282. नागरिक अवज्ञा
आंदोलन का प्रस्ताव
1921
असहयोग आंदोलन
के द्वारा कांग्रेस की लोकप्रियता बढने लगी। पहले महीने में ही 10,000 छात्रों ने सरकारी स्कूलों को छोड़ दिया और राष्ट्रीय
स्कूलों में भर्ती हो गए। शिक्षा का बहिष्कार पश्चिम में सबसे अधिक सफल रहा।
कलकत्ता के विद्यार्थियों ने राज्यव्यापी हड़ताल की। उनकी मांग थी कि स्कूलों के
प्रबंधक सरकार से अपना रिश्ता तोड़े। सी.आर. दास ने इस आंदोलन को बहुत प्रोत्साहित
किया और सुभाष चंद्र बोस “नेशनल कॉलेज,
कलकत्ता” के प्रधानाचार्य
बन गये।
लोग एक जगह इकट्ठा होते और कपड़ों की होली जलायी
जाती। गांधीजी जगह-जगह की यात्रा कर लोगों से अपील करते कि आप लोग पूरा कपड़ा न
सही, विरोध जताने के लिए अपनी पगड़ी, दुपट्टा या टोपी को ही उतार दीजिए। इन कपड़ों
की होली जलायी जाती। इसका नतीजा यह हुआ कि 1920-21 में जहां एक अरब दो करोड़ रुपये मूल्य के विदेशी कपड़ों का
आयात हुआ था, वहीं 1921-22 में यह घट कर 57 करोड़ हो गया। गांधीजी के आह्वान पर किए गए
बहिष्कार आंदोलन में शिक्षा का बहिष्कार, वकीलों द्वारा अदालतों का बहिष्कार और जो
सबसे ज़्यादा सफल रहा वह था
विदेशी कपड़ों का बहिष्कार का कार्यक्रम। विदेशी कपड़ों के बहिष्कार के राष्ट्रीय
आंदोलन के कारण जिस चीज़ का ख़ूब प्रचार हुआ वह था चरखा और खादी। बंबई की 28-30 जुलाई की कांग्रेस कमेटी की बैठक
में अधिक संघर्षपूर्ण रुख़ अपनाने का निर्णय लिया गया। इसमें विदेशी कपड़ों का
बहिष्कार और प्रिंस ऑफ वेल्स के भावी आगमन के बहिष्कार का प्रस्ताव शामिल था।
गांधी जी आंदोलन को धीरे-धीरे आगे बढाना चाहते
थे। करों की नाअदायगी के माध्यम से पूरी तरह से सविनय अवज्ञा आंदोलन के विचार को
उन्होंने फिर से स्थगित कर दिया था। वे कुछ ख़ास शर्तों पर नागरिक अवज्ञा आंदोलन
चलाना चाहते थे। पूरे आंदोलन को देश के राजनैतिक स्तर के अनुरूप विभिन्न क्रमागत
चरणों में बड़ी सावधानी से उन्होंने विभाजित किया था। असहयोग का कार्यक्रम
व्यक्तियों द्वारा सरकारी उपाधियों और अवैतनिक पदों को छोड़ने से शुरू होता था और
करबंदी और सामूहिक रूप से क़ानून के सविनय भंग से समाप्त होता था। आंदोलन के इन
दोनों छोरों के बीच जनता की राष्ट्रीय भावनाओं को अभिव्यक्त करने वाले और भी कई कार्यक्रम
थे जो लोगों को अनुशासनबद्ध करने के साथ-साथ उन्हें जन-आंदोलन के लिए तैयार करते
थे। जैसे अछूतोद्धार, राष्ट्रीय विद्यापीठ की स्थापना, अदालतों का बहिष्कार,
पंचायतों में आपसी झगड़ों का निपटारा. स्वयंसेवकों का संगठन, शराब की दूकानों पर
धरना, विदेशी कपड़ों का बहिष्कार और खादी का प्रचार आदि कार्यक्रम जनता को संगठित
करने के ठोस और व्यावहारिक उपाय थे। गांधीजी अहिंसक रहकर असहयोग के कार्यक्रम को
धीरे-धीरे बढ़ाने का विचार रखते थे। गांधीजी ने इन कार्यक्रमों को चलाए जाने की साथ
ही इस बात की भी सतर्कता रखी कि कहीं सामाजिक और आर्थिक विद्रोह की ज्वालाएं न भड़क
उठें। इसलिए उन्होंने करबंदी में सरकार को कर देने की मनाही के बावज़ूद किसानों को
