राष्ट्रीय आन्दोलन
268. असहयोग
आन्दोलन-1
1920-22
प्रवेश :
बीसवीं सदी के दूसरे दशक के आखिरी साल में भारत में असंतोष
चरम पर था। रॉलेट एक्ट, जालियांवाला बाग हत्याकांड और पंजाब में मार्शल
लॉ ने अंग्रेजों के युद्धकालीन सभी उदार वादों को झुठला दिया था। रॉलेट एक्ट के
विरोध में 6 अप्रैल, 1919 को, गांधीजी
के नेतृत्व में, देश भर में सत्याग्रह दिवस के रूप में मनाया गया। लोगों पर इसका जबर्दस्त प्रभाव पड़ा। सभी वर्ग के लोगों ने इसमें भाग लिया।
पूरे देश में एक, नए वातावरण का सृजन हुआ। यह आन्दोलन अभी
जोर पकड़ ही रहा था कि जगह-जगह हिंसा होने लगी। गांधीजी को
लगा लोगों के अन्दर हिंसा के छिपे आवेग को सही-सही आंकने में उनसे भूल हो गई है और भारत के लोग अभी भी शांतिपूर्ण आंदोलन के रहस्य को नहीं
समझे हैं। गांधीजी का मानना था कि क़ानून के सविनय भंग के लिए लोगों को पूरा
प्रशिक्षण नहीं मिला है,
इसलिए आंदोलन चालू रखना ग़लत होगा। प्रायश्चित स्वरूप उन्होंने तीन दिन का उपवास व्रत
रखा और रॉलेट एक्ट के विरोध में किए गए सत्याग्रह को 18 अप्रैल, 1919 को
स्थगित कर दिया। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं था कि गांधीजी
का अहिंसक आंदोलन से विश्वास उठ गया था। इसका यह भी मतलब नहीं था कि वे अंग्रेज़ों
के कहर से डर गए थे। इसका यह भी मतलब नहीं था कि वे भारतीय जनता से निराश हो गए
थे। इस घटना के बाद गांधीजी ने भारत से अंग्रेजी
शासन को जड़
से उखाड़
फेंकने का दृढ़ संकल्प लिया और एक साल बाद उन्होंने फिर एक राष्ट्रव्यापी आंदोलन
छेड़ा, जो “रॉलेट सत्याग्रह” से भी अधिक व्यापक था! वह था असहयोग आन्दोलन।
पृष्ठभूमि :
रॉलेट एक्ट, जालियांवाला बाग़ हत्याकांड, खिलाफत का प्रश्न, विश्वयुद्ध के बाद उत्पन्न
आर्थिक असंतोष, अकाल, महामारी, मोंट-फोर्ड सुधारों से व्याप्त असंतोष, किसान-मज़दूर
आन्दोलनों, सरकार की दमनात्मक कार्रवाई और भारत में बढ़ती
राष्ट्रीय भावना ने वह पृष्ठभूमि तैयार कर रखी थी, जिसपर एक
देशव्यापी आन्दोलन छेड़ा जा सकता था। भारतीय जनता को उम्मीद थी कि प्रथम विश्व युद्ध
के बाद अंग्रेज़ी हुक़ूमत उसके लिए कुछ करेगी। पर 1919 की घटना, रॉलेट एक्ट, जालियांवाला बाग
कांड और पंजाब में मार्शल लॉ ने यह जता दिया कि अंग्रेज़ी हुकूमत से सिवा दमन के और
कुछ नहीं मिलने वाला है। मांटेग्यू-चेम्सफॉर्ड सुझाव भी एक छलावा मात्र ही था।
इसका मकसद दोहरी शासन प्रणाली लागू करना था, न कि जनता को राहत देना। तुर्की के धर्मस्थलों पर से ख़लीफ़ा का नियंत्रण हट जाने के
बाद से भारत के मुसलमान बहुत क्षुब्ध थे। पंजाब के
अत्याचारों के बाद भूल-सुधार के बजाय ब्रिटिश सरकार अपने अफसरों की करतूतों पर
पर्दा डालने में लगी थी। यह सब देखकर गांधीजी की ब्रिटिश शासन में रही-सही आस्था
