317. लाहौर-कांग्रेस
में पूर्ण स्वाधीनता का प्रस्ताव
1929
कलकत्ता-कांग्रेस ने सरकार को जो एक साल का समय
दिया था, वह खत्म हो चुका था। औपनिवेशिक स्वराज्य की
मांग का प्रस्ताव, जो नेहरू
रिपोर्ट में दी गयी न्यूनतम राष्ट्रीय मांग थी, स्वीकार नहीं किया गया और वह कालातीत हो गया। देश में बढ़ता
राजनैतिक तनाव दिसम्बर आते-आते चरम पर था। 31 अक्तूबर, 1929 को
‘इरविन प्रस्ताव’ आया। इसमें वायसराय ने घोषणा की थी कि डोमिनियन स्टेटस तो भरत की
संवैधानिक प्रगति का ‘स्वाभाविक मुद्दा’ है, और वादा किया कि साइमन रिपोर्ट के
प्रकाशित हो जाने पर एक गोलमेज सम्मेलन बुलाया जाएगा। नई लेबर सरकार ने उसके
प्रस्ताव का समर्थन किया था। 2 नवंबर को गांधीजी, मोतीलाल और मालवीय ने इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया
लेकिन कुछ शर्तों के साथ :
1.
गोलमेज सम्मेलन में डोमिनियन स्टेटस के ब्योरों पर बहस हो, न कि मूल
सिद्धांतों पर,
2.
कांफ़्रेंस में कांग्रेस के प्रतिनिधि बहुसंख्यक हों,
3.
आम माफ़ी तथा सामन्यतः मेल-मिलाप की नीति घोषित की जाए।
23 दिसंबर को
गांधी-इरविन भेंट में संधि-वार्ता टूट गई। वाइसराय ने कांग्रेस की शर्तें मानने से
इंकार कर दिया था। उसने इस बात का आश्वासन नहीं दिया कि गोलमेज परिषद की कार्रवाई
पूर्ण औपनिवेशिक स्वराज्य को आधार मानकर होगी।
31 दिसंबर 1929 की मध्य रात्रि में भारतीय
राष्ट्रीय कांग्रेस के लाहौर सत्र के दौरान राष्ट्र को स्वतंत्र बनाने की जो पहल
की गई थी, उसका एक
अलग इतिहास है। 1928
में कांग्रेस का अधिवेशन कलकत्ता (कोलकाता) में हुआ था। पं. मोतीलाल नेहरू
सभापति थे। इसमें एक सर्वदलीय सम्मेलन भी हुआ। उसके सामने नेहरू कमिटी की रिपोर्ट
पेश की गई। साइमन कमीशन भारत पहुंच गया था। इसलिए भारत के सभी दलों को यह साबित
करना कि वे एकमत हैं,
और भी ज़रूरी हो गया था। इस अधिवेशन में नेहरू रिपोर्ट के डोमिनियन स्टेटस के
लक्ष्य को एक शर्त के साथ स्वीकार कर लिया गया। सम्मेलन में जो प्रस्ताव लाया गया, वह था – बरतानी
हुक़ूमत को अविलंब भारत को डोमिनियन स्टेटस (औपनिवेशिक स्वराज्य) दे देना चाहिए।
कुछ लोग तो पूर्णस्वराज के सिवा कुछ नहीं मांग करने के पक्षधर थे, फिर भी
विचार-विमर्श के बाद यह तय किया गया कि एक वर्ष के भीतर यदि ब्रिटिश गवर्नमेंट
डोमिनियन स्टेटस दे देगी तो उसे मंज़ूर कर लिया जाएगा, पर यदि उसने इस मांग को 31 दिसंबर 1929 तक
मंज़ूर न किया, तो
कांग्रेस अपना ध्येय बदल लेगी, यानी कांग्रेस सविनय अवज्ञा आंदोलन और ‘पूर्ण
स्वतंत्रता’ घोषित
कर देगी, फिर
उसके बाद डोमिनियन स्टेटस मिले भी, तो उसे वह मंज़ूर नहीं करेगी। पं. जवाहरलाल
नेहरू और श्री श्रीनिवास आयंगर ने तो इस प्रस्ताव को मान लिया, पर श्री