यह सलाह दी कि वे अपने ज़मींदारों को बराबर कर देते रहें। मज़दूरों को सलाह दी कि
अपने मालिकों से छुट्टी लेकर ही हड़ताल में शरीक हों।
उनके लिए स्वराज का अर्थ था राजनैतिक
स्वतंत्रता और जनतंत्रीय शासन-प्रणाली। वे कभी किसी समस्या पर बौद्धिक दृष्टिकोण
से विचार करने की आवश्यकता पर ज़ोर नहीं देते थे। वे तो सादा चरित्र और पवित्रता का
गुण-गान करते थे। उन्होंने भारतीय जनता की रीढ़ की हड्डी को शक्ति प्रदान की।
उन्हें चरित्रवान बनाया। पिछड़ी और निराश जनता ने उनके नेतृत्व में अपनी पीठ सीधी
की और अपना सिर ऊपर उठाया। जनता एक देशव्यापी अनुशासित और संयुक्त आंदोलन में भाग
लेने लगी।
राजनैतिक या आर्थिक न्याय दूर करने के लिए
चलाये जा रहे इस आंदोलन की सबसे पहली और सबसे प्रमुख शर्त थी इसका अहिंसक होना। सरकार
की हिंसात्मक कार्रवाई से उन्हें डर नहीं लगता था, उससे तो आंदोलनकारियों का जोश और संख्या-बल बढ़ता ही है। असली डर तो
उन्हें जनता की हिंसात्मक कार्रवाइयों से था, क्योंकि उससे आंदोलन कमज़ोर होता,
अराजकता फैलती और सरकार को ख़ून-ख़राबा करने का मौक़ा मिलता। मोपला के विद्रोह और
बंबई के दंगों की वजह से गांधी जी बेचैन हो उठे। उन्होने आंदोलन को शहरों से, जहां
अहिंसा असफल हो गयी थी, हटाकर गांवों में तेज़ करने का फैसला किया। उन्होंने
अंग्रेज़ी सरकार को चुनौती देते हुए कहा, “देश के सामने सिवाय इसके कोई चारा नहीं है कि वह अपनी
मांगों को पूरा कराने के लिए अहिंसा का कोई तरीक़ा अपनाये।”
नेताजी सुभाषचन्द्र
बोस-गांधी मिलन
20, जुलाई 1921 बोस और गांधी जी की पहली मुलाक़ात हुई, और उन्हें बापू से मिलने की सलाह गुरुदेव
रवीन्द्र नाथ ठाकुर ने दी थी। 23 जनवरी, 1897 को बंगाल में जन्मे सुभाषचन्द्र बोस में राष्ट्रप्रेम की
भावना कूट-कूट कर भरी हुई थी। कोलकाता के प्रेसिडेन्सी कॉलेज में जब वे पढ़ा करते
थे, तो एक अंग्रेज़ प्रोफ़ेसर ई.एफ़. ओटन ने दो-तीन छात्रों को इसलिए तमाचा जड़ दिया
था कि वे क्रांतिकारी देशभक्तों की प्रशंसा कर रहे थे। नेता जी को यह बात नागवार
गुज़री और उन्होंने प्रिंसिपल से शिकायत करते हुए उस प्रोफ़ेसर के ख़िलाफ़ सख़्त
कार्रवाई की मांग की। पर उनकी मांग नहीं सुनी गई। छात्रों के साथ उस प्रोफ़ेसर को
सरे आम तमाचा जड़ने के आरोप में उन्हें कॉलेज से निष्कासित कर दिया गया।
पिता जानकीनाथ बसु की दिली ख़्वाहिश थी कि बेटा भारतीय
असैनिक सेवा में जाए। तैयारी के लिए नेता जी को इंगलैंड भेजा गया। 1920 की सिविल सर्विस परीक्षा में शामिल हुए और
चौथी रैंक हासिल कर उन्होंने सफलता प्राप्त की। पर तब तक देश की स्थिति से वे बहुत
ही उद्वेलित रहने लगे थे। भारत की ग़ुलामी और अंगरेज़ों के अत्याचार ने उनकी इस
सफलता को फींका कर दिया था। वे आई.सी.एस. में जाना नहीं चाहते थे। इस सरकारी नौकरी
से सुख और वैभव ज़रूर मिलता लेकिन वे अपनी आत्मा की आवाज़ को कुचल नहीं पा रहे थे।
उन्होंने सरकारी नौकरी करने से इंकार कर दिया। इंगलैंड से लौट आए।
भारत वापस आते ही गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर से मिलने
