स्मृति शिखर से – 19 : श्री गोविन्दाय नमो नमः
उत्तम कोटि के कलाकार हैं। संगीत और नाट्य में निपुण। आकाशवाणी के दरभंगा केन्द्र से प्रसारित लोक-गीतों के कार्य-क्रम में सुने जाते थे। कला और कलाकारों को संरक्षित न करने की समाज की प्रवृति और उस कलाकार पर पड़े गृहस्थी के भार ने उन्हे विचलित कर दिया। पता नहीं अपनी कला का चरमोत्कर्ष प्राप्त करना उनका लक्ष्य भी था या नहीं मगर उन दिनों वे आँचलिक गायन में उदीयमान थे। परितोष के लिए संगीत से अभी भी संबंध बना हुआ है। कीर्तन और भगवद्भजन में हारमोनियम टेर लेते हैं और कुछ गीत ठाकुरजी के चरणों सश्रद्धा निवेदित कर देते हैं। मगर यांत्रिक विकास के प्रतिफल कला एवं संस्कृति में हो रहे क्षरण की भेंट उनका नाटक जरूर चढ़ गया।
उनके सांगितिक सुवाष तो अब भी ग्राम-प्रवास में आप्लावित होने का सुअवसर मिल जाता है लेकिन नाटक बीते दिनों की बात हो गई है। नाटकों में उनके करतब की बात बहुत सुन चुका था। प्रबल इच्छा थी कभी उन्हें रंगमंच पर देखें मगर वह सौभाग्य महज एक बार ही मिला।
शरद-पुर्णिमा थी। उस वर्ष शीत का आगमण हो चुका था। सांस्कृतिक विकास के धनी गाँव में ऋतुरानी के स्वागत में नाटक का कार्य-क्रम सुनिश्चित हुआ। तभी गाँव में ऐसे कार्यक्रम आये दिन होते रहते थे। दिन के दूसरे प्रहर के बाद से ही साइकिल-रिक्शा में ध्वनी-विस्तारक यंत्र बाँध कर संध्या ठाकुरवारी पर होने वाले नाट्यलीला का प्रचार किया गया था। “भाईयों एवं बहनों.....! आज की रात... याद रखियेगा आज की रात....! रेवाड़ी ठकुरवारी पर महान ऐतिहासिक नाटक छ्त्रपति शिवाजी का मंचन किया जाएगा....! आज की रात....!!
मेरी उत्कंठा को पंख लग गए थे। कान सांझ से ही मंदित की तरफ़ लगे हुए थे। कब गूँजेगी नटराज-वंदना – “हरि ओम नमः शिवाय...!” कई बार माता जी से अनुमति लेने की कोशिश किया था। वे पिताजी को अग्रसारित कर देतीं और पिताजी जाड़े की रात में हमें घर से निकलने की अनुमति दे दें ऐसा सिर्फ़ सोच ही सकते हैं।
सहसा दरवाजे से पिताजी को पुकारने की आवाज़ आई। आवाज़ से पड़ोस वाले विनोद चाचा मालूम पड़ते थे। पापा भोजन कर रहे थे। तो मैं दरवाजे पर जा पुकारने वाले को ढूँढने लगा। एक बहुरुपिया जैसा कोई आदमी था मगर विनोद चाचा पता नहीं पुकार कर कहाँ गायब हो गए। तब तक पिताजी भी बाहर आ गए थे और जब उन्होंने आगन्तुक बहुरुपिये को संतजी कहकर संबोधित किया तब तो मैं आश्चर्य में डूबने लगा। अच्छा...! तो यह नाट्यवेशधारी विनोद चाचा ही हैं। दर-असल पिताजी उन्हें स्नेहवश संतजी ही कहते थे।
मेरी हालत समझकर विनोद चाचा हँसने लगे और मेरी खुली आँखे और चौड़ी होती चली गई। वे मजीरा लेने आए थे। उस नाटक के किसी दृश्य में उन्हें मंच पर मजीरे का प्रयोग करना था। सारी साज-सज्जा के बाद पता चला कि मजीरा नहीं है तो वे सीधा उसी वेष में आ गए थे हमारे घर मजीरा लेने। उनके सामने ही मैं नाटक देखने की जिद करने लगा पिताजी से। उन्होंने भी सिफ़ारिश लगा दी। बात बन गई।
