राष्ट्रीय आन्दोलन
284. महान सुनवाई
1922
गिरफ़्तारी का दौर
अहमदाबाद कांग्रेस के
बाद देश पूर्ण असहयोग और बहिष्कार के लिए तैयार था। असहयोग और बहिष्कार में कोई
फ़र्क़ नहीं था, वह तो असहयोग का ही एक विशेष कार्यक्रम था। बारडोली में हुई
कांग्रेस कार्य समिति की बैठक में एक साल में स्वराज्य प्राप्त करने का प्रस्ताव
भी पास हो गया। 1921 के अहमदाबाद कांग्रेस अधिवेशन के बाद सारे देश में सरकार का गिरफ़्तारी का दौर
शुरू हो गया। देश के बड़े-बड़े नेताओं को जेल में बंद कर दिया गया। लगभग 30,000 लोग जेल में बंद थे।
चौरी चौरा की घटना के बाद 12 फरवरी
को गांधीजी द्वारा आन्दोलन समाप्त करने की घोषणा से सारा देश स्तब्ध रह गया। कई टिप्पणीकारों ने गांधीजी
द्वारा लिए गए निर्णय की निंदा की। इस घटना पर रोम्यां रोलां की टीका उस फ्रांसीसी
आदर्शवाद के अनुरूप ही थी, “मानवता की नैतिक प्रगति के
इतिहास में इतने सुन्दर पृष्ठ शायद ही हों। ऐसी किसी क्रिया का नैतिक मूल्य
अतुलनीय है, लेकिन राजनीतिक क़दम के रूप
में यह हताशाजनक था।”
10 मार्च को गिरफ़्तारी
कई महीनों के तनाव और चिंता के बाद सरकार ने चैन की सांस ली और पहली बार उसे
आक्रामक कार्रवाई करने का अवसर मिला। हजारों भारतीयों को जेल में डाल दिया गया। जवाहरलाल
नेहरू जी को हड़ताल के पर्चे बांटने के अपराध में गिरफ़्तार कर लिया गया। उन्हें क़ैद
की सज़ा मिली। तीन महीने बाद उन्हें उस जेल में ही रखा गया जहां पहले से उनके पिता
श्री मोतीलाल नेहरू और कई दूसरे लोग थे।
भड़काऊ बयान, पत्रों में लेख बेशक, उनकी गिरफ़्तारी
के लिए सहायक कारण थे, और गांधीजी खुद जानते थे कि उन्हें ऐसे कारणों से गिरफ़्तार
किया जा रहा था जो तोड़फोड़ के साधारण सवाल से कहीं ज़्यादा थे। मुद्दा गांधीजी की
बढ़ती शक्ति और कांग्रेस पार्टी के सदस्यों पर उनके द्वारा बहुत ज़्यादा अधिकार
जमाना था। कुछ ही सालों में उन्होंने खुद को ऐसी स्थिति में पहुँचा लिया था जहाँ
वे भारतीय लोगों पर बहुत ज़्यादा प्रभाव डाल सकते थे, और वह बिंदु बस
थोड़ी दूर था। जब उन्होंने "एक महीने या एक साल या कई सालों तक चलने वाली
लड़ाई" की बात की, तो उनका मतलब था कि ब्रिटिश राज को अचानक नाटकीय ढंग से
उखाड़ फेंकना उनकी शक्ति में था, जिससे संभवतः वे शक्तिहीन हो जाएँ। उन्हें जेल में डालकर
सरकार कुछ जोखिम नहीं उठा रही थी। कांग्रेस के सदस्य, अपने-अपने तरीक़े
से, आपस में झगड़ेंगे, नए और कम प्रभावी नेता उभरेंगे, गांधीजी की
अजेयता की किंवदंती समाप्त हो जाएगी,
और सरकार अपनी संतुष्टि के लिए यह साबित
करने में सक्षम होगी कि वह उनसे नहीं डरती।
लॉर्ड रीडिंग को यकीन था कि
बारडोली प्रस्ताव असहयोग आंदोलन के अंत की शुरुआत थे। लॉर्ड रीडिंग का मानना था
कि सविनय अवज्ञा को वापस लेने से गांधीजी के खिलाफ अभियोग में कोई महत्वपूर्ण
बदलाव नहीं आया, क्योंकि आंदोलन को केवल स्थगित कर दिया गया था। अब चूंकि गांधीजी
