फ़ुरसत में … इशकज़ादे – विषय पुराना पटकथा नई
मनोज कुमार
आज फिर से “फ़ुरसत में” एक बार फिर से फिल्म-चर्चा
का मन बन गया है। कल ही देखी “दो दूनी चार” के निर्देशन और “सलाम नमस्ते” और “बैंड बाजा
बाराती” के लेखन से अपनी पहचान बना चुके हबीब फैजल
द्वारा निर्देशित फ़िल्म “इशकज़ादे”। पहले ही बता दूं कि आज मैं थोड़ा-बहुत कहानी भी बताता चलूंगा। क्योंकि
जिस समस्या को निर्देशक ने उठाया है, वह आए दिन अख़बारों-टीवी
आदि में हम पढ़ते-देखते रहते हैं, इसलिए कहानी बताने से कोई
फ़र्क़ नहीं पड़ता। सच पूछें तो इससे विषय और निर्देशक की उस पर पकड़ और उसका
ट्रीटमेंट समझने में मदद मिलती है।
इस विषय पर अगर सैंकड़ों नहीं तो दर्जनों फ़िल्में तो
ज़रूर ही बनीं होंगी - दो भिन्न धर्मों के युवाओं के बीच प्रेम। एक दूजे के लिए, क़यामत से क़यामत तक, आदि आदि। कहानी एक-सी होते हुए
भी कहानी का प्लॉट और घटनाओं का क्रम इस फिल्म को अन्य फ़िल्मों से अलग करता है और जो
बात सबसे अधिक इसे अलग करती है, वह है इसकी फ़्रेशनेस। न सिर्फ़ ऐक्टर्स में यह
फ़्रेशनेस झलकती है, बल्कि इसके संवाद, इसका
बिंदासपन और इसके नायकों का डैशिंग एप्रोच हर पल हमारी उत्सुकता जगाए रखता है। उदाहरण
के तौर पर जिन फिल्मों का मैंने ऊपर नाम लिया, इस फिल्म का अंत भी वही है, पर यहां भी नायकों के मरने का तरीक़ा इस फ़िल्म को अन्य फ़िल्मों से अलग करता
है।
कहानी एक क़स्बाई ईलाके की है जिसका नाम अल्मोर है।
इसकी फ़िजां में माटी और फूलों की ख़ुशबू नहीं, बारूदी सुगंध तिरती है। बात-बात में और
बात-बेबात में गोलियां इस रफ़्तार से चलती हैं कि लगता गरज के साथ छींटें पद रहे
हों, क्योंकि गोलियाँ चलने के अनुपात में कोई भी मरता है ही नहीं। अगर ऐसा होता,
तो दो घंटे तीन मिनट की फ़िल्म में अंत तक लाशों का अम्बार लग जाता। इसके उलट पूरी
फ़िल्म में मरता सिर्फ़ एक चरित्र है।
फ़िल्म की शुरुआत स्कूल जा रहे छोटे बच्चों से होती है
जो आपस में लड़ते होते हैं, और तबड़-तोड़ गालियाँ देते हैं। यही बच्चे बड़े होकर ताबड़-तोड़ गोलियां चलाते
हैं। फ़िल्म का अंत स्कूल में ही होता है, जहां ये बच्चे मिलके भी मिल नहीं पाते।
फ़िल्म की पृष्ठ-भूमि राजनीतिक है। राजनीतिक महात्वाकांक्षा रखने वाले दो परिवार
हैं, एक क़ुरैशी और दूसरा चौहान। माहौल चुनावी है। एक सीटिंग
एम.एल.ए. है तो दूसरा उस सीट को हथियाना चाहता है। राजनीति में न रिश्ते होते हैं
और न नाते। राजनीतिक दांव-पेंच में दोनो ही परिवार अपने बच्चों का खुलकर इस्तेमाल
करते हैं।
ये बच्चे जब भी मिलते हैं आपने-अपने बाप-दादा की
राजनीतिक उठापटक को अंजाम देने के चक्कर में एक दूसरे का इंसल्ट करते रहते हैं।
अपनी इंसल्ट का बदला लेने के लिए ज़ोया अपने परिवार वालों को कहती है कि उसको पहला
