राष्ट्रीय आन्दोलन
280. सांप्रदायिक वैमनस्य-2
सांप्रदायिकता का भयंकर प्रसार
राष्ट्रवादी नेतृत्व ने सांप्रदायिक राजनीति को रोकने की
बहुत कोशिश की लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली। बातचीत से समस्या का समाधान नहीं हुआ
और कोई असरदार प्रणाली वे विकसित कर नहीं पाए। 1928 के दौरान साइमन कमीशन का सामना करने के लिए सांप्रदायिक मुद्दों को
सुलझाना ज़रूरी था। 1927 के दिसंबर महीने में दिल्ली में एक
बैठक भी बुलाई गई। चार सूत्री फार्मूला बनाया जिसमें यह बात थी कि केन्द्रीय
विधायिका में मुसलमानों को 33.33% प्रतिनिधित्व मिले। नेहरू
रिपोर्ट में यह व्यवस्था दी गई थी कि हिन्दुस्तान का ढांचा भाषावार प्रांतों के
आधार पर बने, केन्द्रीय और प्रांतीय विधायिकाओं में धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए
उनकी आबादी के अनुपात में सीटें आरक्षित रहें। कलकत्ता सम्मेलन में नेहरू रिपोर्ट
पर सहमति नहीं बन सकी। मुसलिम सांप्रदायिकता वादियों में काफ़ी मतभेद था। जिन्ना ने
कुछ संशोधन पेश किए लेकिन कई मुसलिम नेताओं को पृथक मतदाता मंडल की व्यवस्था छोड़ना
कतई मंज़ूर नहीं था। अधिकांश मुसलिम संप्रदायवादी एक हो गए। जिन्ना ने भी उनका साथ
देना शुरू कर दिया। नेहरू रिपोर्ट को हिन्दू हितों का दस्तावेज़ कहा गया। जिन्ना ने
14 सूत्री मांग तैयार किया। बाद के दिनों में भी जिन्ना के
ये 14 सूत्र सांप्रदायिक प्रचार का आधार बने रहे।
धर्मनिरपेक्षता के प्रति कांग्रेस के बड़े-बड़े नेताओं के प्रतिबद्ध रहने बावज़ूद कई
बार राजनीतिक सवालों को धार्मिक रंग दे दिया जाता। जेल से छूटकर आने के बाद सितंबर, 1924 में गांधीजी ने 21 दिनों का उपवास करके दंगों में प्रदर्शित अमानुषिकता
पर पश्चाताप करने और सांप्रदायिकता के प्रसार को रोकने की कोशिश की। लेकिन उसका
बहुत कम असर हुआ। अगले दो वर्षों में सांप्रदायिकता का प्रसार और भयंकर ढंग से हुआ।
धर्मनिरपेक्षता के प्रति कांग्रेस के बड़े-बड़े
नेताओं के प्रतिबद्ध रहने बावज़ूद भी कई बार राजनीतिक सवालों को धार्मिक रंग दे
दिया जाता। लेकिन 1930 तक अभी भी सांप्रदायिकता शहरों तक ही सीमित
थी। गांवों में नहीं फैली थी। जनसाधारण में हिंदू सांप्रदायिकता ने कोई खास पैठ
नहीं बनाई थी। मुसलिम सांप्रदायिकता का भी सामाजिक आधार कोई खास विस्तृत नहीं था।
साइमन कमीशन का बहिष्कार और फिर सिविल नाफ़रमानी आन्दोलन के दौरान 1930 से 1934 तक सांप्रदायिकता नेपथ्य
में चला गया था। राष्ट्रीय आंदोलन का दायरा बढ़ा। हां, गोलमेज सम्मेलन में सांप्रदायिक
नेताओं को आगे आने का मौक़ा मिला उन्होंने ब्रिटिश शासक वर्गों से हाथ मिलाया।
लेकिन कमोबेश 1937 तक सांप्रदायिक समूहों की स्थिति कमज़ोर ही
