राष्ट्रीय आन्दोलन
287. गया
कांग्रेस अधिवेशन
1922
दिसंबर, 1922 में कांग्रेस का अड़तीसवाँ अधिवेशन गया में हुआ।
देशबंधु चितरंजन दास उसके अध्यक्ष चुने गए। इस अधिवेशन में चितरंजन दास ने मज़दूरों
और किसानों को कांग्रेस के प्रभाव में लाने की आवश्यकता पर बल दिया। इस अधिवेशन
में सी.आर. दास और मोतीलाल नेहरू ने औपनिवेशिक सत्ता का विरोध करने के लिए एक नई
रणनीति की वकालत की। यह प्रस्ताव पेश किया गया कि 1920 के
मांटेग्यू-चेम्सफ़ोर्ड सुधार के अन्तर्गत केन्द्रीय विधान सभा के चुनाव लड़ने चाहिए।
अध्यक्ष पद से भाषण देते हुए उन्होंने कहा कि या तो काउंसिलों का इस तरह सुधार
किया जाना चाहिए कि उनके द्वारा भारत को स्वतंत्र किया जा सके, या उन्हें समाप्त
कर देना चाहिए। काउंसिल में प्रवेश को वह असहयोग आंदोलन की भावना के विपरीत नहीं
मानते थे। उनका कहना था कि हम काउंसिल में जाकर अंदर से बहिष्कार और असहयोग
करेंगे। प्रस्ताव के समर्थन में अध्यक्ष देशबंधु सीआर. दास, मोतीलाल नेहरू, विट्ठल
भाई पटेल, श्रीनिवास आयंगर, केलकर और हक़ीम अजमल ख़ान आदि थे।
उन दिनों असहयोग आन्दोलन के तहत
सरकार के सम्पूर्ण बहिष्कार का कार्यक्रम चल रहा था। चुनाव लड़ना सरकार की व्यवस्था
में सहयोग देने के बराबर था। राजेन्द्र प्रसाद, वल्लभभाई पटेल, अंसारी,
राजगोपालाचारी, कस्तूरी रंगा आयंगार और जमुनालाल बजाज ने प्रस्ताव का विरोध किया
था। उनका कहना था कि काउंसिल में प्रवेश रणनीति का परिवर्तित रूप नहीं अहिंसात्मक
असहयोग की मूल भावना और सिद्धांतों पर प्रहार ही है। हमारा तो शुद्ध, पवित्र और
निष्कलंक आंदोलन है। इसमें कूटनीति के लिए कोई गुंजाइश नहीं है। इस छल-कपट को कोई
भी सत्याग्रही समर्थन नहीं कर सकता।
कांग्रेस के नेता दो दलों में बंट
गए थे। जो असहयोग के कार्यक्रम में परिवर्तन चाहते थे, ‘परिवर्तनवादी’ कहलाए। जबकि सरदार वल्लभभाई पटेल, राजेन्द्र बाबू,
राजाजी आदि ‘अपरिवर्तनवादी’ थे। काउंसिल-प्रवेश
के प्रश्न को लेकर काफ़ी बहस हुई। प्रस्ताव
पर मतदान करना पड़ा। 890 के मुकाबले 1,748 मतों से कांग्रेस ने
चुनाव के विरोध में अपना स्पष्ट मत ज़ाहिर कर दिया। प्रस्ताव नामंजूर हो गया।
सी.आर. दास ने गया कांग्रेस के
तत्काल बाद कांग्रेस की अध्यक्षता से त्यागपत्र दे दिया। उन्होंने मोतीलाल नेहरू
के साथ मिलकर मार्च 1923 में अपनी अलग ‘कांग्रेस स्वराज पार्टी’ बनाई, जो बाद
में ‘स्वराज पार्टी’ के नाम से जाना गया। वे स्वयं इसके अध्यक्ष बने और
मोतीलाल नेहरू को मंत्री नियुक्त किया। सी.आर. दास और मोतीलाल नेहरू दोनों सफल
वकील थे। दोनों नरम पंथी थे। दोनों ने गांधीजी के असहयोग आंदोलन के सिद्धांत को
स्वीकार कर लिया था और वकालत छोड़ दी थी। दोनों ने अपने (कलकता और इलाहाबाद) के
आलीशान मकान को देश को समर्पित कर दिया था। दोनों ही गांधीजी के प्रशंसक थे। लेकिन
उन दिनों की राजनीति में दोनों ही गांधीजी के बराबरी के दर्ज़े के थे। दोनों सांसद
