आँच - 116 – चौंको मत
आचार्य
परशुराम राय
आँच का यह अंक
अमृता तन्मय जी की कविता चौंको मत को देखने का प्रयास है। वैसे तो इस
स्तम्भ की पूरी जिम्मेदारी हमारे परम मित्र और सहयोगी श्री हरीश प्रकाश गुप्त जी
को सौंपी गई है। परन्तु वे आजकल कुछ आवश्यकता से अधिक व्यस्त हो गए हैं और इसी
कारण से यह स्तम्भ थोड़ा शिथिल हो गया है। आशा करता हूँ कि शीघ्र ही अपनी व्यस्तता
के बावजूद वे समय निकाल पाएँगे और यह शिथिलता समाप्त होगी। हरीश जी ब्लॉग जगत के एक
चहेते समीक्षक हैं। मैं उनकी बराबरी तो नहीं कर सकता। किन्तु फिर भी प्रयास करूँगा
कि पाठक निराश न हों।
चौंको मत रचना कवयित्री के
अपने ही ब्लॉग अमृता तन्मय पर 10 अगस्त, 2012 को प्रकाशित हुई है। अमृता जी
बिहार की राजधानी पटना में रहती हैं और फरवरी 2010 से ब्लॉगिंग कर रही हैं।
कविता में मानसिक
और शारीरिक अन्तर्द्वन्दों के माध्यम से जीवन के सन्दर्भों को रेखांकित करने का
प्रयास किया गया है। रोजमर्रे की जिन्दगी में व्यक्ति को अनेक मानसिक अवस्थाओं से
होकर गुजरना पड़ता है। इसमें वह अपनी आवश्यकताओं के परिप्रेक्ष्य में उपलब्ध मूलभूत
भौतिक साधनों की कमी से उत्पन्न खीझ से उबरने के लिए मानसिक क्षितिज पर स्वप्निल योजनाओं
में समाधान पाने के लिए प्रयत्नशील होता है। कभी स्वप्न में भी राह न पाकर निराशा
के मोतियाबिंद का शिकार होता है, तो कभी जीवन के नये अर्थ और परिभाषा की तलाश एक सुखद
अनुभूति को अभिव्यक्त करती है और कभी अपनी बेबसी को अपनी पहुँच की सीमा में तड़पती
हुई पाता है। उसे लगता है कि उसकी पहुँच का क्षितिज आसन्न बाधाओं के कँटीले तार से
घिरा है और फिर भाग्य के भरोसे सबकुछ छोड़कर सन्तोष के आभास में अपनी छटपटाहट को
तिरोहित करने का प्रयास करता है, यह सोचकर कि कई जगह से फूटी उसकी गागर थोड़ी तो
भर जायगी। इसी भावभूमि पर प्रस्तुत कविता चौंको मत का आरोपण किया गया है।
यह मानव की प्रवृत्ति है कि वह अपने प्रारम्भिक जीवन में अपने
लिए कुछ सपने देखता है। जिनमें से कुछ जीवनभर यथावत रह जाते हैं, फिर बदलते परिवेश
में अपने अनुभव के आधार पर समय-समय पर उनमें संशोधन कर कुछ नए सपने जोड़ता है और
उनके पूरा न होने पर मानसिक गुत्थमगुत्थी से उसका सामना होता है। तब अपनी असफलता
को भी वह ठीक से समझ नहीं पाता। वह अपने अहसास को दूसरों को समझाने में स्वयं को
असमर्थ पाता है -
नये-नये गीत
बार-बार लिखकर भी
अपने को तनिक भी
उसमें समा न सकी
निज आहों के आशय को
इस जगती को समझा न सकी...
बार-बार लिखकर भी
अपने को तनिक भी
उसमें समा न सकी
निज आहों के आशय को
इस जगती को समझा न सकी...
जीवन में वेदना कभी-कभी इतनी सघन हो जाती है कि मनुष्य को उससे
निकलकर अपने जीवन के सुखद क्षणों का स्मरण तक नहीं हो पाता या सुख की अनुभूति का
स्वाद एकदम विस्मृत हो जाता है, बीच में मानसिक प्रक्रिया स्वरूप स्मृति-पटल पर
आकर भी बिना कोई प्रभाव डाले तिरोहित हो जाता है -
चाहकर भी
कंचन की जंजीर पहनकर
सपनों की झांकी में भी
क्षण भर को भी मुस्का न सकी
और औचक चाहों में भी
सोई हुई उजली रातों को
अबतक मैं जगा न सकी.....
