शुक्रवार, 31 जनवरी 2025

260. गांधीजी का जनाकर्षण

राष्ट्रीय आन्दोलन

260. गांधीजी का जनाकर्षण



प्रवेश

उस समय के एक बहुत ही बड़े राष्ट्रीय नेता ने गांधीजी को ‘राजनैतिक बच्चा कहा था। देखते ही देखते यह राजनैतिक बच्चा देश की राजनीतिक आकाश पर एक प्रकाश पुंज के समान  उभरा और तेजी से फैलते-फैलते सारे आकाश में छा गया। जब तक गांधीजी दक्षिण अफ्रीका से भारत नहीं आये थे (1915), यहाँ की जनता के लिए लगभग अजनबी और अपरिचित थे। धीरे-धीरे वह भारत की मिट्टी में घुलते-मिलते गए। उनकी संयमित आदतें, साधुवत सम्मोहन, अंग्रेज़ी की अपेक्षा भारतीय भाषाओं का प्रयोग और धार्मिक प्रवचन से भारतीय जनता का परिचय हुआ। इन सबका जनता पर गहरा असर पड़ा और उन्होंने लोगों के दिल में जगह बना लिया। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि गांधीजी ने अपनी जड़ें भारतीय जमीन में गड़ायी और फलतः उन्होंने अपार जनाकर्षण का फल प्राप्त किया। गांधीजी ने ब्रिटिश हुक़ूमत के ख़िलाफ़ जो आवाज उठाई थी वह बिलकुल जुदा थी। यह एक शांत और धीमी आवाज़ थी, कोमल और मधुर आवाज़ थी, लेकिन उसमें फौलादी ताक़त थी। शांति और मित्रता की उनकी भाषा में शक्ति और कर्म की छाया थी, अन्याय के सामने सिर न झुकाने का संकल्प था। लंबे-लंबे भाषणों से बिलकुल अलग, यह एक नई आवाज़ थी। लोग रोमांचित थे, क्योंकि गांधी जी की राजनीति कर्म की राजनीति थी, बातों की नहीं।

गांधीजी के जीवन का लक्ष्य उनके व्यापक जनाकर्षण का प्रमुख कारण

दक्षिण अफ़्रीका में रंगभेद के विरुद्ध संघर्ष के दौरान उन्होंने अपने आंदोलन के दर्शन का विकास किया था। इसके प्रमुख तत्व थे – सत्य, अहिंसा और सत्याग्रह। सत्याग्रह की परिभाषा करते हुए उन्होंने कहा था कि वह आत्मा की शक्ति या प्यार की शक्ति है, जो सत्य और अहिंसा से जन्मी है। मानव जीवन का लक्ष्य सत्य की खोज है। एक सत्याग्रही हर उस चीज़ के सामने झुकने से इंकार करेगा जो उसकी दृष्टि में ग़लत होगी। वह सारी उत्तेजनाओं के बीच शांत रहेगा। उनकी समझ में देश की स्थिति को सुधारने का एकमात्र तरीक़ा अहिंसा का तरीक़ा था। उन्हें इस बात का दृढ़ विश्वास था कि यदि उसका उचित रूप से पालन किया जाए तो वह एक अचूक तरीक़ा था। उनके जीवन का यही लक्ष्य उनके व्यापक जनाकर्षण का प्रमुख कारण बना दक्षिण अफ्रीका में उनकी सफलता की ख्याति भारत पहुँच चुकी थी, और देश के लोग उनकी एक झलक को लालायित हो उठे थे।

आम जनता से निकटता

स्वदेशी उनका संकेत शब्द था। उन्होंने उसकी परिभाषा करते हुए कहा था कि – स्वदेशी वह भावना है जो हमें दूर की चीज़ों को छोड़कर अपने आस-पास की चीज़ों के इस्तेमाल और सेवा तक सीमित करती है। अतः उन्होंने शारीरिक श्रम पर बल दिया, जिसे उन्होंने रोटी के लिए मेहनत और चरखा कहा। गांधीजी के सत्याग्रह के चंपारण, खेड़ा एवं अहमदाबाद के प्रयोगों ने उन्हें आम जनता के अत्यंत निकट ला दिया। उसमें ग्रामीण क्षेत्रों के किसान भी थे और शहरी क्षेत्र के मज़दूर भी। राष्ट्रीय आंदोलन को यह गांधीजी की एक महान देन थी और उनके व्यापक जनाकर्षण का दूसरा महत्त्वपूर्ण कारक।

ग़रीब और पददलित वर्ग के प्रतीक

राष्ट्रीय आंदोलन को एक सक्रिय नेतृत्व गांधी जी के द्वारा ही मिला। उनके आने के साथ-साथ जनता सहसा आन्दोलन की सक्रिय भागीदार बन गयी। गांधीजी ही एकमात्र नेता थे जिनका व्यक्तित्व ग्रामीण जनता के साथ पूरी तौर पर एकाकार हो गया था। उन्होंने अपने निजी जीवन को जिस ढर्रे पर चलाया उससे ग्रामीण परिचित थे। उन्होंने उस भाषा का प्रयोग किया जिसे वे आसानी से समझ सकते थे। समय के साथ-साथ वह ग्रामीण भारत में बहुत बड़ी संख्या में रहने वाले भारतीयों के ग़रीब और पददलित वर्ग के प्रतीक बन गये। इस अर्थ में वह भारत के सच्चे प्रतिनिधि थे।

आंदोलन में सामान्य जन की भागीदारी

1915 में जब महात्मा गाँधी दक्षिण अफ्रीका से भारत आए थे, तो उस समय का भारत, 1893 में जब वे यहाँ से गए थे, तब के समय से, अपेक्षाकृत अलग था। हालाकि यह अभी भी एक ब्रिटिश उपनिवेश था लेकिन अब यह राजनीतिक दृष्टि से कहीं अधिक सक्रिय हो गया था। उनकी पहली महत्वपूर्ण सक्रिय सार्वजनिक उपस्थिति 5 फ़रवरी 1916 में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के उद्घाटन समारोह में हुई। महात्मा गांधी ने जो भाषण दिया था, उसने भी बहुत से भारतवासियों का ध्यान खींचा था। समारोह भारी शान-शौकत से भरा हुआ था। मंच पर मौजूद लोगों को गाँधीजी की स्पष्टवादिता नागवार गुज़री और मंच के सभापति ने उन्हें अपना भाषण रोक देने के लिए कहा। सभा में आए लोगों का वैभव प्रदर्शन गांधीजी को बहुत अखरा। गाँधीजी ने स्वयं को बधाई देने के सुर में सुर मिलाने की अपेक्षा लोगों को उन किसानों और कामगारों की याद दिलाना चुना जो भारतीय जनसंख्या के अधिसंख्य हिस्से का निर्माण करने के बावजूद वहाँ के श्रोताओं में अनुपस्थित थे। गांधीजी का भाषण पूरा न हो पाया। बनारस में गाँधीजी का भाषण मात्र इस वास्तविक तथ्य का ही उद्घाटन था कि भारतीय राष्ट्रवाद वकीलों, डॉक्टरों और जमींदारों जैसे विशिष्ट वर्गों द्वारा निर्मित था। लेकिन दूसरी दृष्टि से देखा जाए तो यह वक्तव्य उनकी मंशा भी जाहिर करता था। यह भारतीय राष्ट्रवाद को सम्पूर्ण भारतीय लोगों का और अधिक अच्छे ढंग से प्रतिनिधित्व करने में सक्षम बनाने की गाँधीजी की स्वयं की इच्छा की प्रथम सार्वजनिक उद्घोषणा थी, जो उनके जनाकर्षण का महत्त्वपूर्ण कारण बनने वाली थी। लोगों को लगा कि गरीबों की तरह रहने वाला एक संत, पहली बार अमीरों के खिलाफ, गरीबों के पक्ष में बोल रहा है। गांधीजी ने अहिंसा को असहयोग आंदोलन में एक शस्त्र की भांति उपयोग किया। उनके आंदोलन में सामान्य जनकृषकमजदूरआदिवासीमहिलाओं की भूमिका आम जनता के राष्ट्रवाद को स्पष्ट करती है और भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन को जन आंदोलन में परिणीत करती है।