सुभाषचंद्र बोस ने इसका विरोध किया।
31 दिसम्बर, 1929 को कलकत्ता कांग्रेस की प्रस्तावित अवधि समाप्त हो रही थी, लेकिन वायसराय
लॉर्ड इरविन का कोई इरादा नहीं था कि भारत को उपनिवेश राज्य का दर्ज़ा देकर बादशाह
जार्ज पंचम के वैभव में कमी आने दे। 1929 तक कांग्रेस के
विभिन्न गुट फिर से एक हो चुके थे। वे सक्रिय होने के लिए बेचैन थे। जालियांवाला
बाग कांड के दस साल के बाद, पंजाब में फिर से कांग्रेस का अधिवेशन हो रहा था। पंजाब
में कांग्रेस का पिछला अधिवेशन 1919 में हुआ था। सारे प्रतिनिधि नेतृत्व के लिए वे महात्मा गांधी की ओर देख
रहे थे। कांग्रेस के इस अधिवेशन में जब गांधी जी ने
खुद एक महत्वपूर्ण प्रस्ताव लाकर यह स्पष्ट कर दिया कि वे ब्रिटिश शासन को खुली
चुनौती देने के लिए जनता का नेतृत्व करने को फिर से तैयार हैं।
लोग गांधीजी द्वारा उस अधिवेशन की अध्यक्षता चाहते थे। पर
गांधीजी इसके लिए तैयार नहीं थे। दस प्रांतों ने गांधीजी के लिए, पांच ने वल्लभभाई
पटेल के लिए और तीन ने जवाहरलाल नेहरू को अध्यक्ष बनाने के लिए राय दी थी। गांधीजी
का चुनाव विधिपूर्वक घोषित भी हो गया था। लेकिन उन्होंने त्यागपत्र दे दिया। उन्होंने
कहा, “अध्यक्ष के लिए आवश्यक दैनंदिन कर्यों को करने के लिए जो
समय चाहिए वह मेरे पास नहीं है। जहां तक कांग्रेस की सेवा करने का प्रश्न है, उसे
तो मैं बिना कोई पद ग्रहण किए भी बराबर करता रहूंगा।” प्रतिनिधियों की इच्छा थी कि यदि गांधीजी अध्यक्षता नहीं
करना चाहते तो सरदार पटेल करें। लेकिन 25 सितम्बर, 1929 को लखनऊ में कांग्रेस महासमिति की
बैठक में गांधीजी ने
जवाहरलाल नेहरू का नाम पारित कर दिया। सरदार ने गांधीजी और नेहरूजी के बीच आना
पसंद नहीं किया। जवाहरलाल नेहरू का अध्यक्ष के रूप में चुनाव जो युवा पीढ़ी को
नेतृत्व की छड़ी सौंपने का प्रतीक था। गांधीजी ने कहा था, “निस्संदेह जवाहरलाल अतिवादी हैं और वे अपने आसपास से कहीं आगे की बात सोचते
हैं। लेकिन उनमें इतनी विनम्रता और व्यावहारिकता है कि वे अपनी गति को विघटन की
सीमा तक नहीं बढ़ाएंगे।” आध्यक्ष पद के लिए चुने जाने पर नेहरूजी ने कहा था, “मुख्य द्वार से, यहां तक कि बगल के दरवाजे से भी नहीं, बल्कि
चोर दरवाजे से पहुंचकर इस उच्च पद पर आसीन हुआ हूं।”
नई-पुरानी पीढ़ी के बीच का मतभेद पिछले वर्ष के कलकत्ता
अधिवेशन में स्पष्ट हो चुका था। नई पीढ़ी ने पुरानी पीढ़ी के प्रति अविश्वास और
संदेश प्रकट किया थी। बयालीस वर्षीय नेहरूजी का अध्यक्ष पद पर चुनाव गांधीजी का
सर्वोत्कृष्ट राजनैतिक कृतित्व था। हालाकि दोनों के विचारों में काफ़ी अंतर होता
था, और इसे गांधीजी ने कहा भी था, “तुममें और मुझमें विचारों का अंतर इतना अधिक और उग्र है है कि हम कभी एक राय
