राष्ट्रीय आन्दोलन
283. अहिंसा का सिद्धांत
अपने नकारात्मक नाम के
बावज़ूद अहिंसा का सिद्धांत एक बहुत ही प्रभावशाली सिद्धांत था। वह किसी कायर की
काम से बचने की युक्ति नहीं थी। यह एक बहादुर की बुराई और राष्ट्रीय पराधीनता से
लड़ाई का सिद्धांत था। अहिंसा और असहयोग के तरीक़ों को अपनाने के लिए गांधीजी ने
पूरे राष्ट्र से अपील की थी। हालाकि कि उनकी भाषा अलंकारहीन हुआ करती थी, उनकी आवाज शांत होती थी, उनके हावभाव स्थिर होते
थे, लेकिन उनकी बातें प्रेरक शक्ति लिए हुए, स्पष्ट
और भावुकता से शून्य होती थी। उनके मुंह से निकली बात सीधे लोगों के दिलों तक
पहुंचती थी और एक विचित्र हलचल पैदा किया करती थी। गांधीजी कहते थे, मैं स्वप्नद्रष्टा नहीं हूं। मैं स्वयं को एक व्यावहारिक आदर्शवादी
मानता हूं। अहिंसा का धर्म केवल ऋषियों और संतों के लिए नहीं है। यह सामान्य लोगों
के लिए भी है। अहिंसा उसी प्रकार से मानवों का नियम है जिस प्रकार से हिंसा पशुओं का
नियम है। पशु की आत्मा सुप्तावस्था में होती है और वह केवल शारीरिक शक्ति के नियम को
ही जानता है।
गांधीजी का कहना था, मैं
केवल एक मार्ग जानता हूं - अहिंसा का मार्ग। हिंसा का मार्ग मेरी प्रछति के विरुद्ध
है। मैं हिंसा का पाठ पढाने वाली शक्ति को बढाना नहीं चाहता... मेरी आस्था मुझे
आश्वस्त करती है कि ईश्वर बेसहारों का सहारा है, और वह संकट में सहायता तभी करता है जब व्यक्ति स्वयं को
उसकी दया पर छोड देता है। इसी आस्था के कारण मैं यह आशा लगाए बैठा हूं कि एक-न-एक
दिन वह मुझे ऐसा मार्ग दिखाएगा जिस पर चलने का आग्रह मैं अपने देशवासियों से
विश्वासपूर्वक कर सकूंगा।
गांधीजी अहिंसा के बारे
में उदघाटन करते हुए कहते हैं, मैंने अहिंसा का पाठ
अपनी पत्नी से पढा, जब मैंने उसे अपनी
इच्छा के सामने झुकाने की कोशिश की। एक ओर, मेरी इच्छा के दृढ प्रतिरोध, और दूसरी ओर, मेरी मूर्खता को चुपचाप सहने की उसकी पीडा को देखकर
अंततः मुझे अपने पर बडी लज्जा आई, और मुझे अपनी इस मूर्खतापूर्ण धारणा से मुक्ति मिली कि
मैं उस पर शासन करने के लिए ही पैदा हुआ हूं। अंत में, वह मेरी अहिंसा की शिक्षिका बन गई।
गांधीजी का कहना था, अहिंसा
और सत्य का मार्ग तलवार की धार के समान तीक्ष्ण है। इसका अनुसरण हमारे दैनिक भोजन
से भी अधिक महत्वपूर्ण है। सही ढंग से लिया जाए तो भोजन देह की रक्षा करता है, सही ढंग से अमल में लाई जाए तो अहिंसा
आत्मा की रक्षा करती है। शरीर के लिए भोजन नपी-तुली मात्रा में और निश्चित
अंतरालों पर ही लिया जा सकता है; अहिंसा तो आत्मा का भोजन है, निरंतर लेना पडता है। इसमें तृप्ति जैसी कोई चीज नहीं
है। मुझे हर पल इस बात के प्रति सचेत रहना पडता है कि मैं अपने लक्ष्य की ओर बढ
रहा हूं और उस लक्ष्य के हिसाब से अपनी परख करती रहनी पडती है।
अहिंसा को परिवर्तन रहित
पंथ मानते हुए कहते हैं, अहिंसा के मार्ग का
पहला कदम यह है कि हम अपने दैनिक
जीवन में परस्पर सच्चाई, विनम्रता, सहिष्णुता और प्रेममय दयालुता का व्यवहार करें। अंग्रेजी में कहावत
