मंगलवार, 18 फ़रवरी 2025

285. क्या पहला असहयोग आंदोलन असफल रहा?

राष्ट्रीय आन्दोलन

285. क्या पहला असहयोग आंदोलन असफल रहा?



1922

1920 में गांधीजी द्वारा एक वर्ष के भीतर स्वराज लाने के वादे ने आशाओं और आकांक्षाओं को बहुत बढ़ा दिया था। यह नतीज़ा निकालना भी एक भूल होगी कि यह पहला असहयोग आंदोलन असफल रहा। इसने अंग्रेज़ी राज के ख़िलाफ़ पूरे देश में बिजली-सी लहर पैदा की। लोगों में अभूतपूर्व उत्साह पैदा हुई। जनता में, उसकी आर्थिक समस्यायों और राजनीतिक मसलों, विशेषकर साम्राज्यवाद की चेतना जगाने में निश्चय ही उस आंदोलन की देन है। यहां तक कि सीधे-सादे ग्रामीणों ने भी यह महसूस करना शुरु किया कि उनकी तकलीफ़ों को दूर करने की सबसे अच्छी दवा स्वराज है। राष्ट्रीय संघर्ष में हिस्सा लेकर उन्होंने स्वाधीनता के एक नये बोध का अनुभव किया। राज के डर पर विजय पा ली गयी थी। साधारण लोगों ने, स्त्रियों और पुरुषों ने, धनिक और ग़रीब ने, सरकार की अवज्ञा करके दंड के रूप में तकलीफ़ें बर्दाश्त करने की इच्छा और क्षमता दिखाई। खादी पर बल देना गांवों की आवश्यकताओं का एक वास्तविक मूल्यांकन था। इसकी असफलता का बहुत महत्व नहीं था क्योंकि वह केवल अस्थाई ही हो सकती थी। गांधीजी ने स्वयं व्याख्या की, जो संघर्ष 1920 में शुरु हुआ वह निर्णयात्मक संघर्ष है, चाहे वह एक महीना या एक साल चले, चाहे कई महीनों या कई वर्षों तक।

1922 तक गाँधीजी ने भारतीय राष्ट्रवाद को एकदम परिवर्तित कर दिया और इस प्रकार फ़रवरी 1916 में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में अपने भाषण में किए गए वायदे को उन्होंने पूरा किया। अब यह व्यावसायिकों व बुद्धिजीवियों का ही आंदोलन नहीं रह गया था, अब हजारों की संख्या में किसानों, श्रमिकों और कारीगरों ने भी इसमें भाग लेना शुरू कर दिया। इनमें से कई गाँधीजी के प्रति आदर व्यक्त करते हुए उन्हें अपना महात्माकहने लगे। लोगों ने इस बात की प्रशंसा की कि गाँधीजी उनकी ही तरह के वस्त्र पहनते थे, उनकी ही तरह रहते थे और उनकी ही भाषा में बोलते थे। अन्य नेताओं की तरह वे सामान्य जनसमूह से अलग नहीं खड़े होते थे बल्कि वे उनसे समानुभूति रखते तथा उनसे घनिष्ठ संबंध भी स्थापित कर लेते थे। सामान्य जन के साथ इस तरह की पहचान उनके वस्त्रों में विशेष रूप से परिलक्षित होती थी। गाँधीजी लोगों के बीच एक साधारण धोती में जाते थे। इस बीच, प्रत्येक दिन का कुछ हिस्सा वे चरखा चलाने में बिताते थे। अन्य राष्ट्रवादियों को भी उन्होंने ऐसा करने के लिए  प्रोत्साहित किया। सूत कताई के कार्य ने गाँधीजी को पारंपरिक जाति व्यवस्था में प्रचलित मानसिक श्रम और शारीरिक श्रम की दीवार को तोड़ने में मदद दी। गाँधी बाबा’, ‘गाँधी महाराजअथवा सामान्य महात्माजैसे अलग-अलग नामों से ज्ञात गाँधीजी भारतीय किसान के लिए एक उद्धारक के समान थे जो उनकी ऊँची करों और दमनात्मक अधिकारियों से सुरक्षा करने वाले और उनके जीवन में मान-मर्यादा और स्वायत्तता वापस लाने वाले थे। ग़रीबों विशेषकर किसानों के बीच गाँधीजी की अपील को उनकी सात्विक जीवन शैली और उनके द्वारा धोती तथा चरखा जैसे प्रतीकों के विवेकपूर्ण प्रयोग से बहुत बल मिला।