शक्तिशाली आंदोलन की कमान नहीं संभाल रहे थे, इसलिए सरकार ने उन्हें गिरफ्तार करने का फैसला किया। किसी
भी अन्य समय उनकी गिरफ्तारी के साथ व्यापक अव्यवस्था और रक्तपात होता, लेकिन अब नहीं, क्योंकि वे इसका स्वागत करते
थे। गांधीजी ने शांति से कहा, "उनके बीच
से मेरा हटना लोगों के लिए फायदेमंद होगा।" आश्रम में गांधीजी ने प्रार्थना सभा
में अपनी गिरफ़्तारी की अफ़वाह का ज़िक्र किया। उन्होंने कहा कि उन्हें उसी रात
इसकी उम्मीद थी। 10 मार्च, 1922 की रात को अहमदाबाद के पुलिस अधीक्षक डैन हीली एक
ड्राइवर को लेकर अकेले ही साबरमती आश्रम पहुंचे। उन्होंने संदेश भेजा कि सरकार के ख़िलाफ़ असंतोष भड़काने और राजद्रोह के आरोप में गांधीजी को गिरफ्तार कर लिया गया है, लेकिन जेल जाने से पहले वे जितना चाहें उतना समय ले सकते
हैं। गांधीजी ने आश्रम के लोगों से वैष्णव गीत गाने को कहा, एक अतिरिक्त लंगोटी, दो कंबल और सात किताबें लीं और फिर अंधेरे में अधीक्षक की
कार तक चले गए। गांधीजी की
प्रतिक्रिया थी, “अहा, कितनी ख़ुशी
का दिन है! जो हुआ सचमुच बेहतरीन हुआ है; सचमुच बेहतरीन हुआ है!!” गांधीजी को साबरमती जेल ले जाया गया जो आश्रम के निकट ही
था। अगली सुबह, कस्तूरबाई ने अपने पति को कपड़े,
बकरी का दूध और अंगूर भेजे। बाद में
जवाहरलाल नेहरू जी को इसलिए छोड़ दिया गया कि उन्हें ग़लती से गिरफ़्तार कर लिया गया
है। वे साबरमती जेल में जाकर गांधीजी से मिले। जिस समय उन पर मुकदमा चल रहा था
नेहरू जी भी वहां मौज़ूद थे। अप्रैल में वायसराय रीडिंग ने अपने बेटे को भेजे गए पत्र
में लिखा था, 'गांधी की गिरफ़्तारी से मुझे अब तक कोई परेशानी नहीं हुई है।' रीडिंग को इस बात से राहत मिली कि गांधीजी की गिरफ़्तारी से कोई सार्वजनिक
हंगामा नहीं हुआ। गांधीजी को गिरफ्तारी की आशंका थी और उन्होंने यंग इंडिया
के 9 मार्च के अंक में 'अगर मैं गिरफ्तार हो जाऊं' शीर्षक से एक लेख
प्रकाशित किया था। उन्होंने लिखा, 'सरकार द्वारा खून-खराबे की नदियां मुझे डरा नहीं सकतीं, लेकिन अगर लोग मेरे लिए या मेरे नाम पर सरकार को गाली भी दें तो मुझे बहुत दुख
होगा। अगर मेरी गिरफ्तारी पर लोग अपना संतुलन खो देते हैं तो यह मेरे लिए अपमानजनक
होगा। मैं चाहता हूं कि लोग संयम बनाए रखें और मेरी गिरफ्तारी के
दिन को खुशी का दिन मानें।' उनकी गिरफ़्तारी के बाद कोई अव्यवस्था नहीं हुई थी।
गिरफ़्तारी
– गांधी जी का तर्क (1922)
'ग्रेट ट्रायल' के
नाम से मशहूर यह मुकदमा 18 मार्च, 1922 को अहमदाबाद के सरकारी सर्किट हाउस में जिला एवं सत्र
न्यायाधीश न्यायमूर्ति सी.एन. ब्रूमफील्ड के समक्ष चलाया गया। गिरफ्तारी के अगले
दिन प्रारंभिक सुनवाई में गांधीजी ने अपनी उम्र 53 वर्ष बताई और अपना पेशा 'किसान और बुनकर' बताया और अपना अपराध स्वीकार किया। गांधीजी पर
भारतीय दंड संहिता की धारा 124 ए के तहत "ब्रिटिश भारत में विधि द्वारा
स्थापित महामहिम की सरकार के प्रति घृणा या अवमानना उत्पन्न करने या उत्पन्न
करने का प्रयास करने या असंतोष उत्पन्न करने का प्रयास करने" का आरोप लगाया