स्थानीय मुद्दों और स्थानीय नेताओं को महत्त्व प्रदान करना

1915 में दक्षिण अफ़्रीका से भारत लौटने के बाद अगले तीन वर्षों में गांधीजी ने अद्भुत ख्याति प्राप्त कर ली थी। चंपारण, अहमदाबाद और खेड़ा के उनके प्रयासों ने ह प्रदर्शित कर दिया था कि आम जन को आकर्षित करने की उनमें अद्भुत क्षमता थी। उनकी राजनीति पद्धति उस समय की कांग्रेस और होमरूल लीग की पद्धति से बिल्कुल भिन्न थी। कांग्रेस अखिल भारतीय मुद्दों को उठाती थी और काम का आरंभ ऊपर से होता था। लेकिन गांधीजी समस्या को जड़ से पकड़ते थे और स्थानीय मुद्दों को अखिल भारतीय स्तर पर ले जाते थे और स्थानीय नेताओं को अपने कार्यक्रम में भागीदार बनाते थे। कुछ विद्वानों ने इसे सब-कांट्रैक्टर्स कहा है। चंपारण में राजेन्द्रपसाद, अनुग्रहनारायण सिन्हा, गुजरात में वल्लभभाई पटेल, महादेव देसाई, इंदुलाल याज्ञिक और शंकरलाल बैंकर जैसे कार्यकर्ताओं ने गांधीजी का साथ दिया और आगे चलकर उनके अनुयायी बने। गांधीजी के इन आरंभिक आंदोलनों से पता चलता है कि उनके आंदोलन में नीचे से आने वाला दवाब विद्यमान रहता था। परिणामस्वरूप आम लोगों के बीच उन्हें ख्याति, स्वीकृति और प्रसिद्धि मिली। धीरे-धीरे वे कांग्रेस के जनाकर्षण की सबसे बड़ी शक्ति बने।

निर्धनों और शोषितों के प्रति दर्द

गांधीजी के हृदय में निर्धनों और शोषितों के प्रति दर्द था। जहां भी इनके ऊपर अन्याय होता, वे उसके ख़िलाफ़ खड़े हो जाते। उनकी कार्य-पद्धति का सबसे पहला प्रदर्शन चम्पारण में हुआ। चंपारण में गांधीजी किसानों की लड़ाई तो लड़ ही रहे थे, सामाजिक दूरियों को भी पाटने की कोशिश कर रहे थे आम आदमी जैसे दिखने वाले गांधीजी ने यह सब किया अहिंसा और सत्य के सहारे। अपनी राजनीति को उन्होंने कसौटी पर कसा। चंपारण आंदोलन ने गांधीजी को  भारत की आम जनता में विश्वास जगाया था। गांधीजी ने चंपारण में किसानों की ओर से जो साहसिक काम किया और इन कामों में उन्हें जो सफलता मिली उससे लोगों में उत्साह की एक लहर दौड़ गई। लोगों में उनके तरीक़ों में सफलता की आशा दिखाई दी।

अद्भुत राजनीतिक शैली

गांधीजी के सिद्धांत में जो खास बात थी वह यह कि शांतिवाद तो था ही, उसके अलावा इसमें गजब की स्फूर्ति और कर्मण्यता थी। चंपारण, अहमदाबाद और खेड़ा कृषक आंदोलन ने संघर्ष के गांधीवादी तरीक़ों को आजमाने का अवसर दिया था, साथ ही साथ गांधीजी को देश की जनता के नज़दीक आने, उसकी समस्याएं समझने का भी अवसर मिला था। गांधीजी ने भारतीय जनता में अपनी पहचान बनायी। अनुभव और लोकप्रियता ने गांधीजी को अदम्य साहसी बना दिया। इसी साहस और विश्वास के कारण उन्होंने फरवरी 1919 में रोलेट एक्ट के ख़िलाफ़ देश-व्यापी आन्दोलन किया। किसानों के बीच गांधीजी की लोकप्रियता बढ़ाने में उनकी राजनीतिक शैली भी पर्याप्त सहायक सिद्ध हुई उनके द्वारा तीसरे दर्जे में यात्रा किया जानाबोलचाल में हिन्दी भाषा का रोचक और आसान शैली में प्रयोग करना, अत्यंत कम वस्त्र पहनना, आदि ने जनमानस में गहरा प्रभाव उत्पन्न किया। गांधीजी किसानआदिवासी, श्रमिक और अन्य सभी प्रकार के आंदोलनों को भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन का अभिन्न अंग बनाया। गांधीजी ने स्थानीय मुद्दों को लक्ष्य बनाकर अखिल भारतीय लोकप्रियता हासिल की। उन्होंने आम जनता की आकांक्षाओं को पूरा करते हुएउन्हें सफल नेतृत्व और सही दिशा देने का कार्य किया इन सब क्रिया-कलापों के परिणामस्वरूप समय के साथ उनका जनाकर्षण बढ़ता गया

राष्ट्रीय आंदोलन की दशा और दिशा में बदलाव

भारत का राष्ट्रीय आंदोलन धनिक वर्ग का आंदोलन था। गांधीजी ने इस आंदोलन की इस दशा और दिशा में बदलाव लाया। वे आम जनता का प्रतिनिधित्व करते थे। गांधीजी जन-साधारण की आवाज़ बन कर सामने आए। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को नए सिरे से ढालने की आवश्यकता गांधीजी ने अनुभव की। गांधीजी का मानना था कि देश को वार्षिक समारोहों और लच्छेदार भाषण करने के मंचों की नहीं, जनता के सतत सम्पर्क में रहने वाले जीवन्त और लड़ाई कर सकने की योग्यता वाले संगठन की आवश्यकता थी। उन्होंने कांग्रेस के विधान में पूर्ण परिवर्तन कर दिया। अब तक कांग्रेस उच्च और मध्यम वर्ग की ही बपौती थी, लेकिन अब पहली बार इसके दरवाजे गांवों और शहरों में बसने वाली उस जनता के लिए खोल दिए गए, जिसकी राजनैतिक चेतना गांधीजी जगा रहे थे। उन्होंने दलित, पिछड़े, ग़रीब, निराश जनता को ऐसा बना दिया जिसमें आत्म-सम्मान की भावना जाग उठी। उन्होंने न केवल राष्ट्रीय जागृति की शुरुआत की, बल्कि ठोस कार्यक्रमों के आधार पर जर्जर राष्ट्र को निर्भय बनाया। एक बड़े हित के लिए सब मिलकर काम करने लगे। उनमें खुद पर भरोसा जगा। गांधीजी ने उन्हें इस योग्य बना दिया कि वे अब देश की राजनीतिक और आर्थिक समस्याओं पर भी विचार करने लगे। यह एक अद्भुत मनोवैज्ञानिक परिवर्तन था।  इस काल में अद्भुत जन-जागृति हुई। अब सामाजिक समस्याओं को गंभीरतापूर्वक देखा जाने लगा। उसे महत्व दिया जाने लगा। चाहे उससे धनी वर्ग को नुकसान ही क्यों न पहुंचता हो, आम जनता को ऊपर उठाने की बात बार-बार ज़ोर देकर कही जाने लगी। राष्ट्रीय आंदोलन की प्रकृति में यह जबर्दस्त परिवर्तन था। उन्होंने राष्ट्रीय आंदोलन को एक नई दिशा दिखाई और आम लोग उनकी तरफ खिंचते चले आए। गांधीजी का नारा लोगों के लिए संकल्प हो जाता था, उनका प्रस्ताव लोगों के लिए प्रेरणा बन जाता था, उनका बयान सबके लिए व्यवहार हो जाता था।