पहुंचे। गुरुदेव को अपनी समस्या और इच्छा बताई। कविगुरु ठाकुर ने उन्हें उस समय
देश के अंदोलन की क्षितिज पर उग चुके सूरज महात्मा गांधी से मिलने की सलाह दी।
नेता जी मुम्बई गए। महात्मा से मिले। मुम्बई में गांधीजी मणिभवन में निवास करते
थे। 20 जुलाई 1921 को गाँधी और सुभाष के बीच पहली मुलाकात हुई। गांधीजी ने उन्हें कोलकाता में जाकर चितरंजन
दास के साथ काम करने की सलाह दी। वापस कोलकाता आकर नेता जी चितरंजन दास से मिले, देशबंधु
को उनसे मिलकर बहुत ख़ुशी हुई। उसके बाद से नेताजी सुभाषचन्द्र बोस न सिर्फ़
स्वतंत्रता संग्राम में जम कर हिस्सा लिया बल्कि उसी साल यानी 1921 में अपने जीवन की ग्यारह जेल यात्राओं में
पहली बार 16 जुलाई 1921 को जेल भी गए।
कोलकाता के स्वतंत्रता सेनानी देशबंधु चितरंजन दास के
नेतृत्व में गठित स्वराज पार्टी को मार्च 1924 में कोलकाता महापालिका में बहुमत दिलाकर
महापालिका के प्रमुख अधिकारी बने।
असहयोग आन्दोलन की यात्रा में गांधीजी मदुरई
पहुंचे। वहां के मीनाक्षी मंदिर के प्रांगण में एक सभा का आयोजन हुआ। गांधीजी ने
लोगों से विलायती कपड़े जला देने की अपील की। गांधी जी खादी पहनने की अपील कर रहे थे, तो कुछ लोगों ने शिकायत की कि खादी बहुत मंहगी है। इस पर
गांधीजी ने एक सुझाव दिया कि कम कपड़े पहनिए। एक ग़रीब युवक ने उठकर कहा, मेरे पास तो ये पहने हुए ही कपड़े
हैं। इन्हें भी जला दूं तो पहनूंगा क्या? गांधीजी ने कहा, देशी लुंगी पहनकर रह
जाना लेकिन विलायती कपड़े जलाना ही धर्म है। उस रात गांधीजी काफ़ी बेचैन रहे। उनके
कानों में उस युवक के शब्द गूंज रहे थे। सुबह होने पर उन्होंने राजाजी से कहा, देश
के करोड़ों निर्धनों के देख के सहभागी बनने के लिए वे घुटने तक की धोती पहनेंगे और
कमीज़ आदि सिले कपड़ों का त्याग करेगे। इस प्रण के साथ गांधीजी ने अपनी आवश्यकता को
देश के ग़रीब से ग़रीब व्यक्ति के स्तर पर सीमित कर लिया। तब से (20 दिसम्बर, 1921) वे ताउम्र पूरे वस्त्र कभी नहीं पहने। गांधी जी ने ख़ुद
उस दिन से कुरता और धोती पहनना छोड़ दिया। लंगोटी पहनने लगे और जीवन भर नंगे फ़कीर
की तरह रहे। ऐसे थे गांधी जी। कथनी और करनी में फ़र्क़ नहीं।
गांधी जी के दृष्टिकोण का एक महत्त्वपूर्ण पहलू यह भी था कि
वे व्यवहार को सिद्धान्त से, तथा कर्म को विश्वास से अलग नहीं करते थे। उनके सत्य और
अहिंसा केवल गुंजायमान भाषणों और लेखों के लिए नहीं अपितु दैनिक जीवन के लिए थे।
इस अवधि में आर्थिक बहिष्कार काफ़ी तीव्र रहा। पिछले एक
वर्षों में विदेशी कपड़ों का आयात 102 करोड़ रुपयों से गिरकर 57 करोड़ का रह गया था। ब्रिटिश सूती
थानों के आयात में भारी गिरावट आई। व्यापारी वर्ग का समर्थन मिलने से कांग्रेस की
आर्थिक स्थिति में सुधार हुआ। असहयोग आंदोलन को व्यापारी वर्ग का समर्थन देखकर
ब्रिटिश सरकार ने अक्तूबर, 1921 में भारतीय प्रतिनिधि वाले एक वित्तीय आयोग का गठन
किया, ताकि भारतीय उद्योगों में शुल्क पद्धति को सुरक्षित रखने के प्रश्न पर विचार
किया जा सके। राष्ट्रवादी स्वदेशी आंदोलन से कपड़ा उद्योग को लाभ हुआ। इसने न सिर्फ़
