करण समस्तीपुरी
उसकी उम्र कोई अधिक नहीं रही होगी जब
वो पहली बार हमारे घर आया था। कृषकाय, एक कान थोड़ा कटा हुआ, कातर दृष्टि, एकवर्ण भूरा
शरीर। उस समय बाबा दोपहर का भोजन करने बैठे थे। स्वाभावानुसार उन्होंने अपना भोजन उसे
दे दिया। उस पहले दिन से शुरु हुआ सिलसिला उसके जीवन के अंतिम दिन तक चलता रहा। मृत्युपूर्व
कोई दो दिनों तक गायब रहा था। बहुत कोशिश की ढूंढने की...। हर आने-जाने वाले से पूछा।
हाट-बाजार में भी खोजा गया। नहीं मिला। भादों की दोपहरी थी। भारी गर्मी और उमस। बदरी
के भीतर से झाँक रही धूप त्वचा-भेद देने वाली थी। छत पर सूख रहे अन्न को समेटने में
मैं माँ की मदद कर रहा था। सहसा दृष्टि गई सड़क पे। वह दौड़ता आ रहा था... बेतहाशा दौड़ता
हुआ...। उसके पीछे मेरे चचेरे भाई बहनों और टोले के अन्य छोटे बच्चों की टोली समवेत
घोषणा करते हुए दौर रहे थे, “बदरा आ गया...! बदरा आ गया...! बड़की माँ, बदरा आ गया...!!”
बदरा दलान के किनारे पहुँचा। शायद उसकी सारी शक्ति जवाब दे गई थी। जीभ एक-एक हाथ बाहर
आ रहा था। शायद बोलना भी चाह रहा था। मगर सिर्फ़ खाँस सका। दो तीन तेज खाँसी के बाद
वह ढेर हो गया। चेतना शून्य। प्राण शून्य।
बदरा अनाथ श्वान था। एक बार बाबा के
भोजन के समय क्या आ गया उसके आने का सिलसिला चल ही पड़ा था। फिर उसे पिताजी के भोजन
का समय भी ज्ञात हो गया। अब वह बाबा और पिताजी के भोजन के समय नियमित आने
लगा। दोपहर और रात को। पहले हम उसे भगा भी देते थे किन्तु मेरे मझले भाई का कुछ अतिरिक्त
स्नेह था उस पर। उसी ने उसका नामकरण किया था, “बदरा”। धीरे-धीरे हम लोग भी उसे खाना-पानी देने लगे। वह भी व्यर्थ
भ्रमण को छोड़ हमारे परिवार में घुल-मिल गया या यूँ कहें कि उसे
परिवार की अघोषित सदस्यता मिल गई। वह द्वार पर कभी नहीं चढ़ता था। अमूमन वहीं सीढियों
के नीचे बैठा या सोया रहता। घर का दरबाजा खुला हो या घर सूना हो वह कभी दरवाजे की सीढ़ी
पर पैर तक नहीं रखता। जब तक कोई खाद्य-पदार्थ उसके आगे न डाला
जाए, वह निस्पृह बना रहता। बदरा के रहने से अन्य कुत्ते-बिल्लियाँ भी घर के अंदर नहीं घुस पाते थे।
गाँव में प्रायः बिजली नहीं होती है।
शुक्ल पक्ष की धवल चंद्रिका में तो सब-कुछ बड़ा सुहावना लगता है मगर कृष्ण-पक्ष की रात घुप्प अँधेरी। बदरा सीढ़ी के नीचे पड़ा रहता था। अँधेरे में कई बार
हम सब ने उसके उपर पैर तक रख दिया था। काटने की बात तो दूर भौंकता भी नहीं था। बच्चे
रहे तो चुप-चाप खिसक जाता और यदि वजन उसकी सह्य-क्षमता से अधिक हुआ तो ‘कुँउँउँ…’ करके छिटक पड़ता।
वह भी एक कृष्ण-निशा थी। कृष्ण-निशा का प्रथम प्रहर। पिताजी प्रातः कार्यालय की जल्दबाजी में समाचार पत्र
नहीं पढ़ पाए थे। सो दालान में पड़ी चौकी पर लालटेन की मद्धिम लौ में अपनी समाचार-पिपासा का समन कर रहे थे। माँ अंदर रसोई में थी और हम तीनों भाई यत्र-तत्र। हमेशा चुप रहने वाला बदरा अचानक भौंकने लगा। पिताजी समाचार पत्र में
डूबे रहे। बदरा का भौंकना बढ़ता जा रहा था। पिताजी का ध्यान भंग हुआ और उन्होंने बदरा
को पुचकार कर शांत करने लगे। मगर बदरा की बेचैनी बढ़ती जा रही थी। वह दौड़ कर सीढ़ियों
तक आता। अपने अगले चंगुलों को दलान पर पटकता और फिर दौड़कर अहाते के दूसरी ओर भागता।
वह बहुत तेज भौंक रहा था। पिताजी को लगा कि कुत्ता पागल हो गया है। वहीं चौकी पर बैठे
सबको सावधान करने लगे।
बदरा सच में पगला रहा था। दौड़कर इधर… दौड़कर उधर…!