अफवाहों की भूमिका

गांधीजी की लोकप्रियता को बढाने में अफवाहों ने भी अच्छी-खासी भूमिका निभाई तनाव के दौर से गुजर रहे अशिक्षित समाज में अफवाहों ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। भारतीय लोगों के विभिन्न वर्गों ने गांधीजी की अपनी छवियाँ गढ़ीं। अधिकांश लोगों के लिए चमत्कारिक शक्तियों वाले एक पवित्र व्यक्ति की तरह नज़र आए। चंपारण, खेडा और अहमदाबाद की सफलताओं की खबर भारत के विभिन्न भागों में फैलने के बाद भारत के विभिन्न वर्गों के लोगों ने अपने मन में गांधीजी की अपनी अलग छवियां बना ली थी। लोगों को लगने लगा कि गांधीजी एक चमत्कारिक पुरुष हैं कोई उन्हें संत, कोई महात्मा, कोई देवता तो कोई महामानव मानता था विशेष रूप से आरंभ में जब अधिकतर लोगों ने दूर से उनकी एक झलक भर देखी थी या उनकी आवाज भर सुनी थीया उनके चमत्कारी पुरुष होने की कहानी मात्र सुनी थी। सामान्य लोगों को विश्वास हो गया था कि गांधीजी उनकी समस्याओं को दूर कर देंगे। किसानों को लगने लगा कि गांधीजी ज़मींदारी प्रथा समाप्त कर देंगे, मज़दूरों को लगने लगा कि वे उन्हें जोत दिला देंगे उनके असहयोग आन्दोलन के आह्वान को सुनकर चाय बागान के मज़दूरों ने सामूहिक रूप से बागान छोड़ दिया था। लोगों को लगता था कि गांधीजी सत्य बोलते हैं और जो वे कहते हैं उसको मानना उनका कर्त्तव्य है। एक चमत्कारिक पुरुष की बातों को आदेश मानकर लाखों-लाख लोग उनकी ओर खिंचे चले आते थे। लोगों के ऊपर गांधीजी का जबर्दस्त प्रभाव था। बल्कि यूं कहें कि गांधीजी का जादू था।

सटीक मुद्दों और प्रतीकों का चयन

गांधीजी का नमक आंदोलन और दांडी पदयात्रा आधुनिक काल के शांतिपूर्ण संघर्ष का सबसे अनूठा उदाहरण है। यह गांधीजी के ही नेतृत्व और प्रशिक्षण का चमत्कार था कि लोग अंग्रेजी हुकूमत की लाठियों के प्रहार को अहिंसात्मक सत्याग्रह से नाकाम बना गए। यह एक ऐसा सफल आंदोलन था जिसने न सिर्फ ब्रिटेन को बल्कि सारे विश्‍व को स्तब्ध कर दिया था। नमक अपने आप में कोई बहुत महत्वपूर्ण चीज नहीं था, लेकिन यह राष्ट्रीयता का प्रतीक बन गया। इस यात्रा को जो भारी जनसमर्थन मिला, उसने अंग्रेज शासकों को  बेचैन कर दिया। भारतीय जनता को सामूहिक आन्दोलन के लिए संगठित करने की गांधीजी की कुशलता का ही यह परिणाम था की उन्हें अभूतपूर्व प्रसिद्धि और जनाकर्षण मिला। गांधीजी ने नमक के द्वारा जहां एक तरफ़ ग्रामीण लोगों को स्वराज्य के मुद्दे से जोड़ा, वहीं दूसरी तरफ़ शहरी लोगों का भी इसके प्रति समर्थन प्राप्त किया। नमक के मुद्दे ने स्वराज्य के आदर्श को गांवों के ग़रीबों की एक ठोस और व्यापक शिकायत से जोड़ दिया। इसने किसानों को एक अवसर दिया कि वे अपनी सहायता ख़ुद करते हुए कुछ अतिरिक्त आय कर सकें। गांधीजी के नगरीय समर्थकों को इसका मौक़ा मिला कि वे प्रतीक के रूप में जनता के व्यापक कष्टों से स्वयं को एकाकार कर सकें। गांधीजी की जनता में प्रेरणा भरने की इस विस्मयकारी शक्ति को बहुत पहले ही श्री गोखले जी ने भांप लिया था और कहा था, इनमें मिट्टी के घोंघे से बड़े-बड़े बहादुरों का निर्माण करने की शक्ति है। महात्मा गांधी के पास उन मुद्दों को पहचानने की शक्ति थी, जो लोगों को जागृत कर सकते थे। नमक से ऐतिहासिक आंदोलन खड़ा करने और दांडी मार्च करने के लिए प्रतिभा की आवश्यकता होती है। वह हर किसी को एकजुट करना जनते थे। खादी, चरखा, नमक आदि मुद्दों और प्रतीकों का चयन व्यापक जनाकर्षण का आधार बना.

उपसंहार

अपनी कार्यशैली, अपने विचार, अपनी सादगी, अपने त्याग और अपने सिद्धांतों से अटूट रूप से जुड़े रहने के कारण गांधीजी ने भारतीय जनता के दिल के तारों को झनझना दिया था। साहस और त्याग की अपील पर लोगों ने अपने को न्यौछावर कर दिया, क्योंकि गांधीजी स्वयं भी साहस और त्याग की सजीव मूर्ति थे। लोगों को लगा कि वे किसी शिखर से उतरे मानव नहीं बल्कि देश के करोड़ों लोगों में से ही प्रकट हुए हैं। उनकी भाषा, उनकी बोली, उनके हाव-भाव लोगों को आकर्षित करते। मुसलमानों ने भी कम उत्साह नहीं दिखाया। सच तो यह था कि अली-बंधुओं के नेतृत्व में ख़िलाफ़त कमेटी ने सत्याग्रह के कार्यक्रम को कांग्रेस से पहले ही अपना लिया था। थोड़े ही दिनों में जनता के अपार उत्साह और आन्दोलन की प्रारंभिक सफलता ने पुराने कांग्रेसी नेताओं को भी अपनी ओर खींच लिया था। बड़ौदा के एक भूतपूर्व मुख्य न्यायाधीश, अब्बास तैयाबजी ने एक गांव से लिखा था : लगता है, मेरी आयु बीस वर्ष कम हो गई है।हे भगवान ! कैसा विलक्षण अनुभव है। साधारण व्यक्ति के लिए मेरे हृदय में प्यार उमड़ रहा है और स्वयं भी साधारण व्यक्ति हो जाना कितने बड़े सम्मान की बात है। यह फकीरी पहनावे का जादू है, जिससे सारे भेद-भाव समाप्त हो गए हैं। चर्चिल ने कहा था, वह नंगे फकीर थे और उनकी इस फकीरी, संयम और आत्म-त्याग के कारण ही भारत की जनता उन्हें अपने प्राणों के इतना निकट अनुभव करती थी। उनकी प्रेरणा पाकर देश में ऐसे फकीरों की संख्या तेजी से बढ़ने लगी थी। वैभवपूर्ण जीवन का परित्याग कर गांधीजी के नेतृत्व में जेल जाने वालों की कतार अंतहीन थी।

