राष्ट्रीय आन्दोलन
281. अर्धनग्न
फकीर
1921
1921 भारत की अपूर्व लोक-जागृति का वर्ष था। सभी तरफ़ उत्साह की लहर थी। इस साल राष्ट्रीयता
के साथ राजनीति का और धर्म के साथ रहस्यवाद और धार्मिक उन्माद का एक विचित्र मेल
रहा। एक तरफ़ गांवों में अशांति थी तो दूसरी तरफ़ शहरों में मज़दूर
आंदोलन था। हां इन सब के बीच राष्ट्रीयता और एक अनिश्चित किंतु तीव्र आदर्शवाद की
लहर भिन्न-भिन्न और एक दूसरे के विरोधी असंतुष्ट तत्वों को एक सूत्र
में बांधे रखने का काम कर रहे थे। असहयोग आंदोलन ज़ोर पकड़ता जा रहा था। अंग्रेज़ी सत्ता का भय
लोगों के मन से ग़ायब होता जा रहा था। ‘एक साल में स्वराज्य’ के नारे लगाए
जा रहे थे। सारे देश को गांधीजी ने ‘साहस और बलिदान’ के गुरुमंत्र से
दीक्षित कर दिया था। सरकार चिंतित और परेशान थी। उसे समझ नहीं आ रहा था कि
सत्याग्रह को दबाने के लिए क्या करे?
अली भाइयों के साथ देश के विभिन्न भागों का दौरा कर गांधीजी
छोटे-से-छोटे कार्यकर्ताओं से सम्पर्क बनाए हुए थे तथा उन्हें उचित दिशा-निर्देश
दे रहे थे। ‘यंग इंडिया’ और ‘नवजीवन’ में लगातार लेख लिखकर आंदोलन के महत्त्व को
समझाते रहते। उन्होंने कहा था, “भारत अंग्रेज़ों की तोपों की ज़ोर से नहीं, ख़ुद
हिन्दुस्तानियों की खामियों और कमज़ोरियों की वजह से ग़ुलाम हुआ है। जिस दिन भारत
अपने को अस्पृश्यता, क़ौमी झगड़े, नशाखोरी, विदेशी कपड़ों और अंग्रेज़ी सरकार द्वारा
संचालित या सहायता प्राप्त संस्थानों की ग़ुलामी से मुक्त कर लेगा, उसमें एक नई
शक्ति का संचार हो जाएगा। स्वराज्य ब्रिटिश पार्लियामेंट से इनाम के तौर पर
मिलनेवाला नहीं है। स्वराज्य भगवान भी नहीं दे सकता। उसे तो हमीं को अर्जित करना
होगा।” गांधीजी ने अपने वांछित क्रांति के बारे में
बताने और सुझाव देने के लिए प्रतीकों की खोज में काफी समय और विचार खर्च किया।
झंडा, चरखा, घर में बुना कपड़ा, उनके अनुयायियों
द्वारा पहनी जाने वाली सफेद खादी की टोपी - ये सभी भौतिक प्रतीक थे, जिनका अर्थ सबसे
गरीब और कम शिक्षित व्यक्ति भी आसानी से समझ सकता था। केवल तृतीय श्रेणी के डिब्बे
में यात्रा करके और गरीब हिंदुओं की पोशाक अपनाकर वे प्रतीकात्मक रूप से खुद को
गरीबों के साथ जोड़ रहे थे। गांधीजी अर्धनग्न फकीर बन गए। अब आखिरकार एक आदमी था
जो उसी छोटी सी लंगोटी में बंधा हुआ था जिसे एक गरीब किसान अपने गरीब खेतों में हल
चलाते समय पहनता है। सात महीने तक वे गर्म, असुविधाजनक ट्रेनों में यात्रा करते रहे। ट्रेन भीड़ द्वारा घेर ली जाती थीं, जो महात्मा से मिलने की मांग करती थीं। एक
पिछड़े इलाके के निवासियों ने संदेश भेजा कि अगर गांधीजी की ट्रेन उनके छोटे से
स्टेशन पर नहीं रुकी तो वे पटरियों पर लेट जाएंगे और ट्रेन से कुचल जाएंगे। आधी
