राष्ट्रीय आन्दोलन
264. मांटेग्यू-चेम्सफ़ोर्ड सुधार
और भारत सरकार अधिनियम, 1919
1919
प्रवेश :
जुलाई 1917 में चैम्बरलेन
के स्थान पर एडविन एस. मोंटेग्यू को भारतीय मामलों का मंत्री (भारत-सचिव) बनाया गया। ब्रिटेन की सरकार ने नीति में परिवर्तन करने और समझौतावादी
रुख अपनाने का फैसला किया। 20 अगस्त 1917 को हाउस ऑफ कॉमंस में उसने घोषणा की कि
अब से भारत में ब्रिटिश नीति का संपूर्ण लक्ष्य स्वशासी संस्थाओं का क्रमशः विकास
होगा ताकि ब्रिटिश साम्राज्य के अभिन्न अंग के रूप में भारत में क्रमशः उत्तरदायी
सरकार की स्थापना हो सके। भारतीय नेताओं की उम्मीदें बढी। यह कथन लॉर्ड मॉर्ले के कथन से बिल्कुल अलग था, जिन्होंने
1909 में संवैधानिक सुधारों को पेश करते हुए स्पष्ट रूप से कहा था कि इन सुधारों
का उद्देश्य किसी भी तरह से स्वशासन की ओर ले जाना नहीं है। मोंटेग्यू की घोषणा का
महत्व यह था कि इसके बाद होम रूल या स्वशासन की मांग को राजद्रोही नहीं माना जा
सकता था। हालाँकि, इसका मतलब यह नहीं था कि ब्रिटिश सरकार स्वशासन
देने वाली थी।
युद्ध के मोर्चे पर 1918 के आरंभिक
महीनों में ब्रिटेन और उसके मित्र राष्ट्रों की हालत खराब थी। पश्चिमी मोर्चे पर
जर्मनों के जोरदार आक्रमण की आशंका थी। तब अप्रैल, 1918 महीने के अंत में वायसराय लॉर्ड
चेम्सफ़ोर्ड ने युद्ध में सहायता देने के प्रश्न पर विचार करने के लिए दिल्ली
में भारतीय नेताओं का युद्ध सहायता परिषद का आयोजन किया। हालाकि गांधीजी
अहिंसा के प्रति समर्पित थे, फिर भी इस सम्मेलन में भाग लेने दिल्ली गए। अबतक ब्रिटिश राज के प्रति
उनके आस्था बनी हुई थी। भारत ने लड़ाई में मदद देने के लिए नौ लाख पचासी हज़ार आदमी
भेजे थे। भारतीयों को विश्वास था कि इंग्लैण्ड के प्रति अपनी इस वफादारी और सहयोग
के बदले में उन्हें उचित मूल्य (साम्राज्य की भागीदारी में हिस्सा – होमरूल) मिलेगा।
भारतीयों का यह भ्रम भयानक रूप से
टूटा। शान्ति के समझौते पर दस्तख़त हो जाने के बाद सरकार की तरफ से भारत को नए
अधिकार देने की बात तो दूर रही, अब तक भारत वासियों के हाथ में जो थोड़े से अधिकार थे, वे भी छीन लिए गए। युद्ध
के दौरान उपनिवेशों को अपने पक्ष में करने के लिए मित्र देशों की शक्तियों ने
युद्ध के बाद लोकतंत्र और आत्मनिर्णय के युग का वादा किया था। लेकिन शीघ्र ही यह
स्पष्ट हो गया कि साम्राज्यवादी शक्तियों का उपनिवेशों पर अपना नियंत्रण ढीला करने
का कोई इरादा नहीं था। ब्रिटिश युद्ध के प्रयासों में भारत ने तन-मन-धन से सहयोग
दिया। विभिन्न मोर्चों पर युद्ध में हजारों भारतीय मारे गए। जब युद्ध समाप्त हुआ, भारत के सभी वर्गों के लोगों को विभिन्न मोर्चों पर
कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा था। युद्ध के बाद, ब्रिटिश सरकार
से राजनीतिक लाभ की काफी ऊंची उम्मीदें थीं। लेकिन युद्ध के प्रयास में भारतीयों के
योगदान को ब्रिटिश द्वारा नज़र अन्दाज़ कर दिया गया। ब्रिटिश सरकार, भारतीयों के साथ अपनी शक्ति को छोड़ने या यहाँ तक कि साझा
करने के लिए तैयार नहीं थी। युद्ध के बाद, भारत की परिस्थितियों और विदेशों से
प्रभाव ने एक ऐसी स्थिति पैदा की जो विदेशी शासन के खिलाफ राष्ट्रीय विद्रोह के
लिए तैयार थी। सरकार को लगा कि शासन में कुछ सुधार कर भारतीयों को बहला-फुसला लिया