भी चूर-चूर हो गई। उनका अब मानना था कि ऐसे ‘शैतानी’ शासन से असहयोग करना प्रत्येक
भारतीय का कर्तव्य था। उस समय की विशेष परिस्थिति
का उचित उपयोग करते हुए ब्रिटिश-साम्राज्यवाद के विरुद्ध सशक्त संघर्ष शुरू करने
के उद्देश्य से गांधीजी ने 1 अगस्त, 1920 से
असहयोग आन्दोलन शुरू करने की घोषणा की। उन्होंने कहा, “प्रजा को अनादि काल से यह अधिकार प्राप्त है कि
वह कुशासन करने वाले शासक की सहायता करने से इंकार कर दे”।
यह स्पष्ट था कि लोग कार्रवाई के लिए बेचैन थे। उनमें से बड़ी संख्या में, जो पिछले चार दशकों या उससे अधिक समय से राष्ट्रवादी नेतृत्व द्वारा किए जा
रहे निरंतर प्रचार प्रयासों से राजनीतिक चेतना के लिए जागृत हुए थे, ब्रिटिश सरकार द्वारा किए गए अपमान से पूरी तरह से नाराज थे। इन अपमानों को
निगलना अपमानजनक और कायरतापूर्ण लग रहा था। साथ ही भारतीय समाज के कई वर्गों को
काफी आर्थिक संकट का सामना करना पड़ा। शहरों में, श्रमिक और कारीगर,
निम्न मध्यम वर्ग और मध्यम वर्ग उच्च कीमतों और खाद्य और आवश्यक वस्तुओं की
कमी से प्रभावित थे। ग्रामीण गरीब और किसान व्यापक सूखे और महामारी के भी शिकार
थे।
असहयोग आन्दोलन के
प्रश्न पर बनारस में सम्मेलन
अब तक असहयोग आन्दोलन केवल ख़िलाफ़त से ही संबंध रखता था। इस
प्रश्न को देश के अन्य नेताओं के सामने रखने के लिए गांधीजी ने एक सम्मेलन बनारस
में आयोजित किया। इस सम्मेलन में असहयोग की नीति अपनाने का निश्चय किया गया।
असहयोग का कार्यक्रम बनाने के लिए एक कमेटी बना दी गई, जिसमें अबुल कलाम आज़ाद,
हकीम अजमल ख़ान और गांधीजी को रखा गया। इस कमेटी ने स्कूल-कॉलेजों और अदालतों के
बहिष्कार की सिफ़ारिश की। उपाधियों, सरकारी नौकरियों, आनरेरी पदों और धारा-सभाओं के
बहिष्कार का निर्णय पहले ही हो चुका था। पंजाब के अत्याचारों का प्रश्न भी इसके
साथ जोड़ दिया गया। यह भी निश्चय किया गया कि पुलिस तथा फौज की नौकरियों का त्याग
किया जाएगा।
कलकत्ता कांग्रेस विशेष अधिवेशन
कलकत्ता कांग्रेस विशेष अधिवेशन (4-9 सितंबर, 1920) के
अध्यक्ष लाला लाजपत राय चुने गए। अधिवेशन का मुख्य उद्देश्य असहयोग के प्रश्न पर
विचार करना था। प्रस्ताव में ख़िलाफ़त और पंजाब के अन्याय को लेकर असहयोग करने की
बात थी। एक तरफ जहां ख़िलाफ़त कमिटी ने एक
बार में ही उनके इस प्रस्ताव को मान लिया था, वहीँ दूसरी तरफ कांग्रेस के दिग्गज
इस मामले में बहुत गर्मजोशी नहीं दिखा रहे थे, बल्कि कई वरिष्ठ नेताओं ने इसका
विरोध किया। विरोधियों में प्रमुख थे, सी.आर. दास। इसके अलावा विपिन पाल, लाजपत राय और मालवीय जैसे नेता भी इस प्रस्ताव के विरोध में थे। वल्लभभाई
पटेल, नेहरू, राजगोपालाचारी और