गांधीजी के इस लोकव्यापी आकर्षण का एक और ऐसा पक्ष है, जिसकी अनदेखी करना सरल नहीं है। गांधीजी केवल जनता को आन्दोलन के लिए प्रेरित ही नहीं करते थे, बल्कि एक नियंत्रित जन आंदोलन चलाना चाहते थे। वे चाहते थे कि उनके अनुयायी उनके द्वारा तय किए हुए रास्ते पर दृढ़ता से अनुशासित ढंग से चले। लेकिन जनता ने उनके द्वारा तय की गई सीमाओं का बार-बार उल्लंघन किया। जनता उनके द्वारा स्थापित आदर्शों से अलग हटी। गांधीजी के लिए साध्य के साथ-साथ साधन का पवित्र होना भी महत्वपूर्ण था। ऐसे में एक विशाल जनसमूह को अनुशासन में रखना और नियंत्रित आंदोलन का संचालन गांधीजी जैसे करिश्माई व्यक्तित्व से ही संभव था। गांधीजी ने आत्म-शुद्धि पर बार-बार ज़ोर दिया। आंदोलन के नैतिक और आध्यात्मिक पक्ष पर लोगों का ध्यान आकर्षित किया। इसी करिश्माई व्यक्तित्व का परिणाम उनके व्यापक जनाकर्षण में दिखता है। 1919-20 में गांधीजी देश के सबसे बड़े राजनैतिक नेता बन गए, क्योंकि उन्होंने लोगों को मोहित कर लिया था। ‘महात्मा गांधी की जय’ के ऊंचे-ऊंचे नारे लगते। लोग उन्हें महात्माके रूप में श्रद्धा और भक्ति अर्पित करते। इनमें से कई गाँधीजी के प्रति आदर व्यक्त करते हुए उन्हें अपना महात्माकहने लगे। लोगों ने इस बात की प्रशंसा की कि गाँधीजी उनकी ही तरह के वस्त्र पहनते थे, उनकी ही तरह रहते थे और उनकी ही भाषा में बोलते थे। अन्य नेताओं की तरह वे सामान्य जनसमूह से अलग नहीं खड़े होते थे बल्कि वे उनसे समानुभूति रखते तथा उनसे घनिष्ठ संबंध भी स्थापित कर लेते थे। सामान्य जन के साथ इस तरह की पहचान उनके वस्त्रों में विशेष रूप से परिलक्षित होती थी। स्वेच्छा से अपनाई हुई गरीबी, सादगी, विनम्रता और साधुता आदि गुणों के कारण वह कोई ऐसे अतीतकालीन ऋषि प्रतीत होते थे, जो मानो देश की मुक्ति के लिए महाकाव्यों के बीते काल से वर्तमान में चले आए हों। देश के लाखों-करोड़ों लोग उन्हें अवतार मानने लगे थे। लोग उनका सन्देश सुनने ही नहीं, किन्तु दर्शन कर पुण्य अर्जित करने भी आते थे। उनके दर्शन का पुण्यफल करीब-करीब काशी की तीर्थ-यात्रा के ही बराबर माना जाने लगा था। महात्मा गांधी की लोकप्रियता इतनी अद्भुत, विलक्षण और चमत्कारिक थी कि महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंसटीन को कहना पडा, भविष्य में शायद ही लोग यकीन कर पाएं कि हाड़-मांस का कोई ऐसा इंसान इसी धरती पर जन्मा था. उनका जनाकर्षण इतना व्यापक था कि देश के ही नायकों का आन्दोलन नहीं बल्कि मार्टिन लूथर किंग और नेल्सन मंडेला जैसे महानायकों का आंदोलन भी गांधीजी से प्रेरित रहा. 

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मनोज कुमार

 

पिछली कड़ियां-  राष्ट्रीय आन्दोलन

संदर्भ : यहाँ पर

259. गांधीजी के राष्ट्रवाद का स्वरूप

राष्ट्रीय आन्दोलन

259. गांधीजी के राष्ट्रवाद का स्वरूप



राष्ट्रवाद क्या है?

 राष्ट्र एक ऐसा समुदाय होता है जो अपने सदस्यों के सामूहिक विश्वास, भावनाओं, आकांक्षाओं और कल्पनाओं के सहारे एक सूत्र में बंधा होता है. राष्ट्र शब्द अंग्रेजी के शब्द 'नेशन' (Nation) का एक अनुवाद है। 'नेशन' शब्द लैटिन भाषा के 'नेशीऊ' (Nation) शब्द से लिया गया है, जिसका अर्थ होता है 'पैदा होना'। बलंशली (Bluntschli) के अनुसारराष्ट्र ऐसे मनुष्यों का समूह है, जो विशेष तौर पर भाषा और रीति-रिवाजों द्वारा एक ऐसी सांझी सभ्यता में बंधे हुए हैं जो उनमें एकता की भावना और विदेशियों से भिन्नता की भावना पैदा करता है। राष्ट्रवाद वह ऐतिहासिक प्रक्रिया है जिसके द्वारा राष्ट्रीयताएँ राजनीतिक इकाइयों के रूप में परिवर्तित होती है राष्ट्र के प्रति निष्ठा, उसकी प्रगति और उसके प्रति सभी नियम आदर्शों को बनाए रखने का सिद्धांत राष्ट्रवाद कहलाता है। राष्ट्रवाद के इतिहास में प्राय: एक अकेले व्यक्ति को राष्ट्र-निर्माण के साथ जोड़कर देखा जाता है। उदाहरण के लिए हम इटली के निर्माण के साथ गैरीबाल्डी को, अमेरिकी स्वतंत्रता युद्ध के साथ जॉर्ज वाशिंगटन को और वियतनाम को औपनिवेशिक शासन से मुक्त कराने के संघर्ष से हो ची मिन्ह को जोड़कर देखते हैं। इसी तरह महात्मा गाँधी को भारतीय राष्ट्र-निर्माण के साथ जोड़कर भारत का राष्ट्र-पिता माना गया है। आधुनिक ‘राष्ट्रवाद’ की परिकल्पना एक पश्चिमी विचार है जिसका उदय 15वीं-16वीं शताब्दी में साम्राज्यवाद के विरुद्ध हुए राजनैतिक आन्दोलनों के फलस्वरूप हुआ अठारहवीं शताब्दी में फ्रांसिसी क्रान्ति को लाने में भी ‘राष्ट्रवाद’ की अहम भूमिका रही थी पश्चिमी राष्ट्रवाद को जागृत करने में वंश, जाति धर्म, भाषासंस्कृति तथा भौगोलिक एकता की महत्त्वपूर्ण भूमिका थी बाद में पश्चिमी राजनीतिशास्त्र के विचारकों ने इन्हीं विधायक तत्त्वों को महत्त्व देते हुए ‘राष्ट्र’ अथवा ‘राष्ट्रीयता’ की परिभाषाएं देने का प्रयास किया पश्चिमी विचारकों ने धर्म, जाति,भाषा और संस्कृति के आधार पर राष्ट्रवाद की जो परिभाषाएं दी हैं गांधी जी का राष्ट्रवाद उनसे पूर्णतया असहमत है