रात को ट्रेन वहीं रुकी और जब गांधीजी गहरी नींद से जागे, तो भीड़ रेलवे प्लेटफॉर्म पर घुटनों के बल बैठ
गई और रोने लगी।
असम, बंगाल और मद्रास के प्रांतों में गांधीजी और
अली भाइयों में से छोटे मोहम्मद अली एक साथ यात्रा करते थे और एक साथ सभाओं को
संबोधित करते थे। वे हर सभा में कहते थे कि अगर वे चाहते हैं कि भारत पर उनका शासन
हो, तो उन्हें विदेशी
कपड़ों का त्याग करना होगा। श्रोता तालियाँ बजाते थे। उस समय गांधी लोगों से कहते
थे कि वे अपने पहने हुए विदेशी कपड़ों को उतार दें और उन्हें एक ढेर पर रख दें, जिसे वे तुरंत आग लगा देते थे। कुछ जगहों पर, पुरुष अपने कपड़े उतारकर नग्न हो जाते थे।
कपड़ों को मंच के पास एक स्थान पर रख दिया जाता था, और जब सभी टोपियाँ, कोट, शर्ट, पतलून, अंडरवियर, मोज़े और जूते एक ढेर में रख दिए जाते थे, तो गांधीजी उन्हें जलाने के लिए माचिस जलाते
थे। जुलाई के अंत में बंबई में विदेशी कपड़े की प्रतीकात्मक होली जलाई गई थी, और जब लपटें उठ रही थीं, तब गांधीजी ने इस कार्य के महत्व पर भीड़ को
संबोधित किया था। गांधीजी ने अपने चिरपरिचित व्यंग्य के साथ घोषणा की कि
"अस्पृश्यता के बदले विदेशी कपड़े का इस्तेमाल किया जाना चाहिए।" कोई
गिरफ़्तारी नहीं हुई, क्योंकि यह आग
निजी संपत्ति पर जलाई गई थी; और जल्द ही पूरे भारत में उनके अनुयायियों ने
उनका अनुकरण किया। चार्ली एंड्रयूज, जो उनके सबसे करीबी अंग्रेज़ मित्र थे, निराश हो गए, और उन्होंने पूछा कि अपने साथी पुरुषों और
महिलाओं के नेक काम को जलाने से क्या फ़ायदा है। गांधीजी ने बहुत ही बेबाकी से
जवाब दिया कि उन्होंने खुद को विदेशी कपड़े जलाने तक सीमित कर लिया है और उनका
अंग्रेजी घड़ियों या जापानी लाख के बक्सों को नष्ट करने का कोई इरादा नहीं है।
उन्होंने कहा, "विदेशी कपड़ों के
प्रति प्रेम ने विदेशी प्रभुत्व को जन्म दिया है," और उन्हें उम्मीद है कि और भी होलिका जलाई जाएंगी।
जैसे-जैसे आग आयातित वस्तुओं को निगल रही थी, गांधीजी अपने श्रोताओं से कहते थे कि उन्हें
विदेशी उत्पादों के लिए भारतीय मिल उत्पादों का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए, उन्हें कताई और बुनाई सीखनी चाहिए। गांधीजी ने
दिन में आधा घंटा कताई की, आमतौर पर दोपहर के भोजन से पहले, और अपने सभी सहयोगियों से भी ऐसा करने को कहा।
जनवरी से मार्च तक असहयोग और ख़िलाफ़त आन्दोलन में मुख्यतः इस
बात पर बल दिया जा रहा था कि विद्यार्थी सरकारी नियंत्रण वाले विद्यालयों और
महाविद्यालयों को छोड़ दें। वकील अपनी वकालतें छोड़ दें। लोगों को स्वेच्छा से चरखा
कातने के लिए प्रेरित किया जाता था। पहले दो महीनों में ही 90,000 छात्रों ने सरकारी
स्कूल छोड़ दिया और राष्ट्रीय स्कूल में भरती हो गए। विद्यार्थियों के इस आंदोलन को