किसी की तरफ़ से कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई। बदरा का दौड़ना अब रुक गया
था। वह सीढियों के सामने अड़ा गुर्राने लगा। अब पिताजी को उसके पागल होने पर कोई शक
नहीं था। न कोई दूसरा कुत्ता है और न ही कोई आदमी आखिर यह गुर्रा किस पर रहा है?
पिताजी भय के मारे चौकी पर खड़े हो कर टार्च का मुँह बदरा की तरफ़ कर स्वीच
पर दबाब बढ़ाने लगे। अब जो उन्होंने देखा तो उनके होश गुम हो गए। घिग्घी बँध गई।
एक विशालकाय सर्पाधिपति गेहुँअन महाराज
फन ताने बदरा के सामने डटे हुए थे। ओह… तो बदरा तभी से इसीलिए भौंक रहा था और
दौड़-दौड़ कर उस दिशा में यही दिखाना चाह रहा था। कहीं से कोई प्रतिक्रिया
नहीं पा वह स्वयं उस विषधर के मार्ग में अड़ गया। बदरा की गुर्राहट उसे आगे नहीं बढ़ने
दे रही थी..। पिताजी की घिग्घी सुन लोग दौड़े आए थे। कुछ लोगों
ने हिम्मत कर के बर्छी और लाठी के बल पर गेहुँअन जी का स्वर्गारोहन करवा चुके थे। बदरा
पहली और एक मात्र बार दालान पर चढ़कर पिताजी के पैर के पास बैठ जीभ निकाल कर दूम हिलाने
लगा।
हमने उसे पालतू का दर्जा नहीं दिया
मगर वह कई मौके पर अपनी स्वामीभक्ति दिखा चुका था। बाबा के देहावसान के बाद पार्थीव
शरीर को परिजनों के दर्शनार्थ रात भर रखना पड़ा था। हमलोग वहीं बैठे रहे। गाँव के भी
कई लोग थे। बदरा भी सायं से वहीं बैठा रहा। सांझ से सुबह तक। दिन में बाबा द्वारा दी
गई दूध-रोटी वहीं किनारे पड़ा हुआ था।
उसने कुछ भी खाया नहीं…। कहीं भी गया नहीं।
एक मिनट के लिए भी हिला नहीं। गरचे उसकी आँखें भी कई बार सजल देखी गई। बेचारा मूक प्राणी।
जब बाबा की अर्थी बस पर रखकर अंतिम संस्कार के लिए सिमरिया ले जाया जाने लगा तो बदरा
की बेचैनी फिर बढ़ गई। वह ताबरतोड़ बस की चारों ओर ऐसे परिक्रमा कर रहा था गोया बस को
जाने नहीं देगा। बस के पीछे बहुत दूर तक दौड़ता रहा था।
कोई दो-तीन महीने गुजरे
होंगे। बरसात का मौसम आ गया था। बदरा का जी उन दिनों कुछ अच्छा
नहीं रहता था, शायद। दिन-दिन भर गायब रहने
लगा। रात को पिताजी के खाने के समय जरूर आ जाता। एक रात उस वक्त भी नहीं आया। अगले
दिन भी नहीं। अगली रात हम सभी ने ‘बदरा-बदरा’ कहकर जोर-जोर से पुकार लगाई।
किन्तु कोई लाभ नहीं। हमें लगा कि वह कहीं और चला गया है या…।
रात हम में से जो भी बाहर आया उसे बदरा की कमी महसूस हो रही थी। हमसब को बदरा की कमी
महसूस हो रही थी… पता नहीं कहाँ गया ?