थप्पड़ मैं मारूंगी और सरे बाज़ार ऐसा करती भी है। फिर तो इस फ़िल्म में और उन दोनों
के प्यार में कभी थप्पड़ चलता है, तो कभी गोली। ज़ोया अपने विवाह का प्रस्ताव इसलिए
ठुकरा देती है कि लड़का डरपोक है और चौहान के गुंडों के आक्रमण के समय उसका साथ
देने सामने नहीं आता। उसका मानना है, “मुझपे जान दे-दे ऐसा होगा मेरा
शौहर!” जब उससे पूछा जाता है कि शादी नहीं करेगी तो क्या
करेगी, तो वो बेधड़क कहती है – “एम.एल.ए. बनूंगी”।
राजनीतिक दांव-पेंच के अलावे प्रेम की पृष्ठभूमि में निर्देशक ने फ़िल्म में
अंतर्जातीय विवाह, ऑनर किलिंग को भी बड़ी खूबी से बयान किया
है। बच्चे बाप-दादा के राजनीतिक दांव-पेंच में मोहरे की तरह इस्तेमाल तो होते हैं
पर एक दूसरे से प्यार भी कर बैठते हैं। इसके बाद तो बस उस प्यार और शादी के राजनीतिकरण
और अपराधीकरण की एक बेमिसाल तस्वीर है यह फ़िल्म।
ज़ोया (परिणीति चोपड़ा) क़ुरैशी परिवार की बेटी
है और सूरज चौहान का पोता परमा चौहान (अर्जुन कपूर) चौहान परिवार का पोता।
दोनों परिवार में राजनीतिक दुश्मनी है। परमा का बाप मर चुका है, घर में अन्य लोगों
के अलावा विधवा मां है, जिसकी कोई नहीं सुनता। दादा एम.एल.ए.
की लड़ाई लड़ रहा है। परमा और ज़ोया आज की पीढ़ी की अक्खड़ और बिंदास पौध हैं।
अर्जुन की यह पहली फ़िल्म है, जबकि परिणीति को
आपने लेडिज़ वर्सेस रिक्की बहल में देखा होगा। अपनी पहली ही फ़िल्म से पहचान
बनाने वाली और बेस्ट न्यूकमर के कई पुरस्कार हथियाने वाली प्रियंका चोपड़ा की बहन
में एक सफल और कुशल अभिनेत्री होने के कई गुण हैं। दिखने में सुंदर तो है ही,
इस फ़िल्म में उसने चार-चार किसिंग सीन देकर ज़ाहिर कर दिया है कि “अगर कहानी की डिमांड हो तो इस तरह के दृश्य करने में उसे गुरेज़ नहीं होगा”
और शायद निर्देशक और अभिनेता मानने लगे हैं कि सफल होने के लिए
पिक्चर को डर्टी बनाना भी ज़रूरी है।
मध्यांतर तक फ़िल्म का रन संतोषजनक था, मध्यांतर के बाद
लग रहा था कि निर्देशक गेंद को सीमारेखा पार कराने वाला शॉट मारेंगे अपने बल्ले का।
लेकिन उन्होंने सुरक्षित खेलने का मन बना लिया और आराम से एक सुरक्षित एवं संतोषजनक
स्कोर खड़ा किया। इस कारण न सिर्फ़ कई प्रश्न मन में कुलबुलाते रहे कि जो बाप यह
कहता हो ‘ले लेंगे जान उसकी जो ज़ोया को ज़रा सी भी तकलीफ़
पहुंचाई’ वही क्यों अपनी बेटी का ही ख़ून कर देना चाहता है,
क्यों सारे के सारे दोस्त दुश्मन बन जाते हैं। क्यों इन पात्रों से
दर्शकों की सहानुभूति नहीं होती।
बोनी कपूर के बेटे अर्जून कपूर ने अपना काम ठीक-ठाक
निभाया है, जबकि परिणीति ने अपने दिए गए रोल में जान डाल दी है और अपना लोहा मनवाया
है। अर्जून की एक्टिंग में रेंज नहीं दिखा और न ऐसा लगा कि वे एक बेहतर डांसर भी
हो सकते हैं। एक बिगड़ैल, अड़ियल, गुंडा
किस्म के लडके का किरदार है, जिसे मालूम है कि उसके