राजेन्द्र प्रसाद जैसे युवा नेता गांधीजी के साथ थे। विजयराघवाचार्य को इस बात पर
आपत्ति थी कि असहयोग किसी खास अन्याय (ख़िलाफ़त) को लेकर ही क्यों किया जाए? सबसे
बड़ा अन्याय तो स्वराज्य का अभाव है। उसे लेकर ही असहयोग किया जाना चाहिए। सुझाव
मंजूर हो गया और प्रस्ताव में स्वराज्य की मांग भी जोड़ दी गई। बहस के बाद असहयोग
का प्रस्ताव मंजूर हो गया।
नागपुर वार्षिक
अधिवेशन-असहयोग प्रस्ताव स्वीकृत
दिसंबर, 1919 के नागपुर वार्षिक अधिवेशन तक, जिसके अध्यक्ष
वयोवृद्ध विजयराघवाचारी थे, असहयोग को लेकर कांग्रेस के अंदरूनी विरोध लगभग ख़त्म
हो चुके थे। कलकत्ता अधिवेशन में असहयोग का विरोध करने वाले सी.आर. दास ने ही इस
सम्मेलन में असहयोग आंदोलन से संबद्ध प्रस्ताव रखा था। सम्मेलन में असहयोग आन्दोलन की पुष्टि की गई
थी। असहयोग के कार्यक्रम में उपाधियों और सम्मानों का त्याग, सरकारी संबद्ध स्कूलों और कॉलेजों, कानूनी अदालतों, विदेशी कपड़ों का बहिष्कार शामिल था, और इसे सरकारी सेवा से इस्तीफा देने और करों का भुगतान न
करने सहित सामूहिक सविनय अवज्ञा को शामिल करने के लिए बढ़ाया जा सकता था। गांधीजी
ने कहा था, “मनुष्यों की तरह राष्ट्र भी अपनी ख़ुद की कमज़ोरी के कारण आज़ादी खोते हैं।
अंग्रेज़ों ने भारत को नहीं पाया है; हमने उनको दिया है। वे भारत में अपनी ताकत के
बल पर नहीं हैं, बल्कि हमने उनको रखा हुआ है। भारतीय जनता इतने वर्षों से
स्वेच्छापूर्वक और चुप साधकर जो सहयोग देती आ रही है, अगर उसे देना बंद कर दे तो
ब्रिटिश साम्राज्य का भहराकर गिरना अनिवार्य है।”
गांधीजी का नेतृत्व
और कांग्रेस के विधान में परिवर्तन
राष्ट्रीय स्वातंत्र्य आन्दोलन का नेतृत्व अब गांधीजी के
हाथों में था। गांधीजी ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को
नए सिरे से ढालने की ज़रुरत महसूस की। उन्होंने कांग्रेस के विधान में परिवर्तन किया।
उसे प्रजातांत्रिक और साधारण जनता की संस्था बना दिया। इसमें छह हज़ार डेलिगेट
की व्यवस्था थी। कांग्रेस का स्वरूप पिरामिडीय ढांचे जैसा किया गया। आधार के रूप
में गांवों, तालुकों, जिलों और
प्रान्तों की समितियां, और शिखर के रूप में 15 सदस्यीय कार्यकारिणी समिति तथा अखिल भारतीय कांग्रेस महासमिति थी। प्रदेश
कांग्रेस समितियों का गठन भाषा के आधार पर किया गया। इससे स्थानीय लोगों की
ज़्यादा-से-ज़्यादा भागीदारी संभव हो सकी। सदस्यता फीस साल भर के लिए चार आने कर दी
गई। कांग्रेस को अधिक व्यापक आधार मिला। अब तक कांग्रेस पर
उच्च और मध्यम वर्ग का कब्जा था,
अब पहली बार इसके दरवाजे गांवों और शहरों में बसने वाली आम जनता के
लिए खोल दिए गए। कांग्रेस में किसानों का प्रवेश आसानी
से होने लगा। कांग्रेस ने यह भी तय किया कि जहां तक संभव हो हिंदी को ही बतौर
