बुधवार, 3 सितंबर 2025

333. पं. मोतीलाल नेहरू की मृत्यु

राष्ट्रीय आन्दोलन

333. पं. मोतीलाल नेहरू की मृत्यु



1931

6 फरवरी 1931 को पं. मोतीलाल नेहरू की लखनऊ में मृत्यु हो गई। उनके पार्थिव शरीर को इलाहाबाद लाया गया जहां उनका अंतिम संस्कार किया गया। मोतीलाल नेहरू की मृत्यु ने गांधी जी को जवाहरलाल नेहरू के निकट ला दिया। नेहरू जी जो कुछ कहते गांधी जी बड़े धैर्य से सुनते। उनकी इच्छाओं को पूरा करने का भरसक प्रयत्न करते।

मोतीलाल नेहरू के पूर्वज कश्मीरी पंडित थे, परन्तु वे 18वीं शताब्दी के शुरू में ही दिल्ली आकर बस गए थे। उनके पूर्वज, जिन्हें राज कौल के नाम से जाना जाता है, दिल्ली में रहते थे और मुगल दरबार में विभिन्न पदों पर कार्यरत थे। मोतीलाल नेहरू का जन्म  6 मई 1861  को आगरा में हुआ था। मोतीलाल नेहरू ने अपना बचपन खेतड़ी, राजस्थान में बिताया। बाद में यह परिवार इलाहाबाद चला गया। उनके पिता का नाम गंगाधर नेहरू और माँ का नाम जीवरानी था। उन्होंने अपनी शुरुआती शिक्षा ब्रिटिश राज के सरकारी स्कूल से हासिल की थी, जहां उन्होंने अरबी, फारसी और अंग्रेजी में पढ़ाई की। वह इलाहाबाद के म्योर केंद्रीय महाविद्यालय में शिक्षित हुए किन्तु बी.ए. की अन्तिम परीक्षा नहीं दे पाये। बाद में उन्होंने कैम्ब्रिज से "बार ऐट लॉ" की उपाधि ली और अंग्रेजी न्यायालयों में अधिवक्ता के रूप में कार्य प्रारम्भ किया।  मोतीलाल नेहरू ने कानपुर में वकालत शुरू की, परन्तु तीन वर्ष बाद ही वह इलाहाबाद चले गए। उनकी पत्नी का नाम स्वरूप रानी था। जवाहरलाल नेहरू उनके एकमात्र पुत्र थे। उनके दो कन्याएँ भी थीं। उनकी बडी बेटी का नाम विजयलक्ष्मी था, जो आगे चलकर विजयलक्ष्मी पण्डित के नाम से प्रसिद्ध हुई। उनकी छोटी बेटी का नाम कृष्णा था। जो बाद में कृष्णा हठीसिंह कहलायीं।

वह एक वकील, कार्यकर्ता और राजनीतिज्ञ थे।  जलियांवाला बाग काण्ड के बाद 1919 में अमृतसर में हुई कांग्रेस के वे पहली बार अध्यक्ष बने और फिर 1928 में कलकत्ता में दोबारा कांग्रेस के अध्यक्ष बने। 1928 में काँग्रेस द्वारा स्थापित भारतीय संविधान आयोग के भी वे अध्यक्ष बने। इसी आयोग ने नेहरू रिपोर्ट प्रस्तुत की थी। मोतीलाल नेहरू ने महात्मा गांधी को सुना और उनसे प्रभावित होकर स्वतंत्रता संग्राम में शामिल हो गए। मोतीलाल नेहरू ने अपनी आकर्षक वकालत छोड़ दी, शराब पीना छोड़ दिया और पूरी तरह से असहयोगी हो गए। वही एकमात्र ऐसे अग्रणी नेता थे जिन्होंने सितम्बर 1920 में कांग्रेस के विशेष अधिवेशन में असहयोग आंदोलन का समर्थन किया था।  6 दिसम्बर, 1921 को पंडित मोतीलाल नेहरू गिरफ्तार किए गए और उन्हें छह महीने कैद की सजा हुई। 1922 के ग्रीष्मकाल में जब वह जेल से बाहर आए तो उन्होंने देखा कि सविनय अवज्ञा आंदोलन धीमा पड़ गया है और महसूस किया कि "असहयोग" कार्यक्रम में संशोधन करने का समय आ गया है।