ऊपर उसके राजनीतिक परिवार का वरदहस्त है, बिखरी ज़ुल्फ़ और बढ़ी हुई दाढ़ी से वह अपनी एक्टिंग
की कमी ही छुपाते प्रतीत होते हैं, जबकि कहीं-कहीं पर क्रूरता
की हद पार कर जाने वाली सिचुएशन में भी वे अदाकारी से कोई ऐसी छाप न छोड़ पाए जिससे
उन्हें लंबे समय तक याद रखा जाए।
अपनी दूसरी फ़िल्म में भी परिणीति ने पहली फ़िल्म की
तरह ही ऐसा असर छोड़ा है जो लंबे समय तक याद किया जा सकेगा। जिस चंचलता, खूबसूरती और
बिंदासपन से परिणति ने इस फ़िल्म में काम किया है, उसके आधार
पर यह कहा जा सकता है कि पूरी फ़िल्म वह अपनी एक्टिंग के बल पर खींच ले गई है। मुझे
इसमें कोई संदेह नहीं है कि वह एक अच्छी अभिनेत्री हैं और उनका भविष्य उज्ज्वल है।
फिल्म में उसका चरित्र भी ज़रा हट के है। क्लास में टॉप करती है और फ़िल्म के शुरू
के दृश्य में गन खरीदती दिखती है क्योंकि उसे गहने से नहीं गन से प्यार है। बीस हज़ार
की पिस्तौल के लिए अपनी जेब-ख़र्च के आठ हज़ार दे देती है और बाक़ी के बारह हज़ार के
बदले अपने कानों के सोने के झुमके। मैडम ज़लज़ला के नाम से मशहूर इस ख़ूबसूरत बला को
शिकार करने का शौक है क्योंकि उसकी ज़िद के आगे न तोप चलता है और न ही तमंचा। साईंस
की बाला एम.बी.बी.एस. नहीं एम.एल.ए. बनना चाहती है। आज़ाद ख़्यालात वाली यह लड़की भीड़
में घुसकर तमाशा देखना चाहती है, और वह भीड़ भी राजनीतिक
रंगदारों की। प्यार भी ऐसे शख़्स से करना चाहती हो जो किसी की जान लेने देने वाला
हो। उसे प्यार होता भी है तो अपने परिवार के जानी दुश्मन चौहान परिवार के लड़के से।
फ़िल्म में पहली भेंट और प्यार लेडिज़ ट्वायलेट में
होता है। यहां का वकया बड़ा रोचक है। जब ज़ोया लेडिज़ ट्वायलेट में जाने लगती है उसकी
एक सहेली बोलती है अकेले मत जा पता नहीं परमा न हो वहां। बिंदास जोया कहती है – लेडिज़ ट्वायलेट
में आएगा तो ऐसी मार खाएगा कि फिर कभी सू-सू न कर पाए।’ वहीं
दोनों की भेंट भी होती है, और परमा के तेवर से ज़ोया को
कुछ-कुछ हो ही जाता है। दोनों परिवार के बीच यह प्यार कैसे पनपे और परवान चढे,
जहां बात-बात पर बंदूकें तनती हों। किंतु मार-कुटाई और मरहम पट्टी
होते-होते यह प्यार परवान भी चढ़ता है और दोनों शादी भी कर लेते हैं। परमा से परवेज़
बनाना फिर निकाह और सात फेरे भी छुपकर दोस्तों की सहायता से। रेल यार्ड में उपेक्षित
से पड़े एक डब्बे में हनीमून और इमरान हासमी की याद दिलाते कुछ अंतरंग सीन। इसके
बाद परमा द्वारा रहस्योद्घाटन कि तुमने थप्पड़ मारा मैंने किया निकाह – ले लिया बदला। नहीं पढ़ा कलमा, नहीं किया निकाह। अब
तू चांद बन जा, तेरी पब्लिसीटी मैं करूंगा।
इस समय फ़िल्म का मध्यांतर होता है। इसके बाद की कहानी
में परमा एक विलेन की तरह उभरता है जिसने ज़ोया की तस्वीरें सारे मुस्लिम समाज में एम्.एम.एस.