संपर्क भाषा इस्तेमाल किया जाए। कांग्रेस का उद्देश्य बदल दिया गया। पहले उद्देश्य
था संविधानिक और वैधानिक तरीक़े से विरोध प्रकट करना, अब अहिंसक और शांतिपूर्ण
असहयोग आंदोलन से स्वराज की स्थापना इसका उद्देश्य था। अबतक जो कांग्रेस सिर्फ़
बातचीत करती थी, और उसके बाद एक प्रस्ताव पास कर देती थी,
अब कर्म इस संस्था का उद्देश्य बन गया। कर्म जो शांतिपूर्ण
युक्तियों पर आधारित होता था। गांधीजी एक शांतिवादी नेता थे। उनके शांतिपूर्ण
कार्य-पद्धति का लक्ष्य था राष्ट्रीय एकता, अल्पसंख्यकों की समस्या का निदान, दलितों का उत्थान
और अस्पृश्यता का निराकरण। नागपुर कांग्रेस में अंत्यजों के बारे में प्रस्ताव पास
हुआ। पहली बार दलितों का मुद्दा अखिल भारतीय स्तर पर उठाया गया। इस तरह कांग्रेस
द्वारा अस्पृश्यता निवारण का दायित्व भी अपना लिया गया।
गांधीजी ने तीन मुख्य मुद्दों पर असहयोग आंदोलन शुरू किया
था, ख़िलाफ़त का प्रश्न, पंजाब में अत्याचार और स्वराज। कांग्रेस ने गांधीजी का असहयोग का
कार्यक्रम अपना लिया था। संघर्ष की यह पद्धति बिलकुल शांत और अहिंसक थी।
जो भारतीय उपनिवेशवाद को ख़त्म करना चाहते थे, उनसे आग्रह किया गया कि वे विदेशी
सरकार द्वारा दी गई उपाधियों का बहिष्कार, सरकारी उत्सवों का बहिष्कार, स्कूलों, कॉलेजों और
न्यायालय का बहिष्कार और मांटेग्यू-चेम्सफ़ोर्ड सुधार के अंतर्गत बनाई गई नई काउंसिल
का बहिष्कार करें। बाद में नौकरियों से भी बहिष्कार किए जाने की घोषणा की गई।
संक्षेप में सभी को अंग्रेजी सरकार को उसके शासन कार्य और भारत के शोषण में सहायता
देने से इंकार कर दिया जाए। अहिंसात्मक असहयोग के कार्यक्रम में मुख्य क्रियाकलाप
विदेशी वस्तुओं और विदेशी (ब्रिटिश) सम्मान का बहिष्कार तो था ही। संक्षेप में सभी को
अंग्रेजी सरकार को उसके शासन कार्य और भारत के शोषण में सहायता देने से इंकार कर
दिया जाए। इसके प्रचार-प्रसार के लिए गांधीजी ने देश-भर का तूफानी दौरा किया और
गांव-गांव घूमे। वही गांधीजी जो अपने-आपको ब्रिटिश हुकूमत का वफ़ादार प्रजाजन मानते
थे, ने लिखा था, “लॉर्ड रीडिंग यह जान लें कि सरकार के ख़िलाफ़ यह खुला, लेकिन अहिंसात्मक विद्रोह है।” गाँधीजी ने लोगों से कहा कि यदि असहयोग का ठीक ढंग से पालन किया जाए तो भारत
एक वर्ष के भीतर स्वराज प्राप्त कर लेगा।
सितंबर के बाद
से गांधीजी एक साथ राष्ट्रीय और ख़िलाफ़त दोनों ही संघर्षों के नेता थे। गांधीजी ने जब
अहिंसक विद्रोह की कमान संभाली तो सरकार ने उसे अपनी सत्ता और अस्तित्व के लिए
चुनौती समझा और मुकाबले के लिए तैयार हो गई। अंग्रेज इस बात को अच्छी तरह समझते थे, कि यदि असहयोग-आन्दोलन सफल हो
गया, तो उनकी प्रशासनिक व्यवस्था ठप्प हो जाएगी। लार्ड