भी थे। दास भावुक और धार्मिक आस्था में विश्वास रखते थे, जबकि नेहरू अनीश्वरवादी
और शांत व्यक्ति थे। दोनों ही भाषण देने में माहिर थे। संगठन की दोनों में अद्भुत
क्षमता थी।
कांग्रेस के अपरिवर्तनकारी
बहिष्कार और असहयोग आंदोलन को ज़ारी रखना चाहते थे, इसलिए वे काउंसिल में प्रवेश का
विरोध कर रहे थे। लेकिन दोनों खेमा यह मानता था कि सविनय अवज्ञा तुरंत शुरू नहीं
किया जा सकता। दोनों यह भी मानते थे कि कोई जनआंदोलन अनिश्चित काल तक नहीं चलाया
जा सकता। दोनों यह मानते थे कि संगठन को और मज़बूत बनाने तथा लोगों को प्रशिक्षित
करने के लिए और वक़्त चाहिए। लेकिन मतभेद की वजह थी कि आंदोलन की निष्क्रियता के
समय राजनीतिक गतिविधियों को कैसे ज़ारी रखा जाए? स्वराजी राजनीतिक निष्क्रियता को
ख़त्म करने के लिए कौंसिल में प्रवेश को ज़रूरी मानते थे। इससे लोगों का मनोबल बढ़ेगा
और राजनीतिक आंदोलन को बल मिलेगा। यदि कांग्रेस चुनावों में भाग नहीं लेती है, तो
चुनाव के दौरान जो लोग चुनाव में भाग लेंगे उनके बीच कांग्रेस का प्रभाव कम हो
जाएगा और महत्त्वपूर्ण पदों पर ग़ैर-कांग्रेसी क़ाबिज़ हो जाएंगे। विधानमंडल में भाग
लेकर वे इसे राजनीतिक संघर्ष का एक मंच
तैयार कर सकते हैं और औपनिवेशिक सत्ता को उखाड़ फेंकने के लिए इसका एक हथियार के
तौर पर इस्तेमाल कर सकते हैं।
अपरिवर्तनकारियों का मानना था कि संसदीय कार्यों में संलग्न हो जाने के बाद
रचनात्मक कार्यों की उपेक्षा होगी। संघर्षशील शक्तियों का मनोबल गिरेगा और
राजनीतिक भ्रष्टाचार पनपेगा। जो विधान परिषदों में जाएंगे वे संघर्ष की राजनीति
छोड़ देंगे। वे समय के साथ साम्राज्यवादी हुक़ूमत का साथ देने लगेंगे।
जिस तरह की परिस्थितियां बन रही
थीं, उससे यह ख़तरा मंडराने लगा कि कहीं कांग्रेस में विभाजन न हो जाए। इसलिए दोनों
खेमाओं पर यह दबाव डाला गया कि वे एक दूसरे ख़िलाफ़ ज़हर उगलना बंद करें और समझौता
करें। दोनों ने समझौतावादी रुख़ अपनाया। स्वराज पार्टी ने कांग्रेस के कार्यक्रमों
को अपना कार्यक्रम बनाया। नए संवैधानिक सुधारों के तहत नवंबर 1923 में काउंसिलों के
चुनाव होने थे। इस पार्टी ने चुनावों में भाग लेने का निर्णय लिया। दिल्ली के
विशेष कांग्रेस अधिवेशन में एक समझौता हुआ जिसके तहत जो लोग विधान-सभा के चुनाव
लड़ना चाहें उन्हें उसकी इज़ाज़त दी गई, बशर्ते वे अपने बनाए हुए स्वराज्य पार्टी कि
ओर से लड़ें, न कि कांग्रेस की ओर से। और चुनावों में कांग्रेस का रुपया काम में न
लाया जाए। कांग्रेसियों ने स्वराज्य पार्टी के तहत चुनाव लड़े। गांधीजी जब 1924 में जेल से छूटकर बाहर
आए तो स्वराज पार्टी और कांग्रेस के मतभेद को दूर किया। दोनों पार्टी एक हो गई।
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मनोज कुमार
पिछली कड़ियां- राष्ट्रीय आन्दोलन
संदर्भ : यहाँ पर
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