कर दी है और कुरैशी को कोई मुस्लिम वोट नहीं देता, नतीजा चौहान जीत जाता है। लोग
कहते हैं जो अपनी बिगड़ी बेटी को न संभाल पाए वो अलमोरे को क्या संभालेंगे। ख़ुद ही
इंटरकास्ट करेंगे तो दूसरों की बहू-बेटी पर क्या असर पड़ेगा? इंटरवल के बाद एक कसैले
मन से फिल्म देखते हुए अंतर्मन में यह प्रश्न चलता रहता है कि एक अच्छी बोल्ड
प्रेम-कथा किस तरफ़ जाएगी? ये राजनीति और प्रेम का घालमेल
किधर जाएगा? इस संवेदनशील विषय, हिन्दू-मुस्लिम
प्रेम विवाह, को कितनी सावधानी और कुशलता से हैंडिल कर पाते
हैं इसके निर्देशक, यह शंका शुरू से अंत तक मन में बनी रही और यह भी कि अंत क्या
वही होगा जो आज तक होता आया है, मिल के भी न मिलना।
यह राजनीति थी या और कुछ कि चौहान और क़ुरैशी दोनों इस
प्रेमी युगल के ख़िलाफ़ मिल जाते हैं और कहते हैं – ये दोनों अगर ज़िन्दा रहे तो
हमारे-तुम्हारे दोनों का पोलिटिकल कैरियर ख़तम...! ईद मुबारक का दिन होता है,
उसके बैनर जगह जगह लगे हैं। चारो तरफ़ से दोनों दलों के लोगों से
घिरे ये प्रेमी फैसला करते हैं कि उनके हाथों मरने से अच्छा है कि हम ख़ुद एक-दूसरे
को मार दें। उनके हाथों मरे तो उनकी नफ़रत की जीत हो जाएगी। हम हंसते-हंसते मरेंगे।
और अंत में स्क्रीन पर एक मैसेज है –
हर साल हमारे देश में एक हज़ार से ज़्यादा परमा ज़ोया
जैसे इशकज़ादे बेरहमी से मार दिए जाते हैं। उनका ज़ुर्म : अपनी ज़ात और मज़हब के बाहर
इशक करना।
गीत-संगीत तो हैं, आइटम डांस भी दो-दो, पर वे भी बस फिलर का काम कर रहे हैं। हां चांद बीबी के रूप में कोठे वाली
की भूमिका निभाने वाली ग़ौहर ख़ान ने रेखा और चिन्नी प्रकाश द्वारा कोरियोग्राफ गए
दोनों आइटम सॉंग में ठुमके तो ज़रूर लगाए हैं, पर इसमें न तो
मुन्नी जैसा कोई बदनाम होने वाला कारनामा है, और न ही चमेली
जैसी कोई चिकनी-चुपड़ी बात। हां जहां उसे एक कोठे वाली के रूप में अपना अभिनय
दिखाने का मौक़ा मिला है, उसने कोई कसर नहीं छोड़ी है।
जिस ढंग से फ़िल्म में ताबड़तोड़ गोलियों की आवाज़ चलती
रहती है इसे हम टी-२० का मैच कह सकते हैं जिसमें परमा के दादा का रोल रंगमंच के
कुशल और वरिष्ट अभिनेता अनिल रस्तोगी ने एक फ़ास्ट बॉलर की तरह समझदारी पूर्वक
निभाया है। अगर बॉल थोड़ा भी इधर-उधर स्विंग होता तो वाइड होने का खतरा था, पर उन्होंने ऐसा
होने नहीं दिया है। हबीब फैजल द्वारा लिखा गया फ़िल्म का संवाद सही मायनों में इस
फ़िल्म का मैन ऑफ द मैच है। कोठेवाली गयिका और नृत्यांगना के रूप में ग़ौहर ख़ान ने
अच्छी फिरकी डाली है, और विकेट भले न गिरे हों उन्होंने रन
रेट को अंकुश ज़रूर लगाया है। अमित त्रिवेदी का संगीत मुझे तो ट्वेल्थ मैन ही लगा।
हां हेमंत चतुर्वेदी की सिनेमेटोग्राफी चियरलीडर्स की तरह आकर्षक है। हबीब फैजल का
स्क्रिनप्ले तो लगता है कि रन बटोरने के चक्कर में रन आउट हो गया है।
क्लाइमेक्स को लेकर मेरे मन में संशय था कि निर्देशक
इसे क्या मोड़ देता है। कुछ नयापन दिखाएगा या फिर वही अंत, जो आज तक
हिन्दू-मुस्लिम प्रेम और विवाह का फ़िल्मी अंत होता आया है, देखकर
मुझे निराशा हुई। आज के युवा पीढ़ी को एक संदेश देने का मौक़ा हबीब फैज़ल और यशराज फ़िल्म्स,
दोनों ही अंतिम ओवरों में तेजी से रन बटोरने वाले बल्लेबाज की तरह
जो ऊंचा शॉट मारने की कोशिश की वह हवा में उंचा तो गया पर सीमा रेखा पार नहीं कर पाया।
हां दर्शकों ने इस कैच को लपका या चूक गए इसका एक्शन रिप्ले और पेंडिंग डिसिजन हम
आप पर छोड़ते हैं। क्योंकि थर्ड अंपायर तो आप ही है। हां इतना तो कह ही सकते हैं कि
हर टी-२० के मैच में एक्साइटमेंट चरम का नहीं होता पर मैच देखने में आनंद तो आता
ही है।
और इसी आनंद का नाम है “इशक़ज़ादे!”