चेम्सफोर्ड ने पहले तो “हद दर्जे की बेवकूफी” कह कर इस आन्दोलन की खिल्ली
उड़ाई। नरम दल के कई नेताओं ने भी इस आलोचना में सरकार का साथ दिया और गांधीजी
द्वारा प्रस्तावित जन-आन्दोलन के खतरों पर जोर दिया। लेकिन गांधीजी के आह्वान ने
जादू की छड़ी का काम किया। कुछ ही दिनों में जनता में अभूतपूर्व उत्साह का तूफान
पैदा हो गया। चार साल पहले हुए लखनऊ कांग्रेस में गांधीजी एक प्रेक्षक की तरह बैठे
थे, जो देखकर नेहरूजी को बहुत दूर स्थित और भिन्न और अराजनैतिक लगे थे, वही
गांधीजी आज राष्ट्रीय आन्दोलन के मैदान में छाए हुए थे।
उपाधियों का
बहिष्कार
गांधी जी ने देखा कि ब्रिटिश हुक़ूमत को ऐसे कई भारतीय सहयोग
देते हैं जिनका स्वार्थ ब्रिटिश राज के साथ बंधा हुआ है। उन्होंने इस पर प्रहार
किया। उन्होंने लोगों से आह्वान किया, “उपाधियों का बहिष्कार करो।” गांधी जी ने भी बोअर युद्ध के दौरान एम्बुलेंस कॉर्प की
सेवा के कारण 1915 में हासिल हुए
कैसरे-ए-हिन्द की उपाधि वायसराय को वापस कर दिए और लिखा, “मैं ऐसी सरकार के प्रति न अपने सम्मान भाव को और न ही अपने प्रेम को
सुरक्षित रख सकता हूं जो अपनी अनैतिकता को उचित ठहराने के लिए एक पर एक कुकर्म
करती चली आ रही है”। जालियांवाला
नर-संहार के बाद रवीन्द्रनाथ टैगोर पहले ही अपनी नाइट की पदवी छोड़ चुके थे। हालाकि
बहुत कम उपाधिधारियों ने उनकी बात मानी, 5,186 में से सिर्फ 24 सरकारी उपाधियाँ लौटाई गईं, फिर भी इस पर से लोगों की आस्था टूटने लगी। लोग अब इसे गर्व का विषय नहीं
अपमान का चिह्न मानने लगे।
नौकरियों और
स्कूल-कॉलेजों का बहिष्कार
गांधीजी के आह्वान पर बंगाल में देशबंधु चितरंजन दास ने
अपनी लाखों की वकालत छोड़ दी। अपना आलीशान बंगला और लाखों की संपत्ति देश को दान कर
दिया। इलाहाबाद में नेहरू पिता-पुत्र ने वकालत छोड़कर सादगी का जीवन अपना लिया।
पंजाब में लाला लाजपत राय ने वकालत छोड़ी और स्वराज के लिए सादगी भरा जीवन अपना
लिया। मद्रास में राजाजी, सिंध में जयराम दौलतराम, महाराष्ट्र में गंगाधरराव पांडे
और शंकरराव देव, बंबई में विट्ठलभाई पटेल और सरोजिनी नायडू, वर्धा में सेठ जमनालाल
बजाज, गुजरात में वल्लभभाई पटेल, बड़ौदा महाराज के दीवान अब्बास तैयबजी और उनकी
बेटी रेहाना तैयबजी अदि अनेक अनगिनत लोग थे जिन्होंने तन-मन-धन से अपना जीवन
स्वराज के लिए समर्पित कर दिया। बिहार में राजेन्द्र प्रसाद और ब्रजकिशोर बाबू ने
अपनी ज़मींदारी और वकालत छोड़ दी। किसानों के समान धोती और कुर्ता पहनने लगे।
असहयोग आंदोलन के द्वारा कांग्रेस की लोकप्रियता बढने लगी।
पहले महीने में ही 10,000 छात्रों ने (एक अनुमान के
अनुसार 90,000) सरकारी स्कूलों को छोड़ दिया और देश भर में
खुले 800 से अधिक राष्ट्रीय स्कूलों और कॉलेजों में शामिल हो गए। शिक्षा का