अगली दोपहर दौड़ता हुआ आ गया था। शायद
उसमें सिर्फ़ उतनी ही ऊर्जा शेष रह गई थी। आया और निढ़ाल हो गया। जीभ ऐंठ कर बाहर आ गया
था। बदरा नहीं रहा। लोग कह रहे थे कि इस घर से जरूर इसका कोई न कोई संबंध रहा होगा।
कैसे मरने समय भाग कर यहाँ आ गया…!
गाँव में मृत पशुओं को फ़ेंकने के लिए
एक खास समुदाय की जरूरत पड़ती थी। उन्हें बुलाबा भेजा गया। आकाश में घनघोर-घटा छाई थी।
अब बरसे कि तब। बदरा को ले जाने वाले का पता नहीं। हम भाइयों ने निश्चय किया कि बदरा
को मिट्टी हमारे ही हाथों नसीब हो। घर से थोड़ा हटके उसे बाइज्जत सुपुर्दे-खाक किया गया।
पिछले हफ़्ते अचानक बदरा आ गया स्मृति
शिखर पर। मैंने कहा था न कि लाइफ़ बहुत सेटल हो गई है। कोई क्रिएटिव एक्सीडेंट होना
चाहिए। पता नहीं यह उसी श्रेणी में है या नहीं मगर कुछ हुआ तो जरूर जिसने बदरा को मेरी
स्मृति-शिखर पर लाकर एक रुके हुए सिलसिले को जारी कर दिया।
यूँ तो मैं चाय-काफ़ी का आदी
नहीं हूँ किन्तु उस दिन दो घंटे की अरुचिकर बैठक के बाद सहकर्मी-मित्रों के विशेष आग्रह पर चाय पीने बगल की दूकान पर चला गया। चाय का छोटा
ग्लास हाथ में लेकर जैसे ही मैं बढ़ने लगा वहाँ बैठे स्वान-दल
के सेनापति को मेरी यह गुस्ताखी नागवार गुजर गई। महोदय जीभ से पानी टपकाते हुए मेरे
लेग-पीस पर टूट पड़े। भला हो मोटे पतलून का। एक दाँत ही चुभ पाया।
दाँत एक चुभे या चार…! इससे चिकित्सक
महोदय को क्या फ़र्क! उन्होंने तो पाँच टीके लगवाने का फ़रमान सुना
दिया। तीन टीके लग चुके हैं। दो शेष रहे। घाव का नामो-निशाँ नहीं
है। बस बदरा की यादें है। एक हमारा बदरा था… और एक। हा…
हा… हा… हा….!
aaj ke aadmi ki tarah......marmik
जवाब देंहटाएंजीवंत संस्मरण..
जवाब देंहटाएंमोहक जीवंत प्रस्तुति ,,,,,
जवाब देंहटाएंMY RESENT POST,,,,,काव्यान्जलि ...: स्वागत गीत,,,,,
बहुत सुन्दर वृतांत .
जवाब देंहटाएंबच कर रहिये, हमारे घर के श्वान महोदय आजकल बहुत दुलरा रहे हैं, आपके भाव भी हम समझ सकते हैं।
जवाब देंहटाएंबदरा की स्मृतियाँ हृदयस्पर्शी हैं.... हा अंत में आपने अच्छा काम किया हंस कर वरना माहौल मार्मिक हो रहा था....
जवाब देंहटाएंसुंदर संस्मरण... सादर।
आपके यहाँ बदरा था और हमारे यहाँ निफिकरा..... हमारे बचपन का साथी... हमको गाँव से विदा करने तीन किलोमेटर तक आता था... अब निफिकरा भी नहीं है.. बदरा के बहाने मेरा अपना निफिकरा याद आ गया था.... आज भी जब कोई बालक हमारे यहाँ बिना काम धाम से इधर उधर टहलता दिखता है तो हम उसे निफिकरा कहते हैं... जीवंत संस्मरण...
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति..
जवाब देंहटाएंवाह ...बहुत ही अच्छी प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंचेस्टर याद आ गया !
जवाब देंहटाएं..वाह ...हमें तो बदरा नाम बहुत पसंद आया ...!!
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी पोस्ट ...
अच्छी पोस्ट !
जवाब देंहटाएंजिस किसी ने भी श्वान को पाला है,उसे बदरा जैसा ही अनुभव हुआ है। आवारा तो मनुष्य कहीं अधिक खतरनाक है। चाहे जितने को काटता फिरे,कभी पगलाता ही नहीं!
जवाब देंहटाएंsaral....jeewant sansmaran......
जवाब देंहटाएंजीवंत पोस्ट के लिए साधुवाद.
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