उस समय के भारतीय राजनीति के संदर्भ में देखें तो यह भी कहा जा सकता है कि राष्ट्रवाद के आधार को और व्यापक बनाने में उनकी सफ़लता का राज उनके द्वारा सावधानीपूर्वक किया गया संगठन था। भारत के विभिन्न भागों में कांग्रेस की नई शाखाएँ खोली गयी। रजवाड़ों में राष्ट्रवादी सिद्धान्त को बढ़ावा देने के लिए प्रजा मंडलोंकी एक श्रृंखला स्थापित की गई। गाँधीजी ने राष्ट्रवादी संदेश का संचार शासकों की अंग्रेजी भाषा की जगह मातृ भाषा में करने को प्रोत्साहित किया। इस प्रकार कांग्रेस की प्रांतीय समितियाँ ब्रिटिश भारत की कृत्रिम सीमाओं की अपेक्षा भाषाई क्षेत्रों पर आधारित थीं। इन अलग-अलग तरीकों से राष्ट्रवाद देश के सुदूर हिस्सों तक फ़ैल गया और अब इसमें वे सामाजिक वर्ग भी शामिल हो गए जो अभी तक इससे अछूत थे।

अब तक कांग्रेस के समर्थकों में कुछ बहुत ही समृद्ध व्यापारी और उद्योगपति शामिल हो गए थे। भारतीय उद्यमियों ने यह बात जल्दी ही समझ ली कि उनके अंग्रेज प्रतिद्वंद्वी आज जो लाभ पा रहे हैं, स्वतंत्र भारत में ये चीजें समाप्त हो जाएंगी। जी.डी. बिड़ला जैसे कुछ उद्यमियों ने राष्ट्रीय आंदोलन का खुला समर्थन किया। इस प्रकार गाँधीजी के प्रशंसकों में गरीब किसान और धनी उद्योगपति दोनों ही थे। 1917 और 1922 के बीच भारतीयों के एक बहुत ही प्रतिभाशाली वर्ग ने स्वयं को गाँधीजी से जोड़ लिया। इनमें महादेव देसाई, वल्लभ भाई पटेल, जे.बी. कॄपलानी, सुभाष चंद्र बोस, अबुल कलाम आजाद, जवाहरलाल नेहरू, सरोजिनी नायडू, गोविंद वल्लभ पंत और सी. राजगोपालाचारी शामिल थे। गाँधीजी के ये घनिष्ठ सहयोगी विशेष रूप से भिन्न-भिन्न क्षेत्रों के साथ ही भिन्न-भिन्न धार्मिक परंपराओं से आए थे। इसके बाद उन्होंने अनगिनत अन्य भारतीयों को कांग्रेस में शामिल होने और इसके लिए काम करने के लिए प्रेरित किया।

खिलाफ़त आंदोलन का प्रभाव

अधिकतर नेताओं के जेल में होने के कारण पहला असहयोग आंदोलन बिना जन-व्यापी नागरिक अवज्ञा आंदोलन की शुरुआत के ही ख़त्म हो गया। उसके शीघ्र बाद ही ख़िलाफ़त का प्रश्न भी महत्वपूर्ण नहीं रह गया। कमालपाशा का शासन हो गया और नवंबर 1922 में सुल्तान के सारे राजनैतिक अधिकार छीन लिए गए। उसने तुर्की के आधुनिकीकरण करने और उसे एक धर्मनिरपेक्ष राज्य बनाने का काम शुरु किया। ख़िलाफ़त की परम्परा भी समाप्त कर दी गयी।

कुछ लोग महसूस करते हैं कि खिलाफ़त आंदोलन सुविचारित नहीं था, प्रतिगामी था क्योंकि अंततः एक समय उसने एक राजनैतिक आंदोलन में धार्मिक भावधारा का समावेश किया। उससे हिन्दू-मुस्लिम एकता की उपलब्धि नहीं हुई। ऐसे लोग मानते हैं कि ख़िलाफ़त आन्दोलन एक भूल थी।

किन्तु अच्छी तरह से देखने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि खिलाफ़त आंदोलन ने निश्चय ही शहरी मुसलमानों को राष्ट्रीय आन्दोलन में शरीक़ किया। उस समय सभी वर्गों के लोगों में आंदोलन के उत्साह का बोध जागा था। व्यापक स्तर पर उत्साह था और इसका एक बड़ा कारण ख़िलाफ़त ही था।

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मनोज कुमार

 

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संदर्भ : यहाँ पर

 

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