मिल मालिकों के प्रभाव को बढ़ाया बल्कि उनके माल की बिक्री भी बढ़ाई। हां, इस दौरान
पूंजी और श्रम के बीच के संबंधों को नियमित करने के लिए कई श्रमिक आंदोलन भी हुए।
प्रिन्स
ऑफ वेल्स के आगमन के बहिष्कार के कारण दंगा
प्रिंस आफ वेल्स के भारतगआगमन के समय, अशोभनीय
घटनाएं रोकने के उद्देश्य से, लार्ड रीडिंग दिसम्बर 1921 में
गांधीजी तथा अन्य नेताओं के साथ गोल-मेज सम्मेलन करके समझौता कर लेना चाहते थे।
लेकिन लार्ड रीडिंग इस स्थिति में नहीं थे कि वह भारतीयों को महत्वपूर्ण राजनैतिक
अधिकार दे सकें। इस बीच गांधीजी पर उनके साथियों का दबाव बढ़ता जा रहा था कि वह
सविनय अवज्ञा-आन्दोलन शुरू करें।
17 नवंबर को प्रिंस ऑफ वेल्स बंबई आए। उस दिन पूरे भारत में हड़ताल थी। उसके
सरकारी स्वागत समारोह में असहयोग आंदोलन में भाग लेने वाले लोगों में से कोई नहीं
था। गांधीजी उन दिनों बंबई में ही थे। सवेरे एलफिंस्टन मिल के अहाते में एक विशाल
जन सभा में उन्होंने विदेशी कपड़ों की होली जलाई थी। तीसरे पहर शहर में दंगा हो
गया। गांधीजी की सभा से लौटने वालों और प्रिंस ऑफ वेल्स के स्वागत समारोह में भाग
लेने वालों में संघर्ष हो गया। उस दंगे में 58 लोग मारे गए और 381 घायल हो गए थे। गांधीजी ने ख़ुद
जाकर लोगों को समझाया, तीन दिनों तक उपवास भी किया, तब जाकर शांति स्थापित हो सकी।
उस समय जनता के नाम अपने संदेश में गांधीजी ने कहा था, “असहयोग करने वालों की अहिंसा ने तो
सहयोग करने वालों की हिंसा को भी मात दे दिया है। ... पिछले दो दिनों में स्वराज्य
का जो रूप मुझे देखने को मिला है, उसमें मुझे स्वराज्य की सड़ांध आ रही है”। बम्बई में जो दंगा हुआ उससे गांधीजी बारदोली के एकमात्र
चुनिंदा ताल्लुके में किए जाने वाले सविनय अवज्ञा आन्दोलन को आरम्भ न करने पर विवश
हो गए थे।
असहयोग आन्दोलन ने
कांग्रेस में नई ऊर्जा भर दी थी। आंदोलनकारियों का हौसला बढ़ता जा रहा था। जगह-जगह
सविनय अवज्ञा आंदोलन भी चल रहा था। असहयोग आंदोलन इस पर अप्रत्यक्ष रूप से प्रभाव
डाल रहा था। यह अंदाज लगाना मुश्किल हो गया था कि बैठक असहयोग आंदोलनकारियों की है
या अन्य आंदोलनकारियों की। विद्यार्थियों, वकीलों, किसानों, मज़दूरों, आदि द्वारा
देशभर में अनेकों आदोलन चलाए जा रहे थे। असहयोग आंदोलन ने तमाम स्थानीय आंदोलन को
जन्म दिया। कहीं-कहीं आंदोलन की नीतियों और अहिंसा के सिद्धांत में ताल-मेल का
अभाव ज़रूर दिखता था। अब तक सरकार यह मानती आ रही थी कि दमन से विद्रोह की आग
भड़केगी। जो लोग मारे जाएंगे उन्हें शहीद का दर्ज़ा दे दिया जाएगा। इसलिए
समझाने-बुझाने की नीति अपनाई जा रही थी। लेकिन 1921 के आख़िरी महीनी में जो हालत थे
उसमें सरकार को समझ आ गया कि अब इन मामलों को अनदेखा नहीं किया जा सकता। सरकार ने
दमन का रास्ता अपना लिया। स्वयंसेवी संगठनों को ग़ैरक़ानूनी घोषित कर दिया गया और
इसके सदस्यों को गिरफ़्तार किया जाने लगा। सबसे पहले सी.आर. दास गिरफ़्तार किए गए
फिर उनकी पत्नी बासंती देवी भी गिरफ़्तार कर ली गईं। इसके ख़िलाफ़ बंगाल भयंकर विरोध हुआ।
