आँच – 114 – सोनागाछी (कहानी)
हरीश प्रकाश
गुप्त
विभिन्न ब्लागों पर की
गईं उनकी टिप्पणियों से ही अब तक कौशलेन्द्र जी से मेरा परिचय था। अभी तक उनके
ब्लाग पर जाना हुआ नहीं था, सो उनके रचनात्मक लेखन के बारे में भी अधिक जानकारी
नहीं थी। पिछले सप्ताह श्री मनोज कुमार जी ने उनकी एक कहानी का लिंक दिया था।
कहानी पढ़ी तो इसकी शैली और इसके भाषिक स्तर के माध्यम से लेखकीय प्रस्तुति ने
बहुत प्रभावित किया। आँच स्तम्भ पर लगातार हो रही कविताओं पर चर्चा की एकरसता को
भंग करने के इरादे से तथा एक उत्तम कृति को अधिकाधिक पाठकों के समीप पहुँचाने के
प्रयास के क्रम में आज की आँच में कौशलेन्द्र जी की कहानी सोनागाछी को लिया जा रहा है। यह
कहानी उनके ब्लाग “बस्तर
की अभिव्यक्ति – जैसे कोई
झरना” पर पिछले सप्ताह दो
अंकों में प्रकाशित हुई थी।
सोनागाछी विषय नया
नहीं है। बहुत से रचनाकारों ने इस विषय पर अपनी कलम चलाई है और अनेक
कहानियाँ और उपन्यास इस विषय पर आ चुके हैं। कुछ में एकरूपता और एकरसता है, तो कुछ सोनागाछी को एक
नई दिशा में परिभाषित करते हैं, नवीन प्रश्न उठाते हैं, सोचने को विवश करते
हैं तथा समाधान प्रस्तुत करते हैं। यह लेखक की अभिनव दृष्टि है। अतिसामान्य हो गए
विषय को लेखक का नवीन दृष्टि से देखना और अपने कौशल से सुन्दर ढंग से प्रस्तुत
करना ही पाठक को आकर्षित करता है।
शायद ही ऐसा कोई हो
जिसने सोनागाछी के विषय में न सुना हो। बंगाल का सोनागाछी पूर्वी भारत में देह
व्यापार के लिए प्रसिद्ध है। सतही तौर पर देखने पर सोनागाछी ऐसे ही रूप में सामने
आता है जो न केवल घृणित और गंदे व्यवसाय का पर्याय है बल्कि सभ्य समाज पर एक धब्बे
की तरह है, वर्ज्य है, त्याज्य है। यह सोनागाछी, जिन्हें हम सभ्य समाज
के लोग कहते हैं, उनके ही भोग-विलास का साधन है और उनके ही
महत्वपूर्ण कार्यों-कार्यक्रमों की सफलता का अनिवार्य उपक्रम सा है। तथापि अपने
पास आने वालों को शारीरिक और आत्मिक सुख देने वाले सोनागाछी की पीड़ा अनभिव्यक्त
रह जाती है। कम ही लोगों ने इस सोनागाछी के अन्तस में झाँकने की कोशिश की है, इसके इतर पहलू को समझा
है। यहाँ महत्वपूर्ण यह नहीं है कि लोग सोनागाछी को क्या समझते हैं बल्कि
महत्वपूर्ण यह है कि सोनागाछियों की अनुभूति क्या है, उनकी पीड़ा क्या है, उनकी मजबूरी क्या है।
क्या उनके भीतर भी सुख-दुख की सह-अनुभूति है, सम्वेदना है, क्या वे इस बेड़ी से
मुक्त होना चाहती हैं और मुक्त होकर वे क्या पाना चाहती हैं। प्रस्तुत कहानी में
लेखक ने सोनागाछी के इसी अनभिव्यक्त पहलू को विस्तार से तथा बहुत ही मार्मिक ढंग
से उद्घाटित किया है।
देश का विभाजन, बांगलादेश का निर्माण, विस्थापन, गरीबी, रोजगार की तलाश, शोषण और मजबूरी आदि
ऐतिहासिक संदर्भ में अनेक ऐसे प्रामाणिक तथ्य मौजूद हैं जो सोनागाछी के निर्माण और
उसके अस्तित्व को तार्किक पुष्टि देते हैं। लेखक ने इस कहानी में इन सभी अंगों पर
सजगता से दृष्टिपात किया है।
कहानी का प्रारम्भ
विभाजन-जनित मर्मान्तक पीड़ा को पुष्ट करती पृष्ठभूमि से हुआ है। फिर लेखक ने बड़ी
चतुराई से भ्रम उत्पन्न कर टर्न दिया है और कहानी कुशलता से पाठकों को दूसरी
पृष्ठभूमि की ओर ले जाती है। यह प्रस्तुति पाठक के मस्तिष्क में सोनागाछी के