गया था। ‘यंग इंडिया’ के ‘राजभक्ति में दखल’, ‘समस्या और उसका हल’ और
‘गर्जन-तर्जन’ इन तीन लेखों के आधार पर जिला मजिस्ट्रेट ब्रूमफ़िल्ड की अदालत में
गांधीजी और ‘यंग इंडिया’ के प्रकाशक शंकरलाल बैंकर पर राजद्रोह का केस चला। गांधीजी
पर सरकार के विरुद्ध द्वेष फैलाने का अभियोग लगाया गया था। सर जी.टी. स्त्रैंगमैन
सरकारी पक्ष का वकील था। गांधीजी बैरिस्टर होने के नाते अपने मुकदमों की पैरवी खुद
ही करते थे। 18 मार्च, 1922 को हुआ यह मुकदमा इतना शांत, इतना
व्यवस्थित और
क्रोध रहित था कि इसने दो व्यक्तियों के बीच एक शांत टकराव का चरित्र ग्रहण कर
लिया, जो एक-दूसरे को लंबे समय से जानते और समझते थे। जज, रॉबर्ट ब्रूमफील्ड, एक वकील के बेटे थे और उन्हें कानून का लंबा
अनुभव था। वे 1905 में भारतीय सिविल सेवा से जुड़े एक जूनियर बैरिस्टर के रूप में
भारत आए थे और उन्होंने अपना पूरा सक्रिय जीवन बॉम्बे प्रेसीडेंसी में बिताया था।
वे वास्तव में भारतीयों को पसंद करते थे और गांधीजी के प्रति उनके मन में काफी
सम्मान था जो लगभग स्नेह के बराबर था। न्यायाधीश ब्रूमफील्ड सौम्य और
क्षमाप्रार्थी थे। गांधीजी शांत भाव से संतुष्ट थे और कभी-कभी मुस्कुरा उठते थे। मुकदमे
को शुरू करने के पहले अपनी सीट पर बैठते हुए जज ने अपने प्रतिष्ठित कैदी को
गंभीरता से झुककर प्रणाम किया। गांधीजी ने भी झुककर प्रणाम किया। जज ने बाद में
कहा कि उन्हें पूरी तरह से पता था कि वह एक ऐसे व्यक्ति के साथ पेश आ रहे थे जो
"उच्च आदर्शों और महान और यहां तक कि संत जीवन" का पालन करता था, लेकिन कानून का प्रशासन करना उनका कर्तव्य था, जो संतों का सम्मान नहीं करता था।
गांधीजी ने अदालत में जो बयान दिया उसने सबको
हिला कर रख दिया। गांधीजी ने अपने कार्य का औचित्य सिद्ध करने के सिलसिले में जो
तर्क दिए, उनकी वजह से मुकद्दमा ऐतिहासिक हो गया। हालाकि उन्होंने स्वयं अभियोग
स्वीकार कर लिया था। उन्होंने कहा, “ब्रिटिश संबंधों ने भारत को राजनीतिक और आर्थिक रूप से पहले
से कहीं अधिक असहाय बना दिया है। निहत्थे भारत के पास किसी भी हमलावर के खिलाफ
प्रतिरोध करने की कोई शक्ति नहीं थी। वह इतना गरीब हो गया है कि उसके पास अकाल का
विरोध करने की बहुत कम शक्ति है। कुटीर उद्योग हृदयहीन और अमानवीय प्रक्रियाओं
द्वारा बर्बाद हो गया है। भारत के अर्ध-भूखे लोग धीरे-धीरे बेजान हो रहे हैं।
ब्रिटिश भारत में कानून द्वारा स्थापित सरकार जनता के शोषण के लिए ही काम करती है। ऐसी अन्यायी सल्तनत का जिसने तीस करोड़ निरपराधों को
ग़ुलामी में जकड़ रखा है और लोगों की रोज़ी-रोटी छीनकर नरभक्षी के समान शोषण कर रही
है, उसे सहन करना ईश्वर के प्रति और मानव-गरिमा के प्रति विद्रोह है। इस अत्याचारी
सल्तनत को सहयोग देना सत्य की भर्त्सना है। ऐसी क्रूर सल्तनत का अहिंसक राजद्रोह
कर स्वतंत्रता प्राप्त करना मेरे जीवन का एकमात्र ध्येय है। इसलिए मैं ख़ुशी से यहां