मोतीलाल नेहरू, सी. आर. दास और उनके कई अनुयायी नगरपालिका, प्रांतीय और राष्ट्रीय विधान परिषदों की वापसी के पक्षधर थे। उनका मानना ​​था कि इससे वे चुनावों में भाग ले सकेंगे, लोगों से संपर्क बनाए रख सकेंगे, विचार-विमर्श सभाओं में अपनी शिकायतें व्यक्त कर सकेंगे और ब्रिटिश सरकार के काम में बाधा डाल सकेंगे। वास्तव में, कुछ मामलों में सरकार के पास परिषदों में बहुमत नहीं हो सकता था और उसे प्रशासनिक आदेश से शासन करने के लिए मजबूर होना पड़ सकता था, इस प्रकार द्वैध शासन के दिखावे का पर्दाफाश हो सकता था और ब्रिटिश राष्ट्र को यह दिखाया जा सकता था कि उनके साम्राज्यवादी नेता भारतीयों के साथ सत्ता साझा करने के लिए तैयार नहीं थे। यह प्रदर्शन इंग्लैंड को भारत में व्यवस्था बदलने के लिए प्रेरित कर सकता था।

अपने कार्यक्रम को क्रियान्वित करने के लिए 1923 में उन्होने देशबंधु चित्तरंजन दास के साथ कांग्रेस पार्टी से अलग होकर अपनी स्वराज पार्टी की स्थापना की जिसका 'तत्काल' उद्देश्य साम्राज्य के भीतर डोमिनियन स्टेटस हासिल करना था। 1923 के अंत में चुनाव लड़े। स्वराज पार्टी सेंट्रल लेजिस्लेटिव एसेम्बली तथा कुछ प्रोविंशियल लेजिस्लेचरों में चुनावों में जीतकर आई सबसे बड़ी पार्टी थी। अगले छह वर्षों के दौरान मोतीलाल नेहरू ने लेजिस्लेटिव एसेम्बली में विपक्ष के नेता के रूप में कार्य किया।

 वर्ष 1927 के अंत में साइमन कमीशन की नियुक्ति से देश में पुनः राजनीतिक जागृति पैदा हुई। कमीशन से भारतीयों को बाहर रखे जाने के कारण सभी भारतीय दल सरकार के विरुद्ध एकजुट हो गये। कांग्रेस अध्यक्ष, डॉ. एम.ए. अंसारी द्वारा एक सर्वदलीय सम्मेलन बुलाया गया और मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में स्वतंत्र भारत के संविधान के मूल सिद्धांत निश्चित करने के लिए एक समिति का गठन किया गया। नेहरू रिपोर्ट के नाम से विख्यात इस समिति की रिपोर्ट में साम्प्रदायिक समस्या को हल करने का प्रयास किया गया था।

मोतीलाल नेहरू ने इलाहाबाद में एक आलीशान घर बनवाया और उसका नाम आनंद भवन रखा। इसके बाद उन्होंने अपना पुराना वाला घर स्वराज भवन कांग्रेस दल को दे दिया।  मोतीलाल नेहरू ने साम्प्रदायिक सद्भाव और एकता पर अत्यधिक बल दिया। अत्यंत विवेकशील होने के कारण वह सुधार वाद के प्रबल समर्थक थे। जीवनपर्यंत सभ्यता के प्रति ईमानदार रहते हुए उन्होंने मानव गरिमा के प्रति सम्मान और भाईचारे की भावना के गुणों का परिचय दिया। राजनैतिक कार्यकर्ताओं के लिए सूत कातना व खद्दर बुनना अनिवार्य था। मोतीलाल नेहरू ने भी अपना विदेशी पहनावा उतार फेंका और भारतीय वेशभूषा में खद्दर पहनना शुरू कर दिया। उन्होंने इलाहाबाद की गलियों में घूम-घूम कर खद्दर भी बेचा। उन्होंने सविनय अवज्ञा आन्दोलन में भाग लिया और कई बार जेल गये।