हो ही नहीं सकते।”
लाहौर कांग्रेस अधिवेशन
31 दिसंबर 1929 आ गया।
भारत को डोमिनियन स्टेटस नहीं मिला। उस साल का कांग्रेस का अधिवेशन लाहौर में हुआ।
लाहौर सत्र की अध्यक्षता पंडित जवाहरलाल नेहरू ने की थी। जवाहरलाल नेहरू का
अध्यक्ष के रूप में चुनाव जो युवा पीढ़ी को नेतृत्व की छड़ी सौंपने का प्रतीक था। इस दिन
कलकत्ता कांग्रेस की प्रस्तावित अवधि समाप्त हो रही थी, लेकिन ऐसा लग नहीं रहा था कि वायसराय
लॉर्ड इरविन भारत को उपनिवेश राज्य का दर्ज़ा देने वाला हो। 23 दिसंबर
को गांधी-इरविन भेंट में संधि-वार्ता भी टूट चुकी थी। वायसराय ने कांग्रेस की
शर्तें मानने से इंकार कर दिया था। रावी के तट पर, असह्य सर्दी के बीच हुई लाहौर की उस बैठक में प्रारंभिक
कार्यवाही के बाद पूर्ण स्वतंत्रता वाला प्रस्ताव गांधी जी ने लाया। उपस्थित
स्वतंत्रता सेनानियों ने भारत को अंग्रेज सरकार के क़ब्ज़े से आज़ाद कराने का संकल्प
लेते हुए उस प्रस्ताव को मंज़ूर किया। यह भी निश्चय किया गया कि इसके लिए सत्याग्रह
किया जाए। 31 दिसम्बर, 1929 की आधी रात को, जैसे ही नया वर्ष शुरू हुआ, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने रावी नदी के तट
पर पूर्ण स्वतंत्रता का झण्डा फहराया। लाहौर की हाड़ कंपा देने वाली
ठंड में 31 दिसंबर
के अरुणोदय के समय रावी नदी के तट पर आखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस महासमिति ने
स्वतंत्र भारत की घोषणा की और आज़ाद हिंद का तिरंगा देश के युवा नेता पंडित
जवाहरलाल नेहरू ने लहराया। लोगों ने“वंदेमातरम्” पूरी
निष्ठा और उल्लास से झंडावंदन करते हुए गाया। ‘इंक़लाब
ज़िंदाबाद’ के नारे
लगाए गए।
कांग्रेस अधिवेशन ने केन्द्रीय और
प्रान्तीय विधानमण्डलों के अपने सदस्यों को इस्तीफा देने का आदेश दिया। सविनय
अवज्ञा आन्दोलन आरम्भ करने का अधिकार भी दे दिया गया। गांधीजी ने पूर्ण
स्वराज की प्रतिज्ञा लिख डाली। तय हुआ कि तय दिन सारा देश इस प्रतिज्ञा को पढ़ेगा।
इस तरह गांधीजी एक बार फिर राष्ट्रीय आन्दोलन के कर्णधार बने। युवाओं द्वारा
कांग्रेस के चरित्र में आमूल परिवर्तन की जो प्रक्रिया 1927 में शुरू हुई थी, दिसंबर 1929 में लाहौर अधिवेशन में पूरी हुई।
कांग्रेस ने घोषणा कर दी थी कि वह ‘पूर्ण स्वराज’ के लिए सविनय अवज्ञा आंदोलन
छेड़ेगी। इस अधिवेशन के अध्यक्षीय भाषण में नेहरू ने अपने को समाजवादी बताया और
राष्ट्रीय आंदोलन को नई दिशा देने की बात कही।
सरकार सतर्क थी। उसे इस अधिवेशन का महत्त्व मलूम था। वायसराय लॉर्ड इर्विन तो
इस अधिवेशन पर पाबंदी लगाने की सोच रहा था।
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मनोज कुमार