ही चुके हैं। यूँ तो पंडितजी सौंदर्य और सौष्ठव से पूर्ण थे किन्तु जिस समय तस्वीर ली गई थी उस समय उनके बाल मुड़े थे, मिचमिची दाढ़ी बढ़ी हुई थी। भय से मुँदी आँखें और खुला मुँह...! अनुमंडलाधिकारी महोदय एक बार उनकी तस्वीर और और एक बार उनको देखे जा रहे थे। फिर शुरु हुआ दोनों के मध्य संवाद।
अनुमंडलाधिकारी : “क्या नाम है?”
जटा झा : “दी... दताथंकर धा.... (जी... जटाशंकर झा)।
अनुमंडलाधिकारी : “जन्मतिथि....?”
जटा झा : (एक हाथ को पीठ के पीछे से घुमाकर दूसरा हाथ पकड़े हुए) क्या कहे थर (सर)?
अनुमंडलाधिकारी : “जन्मतिथि क्या है तुम्हारी....? कब पैदा हुए थे?
जटा झा : “भादों में...! तिथ दनमकुंदरी में रिखा होगा। (तिथि जन्मकुंडली में लिखा होगा।”
अनुमंडलाधिकारी : “यह तस्वीर किसकी है?”
जटा झा कोई जवाब नहीं देते हैं। अधिकारी महोदय फिर उनकी तस्वीर पर अंगुली रख कर पूछते हैं।
अनुमंडलाधिकारी : “यह तस्वीर किसकी है ? फोटो... फोटो?”
जटा झा : “दी (जी)... अपने है।”
अनुमंडलाधिकारी : “तुम्हारी तो नहीं लगती है।”
जटा झा : (हँसते हुए) “हेंह.... मदाक नहीं थर...(मजाक नहीं सर)! अपने है।”
अनुमंडलाधिकारी : “ऐसा कैसे हो सकता है। चेहरा इतना खूबसूरत है फोटो ऐसा भयानक कैसे हो सकता है?”
जटा झा : “एथदिओ (एसडिओ) की गरती (गलती) से।
अनुमंडलाधिकारी : “एस. डि. ओ.....? कौन एस. डी. ओ. ?”
जटा झा : “उहे थमत्तीपुर वारा (समस्तीपुर वाला)...।”
अनुमंडलाधिकारी के ललाट पर कुछ सोच की लकीरें उभर आती है। यह केन्द्र तो उनके अधिकार क्षेत्र में आता है। यहाँ एस.डी.ओ. समस्तीपुर (सदर) कब आए? क्यों आए? वो भी उनको बिना सूचना दिए।
अनुमंडलाधिकारी : “समस्तीपुर वाले एस.डी.ओ. यहाँ कब आए ?
जटा झा : “उ नहीं आए थे...। हमही उनको पाथ (पास) गए थे।”
अनुमंडलाधिकारी : “तुम उनके पास क्यों गए थे ? और उन्होंने तुम्हारी फोटो में गलती कैसे कर दी?”
जटा झा : “फोतो खिताने (फोटो खिंचाने) गए थे। उथको कमरा (उसके कैमरा) में खराबी था...! रुत्ती (लुत्ती) फेंक रहा था...! वही एथदिओ के गरती से फोतो गरबरा गया। (वही एसडिओ की गलती से फोटो गरबरा गया।
अनुमंडलाधिकारी पता नहीं समझ पाए या नहीं लेकिन कक्ष-निरिक्षक जो दो-तीन दिनों से जटा झा को जान रहे थे, उनकी बोली समझने लगे थे। उन्होंने व्यख्याकार की भूमिका निभाई, “सर इसकी बोली में तुतलाहट है...! दरअसल स्टुडियो को एसडिओ कह रहा है...। इसका मतलब है कि इसने समस्तीपुर के जिस स्टुडियों में फोटो खिंचवाई उसीकी गलती से फोटो खराब हो गया।”
इस संभाषण के बाद इलाके भर में कठोरता और गाँभीर्य के प्रतीक बन चुके एसडीओ साहब भी हँसे बिना नहीं रह सके। अंत में उनसे यही कहते बना... “धन्य हो महाराज...! पता नहीं परीक्षा आप किसकी गलती से दे रहे हो।”

18 टिप्‍पणियां:

  1. संविधान में ऐसे महाभागों को परीक्षा से छूट का प्रावधान हो।

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    1. हा... हा... हा.... ! मजा आ गया... !! आदरणीय प्रवीण जी, आप तो आशु-व्यंग्य विधा में भी महारथी हैं। नमस्कार और आभार !!!