उस नाटक के अधिकांश अभिनेता हमारे ग्रामीण ही थे। पात्र-परिचय में मैं और किसी को नहीं पहचान पाया किन्तु जैसे ही गोविन्द राव आये मैं अपने स्थान से ही चिल्ला पड़ा विनोद चाचा... विनोद चाचा। फिर पर्दा उठा और पहले दृश्य से ही मेरी आँखें गोविन्द राव को खोजने लगीं। दूसरे या तीसरे दृश्य में गोविन्द राव आ भी गए। श्री गोविन्दाय नमो-नमः। उनके इस तकिया-कलाम पर खूब हँसी फूटी थी। वैसे उस नाटक के सभी पात्र लाजवाब थे मगर मेरी आँखों को गोविन्द राव और कानों को श्री गोविन्दाय का ही इंतिजार था...! वाह...! सीमित साधन के बावजूद क्या कलात्मक अभिनय था ! धारा-प्रवाह पद्यबद्ध संवाद, प्रवाहमान अदाकारी...! मन मुग्ध हो गया...! ऐसा मुग्ध की मैं कल्पना करने लगा, काश...! मैं भी गोविन्दराव की भूमिका कर पाऊँ....! यह ठाकुरवारी पर उनका अंतिम नाट्य-प्रदर्शन था।
उस नाटक के महीनों बाद तक हम बच्चे विनोद चाचा को देखते ही ‘श्री गोविन्दाय नमो-नमः’ का जाप करने लगते। उस नाटक के बाद मेरे अंदर रंगमंच के जीवाणुओं का संक्रमण हो चुका था। उसके बाद के सभी नाटकों के हास्य-पात्र में मैं गोविन्दराव को ढूँढने की कोशिश करता। नाटकों में हास्य-रस मेरा प्रिय बन गया। वर्षों तक नाटक खेलने की तीव्र इच्छा को पढ़ाई-लिखाई और खेल-कूद के तह में दबाए रखा।
स्नातक कक्षाओं में अच्छे अंकों से उत्तीर्णता ने मुझे अपनी इच्छाओं के अभिव्यक्ति का द्वार खोल दिया था। उस साल छ्ठ की संध्या होने वाले नाटक में मैंने भी अभिनय की इच्छा जताई। सभी नाट्यायोजनों में विनोद चाचा लगभग रहते ही हैं। उस बार भी थे – निर्देशक की भूमिका में। कोई स्क्रीन टेस्ट और औडिशन तो था नहीं बस संवाद बोल कर निर्देशक महोदय को प्रसन्न कर दो...! कोई न कोई भूमिका मिल ही जाएगी। वैसे भी अब अधिक लोग होते नहीं थे। मेरा भी चयन हो गया।
नाटक था ‘पृथ्वीराज चौहान’। मैं पहली बार रंगमंच पर उपस्थिति दर्ज करा रहा था मगर लंबे-लंबे काव्यात्मक संवाद याद करने और बिना अटके साभिनय बोलने की क्षमता के कारण उन्होंने मुझे दूसरे लीड ‘चंदबरदाई’ का किरदार मिल गया। पात्र-परिचय में मेरे पैर जरूर काँपे थे किन्तु दृश्य शुरु होते ही पता नहीं कहाँ से आत्मविश्वास आ गया था। बड़ा आनंद आया। सभी लोगों ने नाटक के साथ-साथ मेरे चरित्र को भी सराहा था।
उसके बाद मैं नाटकों में नियमित भाग लेता रहता था। लंबा-चौड़ा शरीर और भारी-भरकम आवाज़ के कारण हमेशा भारी-भरकम रोल ही मिलता रहा जबकि मेरी अधिक रुचि जोकरों जैसे हल्के-फ़ुल्के रोल में थी। उस बार सावित्री-सत्यवान नाटक का अयोजन हो रहा था। तब तक कुछ सिनियर हो जाने के कारण मुझे भी अपना रोल चुनने की आजादी मिल गई थी। मैं ने नारद की भूमिका चुना। मगर निर्देशक महोदय के अनुसार महज कुछ पंक्तियों का संवाद और दो-तीन दृश्यों में उपस्थिति मेरी क्षमता के अनुकूल नहीं था। मुझे प्रभावशाली किरदारों में से एक ‘यमराज’ का किरदार मिला।