है कि ईमानदारी सबसे अच्छी नीति है। नीतियां तो बदल सकती हैं और बदलती हैं। किंतु
अहिंसा का पंथ अपरिवर्तनीय है। अहिंसा का अनुगमन उस समय करना आवश्यक है जब
तुम्हारे चारों ओर हिंसा का नंगा नाच हो रहा हो। अहिंसक व्यक्ति के साथ अहिंसा का
व्यवहार करना कोई बडी बात नहीं है। वस्तुतः यह कहना कठिन है कि इस व्यवहार को
अहिंसा कहा भी जा सकता है या नहीं। लेकिन अहिंसा जब हिंसा के मुकाबले खड़ी होती है, तब दोनों का फर्क पता चलता है। ऐसा करना तब तक संभव नहीं है जब तक
कि हम निरंतर सचेत, सतर्क और प्रयासरत न रहें।
1920 में उन्होंने “तलवार का सिद्धांत”
शीर्षक से एक लेख लिखा था। जिसमें उन्होंने कहा था, “मेरा विश्वास है कि जब मेरे सामने केवल दो विकल्प रह जाएंगे –कायरता और हिंसा – तो मैं हिंसा के लिए
सलाह दूंगा। इसके बजाय कि भारत कायरतापूर्वक अपने ही असम्मान का शिकार बने या बना
रहे मैं यह पसंद करूंगा कि वह अपने सम्मान की रक्षा के लिए हथियार उठाए। किंतु
मेरा विश्वास है कि अहिंसा हिंसा से कहीं ऊंची है और क्षमादान दंड से अधिक वीरतापूर्ण
है”।
“क्षमा सिपाही की शोभा है, किंतु संयम क्षमा तभी बन सकता है जब अपने
में दंड देने की शक्ति हो। उसका किसी असहाय व्यक्ति द्वारा प्रदर्शित किया जाना
निरर्थक है। जब एक चूहा अपने को बिल्ली से टुकड़े-टुकड़े करवा लेता है तो क्या वह
उसकी क्षमाशीलता है? किंतु मैं भारत को या अपने ओ असहाय नहीं मानता। ...
मेरी
अहिंसा इस बात की इजाजत नहीं देती कि खतरा सामने देखकर अपने प्रियजनों को
असुरक्षित छोडकर खुद भाग जाओ। हिंसा और कायरतापूर्ण पलायन में से मैं हिंसा को ही
तरजीह दूंगा। जिस प्रकार मैं किसी अंधे आदमी को सुंदर दृश्यों का आनंद लेने के लिए
प्रेरित नहीं कर सकता, उसी प्रकार कायर को अहिंसा का पाठ नहीं पढा सकता। अहिंसा
तो वीरता की चरम सीमा है। मेरे अपने अनुभव में, मुझे हिंसा में विश्वास रखने वाले लोगों को अहिंसा की
श्रेष्ठता सिद्ध करने में कोई कठिनाई नहीं हुई। मैं वर्ष़ों तक कायर रहा और उन
दिनों मुझे कई बार हिंसा पर उतारू होने की इच्छा हुई। जब मैंने कायरता को त्यागना
आरंभ किया, तब अहिंसा की कद्र करने लगा। वे लोग जो खतरा सामने देखकर अपनी जिम्मेदारी छोडकर भाग खडे हुए, अहिंसक होने के नाते
या वार करने से डरने की वजह से नहीं भागे बल्कि इसलिए भागे कि वे मरने या चोट खाने
के लिए तैयार नहीं थे। खूंख्वार कुत्ते को देखकर भाग जाने
वाला खरगोश इसलिए नहीं भागता कि वह बडा अहिंसक है। वह बेचारा तो कुत्ते को देखते ही भय से कांपने लगता है और अपनी जान बचाने के
लिए भागता है।
“आप मुझे ग़लत न समझिए। शक्ति शारीरिक सामर्थ्य से नहीं प्राप्त
होती, वह एक अजेय संकल्प से उत्पन्न होती है।
“मैं स्वप्न नहीं देखा करता। मैं एक व्यावहारिक आदर्शवादी होने का
दावा करता हूं। अहिंसा का धर्म केवल ऋषियों और महात्माओं के लिए नहीं है। वह
जन-साधारण के लिए भी है। जिस तरह से हिंसा पशुओं का जीवन सिद्धांत है, उसी तरह से