रही।
1937 तक अधिकांश सांप्रदायिकता
नरमपंथी ही थी। यह मानता था कि भारत का निर्माण ऐसे विभिन्न धर्मों पर आधारित
समुदायों से हुआ है, जिनके अपने अलग-अलग और विशेष हित हैं। उन हितों में कभी-कभी
टकराव की नौबत आ जाती है। फिर यह माना जाता रहा कि इन विभिन्न सांप्रदायिक हितों
के परस्पर समाहित किया जा सकता है तथा सामान्य राष्ट्रीय हितों से उनकी संगति
बैठाई जा सकती है और इस प्रकार भारत को एक नया राष्ट्र बनाया जा सकता है। 1937 के बाद सांप्रदायिक
विचारधारा का रुख़ उग्र हो गया। भय और घृणा के वातावरण का सृजन हुआ। आचरण हिंसक हो
गया। राजनीतिक विरोधियों को दुश्मन माना जाने लगा। एक-दूसरे के धर्म और संस्कृति
को अपने धर्म और संस्कृति पर ख़तरा माना जाने लगा। अलग राष्ट्र का सिद्धांत सामने
आया।
1937 के बाद के काल में जिस
उग्र सांप्रदायिकता ने उफान मारा वह घृणा, भय और अतार्किकता की राजनीति का स्वरूप
लिए हुए था। इस दौर में यह मान लिया गया कि झूठ जितना बड़ा होगा, उतना ही ज़्यादा
काम करेगा। इस दौर में कांग्रेस और गांधीजी के ख़िलाफ़ तरह-तरह के ज़हर उगले गए। इस
सांप्रदायिकता ने अपना सामाजिक आधार भी विस्तृत किया। उन मुद्दों को प्रमुखता दी
गई जो जन भावनाओं को उभारते थे। इस दौर में
सांप्रदायिकता औपनिवेशिक अधिकारियों का एकमात्र राजनीतिक औज़ार और ‘फूट डालो और राज
करो’ की अपनी नीति चलाने का एकमात्र माध्यम हो गई थी। अंग्रेज़ों की संपूर्ण राज्य-शक्ति
मुसलिम सांप्रदायिकता का साथ देने लगी। ब्रिटिश सरकार ने 1937 में सांप्रदायिक निर्णय का अपना हल भारतीयों पर थोप दिया। इस
निर्णय के द्वारा मुस्लिम नेताओं की सभी मुख्य मांगें स्वीकार कर ली गईं, जिनमें
जिन्ना के 14 सूत्री फार्मूला
भी था। इस निर्णय में सांप्रदायिक मताधिकार (पृथक निर्वाचन) का समावेश कांग्रेसी
नेताओं को बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगा था। लेकिन जब तक कोई सर्वसम्मत हल न निकले तब
तक के लिए कांग्रेस ने इसे स्वीकार कर लिया। जिस निर्णय से हिन्दू-मुस्लिम विवाद के
समाप्त हो जाने की आशा की गई थी, वह आने वाले वर्षों में और अधिक उग्र और विषम
होता चला गया। साम्प्रदायिक समस्या ने भारतीय राजनीति को जो ग़लत मोड़ दिया उसका
मुख्य कारक मुहम्मद अली जिन्ना था। लीग को मुसलमानों का
एकमात्र प्रवक्ता मान लिया गया। वह किसी भी राजनीतिक समझौते के ख़िलाफ़ अपना ‘वीटो’
लगा सकती थी। ‘हिंदू मुसलिम एकता के राजदूत’ (यह उपाधि उन्हें सरोजिनी नायडू ने दी
थी) के रूप में जिस आदमी ने अपनी राजनीतिक यात्रा शुरू की थी, उसने अब पाकिस्तान
की मांग शुरू कर दी। उसने घृणा और भय पर आधारित राजनीति को आगे बढ़ाना शुरू कर