प्रोत्साहित करने के लिए सुभाषचंद्र बोस ‘नेशनल कॉलेज’ के प्राधानाचार्य बन गए।
पंजाब, बंबई, उत्तरप्रदेश, बिहार और असम में भी शिक्षा का बड़े पैमाने पर बहिष्कार
हुआ। बंगाल,
आंध्रप्रदेश, कर्णाटक और पंजाब में वकीलों ने बड़े पैमाने पर अदालतों का बहिष्कार
किया। सी.आर. दास, एम.आर. किचलू, वल्लभ भाई पटेल, सी. राजगोपालाचारी, ती. प्रकाशम,
आसफ़ अली और मोतीलाल नेहरू जैसे प्रख्यात वकीलों ने वकालत छोड़ दी।
विजवाड़ा कांग्रेस
अधिवेशन
अप्रैल में विजवाड़ा में हुए कांग्रेस के अधिवेशन में यह
निर्णय लिया गया कि तिलक स्वराज कोष के लिए एक करोड़ रुपए की राशि एकत्रित की जाए,
कांग्रेस में एक करोड़ सदस्यों की भरती की जाए और 20 लाख चरखे लगाए जाएं। एक करोड़ सदस्यता का
लक्ष्य तो पूरा नहीं हुआ, लेकिन सदस्य संख्या 50 लाख तक पहुंचा दी गई।
स्वराज फंड ने न सिर्फ़ अपना लक्ष्य पूरा किया बल्कि उसके आगे निकल गया। चरखे और
खादी का खूब प्रचार और प्रसार हुआ। खादी तो राष्ट्रीय आंदोलन का प्रतीक ही बन गई।
वायसराय लॉर्ड
रीडिंग
2 अप्रैल को लॉर्ड चेम्स फोर्ड की जगह लॉर्ड रीडिंग भारत के वायसराय बनकर आया।
उसने सत्याग्रह आंदोलन को दमन करने का निश्चय किया। उसने ‘फेबियन नीति’ अपनाई। मई
के तीसरे सप्ताह में उसने गांधीजी से भेंट की। मालवीयजी के प्रयत्नों से यह भेंट
तय हुई थी। वायसराय की शिकायत थी कि जब अफ़ग़ानिस्तान के अमीर द्वारा भारत पर आक्रमण
करने की अफवाह गर्म थी, तो मौलाना मुहम्मद अली ने अफ़ग़ानिस्तान का हवाला देकर हिंसा
भड़काने वाला भाषण दिया था। गांधीजी को वायसराय की शिकायत सही लगी और वे मौलाना
मुहम्मद अली से उन भावों का सार्वजनिक रूप से प्रतिवाद करवाने के लिए राज़ी हो गए।
रीडिंग की आशा थी कि इससे गांधीजी और मुहम्मद अली के बीच मनमुटाव पैदा हो जाएगा।
लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ।
कांग्रेस
कार्य समिति की इलाहाबाद में बैठक
पं. जवाहरलाल नेहरू की बहन विजयलक्ष्मी पंडित
का विवाह 10 मई 1921 को तय था। शादी इलाहाबाद से होने वाली थी। गांधी जी और
बहुत से कांग्रेसी नेता इसमें शामिल थे। नेताओं और अन्य आमंत्रित अतिथियों की
सुविधा के लिए कांग्रेस कार्य समिति की एक बैठक भी इलाहाबाद में बुला ली गई थी।
इलाहाबाद की चहलपहल, गतिविधियों और उत्तेजना से अंगरेज़ लोग घबरा गए थे। वे आकस्मिक
उपद्रव की आशंका कर रहे थे। उनका मानना था कि 1857 की
गदर भी 10 मई को हुई थी, और यह शादी जानबूझ कर उसी दिन रखी गई है,
ताकि मेरठ के गदर की वार्षिक तिथि इलाहाबाद में मनाई जाए। अंगेज़ अफ़सर अपनी सुरक्षा
के लिए जेबों में रिवाल्वर लिए घूमते थे। इलाहाबाद के क़िले को इस तरह से तैयार कर
लिया गया था कि ज़रूरत पड़ने पर अंगरेज़ वहां चले जाएं। यह बड़े ही आश्चर्य का विषय था
