आँच – 113 –
दफ़्तर के अंध महासागर में
हरीश प्रकाश
गुप्त
नवगीत लेखन में पं. श्याम
नारायण मिश्र एक सशक्त हस्ताक्षर है। उनके गीतों में शब्दजाल का मोहक तिलिस्म होता
है जो आद्योपांत टूटता नहीं बल्कि पाठक को पूरी तन्मयता के साथ जोड़े रखता है और
उसे काव्यरस के सागर से उबरने नहीं देता। मिश्र जी की विशेषता है कि वे सदा
बिम्बों के साथ नित नवीन प्रयोग करते रहते हैं। उनके बिम्ब शब्द-योजना में इस तरह पिरोए
रहते हैं कि उससे पृथक कल्पना आसान नहीं
होती। उनके बिम्ब बड़े ही स्वाभाविक ढंग से पाठक के समक्ष होते हैं। वे इस विधा
में इतने समर्थ हैं कि यही उनकी विशिष्टि बन जाती है।
मिश्र जी की रचनाएँ इस ब्लाग पर नियमित प्रकाशित हो रही हैं और
पाठकों को रसलाभ करने का निरंतर अवसर मिल रहा है। मिश्र जी नवगीत में इतने
सिद्धहस्त हैं कि उन पर कलम उठाने का साहस करना मुझ जैसे व्यक्ति के लिए उपयुक्त
नहीं होना चाहिए। फिर भी, आप सबकी अनुमति से और तटस्थ रह कर रचना धर्म का पालन
करते हुए अत्यंत विनीत भाव से उनके एक नवगीत “दफ्तर के अंधमहासागर में” को आज की आँच में लेने का प्रयास है। यह नवगीत आज से ठीक एक माह पूर्व इसी
ब्लाग पर प्रकाशित हुआ था।
“दफ्तर के अंध महासागर में” नवगीत परम्परा का एक छोटा
सा गीत है जिसमें कवि ने आम जन की पीड़ा और अभिलाषा को बहुत ही सजीव ढंग से
प्रस्तुत किया है। आम आदमी का जीवन संघर्ष सहज नहीं होता। उसके पास साधन नहीं, आशा
की किरण भी नहीं, फिर भी वह अंधकार में उम्मीद लिए प्रकाश की किरण की तलाश करता
है। अपने आत्मीय जनों से प्रेम और उनके सुख की खातिर दिन भर खटने के बावजूद शरीर
से वह थकता नहीं। जहाँ प्रेम हो और चाहत हो वहां शरीर परिश्रांत नहीं होता बल्कि
प्रफुल्लित होता है। मन से वह थकना चाहता नहीं। उसका लक्ष्य होता है थोड़ा सा सुख
जिसे वह अपने लिए, पत्नी और बच्चों के लिए, अपने परिवार के लिए जुटा सके। यहीं से
शुरू होते हैं उसके द्वन्द्व। उसे एक साथ एक नहीं, कई-कई मोर्चों पर संघर्ष करना
होता है। ये शारीरिक भी हैं और मानसिक भी। शीरीरिक संघर्ष भौतिक आवश्यकताओं की
पूर्ति के लिए हैं तो सीमित साधनों और अनेकानेक सीमाओं के चलते आशाओं, अपेक्षाओं
और अभिलाषाओं की पूर्ति के लिए मानसिक। दिन में अथक परिश्रम करते हुए, आशा की किरण
न दिखने पर भी नित नए व सुखद सपने संजोना उसकी चाहत है और यही उसकी नियति भी होती
है। जब वह अपने सपनीले संसार में होता है तब ही वह सबके चहरे पर खुशियाँ देख पाता
है और जब आँख खुलती है, वह वापस यथार्थ के धरातल पर पहुँचता है तब वह स्वयं को
निरुपाय और निराशा से घिरा पाता है। यही वास्तविकता है। व्यक्ति सदा वही सपने देखता
जो वह पाना चाहता है या जो वह बनना चाहता है और जब वह यह सब नहीं कर पाता तो वह निराश
होता है, टूटता है। परिस्थितियों पर उसका नियंत्रण नहीं। लेकिन मिश्र जी की दृष्टि