कंचन की जंजीर पहनकर
सपनों की झांकी में भी
क्षण भर को भी मुस्का न सकी
और औचक चाहों में भी
सोई हुई उजली रातों को
अबतक मैं जगा न सकी.....
मनुष्य जब कभी अपने अहंकार से प्रेरित होकर या अपनी अन्तरात्मा
के विरुद्ध कार्य करता है, तो वे संस्कार के रूप में परिणत होकर उसके खाते में
जाते हैंऔर इसे शरीर को भी झेलना पड़ता है, ऐसा भारतीय दर्शन मानता है। कवयित्री
ने इस घटना कोचेतना के शाप और शरीर धर्म में ठनी अनबन के रूप में प्रतिबिम्बित
किया है। यह निसंदेह बहुत ही उत्तम बिम्ब है -
चेतना का शाप और
देह के धर्म में ठनी अनबन
बनी की बनी रह गयी
देह के धर्म में ठनी अनबन
बनी की बनी रह गयी
इसके अतिरिक्त, “क्षितिजों (क्षितिज) के कँटीले तारों में / उलझ-उलझ कर रह जाता है....” – यह अभिव्यक्ति भी काफी सशक्त है।
उपर्युक्त विशेषताओं के अतिरिक्त कवयित्री कुछ ऐसे प्रयोग किए
हैं जो भविष्य या अन्यथा रूप से उचित नहीं हैं। जैसे – छन्दित छन्दों से लयबद्ध
हो रहा है। यहाँ छन्दित शब्द गलत और अनावश्यक है। मूल छंदस शब्द होनेके कारण इससे
विशेषण शब्द या तो छांदस बनेगा या छांदसिक। हिन्दी इत
प्रत्यय क्रिया से निर्मित विशेषण शब्दों में ही आता है। यहाँ के लिए कोई अलग विशेषण
अधिक उपयुक्त होता है। इसी प्रकार, क्षितिज शब्द को बहुवचन में प्रयोग किया गया
है, जबकि इसका सदा एकवचन में प्रयोग किया जातात है। इसके अतिरिक्त, निम्नलिखित
पंक्तियों में – सोचती थी - के
बाद के वाक्य अपूर्ण वर्तमान के स्थान पर भविष्यत् काल में प्रयोग होना चाहिए था।
अंतिम पंक्तियों में - जगह-जगह से फूटी गागर ही सही / तनिक
भी तो भर जाने दो – में दूसरी पंक्ति - तनिक भी तो भर जाने दो – के स्थान
पर गीली तो हो जाने दो अधिक चमत्कार पूर्ण होती। क्योंकि जगह-जगह से फूटी
गागर का तनिक भी भरने की कामना का कोई अर्थ नहीं है। इसी प्रकार कई स्थानों पर शब्द
संयम (economy of words) और प्रांजलता का
भी अभाव है।
प्रस्तुत कविता उपर्युक्त विचार मेरे निजी विचार हैं और रचनाकार
का या किसी अन्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
सुंदर रचना पर सम्यक दृष्टिकोण...
जवाब देंहटाएंसादर।
आचार्य जी,
जवाब देंहटाएंआपकी समीक्षा पढ़ने के पूर्व कविता के लिंक द्वारा पहले कविता का अपनी दृष्टि से आकलन करने का प्रयास किया.. यह भी स्वार्थ छिपा था इसमें कि अपनी क्षुद्र बुद्धि और ज्ञान से जो प्रतिक्रया मेरे मन में उपजी उसका आपकी समीक्षा से मिलान कर अपनी क्षमता की भी परीक्षा हो जायेगी..
लगता है कि मैं सफल हुआ.. कविता के जिन सशक्त पहलुओं एवं त्रुटियों की ओर आपने ध्यानाकर्षित किया है वही मुझे भी प्रतीत हुए. सधी हुई समीक्षा!!
आपके द्वारा इस समीक्षा से,अमृता तन्मय को निस्संदेह सम्मान मिला है !भूलों की तरफ ध्यान आकर्षण तो रचनाकार का भला ही करता है !
जवाब देंहटाएंआपसे भविष्य में भी इस विषय पर कार्य की अपेक्षा है !
