तेजाबी शहरों में
श्यामनारायण मिश्र
छूट गये पीछे
रस के वे निर्झर
केशर की घाटी,
कुंकुम के टीले।
अमरपुरी के नक्शे
हाथ में लिए
तेजाबी शहरों में आ बसे क़बीले।
गली-गली
लोहे की दुदुंभी बजी
माटी को भूल गई पीढ़ी।
लड़कों को
ताड़ पर चढ़ा कर हम
नीचे से काट रहे
सीढ़ी।
दूध-दही वाली
नदियों में घोल रहे
यंत्रों के बचे-खुचे द्रव काले-नीले।
पर्वत से
नगरों तक पुरखों की लिखी हुई
मंत्र पत पगडंडी
लापता हुई।
इस नई
सुबह की दुधमुंही किरण-कली
जराजीर्ण फैशन की
ब्याहता हुई।
मधुवन के अते-पते
सूझते नहीं
द्वारे से दते हुए कैक्टस कटीले।
*** *** ***
चित्र : आभार
गूगल सर्च
करूँ क्या,
जवाब देंहटाएंअब हुआ है साँस भी लेना बड़ा मुश्किल,
सुना था, इस शहर में,
हवा जहरीली हो चली है।
वाह...
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर गीत....
अनु
छूट गये पीछे या हमने छोड़ दिया...हाय ! विकसित होने के लिए कितना कुछ करना पड़ता है..मिश्र जी कविता कितनी सहज होती है ..
जवाब देंहटाएंभावों भरा |
जवाब देंहटाएंआभार सर जी ||
भावों से भरी रचना,,,,श्यामनारायण मिश्र जी की,,,,
जवाब देंहटाएंRECENT POST ,,,,फुहार....: न जाने क्यों,
बहुत सुंदर सटीक अभिव्यक्ति ....
जवाब देंहटाएंसुन्दर...
जवाब देंहटाएंतेजाबी शहरों में आ बसे क़बीले......बहुत सुंदर....यथार्थपरक....
जवाब देंहटाएंसार्थक अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंमधुवन के अते-पते
जवाब देंहटाएंसूझते नहीं
द्वारे से दते हुए कैक्टस कटीले।
आज बदली हुई है हवा ....
बदल गये हैं परिपेक्ष और हम सुर नहीं मिला पा रहे हैं .....!!
श्यामनारायण जी की गहन अभिव्यक्ति ....!!!
ली-गली
जवाब देंहटाएंलोहे की दुदुंभी बजी
माटी को भूल गई पीढ़ी।
लड़कों को
ताड़ पर चढ़ा कर हम
नीचे से काट रहे सीढ़ी।
बहुत सुंदर गीत .... संदेशपरक
लोहे की दुदुंभी बजी
जवाब देंहटाएंमाटी को भूल गई पीढ़ी।
लड़कों को
ताड़ पर चढ़ा कर हम
नीचे से काट रहे सीढ़ी।
आज की परिस्थतिओं का सजीव चित्रण किया गया है कविता में जो सोचने पर विवश करता है कि यदि इसी तरह समाज आगे बढ़ेगा तो जिंदगी कितनी दुरूह होने वाली है? सही यही है कि सीधे सीधे समस्या से मुकाबला किया जाय, चाहे वह समाज की समस्या हो या वातावरण की.
सच | सिर्फ शहर नहीं - इंसानों के मन भी तेजाबी हो गए हैं | दिल के भीतर बसी प्रेम की बस्तियां इस तेजाब की भेंट चढ़ती जा रही हैं | बाहर का तेजाब तो कम किया भी जा सकता है - परन्तु मन के भीतर का तेजाब न्यूट्रलाइज नहीं हो पाता :(
जवाब देंहटाएंसटीक अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंYe Shaher Bhi to hamne jahreela kiya hai ... Bhogna Bhi hamen hai ... Saarthak chintan
जवाब देंहटाएंसुंदर !
जवाब देंहटाएंलड़कों को
जवाब देंहटाएंताड़ पर चढ़ा कर हम
नीचे से काट रहे सीढ़ी।
Is samay ke logon ki mansikta par sarthak vyagy.
छूट गये पीछे
जवाब देंहटाएंरस के वे निर्झर
केशर की घाटी,
कुंकुम के टीले।
अमरपुरी के नक्शे
हाथ में लिए
तेजाबी शहरों में आ बसे क़बीले।
सर्व व्यापी परिवर्तन टूटते पर्यावरण को मुखरित करती रचना हमारे वक्त को ललकारती सी . अच्छी प्रस्तुति .कृपया यहाँ भी पधारें -
बुधवार, 20 जून 2012
क्या गड़बड़ है साहब चीनी में
क्या गड़बड़ है साहब चीनी में
http://veerubhai1947.blogspot.in/
दूध-दही वाली
जवाब देंहटाएंनदियों में घोल रहे
यंत्रों के बचे-खुचे द्रव काले-नीले।
सटीक सन्देश परक
पहली बार पढ़ी यह रचना....
जवाब देंहटाएंआभार !