उस नाटक में चार हास्य चरित्र थे। दो – सुमति और कुमति और दो यमराज के हास्यावतार दूत। अभ्यास आरंभ हुआ। संयोग से उनमें से एक यमदूत हास्य चरित्र में प्रभाव नहीं उत्पन्न कर पा रहा था। मुझ पर नये कलाकारों को मंच का अभिनय सिखाने की जिम्मेवारी भी होती थी। एक दृश्य में मैं उसे वह रोल डिमोंस्ट्रेट कर बता रहा था। किन्तु वह संवाद बोलते-बोलते बार-बार हँस पड़ता और दृश्य वहीं रुक जाता। एक तरह से उसने सांकेतिक इंकार कर दिया। फिर मैंने आव देखा न ताव उसका रोल अपने रोल से बदलने की पेशकश कर दी। वह यमराज के रोल में जमा था और मैं यमदूत बनकर हास्य का सृजन करने में सफल रहा था। खूब वाहवाही मिली। अब जाकर निर्देशक महोदय और मेरे संगी-संखाओं को मेरी कामिक टाइमिंग पर विश्वास हुआ था।
अगले साल छठ में छत्रपति शिवाजी नाटक फिर हो रहा था। मेरी प्रबल इच्छा थी गोविन्दराव की भूमिका करने की। लेकिन मेरे लिए शिवाजी या औरंगजेब की भूमिका निर्धारित की गई। अभ्यास भी शुरु हो गया। मैं हर रात अभ्यास में सोचता था कि काश मैं गोविन्दराव होता...! नाटक से कुछ दिन पहले गोविन्दराव की भूमिका निभाने वाला व्यक्ति घर से भागकर कोलकाता चला गया। जब तीन-चार दिनों तक वापस नहीं आया तो फिर सवाल यह उठा कि गोविन्दराव का किरदार कौन करेगा ? मैंने अपनी अर्जी लगा दी। निर्देशक महोदय को बस मेरी कद-काठी से कुछ डर लगता था कि मजबूत कद-काठी वाले इंसान को दर्शक विदुषक के रूप में स्वीकारेंगे या नहीं मगर इतने कम समय में उनके सामने भी कोई और विकल्प नहीं था। लंबे काव्यात्मक संवाद याद करने की योग्यता एक बार फिर काम आई। मुझे गोविन्दराव का रोल मिल गया। श्री गोविन्दाय नमो-नमः।
मेरा ड्रीम-रोल। लगन और उत्साह तो पहले से ही था। मैंने अपनी पूरी ऊर्जा झोंक दी। महज एक सप्ताह में अपने आप को गोविन्दराव बना डाला था। अधिक कठिनाई नहीं हुई थी। होती भी क्यों? यह चरित्र तो बचपन से ही मेरे अंदर बस गया था।
एक बार फिर छ्ठ-व्रत की संध्या। छ्ट्ठी मैय्या के घाट पर बना मंच। मैं बना गोविन्दराव। बहुत सारे इम्प्रोवाइजेशन किए। मैं तो नाट्य-निशा में अलग ही दुनिया में था। मुझे स्वस्तित्वबोध भी नहीं था। मुझे सिर्फ़ इतना पता था कि मैं गोविन्दराव हूँ। आनंद आ गया। मुझे भी। दर्शकों को भी। मेरे हर दृश्य के बाद मुझे तालियों की वही वर्षों पुरानी गरगराहट सुनाई दे रही थी जिनमें मेरे दो नन्हें हाथ भी शामिल थे। नाटक की समाप्ति के बाद मैं विनोद चाचा के पैर छूने लगा। उन्होंने मुझे हृदय से लगा लिया, “बहुत अच्छा निभाया आपने...! मुझसे भी अच्छा।” पता नहीं ये बातें उन्होंने स्नेहवश कहा था या...!