सादर
अमृता तन्मय जी निसंशय एक अच्छी कवयित्री हैं क्यूं कि आप ने उनकी कविता को समीक्षा के काबिल समझा । कविता के भाव जीवन के द्वंद्व को उजागर करते हैं ।
जवाब देंहटाएंभौतिक द्वंद्व क्या होता है यह आपने ठीक से समझा दिया है .कवियित्री अमृता तन्मय भाव्बोश और शब सामर्थ्य बड़ा व्यापक है ,नए शब्द लातिन हैं आप .आप की कृति की "चर्चा" समीक्षा बड़ी सटीक रही .डॉ राम विलास शर्मा जी ने हिंदी में इक प्रत्यय लगाकर शब्द टकसाल गढ़ी थी जैसे इतिहास से इतिहासिक ,समाज से समाजिक ,विज्ञानी ,शब्द का इस्तेमाल भी आपने ही सबसे पहले किया था .साइंटिफिक के लिए वैज्ञानिक (विज्ञानिक भी हो सकता है इस तरह ),भाषा को सीमा बद्ध क्यों कीजिएगा विकसित होने दो बढ़ने दो अंग्रेजी की तरह जिसके आज अनेक संस्करण चल पड़े हैं ,ब्रितानी अंग्रेजी अलग है अमरीकी अलग .हिन्दुस्तानी हिंगलिश अलग है .
जवाब देंहटाएंभौतिक द्वंद्व क्या होता है यह आपने ठीक से समझा दिया है .कवियित्री अमृता तन्मय भाव बोध और शब्द सामर्थ्य बड़ा व्यापक है ,नए शब्द लातीं हैं आप .आप की कृति की "चर्चा" समीक्षा बड़ी सटीक रही .डॉ राम विलास शर्मा जी ने हिंदी में इक प्रत्यय लगाकर शब्द टकसाल गढ़ी थी जैसे इतिहास से इतिहासिक ,समाज से समाजिक ,विज्ञानी ,शब्द का इस्तेमाल भी आपने ही सबसे पहले किया था .साइंटिफिक के लिए वैज्ञानिक (विज्ञानिक भी हो सकता है इस तरह ),भाषा को सीमा बद्ध क्यों कीजिएगा विकसित होने दो बढ़ने दो अंग्रेजी की तरह जिसके आज अनेक संस्करण चल पड़े हैं ,ब्रितानी अंग्रेजी अलग है अमरीकी अलग .हिन्दुस्तानी हिंगलिश अलग है .
जवाब देंहटाएंनिःसंदेह अमृता तन्मय जी सशक्त भावों को व्यक्त में सदैव सक्षम उससे भी ऊपर आपकी सजग निगाहें जिन्होंने उनके कहे अनकहे भावों की समीक्षा की .
जवाब देंहटाएंआंच की ब्लॉग जगत में एक प्रतिष्ठा है. आंच पर चढ़ने का तात्पर्य है कविता/रचना का स्तरीय होना. आचार्य परशुराम जी के हाथों समीक्षा यानि समीक्षा की क्लासिकल कसौटी पर कसा जाना... अमृता जी की कविता बेहतरीन है और उस से बढ़िया है आचार्य जी की समीक्षा.... मुझे लगता है... फूटी गगरी को भरने की आकांक्षा रखना कवियत्री की आशावादी कल्पना है और उचित भी है...
जवाब देंहटाएंआंच की शिथिलता को दूर किया जाना चाहिए... मनोज जी और गुप्त जी दोनों ही व्यस्त हैं इन दिनों.... कुछ नए साथी को मनोज जी जिम्मेदारी दे सकते हैं... ताकि आंच अनवरत बना रहे... अमृता और परशुराम जी दोनों को बधाई और शुभकामना...
अरुण जी, गागर जगह-जगह से फूटी है। उसे भरने की आशा फन्तासी तो हो सकती है, आशावादी नहीं। उसके स्थान पर गीला होने की बात आशावादिता के अधिक चमत्कारपूर्ण ढंग से अभिव्यंजित करती है। आभार।
हटाएंआचार्य परशुराम जी आपकी समीक्षा काबिले तारीफ है और जिस लेखिका की रचना को चुना वो भी काबिले तारीफ है वाह वाही तो रचनाओं पर सभी कर देते हैं किन्तु उसकी त्रुटियों की और ध्यानआकर्षक एक हितैषी एक उत्कृष्ट समीक्षक ही कर सकता है एक सार्थक समीक्षा से रूबरू कराया आपका हार्दिक आभार और अमृता जी को भी बधाई
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर शिक्षाप्रद प्रस्तुति ..
जवाब देंहटाएंअरूण चन्द्र राय जी से पूर्णतह सहमत हूँ पर देखिये ये भी लिखना जरूरी होता है पता नहीं कब कौन क्या कह दे?