जाएगा। इसीलिए ब्रिटिश सरकार ने लॉर्ड मांटेग्यू और लॉर्ड चेम्सफ़ोर्ड के मातहत एक
समिति का गठन किया, ताकि यह समिति भारत में शासन में सुधार के उपाय सुझाए।
संवैधानिक सुधारों की घोषणा
1909 में हुए मॉर्ले-मिटों
सुधारों ने भारतीयों को निराशा के अलावा कुछ नहीं दिया। बल्कि इसने हिन्दू-मुसलमानों
के बीच की खाई को चौड़ा ही किया था। न तो इससे कांग्रेस ही खुश थी और न ही मुस्लिम लीग।
विभिन्न मंचों पर संवैधानिक सुधारों की मांग जोर पकड़ती जा रही थी। सरकार ने 8 जुलाई, 1918 को संवैधानिक सुधारों
की घोषणा की, जिसे मोंटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार या मोंटफोर्ड
सुधार के रूप में जाना जाता है। इस रिपोर्ट ने
भारत में बहुत हलचल मचाई और यह वास्तव में कलह का कारण बनी। विश्व युद्ध 11 नवम्बर
1918 को जर्मनी के बिना शर्त आत्मसमर्पण के साथ समाप्त हुआ। भारतीय मामलों के मंत्री एडविन
मोंटेग्यू और तत्कालीन वायसराय लॉर्ड चेम्सफोर्ड द्वारा प्रस्तावित
होने के कारण इसे मोंटफोर्ड सुधार नाम दिया गया था। इसके तहत यह व्यवस्था
की गयी थी कि प्रान्तों में आंशिक शासन होगा, जो चुनी गयी विधानसभा और भारतीय मंत्रियों
के माध्यम से चलेगा, लेकिन महत्त्वपूर्ण विषय गवर्नर के लिए
सुरक्षित रहेंगे जो मनोनीत एक्ज़ीक्यूटिव काउन्सिल की मदद से शासन करेंगे। केंद्र
में सत्ता में कोई हिस्सेदारी नहीं रहेगी। मोंटेग्यू ने इसे ‘बड़ी छलांग’
बताया था। लेकिन बाद में भारतीय मामलों के नए मंत्री एवं पूर्व वायसराय लॉर्ड कर्ज़न ने इसे ‘अविवेकपूर्ण और
प्रतिक्रियावादी’ कहा था। भारतीय नेता इसके प्रति कोई मन नहीं बना पाए। मोंटफोर्ड
सुधार के आधार पर भारत सरकार अधिनियम,
1919 बनाया गया।
इस समिति ने कुछ रियायतें देने का
वादा किया था। ‘उत्तरदायी सरकार’ लाने की समस्याओं का समाधान के लिए ‘द्विशासन’
का एक अनोखा उपाय इस समिति ने सुझाया था, जिसके तहत प्रांतीय सरकारों के कुछ विभाग
जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि, स्थानीय निकाय मंत्रियों को सौंप दिए गए थे जो
विधायिकाओं के प्रति उत्तरदायी थे, जबकि अन्य विषयों को ‘आरक्षित’ रखा गया था।
भारतीय प्रतिक्रिया
इस प्रकार, 1918 के उत्तरार्ध में, कांग्रेस के
सामने नीति के दो महत्वपूर्ण प्रश्न, अर्थात् युद्ध को बिना शर्त समर्थन देने का प्रश्न और
सुधारों की मोंटफोर्ड योजना के प्रति दृष्टिकोण, थे, लेकिन गांधीजी को कांग्रेस संगठन के किसी भी वर्ग का समर्थन नहीं
मिला। वे अकेले खड़े थे। कांग्रेस ने मोंटफोर्ड सुधारों के
प्रति आलोचनात्मक रवैया अपनाया। कांग्रेस ने अगस्त 1918 में हसन इमाम की अध्यक्षता में बॉम्बे में एक विशेष सत्र
में बैठक की और सुधारों को "निराशाजनक" और "असंतोषजनक"
घोषित किया। वाचा, सुरेंद्रनाथ बनर्जी, भूपेंद्रनाथ बसु, अंबिका चरण मजूमदार कांग्रेस अधिवेशन से अनुपस्थित रहे। कांग्रेस ने इस तरह की सुधारों के बजाय प्रभावी स्वशासन की
मांग की। सुरेंद्रनाथ
बनर्जी के नेतृत्व में कई वरिष्ठ कॉन्ग्रेसी नेता सरकारी प्रस्तावों को स्वीकार करने के पक्ष में थे। इस कारण नरमदलीय तत्व कांग्रेस से अलग होकर सप्रू, जयकर और
चिंतामणि ने नेशनल लिबरल एसोसिएशन की स्थापना की थी। इन नरमपंथियों
ने 1 नवंबर को बंबई में सुरेन्द्रनाथ बनर्जी की अध्यक्षता में अपना एक सम्मेलन आयोजित किया। नरमपंथियों के सम्मेलन ने सुधार प्रस्तावों का स्वागत करते