यह नाटक उनके लिए भी अंतिम था और मेरे लिए भी। उन्हीं की तरह मुझे देखते ही गाँव के बच्चे ‘श्री गोविन्दाय नमो-नमः’ का जाप शुरु कर देते थे। अधिकांश लोगों का कहना था कि गोविन्दराव शिवाजी और औरंगजेब पर भी भारी पर गए। खैर लोगों का काम है कहना...! लेकिन मैं उसके कुछ ही दिनों बाद आजिविका हेतु बंगलोर आ गया और रंगमंच रेवाखंड में ही छूट गया। यहाँ यदा-कदा कारपोरेट-स्किट वगैरह में भाग लेता रहा मगर मैं उस रंगमंच को सच में बहुत मिस करता हूँ। पिछले अंक की प्रतिक्रिया में चाचाजी ने उसी नाटक को उद्धृत किया था। यह अंक उसी का प्रतिफल है। श्री गोविन्दाय नमो-नमः।
- करण समस्तीपुरी
आगे-आगे वे पढ़ रहे थे, “सोने का संसार है...!” पीछे उनका चेला पढ़ता था, “सोने का सोनार है...!” गुरु-चेला के मध्य इस रोचक संवादांतरण से उदरफारी हास्य का सृजन हो जाता था। जब भी वे मंच पर श्री गोविन्दाय नमो नमः कहते दर्शकों में लाफिंग बम फट जाता था। उस नाटक में उनका तकिया-कलाम था ‘श्री गोविन्दाय नमो नमः’। उस नाटक में वे हास्य-चरित्र जोतिषी गोविन्द राव बने थे।
उत्तम कोटि के कलाकार हैं। संगीत और नाट्य में निपुण। आकाशवाणी के दरभंगा केन्द्र से प्रसारित लोक-गीतों के कार्य-क्रम में सुने जाते थे। कला और कलाकारों को संरक्षित न करने की समाज की प्रवृति और उस कलाकार पर पड़े गृहस्थी के भार ने उन्हे विचलित कर दिया। पता नहीं अपनी कला का चरमोत्कर्ष प्राप्त करना उनका लक्ष्य भी था या नहीं मगर उन दिनों वे आँचलिक गायन में उदीयमान थे। परितोष के लिए संगीत से अभी भी संबंध बना हुआ है। कीर्तन और भगवद्भजन में हारमोनियम टेर लेते हैं और कुछ गीत ठाकुरजी के चरणों सश्रद्धा निवेदित कर देते हैं। मगर यांत्रिक विकास के प्रतिफल कला एवं संस्कृति में हो रहे क्षरण की भेंट उनका नाटक जरूर चढ़ गया।
उनके सांगितिक सुवाष तो अब भी ग्राम-प्रवास में आप्लावित होने का सुअवसर मिल जाता है लेकिन नाटक बीते दिनों की बात हो गई है। नाटकों में उनके करतब की बात बहुत सुन चुका था। प्रबल इच्छा थी कभी उन्हें रंगमंच पर देखें मगर वह सौभाग्य महज एक बार ही मिला।
शरद-पुर्णिमा थी। उस वर्ष शीत का आगमण हो चुका था। सांस्कृतिक विकास के धनी गाँव में ऋतुरानी के स्वागत में नाटक का कार्य-क्रम सुनिश्चित हुआ। तभी गाँव में ऐसे कार्यक्रम आये दिन होते रहते थे। दिन के दूसरे प्रहर के बाद से ही साइकिल-रिक्शा में ध्वनी-विस्तारक यंत्र बाँध कर संध्या ठाकुरवारी पर होने वाले नाट्यलीला का प्रचार किया गया था। “भाईयों एवं बहनों.....! आज की रात... याद रखियेगा आज की रात....! रेवाड़ी ठकुरवारी पर महान ऐतिहासिक नाटक छ्त्रपति शिवाजी का मंचन किया जाएगा....! आज की रात....!!