कष्टप्रद जेल-जीवन और कांग्रेस के नेता के रूप में उत्तरदायित्व के भारी बोझ के कारण पंडित मोतीलाल नेहरू स्वास्थ्य संबंधी कतिपय रोगों से ग्रस्त हो गए। 28 जनवरी 1931 को गांधीजी मोतीलाल नेहरू, जो बीमार थे, से मिलने इलाहाबाद गए। मोतीलाल नेहरू को बीमारी से बाहर आने की उम्मीद नहीं थी इसलिए उन्होंने गांधीजी से कहा था कि मैं तो नहीं देख पाऊंगा लेकिन आपको स्वराज जल्द मिलेगा। यह सच भी विकला।

कुछ दिनों बाद, वृद्ध मोतीलाल नेहरू लंबी कैद से थककर मर गए। उनके बेटे जवाहरलाल ने उनकी देखभाल की। उनके बेटे के अनुसार, अंतिम दिनों में, वे "एक बूढ़े शेर की तरह थे जो गंभीर रूप से घायल हो गया था और उसकी शारीरिक शक्ति लगभग समाप्त हो गई थी, लेकिन फिर भी वह बहुत सिंहवत और राजसी था।"

6 फ़रवरी, 1931 को मोतीलाल नेहरू का लखनऊ में निधन हो गया, जहाँ उन्हें इलाज के लिए ले जाया गया था। राष्ट्रीय ध्वज में लिपटा उनका पार्थिव शरीर इलाहाबाद वापस लाया गया। गांधीजी ने दिवंगत नेता को अंतिम श्रद्धांजलि देने के लिए एकत्रित जनसमूह को संबोधित करते हुए कुछ शब्द कहे। उन्होंने कहा, "चिता राष्ट्र की वेदी पर समर्पित की जा रही है।"

राष्ट्र के प्रति उनकी सेवाओं का स्मरण करते हुए गांधीजी ने कहा था, ..... पंडित जी एक नायक और महान योद्धा थे। उन्होंने देश की तो अनेक लड़ाइयां लड़ी ही, साथ ही उन्होंने यमराज के साथ भी कड़ा संघर्ष किया। वास्तव में, पंडित जी इस लड़ाई में भी सफल हुए .... । एक प्रेस बयान में, गांधीजी ने कहा: "मेरी स्थिति एक विधवा से भी बदतर है। एक निष्ठावान जीवन से, वह अपने पति के गुणों को ग्रहण कर सकती है। मैं कुछ भी ग्रहण नहीं कर सकता। मोतीलालजी की मृत्यु से मैंने जो खोया है वह हमेशा के लिए खो गया है:

'हे युगों की चट्टान, मेरे लिए फटी हुई,

मुझे अपने आप में छिपने दे।'"

'Rock of all Ages, cleft for me,

Let me hide myself in Thee.

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मनोज कुमार

 

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संदर्भ : यहाँ पर

 

सोमवार, 1 सितंबर 2025

332. 25 जनवरी को गांधीजी की रिहाई

 