हुए एक प्रस्ताव पारित किया, जिसमें कहा गया कि ये भारत सरकार और प्रांतीय सरकारों के
संबंध में वर्तमान परिस्थितियों में एक प्रगति है और प्रांतों में "जिम्मेदार
सरकार" की प्रगतिशील प्राप्ति की दिशा में एक वास्तविक और महत्वपूर्ण कदम
है। नरमपंथी इस योजना में फंस गए। उन्होंने कहा: "जो उग्रवादी सरकार के
प्रति अच्छे इरादे नहीं रखते हैं, उन्हें उनसे अलग कर दिया जाना चाहिए जो सरकार के प्रति
अच्छे इरादे रखते हैं।" वहीं दूसरी ओर मोंटफोर्ड सुधारों को
लोकमान्य तिलक द्वारा "अयोग्य और निराशाजनक-एक धूप रहित सुबह और बेकार योजना
वाली एक अच्छी रिपोर्ट" कहा गया था, यहां तक कि एनी बेसेंट के अनुसार "रिपोर्ट में
बताए गए राजनीतिक सुधार इंग्लैंड के देने और भारत के लेने के योग्य नहीं थे।" मुस्लिम लीग के भी विचार कुछ ऐसे
ही थे। गांधीजी ने कहा था, “मोंटफोर्ड
सुधार... केवल भारत की संपत्ति को और कम करने और उसकी दासता को लंबा करने का एक
तरीका था।” गांधीजी ने यह भी कहा: "यह योजना सरसरी तौर पर
खारिज करने के बजाय सहानुभूतिपूर्वक निपटारे की हकदार है। जीत के लिए ब्रिटेन के
साथ बिना शर्त मरते दम तक लड़ो, और साथ ही साथ उन सुधारों के लिए आंदोलन करो, जिनके हम
हकदार हैं, अगर हमें करना ही पड़े तो मरते दम तक।" मोंटेग्यू-चेम्सफोर्ड
सुधार योजना की कई असंतोषजनक विशेषताओं के बावजूद, गांधीजी कुल मिलाकर इसके प्रति अनुकूल थे और उन्होंने
सुधारों को उचित संशोधनों के बाद स्वीकार करने का आग्रह किया। वह चाहते थे कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और मुस्लिम लीग न्यूनतम परिवर्तन निर्धारित करें जो योजना को स्वीकार्य
बनाएंगे और फिर उन परिवर्तनों को ब्रिटिश सरकार द्वारा स्वीकार करवाने के लिए अपना
सब कुछ दांव पर लगा देंगे। गांधीजी इस प्रचलित राय से सहमत थे कि "सुधार
निस्संदेह अधूरे हैं; वे हमें
पर्याप्त नहीं देते" लेकिन उन्हें लगा कि उन्हें अस्वीकार नहीं किया जाना
चाहिए। उन्होंने घोषणा की कि सुधार अधिनियम, 24 दिसंबर 1919 को जारी शाही उद्घोषणा के साथ मिलकर, भारत के साथ न्याय करने के लिए ब्रिटिश लोगों की एक
ईमानदारी थी। गांधीजी का तर्क था कि अगर कांग्रेस सुधारों पर काम करने जा रही है, तो वह उन्हें निराशाजनक नहीं कह सकती। सुधारों पर सहयोग की
भावना से काम किया जाना चाहिए।
1919 में कांग्रेस के अमृतसर अधिवेशन में इन
रियायतों पर भी चर्चा हुई। हालांकि गांधीजी को ये सुधार पसंद तो नहीं थे, लेकिन
अमृतसर कांग्रेस के समय उनका मानना था कि सरकार के प्रयास को सद्भाव से देखना
चाहिए। अगर कांग्रेस इन सुधारों को मान लेती है, तो आगे की मांगों में सुविधा
होगी। लोकमान्य तिलक और देशबंधु चितरंजन दास को यह सुधार ज़रा भी मान्य नहीं था। गांधीजी
ने लोकमान्य को लिखा था, “हमें
मोंटेग्यू-चेम्सफोर्ड समिति के सिद्धांत को स्वीकार करना चाहिए और जो भी बदलाव हम
प्रस्तावित करना चाहते हैं, उन्हें स्पष्ट रूप
से बताना चाहिए। और हमें उन बदलावों को स्वीकार करवाने के लिए मरते दम तक लड़ना
चाहिए।” महामना मदन मोहन मालवीय निष्पक्ष थे। कांग्रेस दो पक्षों
में बंट गई। गांधीजी इस मतभेद से क्षुब्ध थे। उन्हें लगा कि यदि वे अधिवेशन छोड़कर अहमदाबाद
चलें जाएं तो कांग्रेस की दुविधा टल जाएगी। लेकिन अध्यक्ष मोतीलाल नेहरू और