बहिष्कार पश्चिम में सबसे अधिक सफल रहा। कलकत्ता के विद्यार्थियों ने राज्यव्यापी
हड़ताल की। जनवरी की शुरुआत में ही कलकत्ता में 3,000 कॉलेज छात्र हड़ताल पर चले गए। उनकी मांग थी कि स्कूलों
के प्रबंधक सरकार से अपना रिश्ता तोड़े। सी.आर. दास ने इस आंदोलन को बहुत
प्रोत्साहित किया और सुभाष चंद्र बोस “नेशनल कॉलेज, कलकत्ता” के प्रधानाचार्य बन गये। जिन विद्यार्थियों ने स्कूल-कॉलेजों का बहिष्कार किया था
उन विद्यार्थियों के शिक्षण-प्रशिक्षण की व्यवस्था के लिए गांधीजी ने पांच शिक्षण
संस्थाओं की स्थापना की। अहमदाबाद में ‘गुजरात विद्यापीठ’, पटना में ‘राष्ट्रीय
विद्यापीठ’, वाराणसी में ‘काशी विद्यापीठ’, दिल्ली में ‘जामिया मिलिया’ और पूना
में ‘तिलक विद्यापीठ’ की स्थापना हुई। ये पांचों संस्थाएं 1920 में आरंभ हुईं। आचार्य नरेंद्र देव, राजेन्द्र प्रसाद, डॉक्टर जाकिर हुसैन, सुभाष चन्द्र बोस ने नाममात्र के वेतन पर इन संस्थानों को अपनी सेवाएं
अर्पित कीं। गांधीजी की
अपील से प्रेरित होकर, बोस ने पच्चीस वर्ष की आयु में भारतीय सिविल
सेवा से इस्तीफा दे दिया और कलकत्ता में नेशनल कॉलेज के प्रिंसिपल का पद संभाला।
विदेशी कपड़ों के बहिष्कार
बहिष्कार आन्दोलन में सबसे अधिक सफल था विदेशी कपड़ों के बहिष्कार
का कार्यक्रम। विदेशी-वस्त्र बहिष्कार-समिति के अध्यक्ष स्वयं गांधीजी थे, और इसके
मंत्री थे जयरामदास दौलतराम। लोगों ने सरल जीवन को अपनाना शुरू कर दिया। लोग एक
जगह इकट्ठा होते और विदेशी कपड़ों की होली जलायी जाती। गांधीजी जगह-जगह की यात्रा कर लोगों से अपील करते कि आप
लोग पूरा कपड़ा न सही, विरोध जताने के लिए अपनी पगड़ी, दुपट्टा या टोपी को ही उतार दीजिए। इन कपड़ों की होली जलायी जाती। इसका
नतीजा यह हुआ कि 1920-21 में जहां एक अरब दो करोड़ रुपये
मूल्य के विदेशी कपड़ों का आयात हुआ था, वहीं 1921-22 में यह
घट कर 57 करोड़ हो गया। इस अवधि में आर्थिक बहिष्कार काफ़ी तीव्र रहा। ब्रिटिश सूती थानों के आयात में
भारी गिरावट आई। व्यापारी वर्ग का समर्थन मिलने से कांग्रेस की आर्थिक स्थिति में
सुधार हुआ। असहयोग आंदोलन को व्यापारी वर्ग का समर्थन मिला। राष्ट्रवादी स्वदेशी
आंदोलन से कपड़ा उद्योग को लाभ हुआ। इसने न सिर्फ़ मिल मालिकों के प्रभाव को बढ़ाया
बल्कि उनके माल की बिक्री भी बढ़ाई। हां, इस दौरान पूंजी और श्रम के बीच के संबंधों
को नियमित करने के लिए कई श्रमिक आंदोलन भी हुए।
शराबखाने पर धरना
मादक पदार्थों के विरुद्ध भी यह आन्दोलन हुआ। शराब की दुकानों
पर महिलाओं ने धरना देना शुरू कर दिया। स्वरूपरानी नेहरू (मोतीलाल नेहरू की
पत्नी), मीठू बहन (सर जहांगीर पिटीट की पुत्री), कस्तूरबा गांधी, दाभाई नौरोजी की