दिया। मुसलमानों के बीच असुरक्षा की भावना पैदा कर वह उन्हें समझाने लगा कि
कांग्रेसी अंग्रेज़ों से मिलकर हिंदू राज क़ायम करना चाहते हैं। वे भारत से इसलाम का
नामोनिशान मिटा देना चाहते हैं। जब जिन्ना जैसे नेता ने ऐसी भाषा अपना ली, तो
सुलेरी और द्र्रानी जैसों ने तो सारी हदें पार कर दीं। भय और घृणा के बीज दोनों ओर
बोए जा रहे थे। इसकी फसल सबसे पहले कलकत्ता में काटी गई, जब 1946 में पांच दिनों में पांच
हज़ार लोग मौत के घाट उतार दिए गए। फिर तो ख़ूनी सिलसिला ही चल पड़ा। नोआखाली, बिहार
और देश के अन्य भागों में दोनों क़ौमों के लोगों को मौत के घाट उतारा जाता रहा।
विभाजन के दौरान इसका सबसे भयानक रूप देखने को मिला।
सांप्रदायिकता का इस्तेमाल राष्ट्रीय आंदोलन को
रोकने और कमज़ोर करने में
सुमित सरकार का कहना है, शोषक और शोषित के अलग-अलग धर्मों के मानने वाले होने के कारण भी
सांप्रदायिकता को एक आयाम मिलता था। असंतोष या हितों के संघर्ष को धर्म या
संप्रदाय से कुछ भी लेना-देना नहीं था। राजनीतिक रूप से जागरूक नहीं होने के कारण प्रायः
लोग उन्हें सांप्रदायिक संघर्ष कह देते थे। ऐसे लोगों के द्वारा वास्तविक समस्याओं
को सांप्रदायिक समस्याओं के रूप में पेश किया जाता था। शोषक वर्ग के अधिकांश
ज़मींदार हिंदू थे, जबकि शोषितों में अगर अधिकांश मुसलिम होते तो सांप्रदायिकता
वादियों द्वारा यह ऐसे पेश किया जाता मानों हिंदू मुसलिम का शोषण कर रहे हैं या
मुसलमानों के कारण हिन्दुओं की सम्पत्ति ख़तरे में है। यह ग़लत प्रचार काम कर जाता
और सांप्रदायिक उग्रता ग्रहण कर लेता। अंग्रेजों ने निहित स्वार्थों के कारण
सांप्रदायिकता को जानबूझकर प्रोत्साहित किया ताकि ‘फूट डालो और राज करो’ के लक्ष्यों
की प्राप्ति में उन्हें आसानी हो। उन्हें सफलता भी मिली। उसने सांप्रदायिकता का
इस्तेमाल राष्ट्रीय आंदोलन को रोकने और उसे कमज़ोर करने में किया। इसके पीछे उसने
तर्क यह दिया कि अल्पसंख्यकों की रक्षा के लिए सांप्रदायिक विभाजन ज़रूरी था। इस
तरह से राष्ट्रीय एकता के उदय को रोकने के लिए इसका इस्तेमाल किया गया। आगे चलकर तो
यही उपनिवेशवाद का मुख्य स्तंभ बन गया। औपनिवेशिक हुक़ूमत ने सांप्रदायिकता को इस
तरह बढ़ावा दिया कि उसके ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई न करने की नीति ही बना ली।
भारत में हिंदू और मुसलमान में सामाजिक,
राजनीति और आर्थिक रूप से बहुत सारी समानता थी। इसलिए हम कह सकते हैं कि भारतीय
जनता का सांप्रदायिक विभाजन अवास्तविक था और इसका उद्देश्य था विकसित हो रही
राष्ट्रीय एकता में दरार पैदा करना, इसे कमज़ोर करना। सांप्रदायिकतावादी जिन चीज़ों
को समस्याओं के रूप में पेश करते थे, वे वास्तविक समस्याएं थीं ही नहीं।