मालवीयजी ने गांधीजी के चले जाने के प्रस्ताव को नामंज़ूर कर दिया। गांधीजी ने
देशबंधु, लोकमान्य और जिन्ना से काफ़ी चर्चाएं की। कांग्रेस के इस अमृतसर अधिवेशन
में चेम्सफोर्ड सुधारों के मत पर जिन्ना ने गांधीजी के रुख का समर्थन करते हुए
अपने भाषण में उन्हें `महात्मा गांधी’ कहा था। जिन्ना के
ही पहल पर चितरंजन दास आदि की आलोचनाओं के बावजूद कांग्रेस ने सुधारों पर अमल करने
पर सहमति दी थी।
दिसंबर 1919 में ब्रिटिश संसद ने इस
सुधारों को पास कर दिया। यह भारत सरकार अधिनियम, 1919 कहलाया, जिसे 1920
में लागू कर दिया गया।
मुख्य प्रावधान
इस
अधिनियम द्वारा भारत को अंग्रेजी साम्राज्य का अभिन्न अंग मानते हुए केंद्र के
साथ-साथ प्रांतीय स्तरों पर शासन में सुधारों की शुरुआत की गयी। इस सुधार का एकमात्र उद्देश्य
भारतीयों का शासन में प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करना था। सरकार का दावा था कि उस अधिनियम की विशेषता ‘उत्तरदायी
शासन की प्रगति’ है।
केंद्र सरकार—कोई ज़िम्मेदारी नहीं
अखिल भारतीय
स्तर पर सरकार के लिए अधिनियम में किसी उत्तरदायी सरकार की परिकल्पना नहीं की गई
थी। यहाँ ऐसे
मामले जो राष्ट्रीय महत्त्व के थे या एक से अधिक प्रांतों से संबंधित थे, केंद्र स्तरीय सरकार द्वारा शासित थे, जैसे: विदेश मामले, रक्षा,
राजनीतिक संबंध, सार्वजनिक ऋण, नागरिक और आपराधिक कानून, संचार सेवाएं आदि को शामिल
किया गया था। इण्डिया काउन्सिल में तीन भारतीय
सदस्यों को शामिल किया गया, जिनका कार्य भारत
मंत्री को परामर्श देना था।
इस
अधिनियम ने वायसराय को मुख्य कार्यकारी प्राधिकारी बनाया। प्रशासन के लिए दो सूचियाँ होनी थीं- केंद्रीय और प्रांतीय।
वायसराय की आठ सदस्यीय कार्यकारी परिषद में तीन भारतीय थे। वायसराय ने प्रांतों
में आरक्षित विषयों पर पूर्ण नियंत्रण बनाए रखा। उसे अनुदानों में कटौती करने का
अधिकार था, केंद्रीय विधायिका द्वारा खारिज किए गए बिलों को प्रमाणित
कर सकता था और अध्यादेश जारी कर सकता था।
इस अधिनियम ने प्रांतीय सरकार के
स्तर पर कार्यपालिका के लिए द्वैध शासन की शुरुआत की। केन्द्रीय और प्रांतीय विषय
अलग कर दिए गए। रक्षा, राजनीतिक संबंध, डाक-तार,
संचार, क़ानून और प्रशासन जैसे महत्त्वपूर्ण विषय केन्द्रीय
सूची में
शामिल किए गए थे। प्रांतीय सूची में सार्वजनिक स्वास्थ्य, स्थानीय स्वशासन, शिक्षा,
सामान्य प्रशासन, चिकित्सा सुविधाएं, भूमि-राजस्व, जल आपूर्ति, अकाल
राहत, कानून और व्यवस्था, कृषि आदि।
एक द्विसदनीय विधानमंडल की व्यवस्था पेश की गई थी, जिसमें उच्च सदन या राज्य परिषद (Upper
House or Council of State) और निम्न सदन या केंद्रीय विधानसभा ( Lower House or Central Legislative
Assembly) शामिल थी।
उच्च सदन या राज्य परिषद में 60 सदस्य थे, जिनमें से 26 वायसराय द्वारा मनोनीत सदस्य थे और 34
निर्वाचित सदस्य। निर्वाचित सदस्यों में से 20 जनरल, 10 मुस्लिम, 3 यूरोपीय और 1 सिख सदस्य का
निर्वाचन होना था। इसका कार्यकाल 5 वर्ष का था और इसमें केवल पुरुष
सदस्य थे।
निचले सदन या केंद्रीय विधान सभा में 145 सदस्य थे। इनमें
से 104 निर्वाचित सदस्यों में से 52
सामान्य, 30 मुस्लिम, 2 सिख, 20 विशेष वर्गों (यूरोपियन, ज़मींदार, व्यापारिक संगठन) के लिए आरक्षित थे। 41
मनोनीत सदस्यों
में से 26 आधिकारिक और 15 गैर-सरकारी सदस्य थे। केंद्रीय विधान सभा का कार्यकाल 3 वर्ष था।