मेरी उत्कंठा को पंख लग गए थे। कान सांझ से ही मंदित की तरफ़ लगे हुए थे। कब गूँजेगी नटराज-वंदना – “हरि ओम नमः शिवाय...!” कई बार माता जी से अनुमति लेने की कोशिश किया था। वे पिताजी को अग्रसारित कर देतीं और पिताजी जाड़े की रात में हमें घर से निकलने की अनुमति दे दें ऐसा सिर्फ़ सोच ही सकते हैं।
सहसा दरवाजे से पिताजी को पुकारने की आवाज़ आई। आवाज़ से पड़ोस वाले विनोद चाचा मालूम पड़ते थे। पापा भोजन कर रहे थे। तो मैं दरवाजे पर जा पुकारने वाले को ढूँढने लगा। एक बहुरुपिया जैसा कोई आदमी था मगर विनोद चाचा पता नहीं पुकार कर कहाँ गायब हो गए। तब तक पिताजी भी बाहर आ गए थे और जब उन्होंने आगन्तुक बहुरुपिये को संतजी कहकर संबोधित किया तब तो मैं आश्चर्य में डूबने लगा। अच्छा...! तो यह नाट्यवेशधारी विनोद चाचा ही हैं। दर-असल पिताजी उन्हें स्नेहवश संतजी ही कहते थे।
मेरी हालत समझकर विनोद चाचा हँसने लगे और मेरी खुली आँखे और चौड़ी होती चली गई। वे मजीरा लेने आए थे। उस नाटक के किसी दृश्य में उन्हें मंच पर मजीरे का प्रयोग करना था। सारी साज-सज्जा के बाद पता चला कि मजीरा नहीं है तो वे सीधा उसी वेष में आ गए थे हमारे घर मजीरा लेने। उनके सामने ही मैं नाटक देखने की जिद करने लगा पिताजी से। उन्होंने भी सिफ़ारिश लगा दी। बात बन गई।
उस नाटक के अधिकांश अभिनेता हमारे ग्रामीण ही थे। पात्र-परिचय में मैं और किसी को नहीं पहचान पाया किन्तु जैसे ही गोविन्द राव आये मैं अपने स्थान से ही चिल्ला पड़ा विनोद चाचा... विनोद चाचा। फिर पर्दा उठा और पहले दृश्य से ही मेरी आँखें गोविन्द राव को खोजने लगीं। दूसरे या तीसरे दृश्य में गोविन्द राव आ भी गए। श्री गोविन्दाय नमो-नमः। उनके इस तकिया-कलाम पर खूब हँसी फूटी थी। वैसे उस नाटक के सभी पात्र लाजवाब थे मगर मेरी आँखों को गोविन्द राव और कानों को श्री गोविन्दाय का ही इंतिजार था...! वाह...! सीमित साधन के बावजूद क्या कलात्मक अभिनय था ! धारा-प्रवाह पद्यबद्ध संवाद, प्रवाहमान अदाकारी...! मन मुग्ध हो गया...! ऐसा मुग्ध की मैं कल्पना करने लगा, काश...! मैं भी गोविन्दराव की भूमिका कर पाऊँ....! यह ठाकुरवारी पर उनका अंतिम नाट्य-प्रदर्शन था।
उस नाटक के महीनों बाद तक हम बच्चे विनोद चाचा को देखते ही ‘श्री गोविन्दाय नमो-नमः’ का जाप करने लगते। उस नाटक के बाद मेरे अंदर रंगमंच के जीवाणुओं का संक्रमण हो चुका था। उसके बाद के सभी नाटकों के हास्य-पात्र में मैं गोविन्दराव को ढूँढने की कोशिश करता। नाटकों में हास्य-रस मेरा प्रिय बन गया। वर्षों तक नाटक खेलने की तीव्र इच्छा को पढ़ाई-लिखाई और खेल-कूद के तह में दबाए रखा।
स्नातक कक्षाओं में अच्छे अंकों से उत्तीर्णता ने मुझे अपनी इच्छाओं के अभिव्यक्ति का द्वार खोल दिया था। उस साल छ्ठ की संध्या होने वाले नाटक में मैंने भी अभिनय की इच्छा जताई। सभी नाट्यायोजनों में विनोद चाचा लगभग रहते ही हैं। उस बार भी थे – निर्देशक की भूमिका में। कोई स्क्रीन टेस्ट और औडिशन तो था नहीं बस संवाद बोल कर निर्देशक महोदय को प्रसन्न कर दो...! कोई न कोई भूमिका मिल ही जाएगी। वैसे भी अब अधिक लोग होते नहीं थे। मेरा भी चयन हो गया।
नाटक था ‘पृथ्वीराज चौहान’। मैं पहली बार रंगमंच पर उपस्थिति दर्ज करा रहा था मगर लंबे-लंबे काव्यात्मक संवाद याद करने और बिना अटके साभिनय बोलने की क्षमता के कारण उन्होंने मुझे दूसरे लीड ‘चंदबरदाई’ का किरदार मिल गया। पात्र-परिचय में मेरे पैर जरूर काँपे थे किन्तु दृश्य शुरु होते ही पता नहीं कहाँ से आत्मविश्वास आ गया था। बड़ा आनंद आया। सभी लोगों ने नाटक के साथ-साथ मेरे चरित्र को भी सराहा था।