पूर्णतया आशावादी है। वे उसे निराशा की तली में जाने से रोकते हैं और अंतिम पद तक
पहुँचते-पहुँचते वह परिस्थितियों पर नियंत्रण पाने और उन पर विजय की राह दिखा जाते
हैं ताकि वह सब कुछ कर पाए जो वह सबके चेहरे पर खुशी लाने के लिए करना चाहता है।
जैसे कि मिश्र जी के गीतों में
प्रायः देखने को मिलता है, उनके बिम्ब गूढ़ नहीं हैं बल्कि नितांत देशज परिवेश से
आते हैं, इस नवगीत में भी हम वही देख सकते हैं। “कुंकुम”, “देहरी”, “चाँदनी”, “डोंगियाँ”, “झील”, “गला हुआ लोहा”, “कागज के
घोड़े”, “जवाकुसुम” इत्यादि सभी हमारे आसपास
के ही हैं। सभी दिनचर्या में कितने आसान से प्रयोग में आने वाले शब्द हैं। लेकिन
जब मिश्र जी अपनी आकर्षक शब्द योजना में उनमें गूढ़ भाव भरते हैं तो वे बहुत ही संतुलित
अर्थ में व्यापक बन जाते हैं और अपने से लगने लगते हैं। मिश्र जी गीत लिखते नहीं हैं
बल्कि वे एक कुशल कारीगर की भाँति उसे गढ़ते हैं। एक-एक शब्द पर किया गया उनका
परिश्रम स्पष्ट दृष्टिगत होता है -
पश्चिम में
फैल गया
संध्या का कुंकुम।
देहरी पर
मन होगा
खिड़की
पर तुम।
या
रोज नए सपनों की
डोंगियाँ फिराता
हूँ
दफ्तर के
अंध महासागर में।
प्रहर गए
रात लौट आता हूँ
बस खाली
हाथ लिए
अलसाए घर में।
या
घर आऊँ
देखूँ तब
ओठों पर
खिला
हुआ जावा कुसुम।
गीत की सरलता और उसका सौन्दर्य पहले पद से ही मुखरित होता है। गीत में शिल्पगत
सौन्दर्य की आभा है, संतुलन है, प्रांजलता है, भाव हैं और संवेदना है। मिश्र जी
शब्द चयन के प्रति बेहद सजग रहते हैं। उपयुक्त पदों के आगम से ऐसा प्रतीत होता है कि
उन्होंने एक-एक शब्द पर गहन विमर्श किया है। तथापि बिलकुल अंतिम पंक्ति में
प्रयुक्त “हुआ” यहाँ अनावश्यक ही लगता है।
और यदि यह पद प्रयोग करने का आग्रह ही हो तो यह “खिला” के साथ आता - “खिला हुआ”, तो यह अधिक उपयुक्त होता
क्योंकि इसकी तर्क संगति वहीं है। “जावाकुसुम” में टंकण त्रुटि लगती है
क्योंकि पुष्प का नाम “जवाकुसुम” है।
सीखता जा रहा हूँ ।
जवाब देंहटाएंसादर नमन ।।
बहुत सुन्दर, बहुत कुछ सीखने को मिलरहा है..आभार..
जवाब देंहटाएंमिश्र जी के नवगीत अक्सर इस ब्लॉग पर पढ़ने को मिलते रहते हैं...बहुत खूबसूरत लिखते हैं वह। बढ़िया समीक्षा।
जवाब देंहटाएंआंच पर तप कर यह गीत और भी मुखर हो गया है .... सुंदर समीक्षा
जवाब देंहटाएंमिश्र जी के नवगीत आपके ब्लॉग पर पढ़ने को मिलते रहते हैं बहुत सुंदर लिखते हैं
जवाब देंहटाएंआपने समीक्षा कर गीत को और निखार दिया,,,,बधाई
MY RECENT POST,,,,,काव्यान्जलि ...: विचार,,,,
मिश्र जी की रचनाएं इस ब्लॉग पर नियमित पढ़ती रही हूँ. आज आपकी समीक्षा से इस गीत को और जानने को मिला .
जवाब देंहटाएंkhobsurat geet aur vaisi hi sameekcha.
जवाब देंहटाएंअच्छी जानकारी..
जवाब देंहटाएंसुन्दर कवितायें।
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