नए
सुधारों के तहत अब विधायक प्रश्न
और पूरक प्रश्न पूछ सकते थे, स्थगन प्रस्ताव पारित कर सकते थे और
बजट के एक हिस्से पर मतदान कर सकते थे, लेकिन बजट का 75 प्रतिशत हिस्से पर अभी भी मतदान
का अधिकार प्राप्त नहीं था। कुछ भारतीयों ने वित्त सहित महत्वपूर्ण समितियों में अपना
रास्ता खोज लिया। गृह सरकार (ब्रिटेन में) के मोर्चे पर, भारत सरकार अधिनियम,
1919 ने एक
महत्वपूर्ण परिवर्तन किया - भारत के राज्य सचिव को अब से ब्रिटिश राजकोष से भुगतान
किया जाना था। विधायिका का वायसराय और उसकी कार्यकारी परिषद पर कोई
नियंत्रण नहीं था।
वायसराय
को विधायिका को संबोधित करने का अधिकार था। उसे बैठकों को बुलाने, स्थगित करने या विधानमंडल को निरस्त या
खंडित करने का अधिकार प्राप्त था। वह विधायिका के 3 साल के कार्यकाल को बढ़ा सकता
था।
केंद्र
सरकार को
प्रांतीय सरकारों पर पूर्ण नियंत्रण प्राप्त था। केंद्रीय विधायिका
को पूरे भारत के लिये, अधिकारियों और आमजन हेतु कानून बनाने के लिये अधिकृत किया गया था, चाहे वे
भारत में हों या नहीं।
विधायिका
को किसी विधेयक को पेश करने के लिए वायसराय की अनुमति हासिल करना ज़रूरी था। भारतीय
विधायिका भारत के संबंध में ब्रिटिश संसद द्वारा पारित किसी भी कानून को बदल या
उलट नहीं सकती थी।
प्रांतीय सरकार—द्वैध शासन की शुरुआत
इस अधिनियम ने प्रांतीय सरकार के
स्तर पर कार्यपालिका के लिए द्वैध शासन की शुरुआत की। इसमें वे मामले शामिल किए गए थे जो उस प्रांत
से संबंधित थे, जैसे सार्वजनिक स्वास्थ्य, स्थानीय स्वशासन,
शिक्षा, सामान्य प्रशासन, चिकित्सा सुविधाएं, भूमि-राजस्व, जल आपूर्ति, अकाल राहत, कानून
और व्यवस्था, कृषि आदि। आरक्षित विषयों को गवर्नर द्वारा नौकरशाहों की कार्यकारी
परिषद के माध्यम से प्रशासित किया जाता था, और स्थानांतरित विषयों को विधान
परिषद के निर्वाचित सदस्यों में से नामित मंत्रियों द्वारा प्रशासित किया जाता था।
कार्यपालिका
प्रांतीय
स्तर पर कार्यपालिका हेतु द्वैध शासन, यानी, दो-कार्यकारी
पार्षदों और लोकप्रिय मंत्रियों का शासन शुरू किया गया था। गवर्नर
प्रांत का
कार्यकारी प्रमुख था। विषयों को दो सूचियों में विभाजित
किया गया था: 'आरक्षित' जिसमें कानून और व्यवस्था, वित्त, भूमि राजस्व, सिंचाई, आदि जैसे विषय शामिल थे, और शिक्षा, स्वास्थ्य, स्थानीय सरकार, उद्योग, कृषि, उत्पाद शुल्क, आदि जैसे 'स्थानांतरित' विषय शामिल थे। आरक्षित विषयों को गवर्नर द्वारा नौकरशाहों की कार्यकारी
परिषद के माध्यम से प्रशासित किया जाता था, और स्थानांतरित विषयों को विधान
परिषद के निर्वाचित सदस्यों में से नामित मंत्रियों द्वारा प्रशासित किया जाता था।
मंत्रियों को विधायिका के प्रति जिम्मेदार होना था और यदि
विधायिका द्वारा उनके खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पारित किया जाता, तो उन्हें इस्तीफा देना पड़ता, जबकि कार्यकारी पार्षद विधायिका के प्रति जिम्मेदार नहीं
थे। प्रांत में संवैधानिक तंत्र के विफल होने की स्थिति में गवर्नर हस्तांतरित विषयों का प्रशासन भी अपने हाथ में ले सकता था।
भारत के राज्य
सचिव और गवर्नर जनरल आरक्षित विषयों के संबंध में हस्तक्षेप कर सकते थे, जबकि स्थानांतरित विषयों के संबंध में, उनके हस्तक्षेप की गुंजाइश सीमित थी। द्वैध शासन (Diarchy)