उसके बाद मैं नाटकों में नियमित भाग लेता रहता था। लंबा-चौड़ा शरीर और भारी-भरकम आवाज़ के कारण हमेशा भारी-भरकम रोल ही मिलता रहा जबकि मेरी अधिक रुचि जोकरों जैसे हल्के-फ़ुल्के रोल में थी। उस बार सावित्री-सत्यवान नाटक का अयोजन हो रहा था। तब तक कुछ सिनियर हो जाने के कारण मुझे भी अपना रोल चुनने की आजादी मिल गई थी। मैं ने नारद की भूमिका चुना। मगर निर्देशक महोदय के अनुसार महज कुछ पंक्तियों का संवाद और दो-तीन दृश्यों में उपस्थिति मेरी क्षमता के अनुकूल नहीं था। मुझे प्रभावशाली किरदारों में से एक ‘यमराज’ का किरदार मिला।
उस नाटक में चार हास्य चरित्र थे। दो – सुमति और कुमति और दो यमराज के हास्यावतार दूत। अभ्यास आरंभ हुआ। संयोग से उनमें से एक यमदूत हास्य चरित्र में प्रभाव नहीं उत्पन्न कर पा रहा था। मुझ पर नये कलाकारों को मंच का अभिनय सिखाने की जिम्मेवारी भी होती थी। एक दृश्य में मैं उसे वह रोल डिमोंस्ट्रेट कर बता रहा था। किन्तु वह संवाद बोलते-बोलते बार-बार हँस पड़ता और दृश्य वहीं रुक जाता। एक तरह से उसने सांकेतिक इंकार कर दिया। फिर मैंने आव देखा न ताव उसका रोल अपने रोल से बदलने की पेशकश कर दी। वह यमराज के रोल में जमा था और मैं यमदूत बनकर हास्य का सृजन करने में सफल रहा था। खूब वाहवाही मिली। अब जाकर निर्देशक महोदय और मेरे संगी-संखाओं को मेरी कामिक टाइमिंग पर विश्वास हुआ था।
अगले साल छठ में छत्रपति शिवाजी नाटक फिर हो रहा था। मेरी प्रबल इच्छा थी गोविन्दराव की भूमिका करने की। लेकिन मेरे लिए शिवाजी या औरंगजेब की भूमिका निर्धारित की गई। अभ्यास भी शुरु हो गया। मैं हर रात अभ्यास में सोचता था कि काश मैं गोविन्दराव होता...! नाटक से कुछ दिन पहले गोविन्दराव की भूमिका निभाने वाला व्यक्ति घर से भागकर कोलकाता चला गया। जब तीन-चार दिनों तक वापस नहीं आया तो फिर सवाल यह उठा कि गोविन्दराव का किरदार कौन करेगा ? मैंने अपनी अर्जी लगा दी। निर्देशक महोदय को बस मेरी कद-काठी से कुछ डर लगता था कि मजबूत कद-काठी वाले इंसान को दर्शक विदुषक के रूप में स्वीकारेंगे या नहीं मगर इतने कम समय में उनके सामने भी कोई और विकल्प नहीं था। लंबे काव्यात्मक संवाद याद करने की योग्यता एक बार फिर काम आई। मुझे गोविन्दराव का रोल मिल गया। श्री गोविन्दाय नमो-नमः।
मेरा ड्रीम-रोल। लगन और उत्साह तो पहले से ही था। मैंने अपनी पूरी ऊर्जा झोंक दी। महज एक सप्ताह में अपने आप को गोविन्दराव बना डाला था। अधिक कठिनाई नहीं हुई थी। होती भी क्यों? यह चरित्र तो बचपन से ही मेरे अंदर बस गया था।
एक बार फिर छ्ठ-व्रत की संध्या। छ्ट्ठी मैय्या के घाट पर बना मंच। मैं बना गोविन्दराव। बहुत सारे इम्प्रोवाइजेशन किए। मैं तो नाट्य-निशा में अलग ही दुनिया में था। मुझे स्वस्तित्वबोध भी नहीं था। मुझे सिर्फ़ इतना पता था कि मैं गोविन्दराव हूँ। आनंद आ गया। मुझे भी। दर्शकों को भी। मेरे हर दृश्य के बाद मुझे तालियों की वही वर्षों पुरानी गरगराहट सुनाई दे रही थी जिनमें मेरे दो नन्हें हाथ भी शामिल थे। नाटक की समाप्ति के बाद मैं विनोद चाचा के पैर छूने लगा। उन्होंने मुझे हृदय से लगा लिया, “बहुत अच्छा निभाया आपने...! मुझसे भी अच्छा।” पता नहीं ये बातें उन्होंने स्नेहवश कहा था या...!