हज़ारों लोगों ने गिरफ़्तारियां दीं। दो महीने के भीतर 30 हज़ार लोग जेल के अन्दर थे। लगभग
सभी बड़े नेता गिरफ़्तार कर लिए गए थे, केवल गांधीजी ही जेल के बाहर थे।
सरकार द्वारा दिसम्बर
के मध्य में मालवीय जी से मध्यस्थता कर मामले को सुलझाने की कोशिश आरंभ हुई। लेकिन
इस कोशिश में बहुत सी शर्तें थीं। कई
चीज़ें तो ख़िलाफ़त आंदोलन के विरुद्ध थीं। गांधीजी ने इसे स्वीकार नहीं किया। दमन का
दौर चलता रहा। बैठकों और सभाओं पर प्रतिबंध लगा दिया गया। कांग्रेस और ख़िलाफ़त
कार्यालयों पर रात में छापे मारे जाते।
गांधीजी पर राष्ट्रीय स्तर पर सविनय अवज्ञा
आंदोलन छेड़ने के लिए लगातार दबाव पड़ रहा था। दिसम्बर, 1921 में
अहमदाबाद में पहली बार कांग्रेस अधिवेशन हुआ। वल्लभभाई पटेल स्वागत समिति के
अध्यक्ष थे। देशबंधु अध्यक्ष चुने गए। सारे शहर में गजब का उत्साह था। सरकार यह
सारा उत्साह देखकर घबरा गई। कांग्रेस अध्यक्ष देशबंधु चितरंजन दास एक स्पेशल ट्रेन
से अहमदाबाद जा रहे थे। उनके अहमदाबाद पहुंचने के पहले ही उन्हें गिफ़्तार कर लिया
गया। सरकार को लगा कि अध्यक्ष की गिरफ़्तारी से सत्याग्रहियों का उत्साह ठंडा पड़
जाएगा। लेकिन वह ग़लत थी। दिल्ली के हकीम अजमलख़ान को कांग्रेस का अध्यक्ष चुना गया।
उनकी अध्यक्षता में अधिवेशन सम्पन्न हुआ। इस अधिवेशन में ‘गवर्नमेंट ऑफ इंडिया
एक्ट’ पर विचार किया गया। इस एक्ट के विरोध में गांधीजी को जन-आन्दोलन शुरू करने
का पूरा अधिकार दे दिया गया था। भावी रणनीति तय करने की पूरी जिम्मेदारी गांधीजी
को सौंप दी गई थी। गांधीजी ने कहा था, “मैं शांति का पुजारी हूं। मैं शांति में विश्वास रखता हूं।
लकिन मैं हर क़ीमत पर शांति नहीं चाहता। मैं वह शांति नहीं चाहता जो आपको पत्थर में
दिखाई देती है, मैं वह शांति नहीं चाहता जो आपको क़ब्रिस्तान में दिखाई देती है
...। ... जनता द्वारा सविनय अवज्ञा आन्दोलन एक भूकम्प होता है, राजनैतिक
पैमाने पर एक भारी उथल-पुथल, सरकार बिल्कुल ठप्प हो जाती है; पुलिस
थाने, अदालतें और सरकारी दफ्तर आदि सरकार की सम्पत्ति नहीं रह
जाते। जनता उन्हें अपने अधिकार में ले लेती है।” गांधीजी धीरे-धीरे आगे बढ़ना चाहते थे। वह सविनय अवज्ञा को
पहले एक जिले में शुरू करना चाहते थे। वहां सफल हो जाने पर दूसरे में, फिर
तीसरे जिले में। उनकी योजना थी कि इसी तरह सारे देश में उसे फैलाया जाए। उन्होंने
बहुत साफ चेतावनी दे दी थी कि यदि देश के किसी भाग में, किसी
भी रूप में, हिंसात्मक घटनाएं हुई तो आन्दोलन नहीं रह सकेगा, जैसे
“एक तार के टूट जाने से भी वीणा का स्वर बेसुरा हो जाता है।”
गांधीजी वायसराय को पत्र लिखकर ने घोषणा की कि
बारडोली में जन-सत्याग्रह शुरू किया जाएगा। सरकार ने जवाब दिया, आंदोलन करोगे तो
कठोर दमन से उसे कुचल दिया जाएगा। कांग्रेस और सरकार दोनों ही सीधी भिड़न्त के लिए
आमने-सामने खड़े थे।
*** *** ***
मनोज कुमार
पिछली कड़ियां- राष्ट्रीय आन्दोलन
संदर्भ : यहाँ पर
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
आपका मूल्यांकन – हमारा पथ-प्रदर्शक होंगा।