भारत में 18वीं शताब्दी में आधुनिक भारतीय ‘राष्ट्रवाद’ का उदय हुआ तो उसके मुख्य सूत्रधार थे राजा राममोहन राय स्वामी दयानन्द सरस्वती,स्वामी विवेकानन्द महात्मा गांधी, लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक महर्षि अरविन्द महामना मदन मोहन मालवीय, बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय आदि राष्ट्रवादी विचारक। बीसवीं सदी में भारतीय राष्ट्रवाद को एक वैचारिक स्वतंत्रता आन्दोलन से जोड़ने में महात्मा गांधी जी के ‘राष्ट्रवाद’ की अहम भूमिका रही है किन्तु गांधी जी के ‘राष्ट्रवाद’ की परिकल्पना पश्चिमी ‘राष्ट्रवाद’ के मूल्यों पर नहीं बल्कि उन सत्य,अहिंसा आदि मानवतावादी पुरातन भारतीय आदर्शों पर टिकी है जहां विभिन्न भाषा-भाषी और विभिन्न धर्मों को मानने वाले एक कुटुम्ब की भांति साथ-साथ रहकर ‘भारतराष्ट्र’ की अवधारणा को साकार कर सकते हैं राष्ट्रवाद की व्याख्या गांधी जी ने प्राचीन भारतीय साहित्य और संस्कृति के परिप्रेक्ष्य में की है भारत को एक राष्ट्र नहीं मानने वाली पश्चिमी मानसिकता का खण्डन करते हुए गांधीजी भारतवासियों से कहते हैं- आपको अंग्रेजों ने सिखाया है कि आप एक राष्ट्र नहीं थे और एक राष्ट्र बनने में आपको सैकड़ों वर्ष लगेंगे यह बात बिल्कुल बेबुनियाद है जब अंग्रेज हिन्दुस्तान में नहीं थे तब हम एक राष्ट्र थे हमारे विचार एक थे हमारा रहन सहन एक था तभी तो अंग्रेजों ने यहां एक राज्य कायम किया भेद तो हमारे बीच बाद में उन्होंने पैदा किए

मेरा जीवन ही मेरा दर्शन

गांधीजी के राष्ट्रवाद की नींव भौतिक आकांक्षाओं पर आश्रित न होकर जीवन की श्रेष्ठता और आध्यात्मिक सिद्धांतों पर आधारित थी उन्होंने राष्ट्र को प्रजा से जोड़ा। गांधीजी के राष्ट्रवाद को उनके चिंतन से अलग नहीं किया जा सकता। उन्होंने राष्ट्रवाद पर अलग से अपना कोई विचार प्रस्तुत नहीं किया। वे कहा करते थे मेरा जीवन ही मेरा दर्शन है वे अपने निजी उदाहरण द्वारा लोगों को बातें समझाते थे। दुनिया में जिस चीज़ को महत्वपूर्ण समझा जाता है, जिनका मूल्य लोगों की दृष्टि में अधिक होता है, उनमें से बहुतों का त्यागकर गांधी जी ने सरल और सादगी से भरे जीवन को अपनाया था, इसलिए उनकी बातों का लोगों पर गहरा असर होता था। वे रामराज्य का बार-बार उल्लेख करते थे। उनका कहना था कि वह सुनहरा युग फिर आने वाला है। जनता के हृदय तक पहुंचने की उनमें आश्चर्यजनक योग्यता थी।

सांस्कृतिक राष्ट्रवाद

हमारी संस्कृति पांच हजार साल से भी अधिक पुरानी है। एक बड़े भू-भाग में भाषा, क्षेत्रों की परम्पराओं में विविधता के बावजूद हमारे सांस्कृतिक मूल्य निरंतर जीवंत रहे हैं। गांधीजी ने आजादी के आंदोलन में इसी सांस्कृतिक जीवंतता को अहिंसा और नैतिक जीवन मूल्यों से जोड़ा। यही उनका वह सांस्कृतिक राष्ट्रवाद था जिसमें देश को अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त कराने हेतु आंदोलनों का नेतृत्व करते उन्होंने राष्ट्र को सांस्कृतिक दृष्टि से एक किया। सांस्कृतिक एकता हमारे देश की राष्ट्रीय पहचान की सभ्यतामूलक दृष्टि है। महात्मा गांधीजी ने देश की विविधता की ताकत को पहचानते हुए समानता की सोच के साथ राष्ट्र को आजादी आंदोलन के लिए एकजुट करने का कार्य किया। अपने आंदोलनों में जन-जन की भागीदारी सुनिश्चित की। उनके लिए स्वाधीनता केवल अंग्रेजों की गुलामी से मुक्ति तक सीमित नहीं थी बल्कि पूरे देश में स्वराज की स्थापना पर उनका जोर थाइसीलिए स्वदेशी को अपनाने के बहाने उन्होंने राष्ट्र और उससे जुड़ी वस्तुओं, संस्कृति से प्रेम करने की राह भी सुझाई। उन्होंने भारतीय संस्कृति के अनुरूप विपक्षी पक्ष पर उसके अनैतिक कृत्यों के कारण क्रोध नहीं कर उसे सहन करने की क्षमता विकसित किए जाने पर जोर दिया गया था।

सत्य, अहिंसा और सत्याग्रह

उनके लिए राष्ट्रवाद भारत की आजादी हेतु निहित संघर्षों में समाहित था। भारत में आधुनिक राष्ट्रवाद के उदय की घटना उपनिवेशवाद विरोधी आन्दोलन के साथ गहरे तौर पर जुडी हुई है गांधीजी के हृदय में राष्ट्रवाद नामक बीज का अंकुरण भारत में नहीं बल्कि दक्षिण अफ्रिका में हुआ। सही अर्थों में अगर हम देखें तो पाते हैं कि दक्षिण अफ़्रिका ने ही गाँधीजी को महात्मा बनाया। दक्षिण अफ़्रिका में ही महात्मा गाँधी ने पहली बार सत्याग्रह के रूप में जानी गई अहिंसात्मक विरोध की अपनी विशिष्ट तकनीक का इस्तेमाल किया। सत्य और अहिंसा की उनकी नीति ने विभिन्न धर्मों के बीच सौहार्द बढ़ाने का प्रयास किया तथा उच्च जातीय भारतीयों को निम्न जातियों और महिलाओं के प्रति भेदभाव वाले व्यवहार के लिए चेतावनी दी। ट्रांसवाल की राजनीतिक पृष्ठभूमि पर गांधीजी ने अपने इस अद्भुत राजनीतिक दर्शन के तौर तरीकों का विकास किया।  सत्याग्रह का अर्थ है- सत्य पर डटे रहना। अहिंसा इसका मुख्य अंग है। वह केवल विरोध का अभाव मात्र नहीं है। गांधीजी ने इसका पहला प्रयोग दक्षिण अफ़्रीका में किया था। भारत में जब इस दर्शन को सामने रखा गया तो सारे भारत में राजनैतिक चेतना जाग उठी। आदर्श सत्याग्रही से अपेक्षा की गई कि वह सत्यनिष्ठ तथा पूर्णतया शान्तिमय हो, परन्तु साथ ही वह जिस चीज़ को ग़लत समझे उसको स्वीकार नहीं करे। वह अन्यायी के ख़िलाफ़ संघर्ष के क्रम में यातनाएं सहने के लिए तैयार रहे। उसका संघर्ष उसके सत्य-प्रेम का भाग हो। मगर बुराई के ख़िलाफ़ लड़ते हुए भी वह बुरा करने वाले को प्यार करे। घृणा एक सच्चे सत्याग्रही के स्वभाव के विपरीत होनी चाहिए। इसके अलावा वह बिल्कुल निडर हो। वह बुराई के आगे कभी नहीं झुके और इसके परिणाम की परवाह न करे। गांधीजी की नज़रों में अहिंसा कमज़ोर तथा कायर व्यक्तियों का हथियार नहीं। सिर्फ़ शक्तिशाली और बहादुर लोग ही अहिंसा को अपना सकते हैं। उनके अनुसार कायरता से हिंसा श्रेयस्कर है। उन्होंने वैसे राष्ट्रवाद को दरकिनार कर दिया जो हिंसा पर आधारित हो। उनका मानना था कि प्रेम या आत्मा की ताकत के आगे हथियारों की ताकत निरीह व निष्प्रभावी  है। उनका मानना था कि हिंसा से आपसी संवाद खत्म होते हैं और समाज में हिंसक प्रवृत्ति को बढ़ावा मिलता है। उनका विचार था कि भारतीयों को ब्रिटिश सरकार की गलतियों का एहसास दिलाना चाहिए तथा सत्याग्रह द्वारा अपने आप को बदलने का प्रयास करना चाहिए। उनकी नजरों में राष्ट्र की मुक्ति के लिए हिंसा का कोई स्थान नहीं था। उनका अहिंसा का सिद्धांत उनके सत्याग्रह को नैतिक दिशा देता था। अपनी परिस्थिति, पृष्ठभूमि और परंपराओं के कारण भारतीयों के लिए यह एक सटीक नीति थी।