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  2. प्रकृति भी समाज में हरेक तरह के पात्र का व्यवस्था किया होता है. प्रत्येक समाज एक नायक, खलनायक, नायिका, खलनायिका, हास्य कलाकार और बहुत सारे जूनियर आर्टिस्ट से भरे होते हैं. मजे की बात तो ये कि किसी भी एक तरह कलाकार के बिना समाज अधूरा ही रहेगा. जटा झा का कुछ चरित्र बी मुझे ऐसा ही लग रहा है. जटा झा के बिना रेवाखंड तो अधूरा ही है...

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  3. अनुमंडलाधिकारी : “समस्तीपुर वाले एस.डी.ओ. यहाँ कब आए ?
    जटा झा : “उ नहीं आए थे...। हमही उनको पाथ (पास) गए थे।”
    अनुमंडलाधिकारी : “तुम उनके पास क्यों गए थे ? और उन्होंने तुम्हारी फोटो में गलती कैसे कर दी?”
    जटा झा : “फोतो खिताने (फोटो खिंचाने) गए थे। उथको कमरा (उसके कैमरा) में खराबी था...! रुत्ती (लुत्ती) फेंक रहा था...! वही एथदिओ के गरती से फोतो गरबरा गया। (वही एसडिओ की गलती से फोटो गरबरा गया।
    मनोज जी यथार्थ दिखाती कहानी ऐसा भी होता है ..सुन्दर ..जय श्री राधे
    भ्रमर ५
    भ्रमर का दर्द और दर्पण
    प्रतापगढ़

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  4. hasne ke liye sath hi vichar ke liye vivash karati post...badhai sweekaren

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  5. समाज के कुछ ऐसे विवस पात्र हमारा मनोरंजन तो करते हैं, पर उनकी परिस्थितियाँ सोचने को अवश्य बाध्य करती हैं कि उनपर हँसा जाए या अफसोस ज़ाहिर किया जाए। आदरणीय नवीन मणि त्रिपाठी जी से पूरी तरह सहमत हूँ कि यह पोस्ट हँसने के साथ-साथ सोचने के लिए भी विवश करती है।

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  6. देसिल बयना के बाद बहुत दिन पर देसी टच वापस आया है... करण बाबू आपका यही मिडास टच हमको बाँधकर ले आता है..! जहाँ भी हों जटा झा, उनकी शारीरिक कमी के विषय में कुछ नहीं कहूँगा, लेकिन बेचारे अभी किस अवस्था में होंगे सोचकर मन उदास हो जाता है!! जहाँ भी हों, सुखी हों!!
    और आनंद का तो कहना ही क्या.. एस.डी.ओ.!! हा हा हा!!!

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    1. चचाजी,

      जटा झा आज-कल गाँव में ही हैं। सकुशल-स्वस्थ्य एवं सानंद। एक जमाने में सिर्फ़ खाकी वर्दी देखकर जिनकी धोती गीली हो जाती थी एक फ़ौजदारी मुकदमे में जेल भी हो आए हैं। अभी गाँव से प्रतिदिन चलकर समस्तीपुर आते हैं और दिन भर शहर में घूम-घूम कर चंदन/सिंदूर का टीका लगा-लगा कर आशीर्वाद देते हैं। शाम को एक-दो रुपये के सिक्कों से भरा बटुआ ले आते हैं, जिससे पाँच लोगों की गृहस्थी का निर्वाह हो जाता है।

      पिछली बार गाँव गए थे तो उनकी यह तस्वीर ली थी जो ब्लाग पर लगी है।

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  7. बहुत मज़ेदार चरित्र है - पर गाँवों में ही पाया जाता है !

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    1. शहर व्यक्ति से सहजता छीन लेता है इसलिए ऐसे पात्र शहर में नहीं मिलते...

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  8. जटा भाई जैसे पात्र रेवाखंड के हर गाँव में मिल जायेंगे.... सहानुभूति है जटा भाई से... एक दो एक दो करके जीवन यापन का दर्द शायद जटा भी किसी को कह न पायें... लेकिन उनके मन में तो होगा ही...

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  9. हँसने के साथ-साथ सोचने के लिए भी विवश करता आलेख,....

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  10. “धन्य हो महाराज...! पता नहीं परीक्षा आप किसकी गलती से दे रहे हो।”
    'स्मृति शिखर 'के पात्र सामने आ खड़े होतें हैं जता थंकर.......

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  11. बार बार मौका मिलना चाहिए झा जी को ...
    शुभकामनायें !

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  12. आपकी पोस्ट चर्चा मंच पर प्रस्तुत की गई है
    कृपया पधारें
    http://charchamanch.blogspot.in/2012/04/847.html
    चर्चा - 847:चर्चाकार-दिलबाग विर्क

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