जवाब देंहटाएंप्रस्तुत कविता उपर्युक्त विचार मेरे निजी विचार हैं और रचनाकार का या किसी अन्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
निष्पक्ष समीक्षा करते हुए भी शालीनता का दामन संभाल कर पकड़े रहना आपका विशेष गुण है.कभी आपसे सीखूंगा ये हुनर, आचार्य जी.
जवाब देंहटाएंआचार्य जी , आपको बारम्बार प्रणाम ! अभी मैं अपने उद्गार को भी बता नहीं सकती | बस... हार्दिक आभार..
जवाब देंहटाएंआचार्य जी, यह आपकी सहृदयता है कि आप मुझे बार-बार मित्र कहकर पुकारते हैं, लेकिन यह मेरे अन्तस को कभी स्वीकार नहीं होता। मेरे लिए आप गुरु सम हैं, बस। मैंने आपके सम्पर्क में आकर बहुत कुछ सीखा है, समझा है, जाना है और पता नहीं अभी कितना बाकी है। विषयों की गहनता के अतिरिक्त मुझे सबसे अधिक प्रभावित करता है आपका स्वभाव, वह यह कि वातावरण में रहते हुए भी उससे असम्पृक्त रहते हुए उसी वातावरण को परिपूर्णता में गहनता से और तटस्थ भाव से उस पर कैसे दृष्टिपात किया जाए। वैसे यह कहना बहुत आसान है, परंतु कर पाना बहुत कठिन, क्योंकि मैं प्रयास करता हूँ कि आप जैसी निष्पक्षता और तटस्थता अपने अन्दर पैदा कर पाऊँ, पर स्वयं को बहुत मुश्किल में पाता हूँ, फिर भी मेरी कोशिश निरंतर जारी है। आपकी यह समीक्षा भी आपके इसी स्वभाव का छोटा सा प्रतिबिम्ब है। आभार,
जवाब देंहटाएंहरीश जी, यह तो आपकी उदारता है। आप नहीं जानते मैंने आपसे कितना सीखा है।
हटाएंइतनी निष्पक्ष समीक्षा ही इस स्तंभ की प्रतिष्ठा को बरकरार रखे है। राय जी आपने इस स्तंभ को बनाए रखने और हम सब में निरंतर उत्साह का संचार करने का अद्भुत प्रयास किया है। हरीश जी से सहमत कि आप हम सब के लिए गुरु समान ही नहीं गुरु हैं।
जवाब देंहटाएंअरुण जी इस स्तंभ को सलिल जी ही उस उंचाई तक रख सकते जहां तक इसे हरीश जी और राय जी ने पहुंचाया है। इस स्तंभ के माध्यम से उनसे निवेदन करता हूं।
रचनाकार (अमृता) को एक उत्कृष्ट रचना के लिए बधाई।
मनोज जी, यह आपका प्रेम है जो आपने मुझे इस योग्य समझा.. हरीश जी एवं आचार्य जी के समकक्ष होना मेरा सौभाग्य हो सकता है, किन्तु उनकी बराबरी कदापि संभव नहीं.. मन एक असाहित्यिक व्यक्ति हूँ, और आपने जिस उत्तरदायित्व की बात की है उसे ग्रहण करना आसान है, किन्तु निभाना कठिन है.. मैं चेष्टा करूँगा कि अपना योगदान समय-समय पर देता रहूँ.. आचार्य जी के आशीर्वाद से और आप लोगों की शुभकामनाओं से शायद संभव हो पाए!!
हटाएंसलिल भाई,
हटाएंक्या आदेश देना पड़ेगा? उसे अन्तिम शस्त्र रहने दीजिए। हम लोगों का शुभकामनाओं सहित अनुरोध है कि आप अपनी लेखनी उठाकर हमें अनुगृहीत करें
भवदीय
परशुराम राय
एक उत्कृष्ट समीक्षा,जिसमें कविता के गुण भी आ गए हैं और दोष भी बहुत ही शालीनता से व्यक्त हो गए हैं...इसे ही नीर-क्षीर विवेक कहते हैं...
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर समीक्षा ....
जवाब देंहटाएंआंच की समीक्षा वाकई स्तरीय होती है। थोड़ी देर से आंच की इस पोस्ट तक पहुंची लेकिन मन खुश हो गया...
जवाब देंहटाएं"जगह-जगह से फूटी गागर ही सही / तनिक भी तो भर जाने दो – में दूसरी पंक्ति - तनिक भी तो भर जाने दो – के स्थान पर गीली तो हो जाने दो...."
जवाब देंहटाएंमुझे लगता है कि कवयित्री का गागर के तनिक भर जाने की अभ्युक्ति /अभिव्यक्ति ज्यादा समीचीन और सटीक है !