स्वरूप और उसकी विवशता का सजीव चित्र खींचती है, जिसमें पाठक
मंत्रमुग्ध सा कहानी में खो जाता है। कहानी में सोनागाछियों के स्वप्नों की मूक
अभिव्यक्ति भी है जिसे भाषिक सौन्दर्य के साथ प्रस्तुत किया गया है।
लेखक की लेखनी
निसन्देह समर्थ और निरपवाद है। पूरी कहानी में शब्दों का सम्मोहन है। कथोपकथन
उपयुक्त और प्रभावशाली हैं। एकाधिक स्थानों पर उक्तियाँ अति दर्शनीय बन गईं हैं।
वर्णन में लेखक की क्षमता पर प्रश्न नहीं। तथापि यही वर्णन कुछएक स्थानों पर
कहानीपन पर भारी प्रतीत होता है। वहाँ कहानी स्वयमेव कथानक की अनुगामी नहीं बन सकी
है बल्कि इसने कुछ-कुछ लेखकीय सम्बोधन/सम्भाषण का रूप ले लिया है। इसका यह भी एक
कारण हो सकता है कि कहानी में कथाकार स्वयं वाचक की भूमिका में आ गया है जो कहानी
की श्रेष्ठता को कमतर करता है। जबकि कथाकार को स्वयं पक्ष बनने से बचना चाहिए और
अपनी ही उक्ति, विचारों को व्यक्त करने के लिए किसी चरित्र को गढ़ना चाहिए, उसका आश्रय लेना चाहिए, तब शायद यह अधिक संगत
होता। प्रायः स्वयं को आदर्श चरित्र के रूप में प्रस्तुत करने की लेखक की
मनोवृत्ति कहीं सीमा तक खुद को श्रेष्ठ रूप में प्रस्तुत करने की होती है और सजग
पाठक को यह संदेश ग्रहण करने में अधिक कठिनाई नहीं होती। रचनाकार तो निरपेक्ष होता
है अतः जब वह घटनाक्रम से
स्वयं को अलग रखकर परिदृश्य को देखता और दिखलाता है तो यह आदर्श स्थिति होती है।
एक और छोटी सी बात, जिससे सम्भवतः लेखक भी
सहमत होंगे, लेखक ने कहानी में एक से अधिक स्थानों पर “नेत्रों” या “नेत्रों से झरना बहने” जैसे प्रयोग किए हैं। नेत्र बहुत ही रूक्ष और
कर्कश शब्द है जिससे आँसू बहना सुसंगत नहीं लगता। नीर तो नयनों से ही बहता हुआ ही
अधिक संगत है और नेत्रों से ज्वाला। कुछ अशुद्धियाँ भी हैं जिन्हें लेखक स्वयं यदि
कहानी का निरपेक्ष रूप से पाठ करेंगे तो उन्हें दूर कर देंगे। कथानक की भावभूमि के
प्रभाव में सूक्ष्म अशुद्धियाँ दृष्टि से प्रायः ओझल हो जाती हैं। इसके बावजूद
कौशलेन्द्र की यह कहानी वर्णन की शैलीगत विशिष्टता और इसमें उनकी सामर्थ्य की छाप
छोड़ती है। यह समाज की विसंगति को उजागर करती हुई तमाम प्रश्न उठाती है जो पाठक के
मन-मस्तिष्क में कौंधते हैं। यही कहानी की सफलता है। यह कहानी सोनगाछियों की
नारीगत विवशता, उनकी मर्माहत कर देने वाली पीड़ा और इसके बावजूद उनके अंदर पल
रहे सपनों के पूरे होने की आकांक्षा की सफल प्रस्तुति है। इस कहानी पर पाठकों को
एक बार दृष्टिपात कर लेना चाहिए।
सशक्त समीक्षा .... कहानी अभी तक पढ़ी नहीं थी अब पढ़ने जा रही हूँ .... आभार
जवाब देंहटाएंकौशलेन्द्र जी प्रस्तुति सोनागाछी की बेहतरीन समीक्षा की है,
जवाब देंहटाएंनिसंदेह,कौशलेन्द्र जी की प्रस्तुति लाजबाब है,,,और एक अच्छे रचनाकार है,,,,,
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संगीता स्वरुप ( गीत ) ने आपकी पोस्ट " आँच – 114 – सोनागाछी " पर एक टिप्पणी छोड़ी है:
जवाब देंहटाएंसशक्त समीक्षा .... कहानी अभी तक पढ़ी नहीं थी अब पढ़ने जा रही हूँ .... आभार
gupt ji aabhari hun ki aapki sameeksh dwara hi main is behtareen lekh tak pahunch payi. sach kaha aapne shadon ka sammohan aur kathopkathan bahut prabhaavshali hai.