तीनों पौत्रियां आदि शराब की दुकानों पर धरना देने लगीं। कल तक जो महिलाएं घर से
बाहर नहीं निकली थीं, असहयोग आन्दोलन में कूद पड़ी थीं।
सेना में भर्ती
होने से इंकार
जुलाई 1921 में सरकार के सामने एक नई चुनौती पेश की गई। 8
जुलाई को कराची में आयोजित अखिल भारतीय खिलाफत सम्मेलन में मोहम्मद अली ने घोषणा
की कि मुसलमानों के लिए ब्रिटिश सेना में बने रहना धार्मिक रूप से गैरकानूनी है और
उन्होंने कहा कि सेना में हर मुसलमान को यह बात बताई जानी चाहिए। परिणामस्वरूप, मोहम्मद अली को अन्य नेताओं के साथ तुरंत गिरफ्तार कर लिया
गया। विरोध में, पूरे देश में असंख्य बैठकों में भाषण दोहराया
गया। 4 अक्टूबर को, गांधीजी सहित सैंतालीस प्रमुख कांग्रेसियों ने
एक घोषणापत्र जारी किया जिसमें मोहम्मद अली ने जो कुछ भी कहा था उसे दोहराया और
कहा कि प्रत्येक नागरिक और सशस्त्र बलों के सदस्य को दमनकारी सरकार से संबंध तोड़
लेने चाहिए। अगले दिन, कांग्रेस कार्य समिति ने एक समान प्रस्ताव
पारित किया और 16 अक्टूबर को पूरे देश में कांग्रेस समितियों ने बैठकें कीं जिनमें
एक ही प्रस्ताव पारित किया गया। सरकार को पूरी घटना को नजरअंदाज करने और अपनी
प्रतिष्ठा पर आघात स्वीकार करने के लिए मजबूर होना पड़ा। उनके आह्वान का सकारात्मक असर पडा।
इसके अलावा लोगों ने ब्रिटिश आर्मी में भर्ती होने से भी इनकार करना शुरू कर दिया।
प्रिंस ऑफ वेल्स की
यात्रा
अगली नाटकीय घटना प्रिंस ऑफ वेल्स की यात्रा थी, जो 17 नवंबर, 1921 को शुरू हुई। जिस दिन प्रिंस बॉम्बे पहुंचे, उस दिन पूरे देश में हड़ताल का दिन मनाया गया। बॉम्बे में, गांधीजी ने खुद राष्ट्रवादी उमर शोभनी के स्वामित्व वाले
एलफिंस्टन मिल के परिसर में एक विशाल बैठक को संबोधित किया और विदेशी कपड़े की एक
बड़ी होली जलाई। दुर्भाग्य से, हालांकि, स्वागत समारोह में भाग लेने गए लोगों और गांधीजी की बैठक से
लौट रही भीड़ के बीच झड़पें हुईं। इसके बाद दंगे हुए, जिसमें पारसी, ईसाई, एंग्लो-इंडियन पहचाने जाने वाले वफादारों के
रूप में हमले के विशेष लक्ष्य बन गए। पुलिस गोलीबारी हुई और तीन दिन के उपद्रव में
उनसठ लोग मारे गए। गांधीजी के तीन दिनों के उपवास के बाद ही शांति लौटी। इस पूरे
घटनाक्रम ने गांधीजी को बहुत परेशान कर दिया और उन्हें इस बात की चिंता हुई कि
सामूहिक सविनय अवज्ञा को मंजूरी मिलने के बाद हिंसा की पुनरावृत्ति हो सकती है। प्रिंस
ऑफ वेल्स जहां भी गए, उन्हें खाली सड़कें और बंद शटर मिले। सरकार की
सफल अवज्ञा से उत्साहित होकर, असहयोगी और अधिक आक्रामक हो गए।
रचनात्मक काम :
चरखा और खादी
गांधीजी ने अपने वांछित क्रांति के बारे में बताने और सुझाव
देने के लिए प्रतीकों की खोज में काफी समय और विचार खर्च किया। झंडा, चरखा, घर में बुना कपड़ा, उनके अनुयायियों द्वारा पहनी जाने वाली सफेद खादी की टोपी -