को आठ प्रांतों में लागू किया गया था जिसमें असम, बंगाल, बिहार और उड़ीसा, मध्य
प्रांत, संयुक्त प्रांत, बॉम्बे,
मद्रास और पंजाब प्रांत शामिल थे।
प्रांतीय विधान परिषदों का और
विस्तार किया गया और 70 प्रतिशत सदस्यों का चुनाव किया गया। सभी प्रान्तों में
सदस्यों की संख्या सामान नहीं थी। सांप्रदायिक और वर्गीय मतदाताओं की व्यवस्था को
और मजबूत किया गया। महिलाओं को भी वोट देने का अधिकार दिया गया। विधान परिषदें कानून शुरू कर सकती थीं लेकिन गवर्नर की सहमति आवश्यक थी। गवर्नर विधेयकों को वीटो कर सकता था और अध्यादेश जारी कर सकता था।
विधान परिषद बजट को अस्वीकार कर सकती थी लेकिन यदि आवश्यक हो तो गवर्नर इसे बहाल कर सकता था। गवर्नर मंत्रियों को किसी भी
आधार पर बर्खास्त कर सकता था। विधायकों को बोलने की आजादी थी।
सुधारों से लाभ
इस
अधिनियम के लागू हो जाने से भारतीयों को प्रशासन के बारे में सूचना मिली और वे
अपने कर्तव्यों के प्रति जागरूक हुए। भारतीयों में राष्ट्रवाद और जागृति की भावना
पैदा हुई और यह स्वराज के लक्ष्य की प्राप्ति की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण क़दम
साबित हुआ। चुनाव क्षेत्रों का विस्तार हुआ जिससे लोगों में मतदान के महत्त्व के
प्रति समझ बढ़ी। भारत में प्रांतीय स्वशासन की शुरुआत हुई। लोगों को प्रशासन करने का अधिकार मिला जिससे
सरकार पर प्रशासनिक दबाव बहुत कम हो गया। भारतीयों को
प्रांतीय प्रशासन में ज़िम्मेदारियों का निर्वहन करने हेतु तैयार किया।
कमियां
देश में प्रमुख राजनीतिक राय मोंटफोर्ड योजना से बहुत निराश
थी, क्योंकि यह भारतीयों की जिम्मेदार सरकार की मांग से बहुत कम
थी। इस योजना में द्वैध शासन के सिद्धांत, विधानमंडलों की मनोनीत सदस्यता, राज्य परिषद, गवर्नर-जनरल और राज्यपालों को दी गई अलोकप्रिय कानूनों के
प्रमाणन की शक्तियाँ, उनकी वीटो की शक्ति, अध्यादेश बनाने की शक्तियाँ और कई अन्य प्रतिक्रियावादी
विशेषताएँ शामिल थीं, जिसकी पिछले साल कांग्रेस के बॉम्बे विशेष सत्र और दिल्ली
सत्र दोनों में कड़ी निंदा की गई थी।
अधिनियम में अखिल भारतीय स्तर
पर किसी भी ज़िम्मेदार सरकार की परिकल्पना नहीं की गई। मताधिकार बहुत सीमित था। एक अनुमान के अनुसार, केंद्रीय विधायिका के लिए मतदाताओं की संख्या लगभग पंद्रह
लाख तक बढ़ा दी गई थी, जबकि भारत की जनसंख्या लगभग 26 करोड़
थी। त्रुटिपूर्ण
चुनावी प्रणाली और सीमित मताधिकार के कारण ये सुधार लोकप्रियता नहीं हासिल कर सके।
इसके अलावे एक अलग चुनावी प्रणाली ने सांप्रदायिकता की भावना को बढ़ावा दिया। केंद्र में, वायसराय और उसकी कार्यकारी परिषद पर
विधायिका का कोई नियंत्रण नहीं था। इससे
दोनों के बीच लगातार टकराव की स्थिति बनी रहती थी । केंद्र में विषयों का विभाजन संतोषजनक नहीं था। प्रांतों
को केंद्रीय विधायिका के लिए सीटों का आवंटन प्रांतों के 'महत्व' पर आधारित था - उदाहरण के लिए, पंजाब का सैन्य महत्व और बॉम्बे का व्यावसायिक महत्व। प्रांतों
के स्तर पर, विषयों का विभाजन और दो भागों का
समानांतर प्रशासन तर्कहीन था और इसलिए अव्यावहारिक था। सिंचाई, वित्त, पुलिस, प्रेस और न्याय जैसे विषय 'आरक्षित' थे। प्रांतीय मंत्रियों का वित्त और
नौकरशाहों पर कोई नियंत्रण नहीं था। महत्वपूर्ण मामलों पर भी अक्सर मंत्रियों से
सलाह नहीं ली जाती थी; वास्तव में, उन्हें राज्यपाल द्वारा किसी भी मामले पर खारिज किया जा