यह नाटक उनके लिए भी अंतिम था और मेरे लिए भी। उन्हीं की तरह मुझे देखते ही गाँव के बच्चे ‘श्री गोविन्दाय नमो-नमः’ का जाप शुरु कर देते थे। अधिकांश लोगों का कहना था कि गोविन्दराव शिवाजी और औरंगजेब पर भी भारी पर गए। खैर लोगों का काम है कहना...! लेकिन मैं उसके कुछ ही दिनों बाद आजिविका हेतु बंगलोर आ गया और रंगमंच रेवाखंड में ही छूट गया। यहाँ यदा-कदा कारपोरेट-स्किट वगैरह में भाग लेता रहा मगर मैं उस रंगमंच को सच में बहुत मिस करता हूँ। पिछले अंक की प्रतिक्रिया में चाचाजी ने उसी नाटक को उद्धृत किया था। यह अंक उसी का प्रतिफल है। श्री गोविन्दाय नमो-नमः।
बहुत ही रोचक, नाटक में डूबकर भाग लेने का ही असर है जो वह भुलाता नहीं है..
जवाब देंहटाएंभ्रात्रिज करण! आज त एतना दिन के बाद बुझाया है कि गाँव-घर लौटे हैं.. अऊर पूरा खिस्सा पढ़ने के बाद त एकदम से फ्लैस-बैक में चले गए!! ई नाटक चीजे अइसा है कि जैसे छुतहर रोग.. हम आजो कहते हैं कि मरण सय्या पर से उठाकर कोई कहेगा कि मैकबेथ करना है त हम जमराज से आधा घंटा टाइम मांगकर चले जायेंगे..
जवाब देंहटाएंपूरा स्मृति में प्राण बसा हुआ है.. अऊर का कहें! मन मोह लिया अऊर हमरा पुरनका टाइम से भेंटा दिए हमको!! जीते रहिये!!
खुबसूरत रोचक संस्मरण
जवाब देंहटाएंस्मृति के झरोखों से बढ़िया प्रस्तुति आंचलिक मिठास सहेजे .
जवाब देंहटाएंएक-एक कर दृश्य झिलमिलाते लगे पढ़ते हुए.
जवाब देंहटाएंबहुत रोचक..श्री गोविन्दाय नमो नम:। लिखते रहिए...
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा लगा पढ़ कर -अपने पार्ट याद आ गये !
जवाब देंहटाएंश्री गोविन्दाय नमो-नमः
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति!
जवाब देंहटाएंश्रावणी पर्व और रक्षाबन्धन की हार्दिक शुभकामनाएँ!
क्या कहूँ करन बाबू, कुछ कहते नहीं बनता। सलिल भाई के विचार से एको इंच इधर-उधर होने का विचार नहीं कर रहा है। मुझे भी नाटक देखने का बड़ा शौक था, पर करने का नहीं।
जवाब देंहटाएंसांस्कृतिक कार्यक्रम भारत की जनता के रग रग में बसे अपनी सभ्यता एवं संस्कृति से लगाव को परिलक्षित करते है , फिर वो चाहे भजन कीर्तन हो या लघुनाटिका ,अभिनेताओ का अपने पात्रों को जीवंत करना इस विधा के प्रति समर्पण एवं लगन का परिचायक है ,अतिउत्तम वर्णन के लिए साधुवाद.
जवाब देंहटाएंउस दिन पोखरी के तट पर हम भी थे ... और तालियां बजाने में किसी से पीछे भी नहीं थे।
जवाब देंहटाएंलेकिन उसके बाद कई छठ गुजर गए .. न नाटक न नौटंकी ..
श्री गोविन्दाय नमो नम: बहुत रोचक लगा..
जवाब देंहटाएंdil me wakai chahat ho to aankhein band karke maang lo mil hee jaata hai..aap ke lekhon ko padhkar paras patthar kee yaad aa jaati hai..paras jise chhoo le wo sona..aap jis bishay ko chhoo lein jeewan ho uthata hai..aapke agle lekh ke intezaar mein..sadar pranaam ke sath
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