सांप्रदायिकता अतीत की विरासत थी ही नहीं। वे प्राचीन या मध्ययुगीन विचारधाराओं का
इस्तेमाल ज़रूर करते थे, लेकिन सांप्रदायिकता मूलतः एक आधुनिक विचारधारा थी। यह
आधुनिक सामाजिक समूहों की राजनीतिक, सामाजिक आकांक्षाओं को व्यक्त करती थी।
सांप्रदायिकता का उदय आधुनिक राजनीति के उदय से जुड़ा हुआ था। सांप्रदायिकता का उदय
तभी संभव हुआ जब जनता की भागीदारी, जन-जागरण और जनमत के आधार पर चलने वाली राजनीति
शुरू हो चुकी थी। 1857 के पहले उच्च वर्ग का वर्चस्व था और जनसाधारण
उपेक्षित वर्ग था। जनता विद्रोह करती थी। अगर विद्रोह सफल हुआ तो उसे शासक वर्ग
में शामिल कर लिया जाता था। भारत में सांप्रदायिक चेतना का जन्म उपनिवेशवाद के
दबाव और उसके ख़िलाफ़ संघर्ष करने की ज़रूरत से उत्पन्न परिवर्तनों के कारण हुआ। जब
देश के एकीकरण और आधुनिक राष्ट्र बनाने की प्रक्रिया आगे बढ़ी भारतीय जनता का
अंतर्विरोध भी बढ़ा। भारतीयों में राजनीति चेतना के विकास के साथ-साथ आधुनिक
सामाजिक वर्गों का निर्माण हुआ। राष्ट्रीयता, सांस्कृतिक विकास, भाषाई विकास और
वर्ग संघर्ष जैसी आधुनिक धारणाओं का प्रसार हुआ। इसका नतीजा यह हुआ कि लोगों में
अपने साझा हितों को देखने के नए तरीक़े की ज़रूरत हुई। संपर्कों और वफ़ादारियों के
व्यापक आयाम की ज़रूरत हुई। देश के कुछ हिस्सों में आम जनता के कुछ वर्गों में
धार्मिक चेतना सांप्रदायिक चेतना में बदल गई। इससे समाज के कुछ हिस्सों की ज़रूरतें
पूरी हुईं और कुछ राजनीतिक ताक़तों को फ़ायदा मिला। बीसवीं सदी में इस सांप्रदायिक
भावना का विकास हुआ जिसकी जड़ें यहां की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक स्थितियों में
थीं।
उपसंहार
उपर्युक्त विवेचन के आधार पर हम पाते हैं कि 1920 और 1930 के बीच साम्राज्यवाद
विरोधी मोर्चे के भीतर के राजनैतिक मतभेद बढे। कई ऐसे वर्ग थे जिसने सांप्रदायिकता की भावना को
बढाया। सरकार द्वारा गैर-कांग्रेसी राजनैतिक
गुटों को प्रोत्साहन और प्रलोभन दिया गया। इन
सबके परिणामस्वरूप ऐसी प्रवृत्तियाँ पैदा हुईं जिन्होंने समाज को
विभिन्न वर्गों और गुटों में बाँट दिया। फलतः
राष्ट्रीय आन्दोलन कमजोर हुआ। मोतीलाल नेहरू ने गहरी निराशा की स्थिति में 1927
में जवाहरलाल नेहरू को पत्र में लिखा था, “भारत में इससे
खराब स्थिति पहले कभी नहीं रही। असहयोग आन्दोलन की जो प्रतिक्रिया हुई थी वह
धीरे-धीरे सार्वजनिक गतिविधियों की बुनियाद को खोखली कर रही है। जनसामान्य को जो
एकमात्र शिक्षा मिल रही है वह सांप्रदायिक घृणा की शिक्षा है।”
एक और पहलू है जिस पर ध्यान
देना चाहिए। साम्राज्यवादी इतिहासकारों ने भारत के प्राचीन और मध्ययुगीन इतिहास की