कि जब अहिंसा के दूत उस शहर में हों, तो अंगरेज़ किसी हिंसा की आशंका से भयभीत हों।
गाँधी
जी ने यह आशा की थी कि असहयोग को खिलाफ़त के साथ मिलाने से भारत के दो प्रमुख
समुदाय- हिन्दू और मुसलमान मिलकर औपनिवेशिक शासन का अंत कर देंगे। इन आंदोलनों ने
निश्चय ही एक लोकप्रिय कार्रवाही के बहाव को उन्मुक्त कर दिया था और ये चीजें
औपनिवेशिक भारत में बिलकुल ही अभूतपूर्व थीं। विद्यार्थियों ने सरकार द्वारा चलाए
जा रहे स्कूलों और कॉलेजों में जाना छोड़ दिया। वकीलों ने अदालत में जाने से मना कर
दिया। कई कस्बों और नगरों में श्रमिक-वर्ग हड़ताल पर चला गया। सरकारी आँकड़ों के
मुताबिक 1921 में
396 हड़तालें
हुई जिनमें 6 लाख
श्रमिक शामिल थे और इससे 70 लाख
कार्य-दिवसों का नुकसान हुआ था। देहात भी असंतोष से आंदोलित हो रहा था। पहाड़ी
जनजातियों ने वन्य कानूनों की अवहेलना कर दी। अवध के किसानों ने कर नहीं चुकाए।
कुमाउँ के किसानों ने औपनिवेशिक अधिकारियों का सामान ढोने से मना कर दिया। इन
आंदोलनों को कभी-कभी स्थानीय राष्ट्रवादी नेतृत्व की अवज्ञा करते हुए कार्यान्वयित
किया गया। किसानों, श्रमिकों
और अन्य ने इसकी अपने ढंग से व्याख्या की तथा औपनिवेशिक शासन के साथ ‘असहयोग’ के लिए उन्होंने
उपर से प्राप्त निर्देशों पर टिके रहने के बजाय अपने हितों से मेल खाते तरीकों का
इस्तेमाल कर कार्रवाही की।
महात्मा गाँधी के अमरीकी जीवनी-लेखक लुई फ़िशर ने लिखा है कि ‘असहयोग भारत और गाँधीजी के जीवन के एक युग का ही नाम हो
गया। असहयोग शांति की दृष्टि से नकारात्मक किन्तु प्रभाव की दृष्टि से बहुत
सकारात्मक था। इसके लिए प्रतिवाद, परित्याग और स्व-अनुशासन आवश्यक थे। यह स्वशासन के लिए एक प्रशिक्षण था।’ 1857 के विद्रोह के बाद पहली बार असहयोग आंदोलन के परिणामस्वरूप अंग्रेजी राज की
नींव हिल गई। बड़ी संख्या में स्वयंसेवकों की भर्ती की जा रही थी। जुलाई में कार्य
समिति की बैठक में यह निर्णय लिया गया कि विदेशी कपड़ों की होली जलाई जाएगी और
प्रिंस ऑफ वेल्स के भावी भारत आगमन का बहिष्कार किया जाएगा। हज़ारों की संख्या में
लोग धरने पर बैठकर कर ख़ुद को गिरफ्तार करा रहे थे।
गांधीजी ने सभी वर्गों के और समूहों के लोगों
पर एक मंत्र-सा फूंक दिया था। उन्होंने लोगों को एक ही दिशा में आगे बढ़ने के लिए
संघर्ष करती हुई एक सामूहिक भीड़ में ला खड़ा किया था। वे ‘जनसाधारण की भ्रमित
आकांक्षाओं की एक सांकेतिक अभिव्यक्ति बन गए थे’। विदेशी शासकों के विरुद्ध उनमें
घृणा की मात्रा अपेक्षाकृत बहुत ही कम थी। इसका कारण यह था कि वे बराबर अहिंसा पर
ज़ोर दिया करते थे। असहयोग आंदोलन की सफलता ने लोगों के मन में इस विश्वास को जन्म
दिया कि हमें सफलता मिल ही रही है और जल्दी ही विजय होने की आशा है तो क्रोध क्यों
करें? हृदय में घृणा को जगह क्यों दें?