राष्ट्रीय आन्दोलन

332. 25 जनवरी को गांधीजी की रिहाई

1931



नमक सत्याग्रह अपने चरम पर था। सरकार का  जुल्म भी। भारतीय राष्ट्रवादियों पर अब तक हुआ यह सबसे निर्दयतापूर्ण अत्याचार वायसराय लॉर्ड इरविन के आदेशानुसार हो रहा था, लेकिन उन्हें यह काम पसन्द नहीं था। नरमदल के नेता असमंजस की स्थिति में थे। वह सत्याग्रह में शरीक़ हो नहीं सकते थे। इसलिए सरकार पर दवाब बनाने लगे कि शान्ति की दिशा में सरकार कोई कदम उठाए। सरकार को भी सत्याग्रह के कारण काफी परेशानी का सामना करना पड़ रहा था। अंग्रेज अधिकारी और व्यापारी-वर्ग दमन-चक्र और भी कठोरता से चलाना चाहते थे। सत्याग्रहियों के ऊपर बढ़ते जुल्म के कारण संसार का लोकमत भी सरकार के विरोध में तेज़ी से बढ़ रहा था। प्रधानमंत्री रैमजे मैकडोनाल्ड और भारत सचिव वैन शान्ति स्थापित करना चाहते थे, बशर्ते कि मजदूर सरकार की स्थिति को कमजोर बनाये बिना ऐसा हो सके। इस परिप्रेक्ष्य में सरकार द्वारा यह निश्चय किया गया कि अंग्रेज शासक भारत की आज़ादी की मांग पर समझौता के लिए लंदन में गोल मेज  सम्मेलन करेंगे और उसमें कांग्रेस प्रतिनिधि भाग लेंगे।

प्रधानमंत्री रैमजे मैकडोनाल्ड गोलमेज-सम्मेलन सफल बनाने को उत्सुक थे, लेकिन उन्हें यह भी पता था कि गांधीजी और कांग्रेस प्रतिनिधियों की उपस्थिति के बिना इस सम्मेलन का कुछ खास असर नहीं होगा। जब नवंबर 1930 में लन्दन में पहला गोलमेज सम्मलेन हुआ तो लेबर सरकार को इस उलझन भरी स्थिति का सामना करना पड़ा कि वह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की गैर-मौजूदगी में भारत के ‘प्रतिनिधियों के साथ भारत की भावी संवैधानिक व्यवस्था पर विचार-विमर्श कर रही थी। अनेक निहित स्वार्थों को तो आवश्यकता से अधिक प्रतिनिधित्व दिया गया था, मगर जनता की राष्ट्रीय आकांक्षाओं की बातें करने वाला वहाँ कोई नहीं था। वह विसंगति इतनी स्पष्ट थी कि इसकी ओर से आँखें बंद नहीं की जा सकती थी।

देश के तमाम बड़े नेताओं की गिरफ्तारी हो चुकी थी। कांग्रेस के अध्यक्ष जवाहर लाल नेहरू और उनके पिता मोतीलाल नेहरू भी गिरफ्तार हुए। कांग्रेस की वयोवृद्ध पीढ़ी से लेकर युवाओं तक चार पीढ़ियों के नेताओं की पूरे देश  में बड़े पैमाने पर गिरफ्तारी हुई। इन गिरफ़्तारियों के साथ सरकार खुद को बधाई दे सकती थी कि कांग्रेस की कार्यकारिणी अब काम नहीं कर सकती। सरकार ग़लत थी। कांग्रेस अभी भी काम कर रही थी, समाचार पत्र प्रकाशित कर रही थी, हालाँकि अब वे साइक्लोस्टाइल में छपते थे, और बंबई पर उसका नियंत्रण था। महिलाओं और बाहर रहने वाले नेताओं ने शराबबंदी आदि के रचनात्मक कार्यक्रम को जारी रखा। लोगों के अंदर एक बार फिर से जोश का ज्वार उमड पडा और बड़ी संख्या में लोग अपना सब कुछ त्याग कर देश सेवा के काम में जुट गए थे। सरकार के दमन चक्र के बाद भी लोगों के उत्साह में कमी नहीं आ रही थी इसलिए सरकार को भी अंततः गांधीजी के अहिंसक आंदोलन का लोहा मानना पडा और समझौते के लिए तैयार होना पडा।