सांप्रदायिक व्याख्या प्रस्तुत कर सांप्रदायिक चेतना का विस्तार किया। गांधीजी ने
कहा भी था, “हमारे देश में सांप्रदायिक सौहार्द्र तब तक
स्थायी रूप से नहीं लाया जा सकता, जबतक हमारे स्कूल-कॉलेजों में इतिहास की
पाठ्यपुस्तकों के ज़रिए इतिहास की बेहद विकृत व्याख्याएं पढ़ायी जाती रहेंगी।” ऐसे इतिहासकारों ने प्राचीन काल को हिन्दू युग और मध्यकाल
को मुसलिम युग की संज्ञा दी थी। इन लोगों ने यह साबित करने की कोशिश की शासक
मुसलिम था और शोषित हिन्दू। ऐसे इतिहासकारों ने भारत की राज्यव्यवस्था के चरित्र
का निर्णय इस बात से किया कि शासक अपना धर्म क्या था। साम्प्रदायिकतावादियों ने इस
बात का प्रचार करना शुरू कर दिया कि मध्य युग के शासक हिन्दू विरोधी थे और उन्हें
ज़बरदस्ती मुसलमान बनाते थे। मध्य काल के शासकों को विदेशी भी घोषित कर दिया। आज़ादी
की लड़ाई के दौरान ‘हज़ार वर्ष की ग़ुलामी’ और ‘विदेशी शासक’ जैसे मुहावरे आम प्रचलन
में थे। इतिहास को इस ढंग से प्रस्तुत किया गया कि प्राचीन काल में ही भारत बहुत
अधिक ऊंचाई पर पहुंच गया था और मध्यकाल में विदेशी शासन के आ जाने से इसका पतन
होता गया। स्वाभाविक था कि सांप्रदायिकतावादियों द्वारा इसकी प्रतिक्रिया व्यक्त
की जाती। उन्होंने पश्चिम एशिया में ‘इस्लामी उपलब्धियों के स्वर्ण युग’ का राग
अलापना शुरू कर दिया। उन्होंने सभी मुसलमान शासकों महिमा मंडन करना शुरू कर दिया।
सांप्रदायिकता एक विचारधारा थी। इससे लड़ा जाना चाहिए था,
समझौता नहीं किया जाना चाहिए था। लेकिन कई अवसरों पर उसके साथ समझौता करके उसे
फलने-फूलने का अवसर प्रदान किया गया। नरमपंथी सांप्रदायिकता के साथ राष्ट्रवादी
नेताओं ने समझौतावादी रुख़ अपनाया, जिसका नतीज़ा यह हुआ कि मौक़ा मिलते ही
सांप्रदायिकता उग्र हो गई। जिन्ना की राजनीतिक शुरुआत एक राष्ट्रवादी नेता के रूप
में हुई थी, लेकिन एक बार जब उसने सांप्रदायिकता वादी रास्ता पकड़ा, तो वह अलगाववाद
का प्रमुख वक्ता बन गया। 1920 के दशक में हिन्दू-मुसलमान सरकार की कृपा पाने के लिए एक-दूसरे को पछाड़
रहे थे। इस प्रतिस्पर्धा में मानवता हार रही थी और
असली जीत ब्रिटिश साम्राज्यवाद की हो रही थी। आगे चलकर सांप्रदायिक विचारधारा का
रुख़ उग्र हो गया। भय और घृणा के वातावरण का सृजन हुआ। आचरण हिंसक हो गया। राजनीतिक
विरोधियों को दुश्मन माना जाने लगा। एक-दूसरे के धर्म और संस्कृति को अपने धर्म और
संस्कृति पर ख़तरा माना जाने लगा। अलग राष्ट्र का सिद्धांत सामने आया। ... और भारत
का विभाजन हुआ।
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मनोज कुमार
पिछली कड़ियां- राष्ट्रीय आन्दोलन
संदर्भ : यहाँ पर
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