आया हूं और अपना अपराध स्वीकार करते हुए अपने-आपको प्रसन्नतापूर्वक उस कठोरतम दंड
के लिए प्रस्तुत करता हूं जो क़ानून की दृष्टि में सायास अपराध करने पर दी जाती है,
किंतु जो मेरी दृष्टि में एक नागरिक का सर्वोच्च कर्त्तव्य है। मैं हिंसा से बचना
चाहता हूँ। अहिंसा मेरे विश्वास का पहला अनुच्छेद है। यह मेरे पंथ का अंतिम
अनुच्छेद भी है। लेकिन मुझे अपना चुनाव करना था। मुझे या तो उस व्यवस्था को
स्वीकार करना था जिसके बारे में मेरा मानना है कि उसने मेरे देश को अपूरणीय
क्षति पहुँचाई है, या
मेरे लोगों के पागल क्रोध के फूट पड़ने का जोखिम उठाना था, जब उन्होंने मेरे होठों से सच्चाई समझी। मैं
जानता हूँ कि मेरे लोग कभी-कभी पागल हो जाते हैं। मुझे इसके लिए गहरा दुख है, और इसलिए मैं यहाँ एक मामूली सजा नहीं बल्कि
सबसे बड़ी सजा के लिए प्रस्तुत हूँ। जज का भी कर्त्तव्य है कि वह मुझे कड़ी से कड़ी
सज़ा देकर अपने दायित्व का निर्वाह करें।”
6 वर्ष की सज़ा
मुकदमा कोई पौने दो घंटा चला। गांधी जी पर जाँच की
कार्रवाही की अध्यक्षता करने वाले जज जस्टिस सी. एन. ब्रूमफ़ील्ड, जो एक अंग्रेज था, ने बापू के साथ बड़ी मर्यादा और सहानुभूति के साथ व्यवहार
किया। कुर्सी पर बैठने से पहले उसने कटघरे में खड़े दोनों अभियुक्तों को सिर झुकाकर
नमस्कार किया। उसने उन्हें सज़ा सुनाते समय एक महत्वपूर्ण भाषण दिया। जज ने टिप्पणी
की कि, इस तथ्य को नकारना असंभव होगा कि मैंने आज तक जिनकी जाँच की
है अथवा करूँगा आप उनसे भिन्न श्रेणी के हैं। इस तथ्य को नकारना असंभव होगा कि
आपके लाखों देशवासियों की दृष्टि में आप एक महान देशभक्त और नेता हैं। यहाँ तक कि
राजनीति में जो लोग आपसे भिन्न मत रखते हैं वे भी आपको उच्च आदर्शों और पवित्र
जीवन वाले व्यक्ति के रूप में देखते हैं। परन्तु मुझे एक क़ानून के अधीन आपका इंसाफ़
करना है। तिलक को भी इसी दफ़ा (देशद्रोह) के तहत छह साल के क़ैद की सज़ा दी गई है।
मुझे विश्वास है कि मैं यदि आपको भी तिलक के जोड़ में बिठाऊं तो आपको अनुचित न
दिखाई देगा।
अपने कोर्ट में जज कभी खड़ा नहीं होता। अभियुक्त
खड़ा रहता है। जज ब्रूमफ़िल्ड को अपना अप्रिय जजमेंट देते समय इतना क्लेश हुआ कि वह
भी अभियुक्त के सामने खड़ा हो गया और क्षमा मांगते हुए गांधीजी को 6 साल
की जेल की सज़ा सुनाई। गांधीजी ने कहा, “यह मेरे लिए परम सौभाग्य की बात है कि मेरा नाम लोकमान्य
तिलक के नाम के साथ जोड़ा गया। जहाँ तक सजा का सवाल है," उन्होंने आगे कहा, "मैं निश्चित रूप से मानता हूँ कि यह उतनी ही हल्की है जितनी
कोई भी न्यायाधीश मुझे दे सकता है, और जहाँ तक पूरी कार्यवाही का सवाल है, मुझे
कहना होगा कि मैं इससे अधिक शिष्टाचार की उम्मीद नहीं कर सकता था।”
शंकरलाल बैंकर को एक वर्ष की सज़ा और 1,000 रु ज़ुर्माना की सज़ा
दी गई। जज ब्रूमफ़ील्ड ने गांधीजी से कहा कि ‘यदि भारत में घट रही घटनाओं की वजह से सरकार के लिए सजा के इन
वर्षों में कमी और आपको मुक्त करना संभव हुआ तो इससे मुझसे ज्यादा कोई प्रसन्न