सकता था जिसे बाद वाला विशेष मानता था। गवर्नर को अप्रतिबंधित शक्तियाँ प्राप्त थीं, वह अपनी परिषद और मंत्रियों के निर्णय के
विरुद्ध भी निर्णय ले सकता था प्रशासन से संबंधित लगभग सभी महत्त्वपूर्ण मामले
राज्यपाल पर निर्भर थे। मंत्रियों को उत्तरदायित्व तो सौंपा गया था लेकिन गवर्नर
को इतने विस्तृत अधिकार मिले थे कि मंत्री नाममात्र के मंत्री थे।
परिणाम और उपसंहार
उदार साम्राज्यवादी इतिहासकार
मोंटफोर्ड सुधारों को लेकर काफी उत्साहित दिखते हैं। वे मानते हैं कि ये सुधार मूलतः
अंग्रेजों की नेकनीयती के प्रमाण हैं। उन विचारकों द्वारा मांटेग्यू को सुधार के
लिए जिहाद करनेवाले के रूप में प्रस्तुत किया गया है। इसमें कोई दो राय नहीं कि यह
घोषणा पुरानी ब्रिटिश नीति से अलग थी। भारत के सांविधानिक विकास के इतिहास
में इन सुधारों का महत्त्वपूर्ण
स्थान है। यह प्रतिनिधि सरकार की बात करती थी।
हालाकि मताधिकार सीमित था फिर भी इस व्यवस्था से देश के मतदाताओं में मत देने की
व्यावहारिक समझ विकसित हुई। इस अधिनियम द्वारा भारत में प्रांतीय स्वशासन तथा
आंशिक रूप से उत्तरदायी शासन की व्यवस्था की गई। केंद्र में जहाँ द्विसदनीय
व्यवस्थापिका की व्यवस्था हुई, वहीं
केंद्र की कार्यकारी परिषद में भारतीयों को पहले से तिगुना प्रतिनिधित्व देने का
प्रावधान था।
इन तथ्यों के बावजूद यह स्पष्ट है कि सुधारों की वास्तविक
योजना राष्ट्रवादियों की मांगों की तुलना में अत्यंत नगण्य थी। कैंब्रिज
इतिहासकारों का यह मानना कि 1919 के एक्ट से निर्वाचक मंडलों की संख्या में
विस्तार हुआ और राजनीतिज्ञों को अधिक जनतांत्रिक शैली अपनाने के लिए बाध्य होना
पडा, अपूर्ण है। सुधार
की प्रक्रिया की सूक्ष्मता से जांच करने पर पता चलता है कि इसमें नया कुछ भी नहीं
था। इस अधिनियम में इतनी
कमियाँ थी कि इससे भारतीयों को घोर निराशा हुई। यह भारतीयों की
आकांक्षाओं को धूल-धूसरित कर रहा
था। पी.ई. रॉबर्ट्स ने अपन मत
रखते हुए कहा था, “दोहरी
कार्यपालिका का द्वैध शासन लगभग हर सैद्धांतिक आपत्ति के लिए खुला था।” इस
द्वितन्त्रीय सरकार का मतलब था – राज्यों में एक तरह का दुहरा शासन। यह अधिनियम
भारतीयों की स्वशासन की मांग को पूरी तरह से अस्वीकार कर रहा था। अधिनियम ने भारतीयों और अंग्रेज़ों दोनों में सत्ता के लिये
संघर्ष को प्रोत्साहित किया। परिणामस्वरूप बड़ी संख्या में सांप्रदायिक दंगे हुए
जो वर्ष 1922 से 1927 तक जारी रहे। 30 सदस्यों
का चुनाव पृथक मुसलमान निर्वाचन
मंडल के द्वारा चुना जाता था, जो केवल मुसलमान होंगे। सिखों
को भी सांप्रदायिक राजनीति के
अंतर्गत विशेषाधिकार प्रदान किए गए। सिखों को भी पृथक निर्वाचन मंडल में शामिल
किया गया। मुसलमान और सिखों को जनसंख्या के आधार पर नहीं बल्कि उनके राजनीतिक
महत्व के आधार पर प्रांतीय विधान मंडलों में स्थान प्रदान किया गया। वर्ष 1923
में स्वराज पार्टी की स्थापना हुई तथा उसने चुनावों में मद्रास को
छोड़कर पर्याप्त संख्या में सीटें जीती। जबकि पार्टी
बंबई और मध्य प्रांतों में मंत्रियों के वेतन के साथ अन्य वस्तुओं की आपूर्ति को
अवरुद्ध करने में सफल रही। इस प्रकार दोनों प्रांतों के गवर्नरों को द्वैध शासन को
समाप्त करने हेतु मजबूर होना पड़ा और स्थानांतरित विषयों को अपने नियंत्रण में ले