ये सभी भौतिक प्रतीक थे, जिनका अर्थ सबसे गरीब और कम शिक्षित व्यक्ति भी
आसानी से समझ सकता था। विदेशी कपड़ों के बहिष्कार के साथ रचनात्मक काम भी हाथ में
लिए गए। राष्ट्रीय आन्दोलन के क्रिया-कलापों में चरखे और हाथ से सूत कातना, खादी
पहनना अपनाया गया जिसके कारण खादी का ख़ूब प्रचार हुआ। ब्रिटिश साम्राज्य ने अपनी योजनाबद्ध
कूटनीति से भारत का कपड़ा बनाने का गृह उद्योग बिलकुल चौपट कर दिया था। ब्रिटिश
सरकार ने अच्छी तरह समझ लिया था कि भारत जैसे विशाल देश को सिर्फ़ सैन्य-शक्ति से
ही काबू में नहीं किया जा सकता। अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए वे भारत के आर्थिक
स्वावलंबन को ख़त्म कर देने पर तुल गए। उन्होंने ऐसे आर्थिक प्रबंध किए कि भारत
अपनी ज़रूरतों को पूरी करने के लिए इंगलैंड पर निर्भर हो। भारतीयों का कपड़ा उद्योग को नष्ट
कर ब्रिटिशों ने उनपर अपनी मिलों का बना कपड़ा लाद दिया। इस तरह बहुत ही कुटिलता से
उन्होंने यहां का आर्थिक और राजनीतिक नियंत्रण अपने हाथ में ले लिया। गांधीजी को
लगा कि यदि कल-कारखानों के स्थान पर घर-घर में चरखा चलेगा, तब प्रत्येक आदमी
आर्थिक स्वावलंबन को प्राप्त करेगा।
विदेशी मिलों का कपड़ा न पहनकर गांधीजी और आश्रमवासियों ने
हाथ से बुना खुरदरा और मोटा कपड़ा पहनना शुरू कर दिया। खादी के प्रचार-प्रसार के
लिए गांधीजी ने देश का व्यापक दौरा किया। यह नियम बना दिया गया कि जो 1200 गज सूत जमा करेगा वही कांग्रेस का सदस्य
बन पाएगा। कांग्रेस अधिवेशन में चरखे चलते, सूत काते जाते। 1921 की बम्बई कांग्रेस महासमिति की बैठक तक 20 लाख चरखे
चलने लगे थे। इस प्रकार खेतिहर मज़दूरों और छोटे किसानों की आमदनी में वृद्धि हुई।
खादी के प्रचार-प्रसार के कारण लंकाशायर और मैनचेस्टर की मिलों का, निर्यात के अभाव
में, बंद होना शुरू हो गया। ब्रिटेन की समृद्धि को धक्का लगा। आज़ादी की ओर हमारा
कदम बढ़ने लगा।
तिलक स्वराज कोष
अप्रैल में विजवाड़ा में हुए कांग्रेस के अधिवेशन में यह
निर्णय लिया गया कि तिलक स्वराज कोष के लिए एक करोड़ रुपए की राशि एकत्रित की जाए,
कांग्रेस में एक करोड़ सदस्यों की भरती की जाए और 20 लाख चरखे लगाए जाएं। एक करोड़ सदस्यता का लक्ष्य तो पूरा नहीं हुआ, लेकिन
सदस्य संख्या 50 लाख तक पहुंचा दी गई। स्वराज फंड ने न सिर्फ़
अपना लक्ष्य पूरा किया बल्कि उसके आगे निकल गया। चरखे और खादी का खूब प्रचार और
प्रसार हुआ। खादी तो राष्ट्रीय आंदोलन का प्रतीक ही बन गई।
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मनोज कुमार
पिछली कड़ियां- राष्ट्रीय आन्दोलन
संदर्भ : यहाँ पर
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