रह गयी फिल्म देखने से.... देखते हैं कोई 'जुगाड' बना तो..
जवाब देंहटाएंहाँ हर फिल्म में आनंद तो आता ही है.
इश्कज़ादे फिल्म की अच्छी समीक्षा. पर देखने लाएक नहीं कही जा सकती. क्योंकि फार्मुला फिल्में हमें कम ही भाती हैं.
जवाब देंहटाएंहम तो ठहरे निरे आलसी फिल्म देखने के मामले में साल दो साल में एक . समीक्षा पढ़कर कुछ कुछ होता है लेकिन फिर उसके बाद जाने क्यों थियेटर की तरफ कदम बढ़ते ही नहीं . हम तो तीसरे क्या चौथे अम्पायर है .
जवाब देंहटाएंअभी तक तो नहीं देखी है यह फिल्म ... पर अब आपकी यह समीक्षा पढ़ने के बाद देखेंगे जरूर !
जवाब देंहटाएंवैसे क्या फिल्म भी आपकी इस समीक्षा की तरह रोचक निकलेगी ... देखेंगे ... हम लोग ... ;-)
हटाएंरोचक लगने की गारंटी है। परिणीति ने बहुत अच्छी एक्टिंग की है और इसके संवाद बहुत ही रोचक हैं।
हटाएंयहाँ मिल गई तो ज़रूर देखेंगे पर इतनी गोलियाँ और गालियाँ भी !
जवाब देंहटाएंये आज की पीढ़ी है।
हटाएंLIVE CINEMA
जवाब देंहटाएंआपका जादू चलता ही रहता है.. छूक छूक...
KHUBSURAT SAMIKSHA
जवाब देंहटाएंटिकट महंगा है...इसलिए बहुत सोच-समझ के हॉल में घुसता हूँ...आपकी विवेचना इतनी अच्छी है की फिल्म देखने की उत्कंठा प्रबल हो रही है...कोई कमीशन तो नहीं मिल गया प्रोड्यूसर से...
जवाब देंहटाएंबहुत ही बेहतरीन समीक्षा. फिल्म के हर पहलू पर विचार रखे हैं. हाँ एक बात नयी जरूर लगी कि आपके ब्लॉग पर फिल्म समीक्षा मैंने तो पहली बार पढ़ी. लेकिन मज़ा आ गया.
जवाब देंहटाएंधन्यबाद.
कथा तो रोचक लग रही है..
जवाब देंहटाएंबिलकुल बम्बइया फिलिम का मसाला है,पर देखना नहीं चाहूँगा.अभी 'राउडी राठोर' का हैंगओवर चलने दो !
जवाब देंहटाएंजबरदस्त समीक्षा की है आपने .... देखने को बाध्य कर दिया
जवाब देंहटाएंशायद पहली बार मैंने आपके द्वारा किसी फिल्म के लिए की गयी समीक्षा पढ़ी है ......बिलकुल निराले अंदाज में बेबाक सी लगी .........लाजबाब प्रस्तुति के लिए बधाई स्वीकारें सर |
जवाब देंहटाएंएक अच्छा टाइम पास है ये फिल्म ... देखि है मैंने ...
जवाब देंहटाएंआपकी समीक्षा सटीक लगी ...
बेहतरीन प्रस्तुति रोचक रचना,,,,, ,
जवाब देंहटाएंMY RECENT POST,,,,काव्यान्जलि ...: ब्याह रचाने के लिये,,,,,
बढ़िया समीक्षा अब तो लगता है फिल्म देखनी ही पड़ेगी।
जवाब देंहटाएंअब तो यहाँ भी ऑनर किलिंग की ख़बरों पर लगभग प्रतिदिन नजर पड़ ही जाती है .सुन्दर समीक्षा ..
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