प्रेरक प्रसंग : स्वाद इंद्रियों पर विजय
बात 1918 की है। बापू को हिंदी साहित्य सम्मेलन ने इन्दौर अधिवेशन
के लिए सभापति चुन लिया। चंपारण से बापू इन्दौर पहुंचे। साथ में राजेन्द्र प्रसाद
और अन्य लोग भी थे। सभी लोग राज्य के अतिथि थे। इसलिए वहां खातिरदारी का पूरा
इंतज़ाम था। जितने बरतन उनके काम के लिए वहां रखे गए थे,
यहां तक कि स्नान के लिए पानी रखने के
बरतन भी, चांदी के ही थे। राज्य के कर्मचारी दिन-रात खातिरदारी में लगे रहते थे।
बापू ने अपना सादा – मूंगफली आदि का
भोजन अलग कर लिया। अन्य लोगों के लिए विभिन्न प्रकार के पकवान आदि चांदी के बड़े
थालों और अनेक कटोरियों में परसा गया। सबने खूब आनंद से भोजन किया। भोजन के बाद
बापू से उनकी मुलाक़ात हुई। बापू ने पूछा,
“तुम लोगों ने क्या खाया?”
जो कुछ उन लोगों ने खाया था,
महादेव देसाई ने वर्णन कर दिया।
कुछ देर बाद जब राज्य कर्मचारी आए तब बापू ने उनसे कहा, “आप इन लोगों को जैसा भोजन दे रहे हैं,
वैसे भोजन की इनकी आदत नहीं है। ये लोग
तो यहां अस्वस्थ हो जाएंगे। आप इनके लिए मामूली सादा फुलका और सब्जी का प्रबंध कर
दीजिए, थोड़ा दूध भी दे दीजिए। इनके लिए यही स्वास्थ्यकर और अच्छा भोजन होगा।”
उसके बाद से चांदी के थालों में उन लोगों को वही सादा भोजन
मिलने लगा।
बापू इस बात को मानते थे कि स्वाद-इंद्रिय पर विजय पाना बहुत कठिन है। हम लोग जो भोजन करते
हैं, वह शरीर को सुरक्षित और पुष्ट बनाने के लिए नहीं,
केवल स्वाद के लिए। भोजन का प्रभाव तो
स्वास्थ्य पर पड़ता ही है; इसलिए हममें से जिनके पास पैसे होते हैं, वे अधिक और अस्वास्थ्यकर
– पर मज़ेदार – खाना खाकर बीमार पड़ते रहते हैं। पर जिनके पास पैसे नहीं
होते, वे यथेष्ट और स्वास्थ्यकर भोजन न मिलने के कारण कमज़ोर और बीमार हो जाते हैं।
इसीलिए वे सभी को सादे भोजन और स्वाद पर विजय का उदाहरण स्वयं सिखाते रहते थे।
बापू का खाने में नियम था। चाहे फल हो या रसोई, किसी में पांच
चीज़ों से अधिक कुछ न होना चाहिए। इन पांच चीज़ों में नमक-मिर्च जैसी चीज़ें भी एक-एक अलग समझी जाती थीं। इस तरह, यदि कोई चीज़
मसालेदार बनाई जाती तो वह बापू के लिए अखाद्य हो जाती, क्योंकि मसाले
में ही पांच-छह चीज़ें हो जातीं। नियम के अलावे भी बापू मसाला जैसी चीज़ों का इस्तेमाल बुरा
समझते थे। कारण यह था कि एक तो ये चीज़ें बहुत करके गरम होती और उत्तेजक होती हैं, दूसरे स्वाद को भी बदल देती हैं;
इसलिए स्वाद के कारण आदमी अधिक खा लेता
है। साथ ही ऐसी चीज़ें भी खा लेता है जो हानिकर होती हैं।
उन दिनों चंपारण में) सामान्यतया बापू जब अन्न खाते थे तो वे न तो नमक खाते थे और
न दूध या दाल ही; सिर्फ़ चावल और उबाली हुई सब्जी ही खाया करते थे। उबाली हुई
चीज़ों में भी विशेष करके करैला, जो कुछ अधिक पानी देकर उबाल दिया जाता औए उसी पानी के साथ
भात मिलाकर बहुत स्वाद से वे खा लिया करते। करैला बहुत कड़ुआ होता है। उसका उबला
हुआ पानी तो और भी कड़ुवा होता है। पर वे उसी को आनंद और स्वाद के साथ खा लेते थे।
*** *** ***
मनोज कुमार
पिछली कड़ियां- गांधी और
गांधीवाद
संदर्भ : यहाँ
पर
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
आपका मूल्यांकन – हमारा पथ-प्रदर्शक होंगा।