जवाब देंहटाएंaapne acchhi sameeksha ki hai. sahmat hun aapse ki netron ki jagah nain ka prayog achha rahta.
aabhar
नैनो से नीर -
जवाब देंहटाएंनेत्रों से ज्वाला ||
संभाला |
देखा-भाला ||
आभार ||
गुप्त जी ने बताया
हटाएंहमने नोट किया
नयन से झरने
नेत्रों से चिंगारी
दीदों से पटाखे
और अँखियों से
ए.के.47 चलाने का
पक्का वादा किया।
सुन्दर शब्दों में सार्थक समीक्षा..
जवाब देंहटाएंसार्थक और सटीक समीक्षा की है।
जवाब देंहटाएंसमीक्षा पढ़कर कहानी पढ़ने की इच्छा जाग्रत हुई है...
जवाब देंहटाएंभाई गुप्त जी! साधुवाद ! इस समीक्षा के लिये। इस कहानी के अगले संस्करण में सुधार का मार्गदर्शन कर दिया है आपने। "नेत्र" और नयन का भावात्मक अंतर जानकर ज्ञानवर्धन हुआ, आगे से इसका प्रयोग इसी रूप में किया जायेगा। आपका कथन सत्य है, लेखक को कहानी पर भारी नहीं होना चाहिये, पर सच यह भी है कि लेखक स्वयं इस कथा का एक पात्र रहा है। यह कहानी एक सत्य घटना पर आधारित है। कहानी लेखन की कई सूक्ष्म बातें सीखने को मिलीं। इसके लिये आभारी हूँ। मेरी लिखी कहानी की भी कभी कोई समीक्षा करेगा ऐसा तो सोचा न था, मुझे तो साहित्य का ककहरा भी नहीं आता। बस जंगल में रहता हूँ ...जंगली नदी की तरह निर्बन्ध बहता हूँ ...आप सबको नदी का यह टेढ़ा-मेढ़ा बहाव अच्छा लगा, यह आप सबकी गुणग्राहकता है। किंतु यह सब संयोग आदरणीय मनोज भइया जी के कारण ही सम्भव हो सका। उनके स्नेह का ऋणी हूँ। सभी पाठकों का हृदय से आभारी हूँ जो समय निकालकर इस कहानी को पढ रहे हैं।
जवाब देंहटाएंआभार आपका कौशलेन्द्र जी जो कहानी के सन्दर्भ में आपने मेरी असहमतियों को स्वीकार किया। आपकी लेखनी प्रभावशाली है, इसमें कोई दो मत नहीं। रही बात विधा में परिपक्वता की तो हम सभी एक-दूसरे से ही कुछ-न-कुछ सीख रहे हैं और सीखते रहेंगे।
हटाएंआपके शब्दों को आगे बढ़ाते हुए क्षमा के साथ कहना चाहूँगा - भाषा का प्रवाह तो नदी की तरह ही है, स्वतंत्र, स्वच्छंद और निर्बाध। इसके बावजूद वह अपनी सीमाएँ तो बनाती ही है। स्थिति-परिस्थिति के अनुरूप वह अपना रास्ता स्वयं तय करती है। शहर और जंगल के मानक तो हमने निर्धारित किए हैं, नदी ने नहीं। शहरी नदी और जंगली नदी के गुण धर्म भी अलग-अलग नहीं हुआ करते। इसलिए भाषा के सन्दर्भ में ऐसा वर्गीकरण मुझे उपयुक्त नहीं लगता।
सहमत हूँ आपसे गुप्त जी! :)
हटाएंधन्यवाद,
हटाएंबेहतरीन समीक्षा ..
जवाब देंहटाएंकौशलेन्द्र जी को बधाई !
सशक्त समीक्षा ....
जवाब देंहटाएंभाई साहब आपको समीक्षा की बारीकी के लिए बधाई ......