अहिंसा हम मानवों का। पशु में आत्मा सुप्त पड़ी रहती है और पशु शारीरिक बल के अलावे
और कोई नियम नहीं जानता। मनुष्य की मर्यादा के लिए एक उच्च नियम-आत्मिक शक्ति – के लिए आज्ञाकारिता आवश्यक है।
“इसीलिए मैंने भारत के सामने आत्म-त्याग का पुराना सिद्धांत रखने का
साहस किया है। सत्याग्रह और उसकी शाखाएं –
असहयोग व सविनय अवज्ञा – और कुछ नहीं, बल्कि
कष्ट-सहन के नए नाम हैं। जिन ऋषियों ने हिंसा के बीच अहिंसा सिद्धांत का पता लगाया
वे न्यूटन से भी अधिक प्रतिभा-संपन्न थे; वे वेलिंगटन से भी बड़े योद्धा थे।
शस्त्रों के प्रयोग को स्वयं जान कर भी उन्होंने उनकी निरर्थकता को समझा और इस थके
हुए संसार को सिखाया कि मुक्ति हिंसा नहीं, बल्कि अहिंसा के द्वारा मिल सकती है।
“गतिमान अवस्था में अहिंसा का अर्थ स्वेच्छित कष्ट सहन है। उसका
अर्थ दुष्ट के सामने नम्रता पूर्वक घुटने टेकना नहीं है। बल्कि अत्याचारी की इच्छा
के विरुद्ध अपना तन मन लगा देना है। जीवन के इस नियम के अनुसार कार्य करते हुए
अकेला एक व्यक्ति अपने सम्मान, अपने धर्म और अपनी आस्था की रक्षा के लिए एक
अन्यायपूर्ण साम्राज्य की पूरी शक्ति का सामना कर सकता है और उस साम्राज्य के पतन या
पुनरुद्धार की नींव रख सकता है।
“अतः मैं भारतवासियों से अहिंसा का अभ्यास करने की प्रार्थना इसलिए
नहीं करता कि वे दुर्बल हैं। मैं चाहता हूं कि वे अपने बल और अधिकार की पूर्ण चेतनता
के साथ अहिंसा का अभ्यास करें। ... मैं चाहता हूं कि भारत इस बात को समझ ले कि
उसके पास एक आत्मा है जो मर नहीं सकती, जो सब तरह की शारीरिक दुर्बलताओं पर विजयी
हो सकती है और पूरे संसार के शारीरिक संगठन का विरोध कर सकती है। ...
“मैं इस असहयोग को शिन फैनवाद से अलग समझता हूं, क्योंकि इसकी
कल्पना कुछ इस ढंग से की गई है कि यह हिंसा के साथ-साथ प्रयोग में नहीं लाई जा
सकती। किंतु मैं तो हिंसावादियों को भी एक बार अहिंसात्मक असहयोग की परीक्षा करने
का निमंत्रण देता हूं। अहिंसात्मक असहयोग अपनी किसी आंतरिक दुर्बलता के कारण असफल
नहीं हो सकता, वह केवल लोगों का समर्थन न प्राप्त होने के कारण असफल हो सकता है।
असली खतरे का समय वही होगा। उच्च आत्मा वाले लोग, जो राष्ट्रीय अपमान को अब और
सहने में असमर्थ हैं, अपना क्रोध निकालना चाहेंगे। वे हिंसा का अनुगमन करेंगे।
जहां तक जानता हूं ऐसे लोग अपने को या अपने देश को अन्याय से मुक्त कराए बिना ही
नष्ट हो जाएंगे। संभव है कि भारत तलवार के सिद्धांत को अपना कर क्षणिक विजय
प्राप्त कर सके, किंतु तब भारत वह भारत नहीं रह जाएगा जिस पर मैं गर्व कर सकूं।
भारत से मेरा संबंध इसलिए है कि मुझे सब कुछ उसी से मिला है। मुझे यह पूर्ण
विश्वास है कि उसे सारे संसार को एक संदेश देना है।”
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मनोज कुमार
पिछली कड़ियां- राष्ट्रीय आन्दोलन
संदर्भ : यहाँ पर
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