शुरू में तो सरकार का दृष्टिकोण सतर्कता बनाए
रखने का था। क्योंकि सरकार उदार विचार के लोगों को विमुख नहीं करना चाहती थी, इसलिए
वह कठोर दमन-चक्र नहीं चलाना चाहती थी। अप्रैल, 1921 में
भारत आने के बाद शीघ्र ही नये वाइसराय लार्ड रीडिंग गांधीजी से मिले। अपने पुत्र
को लिखे निजी पत्र में लार्ड रीडिंग ने स्वीकार किया कि, ऐसे
असाधारण आगन्तुक से मिल कर, उन्हें भावावेग ही नहीं, करीब-करीब
रोमांच भी हो गया था। उसी पत्र में उन्होंने गांधीजी के धार्मिक और नैतिक विचारों
की सराहना की है। साथ ही लार्ड रीडिंग ने यह भी कहा कि गांधीजी द्वारा राजनीति में
धार्मिकता और नैतिकता का प्रयोग उनकी समझ में नहीं आया।
सरकार और कांग्रेस के बीच तनाव
1921 के पूरे वर्ष में सरकार और कांग्रेस के बीच तनाव बढ़ता ही
गया। जैसे-जैसे साल आगे बढ़ा, लॉर्ड रीडिंग की मुश्किलें बढ़ती गईं। गांधीजी और लॉर्ड
रीडिंग के विचारों में भिन्नता बनी रही। 14 सितंबर 1921 को गांधीजी के साथ मद्रास
जाते समय वाल्टेयर में खिलाफत के प्रमुख नेता मौलाना मोहम्मद अली गिरफ्तार किये
गये। इसके तुरंत बाद, 17 सितंबर को उनके बड़े भाई मौलाना शौकत अली को बॉम्बे में
गिरफ्तार कर लिया गया। इन दोनों बन्धुओं को भारतीयों को सेना में भरती न होने देने
और जो भरती हो चुके हैं, उनसे नौकरी छोड़ देने का आग्रह कर उन्हें विद्रोह करने के
लिए भड़काने का दोषी बताया गया। गांधीजी और दूसरे भारतीय नेताओं ने भी यह अपराध
किया था। इस चुनौती को स्वीकार न करना सरकार के लिए कठिन था। सरकार की यह आशा कि
आन्दोलन आपसी मतभेद अथवा जनता की उदासीनता से नष्ट हो जाएगा, गलत
सिद्ध हुई। करीब 30,000 असहयोगी गिरफ्तार किये गये। इस संघर्ष के नेता महात्मा
गांधी अभी बाहर थे और दिन-प्रतिदिन संदेश और निर्देश देकर न केवल जनता को प्रेरित करते
थे, बल्कि उन्हें अनुचित कार्य करने से रोकते भी थे। गांधीजी को
गिरफ्तार करने के लिए सरकार सुअवसर की प्रतीक्षा में थी।
जिन्ना की अपील
8 जुलाई, 1921 को कराची में जिन्ना
ने घोषणा की कि किसी भी मुसलमान को सेना में रहना धर्म के ख़िलाफ़ है। उसने लोगों से
अपील की वे उसके इस संदेश को हर मुसलमान सैनिक तक पहुंचा दें। इस भाषण के बाद
जिन्ना को गिरफ़्तार कर लिया गया। इस गिरफ़्तारी के विरोध में जगह-जगह सभाओं का आयोजन
किया गया। इन सभाओं में जिन्ना की अपील को बार-बार दुहराया गया। 4 अक्तूबर को गांधीजी
समेत 47 वरिष्ठ नेताओं ने एक बयान ज़ारी कर जिन्ना के बयान की
पुष्टि की। उन्होंने कहा, हर भारतीय का कर्त्तव्य है कि वह दमनकारी सत्ता से अपना
नाता तोड़ ले। उसे किसी तरह का सहयोग न दे।
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मनोज कुमार
पिछली कड़ियां- राष्ट्रीय आन्दोलन
संदर्भ : यहाँ पर
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