राष्ट्रीय समरसता

गांधीजी का राष्ट्रवाद समायोजन पर आधारित था जिसमें भारत के विभिन्न समुदायों का राष्ट्रीय समरसता कायम करना शामिल था।  ब्रिटिश सत्ता को उखाड़ फेंकने के अपने कार्यक्रम में वे सभी जातियों, वर्गों, समुदायों और धर्मावलंबियों को एक मंच पर लाये तथा अपने साझे राष्ट्रवाद की भावना से प्रेरित कर लक्ष्य को प्राप्ति के लिए प्रेरित किया। गांधीजी संकीर्ण या उग्र राष्ट्रवाद के उपासक नहीं थे। वे एक रचनात्मक और मानवतावादी राष्ट्रीयता के उपासक थे। उनका राष्ट्रवाद समाज के सभी तबकों के साथ बिना किसी भेदभाव के सामूहिक सोच व लक्ष्य की अभिव्यक्ति थी। वे जाति या वर्ग के आधार पर पृथकतावादी दृष्टिकोण के खिलाफ थे। उन्होंने जातीय ऊंच–नीच के खिलाफ हमेशा आवाज उठायी और भारत से छुआछूत मिटाने का अथक व गंभीर प्रयास किया। जिस भारत को वे अपने आदर्शों के अनुकूल बनाना चाहते थे, उसके प्रति अपनी भावनाएं व्यक्त करते उन्होंने कहा, मैं एक ऐसे भारत के लिए प्रयत्न करना चाहता हूं, जिसमें निर्धन-से-निर्धन व्यक्ति भी यह अनुभव कर सकेंगे कि यह उनका अपना देश है, जिसके निर्माण में उनकी भी सुनी जाएगी, जिसमें ऊंच-नीच का भेद-भाव नहीं होगा, जिसमें सभी जातियां पूर्ण सामंजस्य के साथ जीवन-यापन करेंगी। ऐसे भारत में छुआछूत और मादक पदार्थों का शाप नहीं होगा, स्त्रियों को पुरुषों के ही समान अधिकार मिलेंगे ... यह है वह भारत जिसके मैं स्वप्न देखा करता हूं। गांधी जी की राष्ट्रवाद की अवधारणा को गहराई से जानने समझने के लिए उनकी पुस्तक ‘मेरे सपनों का भारत’ का यदि गम्भीरता से अध्ययन किया जाए तो गांधी जी के इस कथन पर ध्यान देने की जरूरत  है- जिस तरह देशप्रेम का धर्म हमें आज यह सिखाता है कि व्यक्ति को परिवार के लिए, परिवार को ग्राम के लिए, ग्राम को जनपद के लिए और जनपद को प्रदेश के लिए मरना सीखना चाहिए,उसी तरह किसी देश को स्वतंत्र इसलिए होना चाहिए कि वह आवश्यकता होने पर संसार के कल्याण के लिए अपना बलिदान दे सके गांधी जी ने इस देशप्रेम की भावना को ही भारत का सच्चा राष्ट्रवाद कहा है

अस्पृश्यता उन्मूलन

वे हमेशा से एक ऐसे राष्ट्रवाद पक्षधर थे जो विभिन्न वर्गों व समुदायों तथा बहुलतावादी संस्कृति पर आधारित हो। भारत से छुआछूत को हटाने के लिए उन्होंने व्यक्तिगत जीवन में काफी परिवर्तन किये। दक्षिण अफ्रीका में गांधीजी के सहयोगियों में सभी जातियों व सामुदाय के लोग शामिल थे। 1915 में भारत लौटने पर अहमदाबाद में स्थापित पहले आश्रम में उन्होंने लाख विरोध के बावजूद अछूत व्यापारियों को आमंत्रित किया। उन्होंने अछूतों को ‘हरिजन’ नाम दिया और उसी नाम से उन्होंने साप्ताहिक पत्रिका का प्रकाशन भी किया। यह पत्रिका समाज में निचले तबकों की समस्याओं पर केन्द्रीत थी। 1932 में जेल से छूटने के बाद छुआछूत को मिटाने के लिए उन्होंने 12,500 मील की पैदल यात्रा की। उन्होंने इस उद्देश्य को पूरा करने के लिए ‘हरिजन कोष’ की स्थापना की। गांधीजी का मानना था कि ब्रिटिश सरकार जात–पात के आधार पर लोगों को बांटकर शोषण कर रही है।

पंथनिपेक्षता

गांधीजी को भारतीय संस्कृति पर गर्व था, वे इसे व्यापक रूप देना चाहते थे। उनका राष्ट्रवाद धर्म से प्रेरित होने के बावजूद पंथनिपेक्ष प्रकृति वाला था। हालाकि गांधीजी की नजरों में भारत विभिन्न धर्मों, भाषाओं, पंथों तथा जातियों का देश था, फिर भी जब कभी भी पारस्परिक अस्तित्व की बात आयी तो अनजाने ही वे हिंदुत्व की तरफ झुके नजर आये। धर्म के प्रति उनका दृष्टिकोण बहुत ही व्यापक था, वे धर्म में समाहित सभी रूढ़ियों, रिवाजों और अंधविश्वासों को तोड़ना चाहते थ। वे राष्ट्रीय आंदोलन के धार्मिक और आध्यात्मिक पहलू पर ज़ोर दिया करते थे। उनका धर्म कोई कट्टरपंथी नहीं था। उसमें जीवन के प्रति एक निश्चित धार्मिक दृष्टिकोण का निर्देश होता था। अपने सार्वजनिक भाषणों में वे धर्म को बीच में नहीं लाते थे। उनका अध्यात्मीकरण संकीर्ण धार्मिक अर्थ में नहीं था। यह योग्य साध्य तक पहुंचने तक योग्य साधन था। यह एक श्रेष्ठ नैतिक सिद्धांत ही नहीं बल्कि एक स्वस्थ व्यावहारिक राजनीति भी थी। क्योंकि जो साधन अच्छे नहीं होते वे अकसर साध्य का ही अंत कर देते हैं। उससे नई समस्याएं आ जाती हैं। वे धर्म को व्यक्तिगत मानते थे जहां लोग अपने दैनिक जीवन के क्रियाकलापों की शुद्धता पर ध्यान देता हो। इसी प्रकार राष्ट्र के संदर्भ में भी उनकी प्रवृति धर्मनिरपेक्ष थी।