गतिरोध को तोड़ने के लिए कठोर रणनीति की ज़रूरत थी। कई ब्रिटिश लेबर मंत्री और उनके समर्थक भारतीय स्वतंत्रता के पक्षधर थे। गांधीजी और हजारों भारतीय राष्ट्रवादियों को जेल में रखना लेबर पार्टी के लिए शर्मनाक था। वायसराय लॉर्ड इरविन के लिए, गांधीजी की कैद शर्मिंदगी से कहीं अधिक थी; इसने उनके प्रशासन को पंगु बना दिया। मैकडोनाल्ड और इरविन के लिए स्थिति राजनीतिक रूप से असहनीय थी। पूना की यरवदा-जेल में, जिसे वह यरवदा-मंदिर कहते थे, गांधीजी एक तरह से आराम ही करते रहे। देश की राजनैतिक स्थिति और अपने शुरू किए हुए सविनय अवज्ञा आंदोलन की चिन्ता उन्होंने जेल में आते ही छोड दी थी। ब्रिटिश पत्रकार जॉर्ज स्लोकोम्बे ने 19 मई को जेल में गांधीजी का साक्षात्कार लिया। उन्होंने लिखा, "कैद में बंद महात्मा अब भारत की आत्मा का अवतार हैं।" स्लोकोम्बे ने व्यर्थ ही विनती की कि सरकार कांग्रेस के साथ बातचीत करे। गांधीजी विचलित नहीं हुए। वायसराय को ज्यादा सख्ती पसंद नहीं थी। वह समझौता चाहते थे। उन्होंने विट्ठलभाई पटेल को एक पत्र में लिखा था—आप तो मेरी इस उत्कट अभिलाषा से परिचित ही हैं कि भारत में फिर से शांति और सद्भावना का वातावरण पैदा हो सके। इसलिए वायसराय की मंज़ूरी से दो मध्यस्थों, सर तेज बहादुर सप्रू और जे. एम. जयकर ने जेल में गांधीजी से बात की। गांधीजी कह रहे थे कि शांति तभी हो सकती है जब ब्रिटिश सरकार परिदृश्य से गायब हो जाए। मोतीलाल और जवाहरलाल नेहरू, सरोजिनी नायडू, पटेल और चार या पाँच अन्य महत्वपूर्ण कांग्रेस सदस्यों को गांधी से मिलने और इस बात पर चर्चा करने के लिए जेलों से ले जाया गया कि क्या ब्रिटिश सरकार के साथ कोई कामकाजी समझौता होने की कोई उम्मीद है। दरअसल, गांधीजी का उनकी मुश्किलों से बाहर निकलने में कोई इरादा नहीं था। कांग्रेस नेताओं ने सम्मेलन के समापन पर घोषणा की कि ब्रिटिश स्थिति से उन्हें एक "अपूरणीय खाई" ने अलग कर दिया था और जब तक भारत को साम्राज्य से अपनी इच्छा से अलग होने का अधिकार नहीं दिया जाता और वित्त एवं रक्षा पर पूर्ण नियंत्रण के साथ जनता के प्रति उत्तरदायी सरकार बनाने का अधिकार नहीं दिया जाता, तब तक कोई संतोषजनक समाधान नहीं हो सकता। यह मामला वर्ष 1930 के अंत तक अटका रहा।

रैमजे मैकडोनाल्ड ने जनवरी 1931 में प्रथम गोलमेज-सम्मेलन के अन्तिम अधिवेशन में, अपने विदाई-भाषण में यह आशा प्रकट की कि कांग्रेस दूसरे गोलमेज-सम्मेलन में भाग लेगी। वाइसराय ने उनके अभिप्राय को समझ कर 19 जनवरी को गांधीजी और कांग्रेस के सभी सदस्यों को तुरन्त और बिना किसी शर्त के छोड़ने का हुक्म दे दिया। नौ महीने तक जेल में रखने के बाद स्वाधीनता दिवस के ठीक एक दिन पहले 25 जनवरी 1931 को गाँधीजी को वायसराय के साथ इस समझौते के तहत जेल से रिहा किया गया। गांधीजी के साथ जवाहरलाल नेहरू, मोतीलाल नेहरू और अन्य बीस से अधिक कार्यकारी समिति के  दूसरे सदस्यों को भी रिहा कर दिया गया था। इस सद्भावना-प्रदर्शन की यह प्रतिक्रिया हुई कि गांधीजी वायसराय से मिलने को राजी हो गए। लेकिन कार्यसमिति के सदस्यों की बिना शर्त रिहाई से ही सरकार और कांग्रेस के बीच की खाई पट नहीं गई।