नहीं होगा।’
जैसे ही जज बेंच से बाहर निकले, उन्होंने एक बार फिर कैदी (गांधीजी) को प्रणाम
किया, गांधीजी ने भी जवाब में प्रणाम किया। जब
अदालत की कार्यवाही स्थगित हुई, तो कमरे में मौजूद ज़्यादातर दर्शक गांधीजी के पैरों पर गिर
पड़े। कई लोग रो पड़े। जेल ले जाते समय गांधीजी के चेहरे पर सौम्य मुस्कान थी। गांधीजी
को कोई शिकायत नहीं थी। जब उन्होंने भारतीय राजनीति में प्रवेश किया तो उन्हें पता
था कि इसमें जेल जाना शामिल है। यह उनके और दूसरों के लिए भी मायने रखता था। जब भी
उन्हें पता चलता कि कोई मित्र या सहकर्मी गिरफ़्तार हुआ है तो वे बधाई संदेश भेजते
थे। जेल जाना उनके असहयोग के सिद्धांत का एक बुनियादी हिस्सा था। उन्होंने कहा, 'हमें जेल के दरवाज़े चौड़े करने चाहिए और हमें
उनमें उसी तरह से प्रवेश करना चाहिए जैसे दूल्हा दुल्हन के कमरे में प्रवेश करता
है। आज़ादी की चाहत सिर्फ़ जेल की दीवारों के अंदर और कभी-कभी फांसी के तख्ते पर
ही की जा सकती है, कभी भी काउंसिल के कमरों, अदालतों या स्कूल के कमरे में नहीं।' देश को आज़ादी के लिए जगाने के लिए जेल जाना
ज़रूरी था। अंग्रेजों ने उनकी बात मान ली और उन्हें कई बार जेल भेजा। लेकिन यह
आखिरी बार था जब उन्होंने उन पर मुकदमा चलाया।
गांधीजी को एक प्रतीक्षारत मोटर-वैन में पास के
साबरमती जेल ले जाया गया। दो दिन बाद 20 मार्च 1922 की रात्रि को उन्हें
विशेष ट्रेन से पूना के उपनगर किरकी ले जाया गया और वहाँ के यरवदा जेल में रखा
गया। उन्होंने जेल में करीब 150 पुस्तकें पढ़ी। उनमें से हैः- हेनरी जेम्स की ‘दि
वेराइटीज आफ रेलिजस एक्सपीरियंस’, बर्नाड शा की “मैन एण्ड सुपरमैन’, बकल की ‘हिस्ट्री आफ सिविलाइजेशन’, वेल्स
की ‘आउटलाइन
ऑफ हिस्ट्री’, गेटे का ‘फाउस्ट’ और किपिलिंग का ‘बैरेक रूम बैलेड्स’, सुबह-शाम प्रार्थना और कताई का नियम उन्होंने नहीं छोड़ा। इसी
जेल में उन्होंने अपना प्रसिद्ध दक्षिण अफ़्रीका का इतिहास लिखा।
गांधी के अनुयायियों ने इसे "महान
सुनवाई" के रूप में नामाकरण किया, क्योंकि न्यायाधीश और कैदी दोनों ने असाधारण शिष्टाचार के
साथ व्यवहार किया। गांधीजी ने निष्पक्षता और सटीकता के साथ भारत की स्वतंत्रता के
लिए मामला प्रस्तुत किया। सरोजिनी नायडू, जो सुनवाई में मौजूद थीं, ने इसे "आधुनिक समय की सबसे महाकाव्य
घटना" के रूप में वर्णित किया। यह वास्तव में एक आपदा थी, क्योंकि गांधीजी अब जेल की सलाखों के पीछे से
घटनाओं के पाठ्यक्रम को प्रभावित नहीं कर सकते थे और कांग्रेस पार्टी में कोई भी
ऐसा नहीं था जो उनकी जगह ले सके। अगले महीनों में, जब वह यरवदा जेल में अपनी कोठरी में बैठे थे, तो उन्हें कभी-कभी यह सोचना पड़ता था कि वह
अपनी मजबूर चुप्पी के लिए बहुत बड़ी कीमत चुका रहे हैं।
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मनोज कुमार
पिछली कड़ियां- राष्ट्रीय आन्दोलन
संदर्भ : यहाँ पर
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