गांधीजी द्वारा हिंद स्वराज लिखे जाने के समय यह बात बहस का मुद्दा थी कि भारत की राष्ट्र के रूप में स्थापना धार्मिक आधार पर संभव है या नहीं। इस किताब में उन्होंने राष्ट्र शब्द के लिए प्रजा शब्द का इस्तेमाल किया। उनका विश्वास था कि प्रजा नामक शब्द से भारत में एक साझे संस्कृति का निर्माण होगा। उन्होंने हिंद स्वराज में ‘प्रजा’ पर आधारित उदार राष्ट्रवाद को अपनाने पर बल दिया। लोकतंत्र में बनाए नियमों का पालन करना हरेक के लिए अनिवार्य होता है। लेकिन अन्यायपूर्ण नियमों का पालन करना भी मनुष्योचित नहीं है। इसलिए इसका विरोध भी किया जाना चाहिए। केवल वह समाज स्वतंत्र, प्रसन्न और रहने योग्य होता है, जिसमें हर स्त्री-पुरुष एक संभावित सविनय अवज्ञाकारी हो। उन्होंने लोगों का आह्वान किया और धर्म को धर्मांधता की बुराई से मुक्त कराने और प्रेम तथा आध्यात्म पर आधारित धर्म पर जोर दिया तथा उन्होंने बताया कि प्रेम तथा आध्यात्म धर्म का रास्ता सुगम व आसान होता है। इसका मतलब यह है कि सभी धर्मों को एक–दूसरे के प्रति सहनशीलता व सम्मान अपनाना चाहिए। वे साम्प्रदायिक मतभेदों को आपसी मेल–जोल के साथ हल करना चाहते थे, जिसमें समुदायों की भागीदारी अनिवार्य थी। वे एक ऐसे राष्ट्रवाद का निर्माण करना चाहते थे जिसकी बुनियाद सद्भावना, सहअस्तित्व तथा समन्वय पर आधारित थी न कि समावेशीकरण, सम्मिश्रण तथा संयोजन पर।

गांधीजी समुदायवादी रुख के अलावा बहुलता व सम्मिश्रण सरोकारों में अधिक विश्वास रखते थे। यह बात उस समय और अधिक स्पष्ट हुई जब जिन्ना ने मुस्लिम साम्प्रदायिकता के आधार पर अलग राष्ट्र की मांग की तो इस पर गाधीजी का विचार था कि यूरोपीय राष्ट्रों की तरह भारत की राष्ट्रीयता को परिभाषित करना उचित नहीं है। वे भारत को एक ऐसी सभ्यता का देश मानते थे जहां विभिन्न सम्प्रदायजाति व समुदाय के लोग आपसी समझ व सहनशीलता के साथ वर्षों से रहते आ रहे हैं। यह समुदायों का एक ऐसा समुदाय है जहां प्रत्येक अपने कर्म, विचार व दर्शन के लिए स्वतंत्र है पर प्रत्येक का भाग्य एक साझे संस्कृति पर आधारित है।

स्वदेशी की भावना

स्वदेशी उनका संकेत शब्द था। उन्होंने उसकी परिभाषा करते हुए कहा था कि – स्वदेशी वह भावना है जो हमें दूर की चीज़ों को छोड़कर अपने आस-पास की चीज़ों के इस्तेमाल और सेवा तक सीमित करती है। विदेशी सत्ता को बाहर करने के लिए छोटी-छोटी स्वदेशी वस्तुओं के उत्पादन को उन्होंने राष्ट्रवाद की अवधारणा से जोड़ दिया। उन्होंने शारीरिक श्रम पर बल दिया जिसे उन्होंने रोटी के लिए मेहनत और चरखा कहा। राष्ट्रीय आंदोलन को यह गांधी जी की एक महान देन थी। उन्होंने खादी, ग्रामों में रचनात्मक कार्यों और हरिजन कल्याण के माध्यम से अपने इस संदेश को मूर्तरूप दिया कि भारत का वास्तविक शत्रु अंग्रेज़ी राज नहीं है, बल्कि समग्र औद्योगिक सभ्यता है। रचनात्मक कार्यों से गांधीजी ग्रामीण लोगों की स्थिति को सुधारने का प्रयत्न करते रहे। इस प्रकार स्वदेशी आंदोलन के आत्मनिर्भरता एवं स्वावलंबन के संदेश को एक विस्तृत आयाम प्राप्त हुआ। किसानों के बीच उनकी इस राजनीतिक शैली ने उनकी लोकप्रियता बढ़ाई। खादी कार्यक्रम और छुआछूत कार्यक्रम मिशन के तौर पर चलाया गया तथा नमक जैसे दैनिक उपभोग की वस्तुओं को राष्ट्रवाद का प्रतीक बना दिया.

‘वसुधैव कुटुम्बकम’

उन्होंने राष्ट्रीय आन्दोलन और राष्ट्रवाद की अवधारणा को ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की भावना के साथ आगे बढाया गांधीजी का राष्ट्रवाद उनके विश्व-प्रेम का ही एक रूप था। गांधीवादी राष्ट्रवाद में अंतर्राष्ट्रीयतावादी पुट था, उनका मानना था कि दोनों का सह–अस्तित्व मुमकिन है। गांधीजी की नजरों में भारत सिर्फ कुछ समुदायों का बहुरंगा समूह नहीं वरन् यह एक ऐसा राष्ट्र है जहां लोगों की आकांक्षाएं व आशाएं साझे हित से प्रेरित हैं तथा जिसकी प्रतिबद्धता एक आध्यात्मिक सभ्यता की खोज व निर्माण का विकास है। न्होंने राष्ट्रवाद शब्द का प्रयोग देश प्रेम के रूप में किया। अधिकर जगहों पर उन्होंने सामूहिक गौरव, पैतृक निष्ठा, पारस्परिक उत्तरदायित्व तथा बौद्धिक व नैतिक खुलेपन को अधिक बेहतर व अनुकूल माना। उनके आन्दोलनों के पीछे त्याग की भावना है कि इंसान को अपने राष्ट्र से आगे जाकर सम्पूर्ण मानव जाती से प्यार करना चाहिए अत : राष्ट्रवाद के विचार को अंतर्राष्ट्रीयवाद के पूरक के रूप में समजा जा सकता है। न्होंने कहा था किसी के लिए यह असंभव है कि वह राष्ट्रवादी बने बिना अंतर्राष्ट्रीयवादी बन जाए। अंर्तराष्ट्रीयवाद तभी संभव है जब राष्ट्रवाद की अनुभूति कर ली जाये। राष्ट्रवाद के संकीर्णता, स्वार्थपरता तथा विशिष्टता के चश्मे से देखना पाप है तथा आधुनिक राष्ट्रवाद की अवधारणा पर यह कलंक है।