लिया गया। प्रांतीय स्तर पर प्रशासन का दो स्वतंत्र भागों में
बँटवारा राजनीति के सिद्धांत व व्यवहार के विरूद्ध था। उस समय मद्रास के मंत्री
रहे के.वी.रेड्डी ने व्यंग्य भी किया था- ‘मैं सिंचाई मंत्री था किंतु मेरे
अधीन सिंचाई विभाग नहीं था।’ इस अधिनियम का एक महत्त्वपूर्ण दोष यह भी था कि
इसमें प्रांतीय मंत्रियों का वित्त और नौकरशाही पर कोई नियंत्रण नहीं था। नौकरशाही
मंत्रियों की अवहेलना तो करती ही थी, कई
महत्त्वपूर्ण विषयों पर मंत्रियों से मंत्रणा भी नहीं की जाती थी।
उपर्युक्त विवेचना के आधार पर हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते
हैं कि ब्रिटिश सरकार ने भारतीयों को राजनीतिक शक्ति देने का प्रस्ताव तो मात्र एक बहाना बनाया था,
वास्तविक शक्ति तो अभी
भी अंग्रेजों के ही हाथों में ही थी।
मोतीलाल नेहरू ने ठीक ही कहा था, 'ऐसा
लगता है जैसे जो कुछ एक हाथ से दिया गया उसे दूसरे हाथ से ले लिया गया।'
लॉर्ड कर्जन ने टिप्पणी की थी, “जब मंत्रिमंडल ने 'परम स्वशासन' की अभिव्यक्ति का प्रयोग किया तो
उन्होंने संभवतः 500 वर्षों की एक मध्यवर्ती अवधि पर
विचार किया।” इन सुधारों के साथ ‘द्विशासन’ प्रणाली लागू तो हो गई लेकिन
वास्तविक प्रशासनिक शक्तियां वायसराय के हाथों में ही केंद्रित थी। शिक्षा और सफाई
जैसे कम महत्त्व वाले विभागों की ज़िम्मेदारी प्रांतीय विधान सभाओं द्वारा
निर्वाचित सदस्यों में से चुने गए मंत्रियों को सौंपी गई थी, जबकि वित्त, पुलिस और सामान्य प्रशासन जैसे
महत्त्वपूर्ण विभाग कार्यकारी परिषद् के सदस्यों के लिए आरक्षित कर दिए गए थे। स्थानीय
व्यय को स्थानीय रूप से अर्जित और प्रबंधित राजस्व से ही चलाने का उत्तरदायित्व था। वायसराय भारत सचिव के माध्यम से ब्रिटिश संसद
के प्रति उत्तरदायी होता था, भारतीय जनता के प्रति नहीं। वायसराय
की कार्यकारिणी परिषद में तीन भारतीय सदस्यों की नियुक्ति का प्रावधान रखा गया था, परंतु भारत के सदस्यों को प्रशासन के कम महत्वपूर्ण विभाग दिए गए। भारत
के सदस्य वायसराय के प्रति उत्तरदायी थे तथा वायसराय भारत सचिव के माध्यम से
ब्रिटिश संसद के प्रति उत्तरदायी था। इसका मतलब यह था कि महत्त्वपूर्ण विभागों का
नियंत्रण उन नौकरशाहों के हाथ में था, जो ब्रितानी सरकार और
उसकी संसद के प्रति ज़िम्मेदार थे। केन्द्रीय सरकार का चरित्र पहले जैसा बना रहा।
वह पहले की तरह संसद के प्रति ज़िम्मेदार रही। विधान मंडल का,
वायसराय और उसकी कार्यकारी परिषद् पर, न कोई नियंत्रण था, न ही उनके बारे में बोलने का अधिकार। केन्द्रीय सरकार को प्रान्तों पर
नियंत्रण रखने के सभी अधिकार प्राप्त थे। सुमित सरकार कहते हैं, “बड़ी चालाकी से भारतीय राजनीतिज्ञों को संरक्षण की चूहा-दौड़
में डाल दिया गया था जिससे संभवतः उनकी विश्वसनीयता कम होती थी।” इन सुधारों के
संबंध में काफी विवाद रहा है कि इनमें लन्दन (भारत सचिव) का योगदान अधिक था या
दिल्ली (वायसराय) का। इसलिए यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि “मोंटेग्यू
चेम्सफोर्ड सुधार प्रस्तावों ने ‘द्विशासन’ प्रणाली लागू की, किन्तु इसने जिम्मेदारियों की रेखाओं को धुंधला कर दिया।”
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मनोज कुमार
पिछली कड़ियां- राष्ट्रीय आन्दोलन
संदर्भ : यहाँ पर
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