भारत सरकार के गृह विभाग ने गांधीजी और अन्य लोगों को रिहा करने के निर्णय को प्रभावी बनाने के लिए बॉम्बे के गृह विभाग को पत्र लिखा। बॉम्बे सरकार ने उसी दिन जेल महानिरीक्षक को आदेश भेज दिया, साथ ही इस बात पर ज़ोर दिया कि कैदियों को रिहा किया जाना चाहिए "26 जनवरी की शाम के बाद, लेकिन उससे पहले नहीं", ताकि कैदियों को रिहा होने के बाद स्वतंत्रता दिवस के समारोहों में भाग लेने से रोका जा सके। 26 जनवरी को, महानिरीक्षक कारागार ने गृह विभाग, बॉम्बे को गांधीजी की रिहाई के लिए की गई व्यवस्थाओं की जानकारी दी। उन्होंने बताया कि एक बैठक में, सेना, पुलिस और जेल अधिकारियों ने यह निर्णय लिया था कि गांधीजी, श्रीमती नायडू और प्यारेलाल को रात 11.15 बजे पूना से रवाना होने वाली ट्रेन से बॉम्बे ले जाया जाए। उन्हें किरकी से ट्रेन में चढ़ाया जाता था, या अगर प्रदर्शन होते थे, तो चिंचवड़ से। और हुआ यूँ कि उन्हें चिंचवड़ ले जाना ही पडा।

चिंचवड़ स्टेशन पर गांधीजी से प्रेस ने मुलाकात की और उनसे संदेश माँगा। गांधीजी अपनी रिहाई पर दिए गए साक्षात्कार में कहा: "मैं जेल से बिल्कुल खुले मन से, शत्रुता से मुक्त, निष्पक्ष तर्क के साथ बाहर आया हूँ ...।"

एक प्रश्न का उत्तर देते हुए उन्होंने कहा कि उनका सच्चा मानना ​​है कि सविनय अवज्ञा आंदोलन से जुड़े होने के कारण जेल में बंद प्रत्येक राजनीतिक कैदी को तुरंत रिहा किया जाना चाहिए।

बंबई में पत्रकारों से बात करते हुए, गांधीजी ने अपनी स्थिति स्पष्ट की: "मैं व्यक्तिगत रूप से महसूस करता हूँ कि कांग्रेस कार्यकारिणी समिति के सदस्यों की रिहाई मात्र से कठिन परिस्थिति और भी कठिन हो जाती है, और सदस्यों की ओर से कोई भी कार्रवाई लगभग, यदि पूरी तरह से नहीं, तो असंभव हो जाती है। अधिकारियों ने स्पष्ट रूप से यह नहीं समझा है कि आंदोलन ने जनमानस को इतना प्रभावित किया है कि नेता, चाहे कितने भी प्रमुख क्यों न हों, उन्हें कोई विशेष कार्रवाई का निर्देश देने में पूरी तरह असमर्थ होंगे।"

"अपनी बात कहूँ तो, मैं शांति की कामना करता हूँ, बशर्ते वह सम्मान के साथ मिल सके।"

26 जनवरी, 1931 को स्वतंत्रता दिवस की पहली वर्षगांठ बड़े उत्साह के साथ मनाई गई। उस दिन गांधीजी और कार्यकारिणी समिति के सदस्यों की रिहाई ने लोगों के उत्साह को और बढ़ा दिया।

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मनोज कुमार

 

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