गांधीजी के चिंतन की महानता यह है कि उन्होंने भारत की स्वतंत्रता के मामले को सम्पूर्ण मानव जाति की मुक्ति के साथ जोड़ना चाहा गांधीजी का कहना था, मैं अपने देश की स्वतन्त्रता चाहता हूँ ताकि मेरे देश के संसाधनों का प्रयोग मानव जाति के लाभ के लिए किया जा सके जिस प्रकार आज देश-भक्ति का पंथ हमें यह शिक्षा देता है कि व्यक्ति को परिवार के लिए, परिवार को गाँव के लिए, गाँव को जिले के लिए, जिले को प्रांत के लिए, तथा प्रांत को देश के लिए बलिदान देना चाहिए वैसे ही इस देश को स्वतंत्र होना है ताकि यदि आवश्यक हो तो यह विश्व के लिए अपने प्राण दे सके साथ ही उनका यह भी कहना था, मैं चाहता हूं कि सभी देशों की संस्कृतियां मेरे घर के पास जितनी संभव हो, उतनी स्वतंत्रता के साथ उड़ती रहें, किंतु मैं इस बात के लिए तैयार नहीं कि उनमें से कोई मुझे उड़ा ले जाए। मैं दूसरों के घर में बिना अधिकार प्रवेश करने वाले व्यक्ति या भिखारी या दास के रूप में रहने को तैयार नहीं।

उपसंहार

चूंकि भारतीय राष्ट्रवाद औपनिवेशिक शासन के विरोध और उसके विरुद्ध संघर्ष से बहुत कुछ प्रभावित है, इसलिए गांधीजी ने इस राष्ट्रवाद को आन्दोलन का रूप प्रदान किया गांधीजी के राष्ट्रवाद के दर्शन में निहित उपनिवेश विरोधी विचारधारा के साथ–साथ स्वतंत्रता, समानता, लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, सामाजिकता, आर्थिक विकास तथा गरीबोन्मुखी विचारों की प्रेरणा ने कांग्रेस की दशा व दिशा बदल दी कांग्रेस इस बात में सक्षम व समर्थ हुई कि वह राष्ट्रीय आंदोलन को लोकप्रिय जन आंदोलन का रूप प्रदान कर सके। जन आधारित सिद्धांत के कारण भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में गांधीजी के आगमन के बाद एक नए तरह के राष्ट्रवाद का जन्म हुआ। उन्होंने राष्ट्रवादी आंदोलन को एक नई दिशा व दृष्टि दी इससे आंदोलन का स्वरूप बहुजन व बहुवर्ग आधारित हो गया। अपने देशी गतिविधियों के कारण इसने एक अलग पहचान बनाई। गांधी-युग के पूर्व सामाजिक स्तर पर राजनीतिक जागरण कुछ चंद ऊंचे तबकों तक ही सीमित नहीं था बल्कि निजी हित साधने का एक जरिया भी बन चुका था औपनिवेशिक शासन के लिए यह परिस्थिति अनुकूल थी। इसका परिणाम यह हुआ कि समाज वर्गों के आधार पर बंटता चला गया और दूसरी ओर साम्प्रदायिक विभाजन भी इसी का परिणाम था। लेकिन गांधीजी ने चंपारण, खेडा, बारदोली जैसे दूर–दराज क्षेत्रों में अपना प्रयोग कर आंदोलन को लोगों से जोड़ा उन्होंने देशव्यापी जन आंदोलन जैसे असहयोग, खिलाफत, सविनय अवज्ञा आंदोलन से लोगों को जोड़ा। उनका राष्ट्रवाद एक व्यापक फलक का राष्ट्रवाद था जो संकुचति व सांप्रदायिक दृष्टि से परे और सभी जातियों, दबे–कुचले व समाज के पिछड़े तबको को एक समान धरातल पर लाने की बात करता है। यह राष्ट्रवाद सामाजिक और आर्थिक खाइयों को पाटना चाहता था। उनका राष्ट्रवाद संकीर्ण न होकर व्यापक है वे अपने राष्ट्र का विकास चाहते थे लेकिन किसी दूसरे राष्ट्र को नुकसान पहुंचाकर नहीं उनका राष्ट्रवाद देश का आर्थिक पुनर्निमाण करना चाहता था। स्वदेशी पर बल देते हुए उन्होंने इसे राष्ट्र को आर्थिक रूप से समृद्ध बनाने का सबसे सशक्त माध्यम बताया था, क्योंकि इससे देश का पैसा देश में ही रहकर देश को आर्थिक मजबूती प्रदान करता है।

गांधीजी ने कभी अपनी जड़ों को हिलने नहीं दिया। उन्हें मज़बूती से पकड़े रहे। आत्मिक एकता में विश्वास रखते हुए उन्होंने अपने को जनता में लीन कर दिया। जनता की आत्मा के साथ अपनी आत्मा को मिला दिया। असहायों और निर्धनों के साथ तादात्म्य की उनमें एक उत्कट भावना थी। पद दलितों के उत्थान की अभिलाषा थी। इसके सामने उनके लिए धर्म गौण बन जाता था। उनका तो कहना था, जिस देश के लोग अधभूखे हों उसका न कोई धर्म हो सकता है, न कोई कला, न कोई संगठन। ... जो भी चीज़ भूखों मरती हुई लाखों जनता के लिए उपयोगी हो सकती है, वही मेरी दृष्टि में सुंदर है।

भारत का राष्ट्रीय आंदोलन धनिक वर्ग का आंदोलन था। गांधी जी ने इस आंदोलन की इस दशा और दिशा में बदलाव लाया। वे आम जनता का प्रतिनिधित्व करते थे। गांधीजी भारत की आत्मा और मर्यादा के प्रतीक बन गए थे। वे जन-साधारण की आवाज़ बन कर सामने आए। वे आम जनता को ऊंचा उठाने की आकांक्षा के साथ सामने आए। उन्होंने दलित, पिछड़े, ग़रीब, निराश जनता को ऐसा बना दिया जिसमें आत्म-सम्मान की भावना जाग उठी, जिसे अपने पर भरोसा होने लगा। एक बड़े हित के लिए वे मिलकर काम करने लगे। उनमें खुद पर भरोसा जगा। गांधीजी ने उन्हें इस योग्य बना दिया कि वे अब देश की राजनीतिक और आर्थिक समस्याओं पर भी विचार करने लगे। यह एक अद्भुत मनोवैज्ञानिक परिवर्तन था।  इस काल में अद्भुत जन-जागृति हुई। अब सामाजिक समस्याओं को गंभीरतापूर्वक देखा जाने लगा। उसे महत्व दिया जाने लगा। चाहे उससे धनी वर्ग को नुकसान ही क्यों न पहुंचता हो, आम जनता को ऊपर उठाने की बात बार-बार ज़ोर देकर कही जाने लगी। राष्ट्रीय आंदोलन की प्रकृति में यह जबर्दस्त परिवर्तन था। उन्होंने राष्ट्रीय आंदोलन को एक नई दिशा दिखाई। इस आंदोलन के द्वारा वे सिर्फ़ भारत को ही नहीं सारे संसार को संदेश दे रहे थे। वह संदेश था विश्व-शांति का। इसलिए हम कह सकते हैं कि उनकी राष्ट्रीयता में एक प्रकार का अंतर्राष्ट्रीय दृष्टिकोण था।

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मनोज कुमार

 

पिछली कड़ियां-  राष्ट्रीय आन्दोलन

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