भारतीय
काव्यशास्त्र – 122
आचार्य
परशुराम राय
पिछले अंक में
काव्य के माधुर्य गुण पर चर्चा हुई थी। आज के इस अंक में ओज और प्रसाद गुणों पर
चर्चा अभीष्ट है।
आचार्य
विश्वनाथ ने अपने ग्रंथ साहित्यदर्पण में ओज गुण को निम्नलिखित रूप
में परिभाषित किया हैः
ओजश्चित्तस्य विस्ताररूपं दीप्तत्वमुच्यते।
वीरबीभत्सरौद्रेषु
क्रमेणाधिक्यमस्य तु।।
अर्थात् चित्त के
विस्तार और दीप्तता को ओज कहते हैं एवं वीर, बीभत्स तथा रौद्र रस में इसकी क्रमशः
अधिकता होती है।
वैसे इस गुण को वीर
एवं रौद्र रसों के लिए विशेष रूप से आवश्यक माना गया है तथा बीभत्स और भयानक रसों
के लिए सामान्य रूप से।
आचार्य मम्मट ने
बड़े ही संक्षेप में ओज की विशेषता बताई है-
योग आद्यतृतीयाभ्यामन्त्ययो रेण तुल्ययोः।
टादिः शषौ वृत्तिदैर्घ्यं गुम्फ उद्धत ओजसि।।
इसमें निम्नलिखित
बातें बताई गई हैं-
1.
वर्णमाला के प्रत्येक वर्ग (कवर्ग, चवर्ग
आदि) के प्रथम और तृतीय वर्णों के साथ उनके बाद के वर्णों का बिना व्यवधान के
प्रयोग, अर्थात् प्रथम वर्ण क, च, त और प के बाद ख, छ, थ तथा
फ एवं ग, ज, द और ब के बाद घ, झ, ध तथा भ
वर्णयुक्त शब्दों का प्रयोग,
2.
वर्णों और र का
संयुक्त रूप वाले पदों (शब्दों) का प्रयोग, जैसे- कर्त्ता, क्रम, वज्र, धर्म आदि,
3.
तुल्य वर्णों से संयुक्त शब्दों का प्रयोग, यथा
उच्च, उद्दाम, वित्त आदि (हिन्दी के सन्दर्भ में- पत्ता, कच्चा, चक्का आदि),
4.
टवर्ग (ट, ठ, ड, ढ) युक्त शब्दों का प्रयोग,
5.
श और ष वर्णो से युक्त शब्दों का प्रयोग,
6.
लम्बे समास वाले पदों का प्रयोग और
7.
उद्धत (गुम्फित) रचना ओज गुण को व्यंजित करती है।
इसके लिए आचार्य
मम्मट ने हनुमन्नाटकम् का बड़ा ही सुन्दर श्लोक उद्धृत किया है। भगवान राम की सेना
के द्वारा पूरी लंका घिर जाने के बाद अपने नगर की रक्षा का सुझाव देने पर यह श्लोक
रावण की उक्ति है-
मूर्ध्नामुद्वृत्तकृत्ताविरलगलद्रक्तसंसक्तधारा-
धौतेशाङ्घ्रिप्रसादोपनतजयजगज्जातमिथ्यामहिम्नाम्।
कैलासोल्लासनेच्छाव्यतिकरपिशुनोत्सर्पिदर्पोधुराणां
दोष्णां चैषां किमेतत्फलमिह नगरीरक्षणे यत्प्रयासः।
अर्थात् उद्धत होकर
लगातार कंठ से बहती अविरल रक्त की धार से भगवान शिव के चरणों के धोने से उनकी कृपा
से प्राप्त विजय से जगत में मिथ्या महत्ता को प्राप्त मेरे इन दस सिरों और कैलास
को उठाने की इच्छा से आविष्ट उत्कट अभियान के गर्व से युक्त मेरी भुजाओं का क्या
यही फल है कि अपनी इस नगरी की रक्षा के लिए मुझे प्रयास करने की आवश्यकता आ पड़ी।
उक्त श्लोक में वे
सभी विशेषताएँ आपको देखने को मिलेंगी, जिनका ऊपर उल्लेख किया है। हालाँकि हिन्दी
के सन्दर्भ में इस प्रकार की विशेषता महाकवि निराला की कविता बादल-राग में
देखने को मिलती है। ओज गुण के उदाहरण के लिए आचार्य विश्वनाथप्रसाद मिश्र जी ने
निम्नलिखित कविता उद्धृत की है-
दिल्लिय-दलनि दजाइ कै, सिव सरजा निरसंक।
लूटि लियो सूरति सहर, बंकक्करि अति डंक।
बंकक्करि अति, डंकक्करि अस, संकक्करि खल।
सोचच्चकित, भरोचच्चलिय, बिमोचच्चखचल।
तठ्ठठ्ठइ मन कट्ठठ्ठिक
सो रट्ठट्ठिल्लिय।
सद्दद्दिसिदिसि भद्दद्दबि भई
रद्दद्दिल्लिय।।
तीसरा गुण है प्रसाद
गुण। प्रायः अधिकांश काव्यों में इसकी उपस्थिति देखने को मिलती है। इसे
परिभाषित करते हुए आचार्य मम्मट ने लिखा है कि काव्य को सुनते ही उसका अर्थ समझ
में आ जाय, उसे प्रसाद गुण कहते हैं-
श्रुतिमात्रेण शब्दात्तु येनार्थप्रत्ययो भवेत्।
साधारणः समग्राणां स प्रसादो गुणो मतः।।
इस गुण का विस्तार
सभी रसों में देखने को मिलता है और इसकी उपस्थिति अन्य दो गुणों के साथ भी प्रायः
होती है। इसके लिए श्रीमद्भगवद्गीता का निम्नलिखित श्लोक उद्धृत किया जा रहा है-
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोSपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही।।
यह श्लोक इतना
प्रचलित है कि सभी इसका अर्थ जानते हैं। इसलिए यहाँ इसका अर्थ नहीं दिया जा रहा
है।
हिन्दी में इसके
लिए कोई भी उदाहरण लिया जा सकता है। फिलहाल यहाँ रामचरितमानस का एक दोहा उद्धृत
किया जा रहा है -
सुनहु भरत भावी प्रबल, बिलखि
कहेउ मुनिनाथ।
लाभ, हानि, जीवन, मरन, जस, अपजस बिधि हाथ।।
काव्य-गुण पर चर्चा
यहीं समाप्त होती है। अगले अंक से अलंकारों पर चर्चा प्रारम्भ की जाएगी।
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ज्ञानवर्धक आलेख
जवाब देंहटाएंबीच में कई आलेख नहीं पढे जा सके हैं.
ये संग्रहणीय आलेख ऋंखला है।
बहुत बढिया
ईद मुबारक !
जवाब देंहटाएंआप सभी को भाईचारे के त्यौहार की हार्दिक शुभकामनाएँ!
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इस मुबारक मौके पर आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल सोमवार (20-08-2012) के चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ!
सुन्दर ज्ञानवर्धक आलेख... ईद मुबारक !
जवाब देंहटाएंकाव्यगुणों पर यह चर्चा शानदार रही। अलंकार की चर्चा का इंतज़ार रहेगा।
जवाब देंहटाएंआचार्य जी!
जवाब देंहटाएंपिछले दो अंकों से हिन्दी कविताओं के उदाहरण से आपने समझाने का प्रयास किया है, जो बहुत ही सराहनीय है.. अभी तुरत याद नहीं आ रहा लेकिन आपने एक बार "आँच" पर किसी कविता की समीक्षा में या किसी कविता के सन्दर्भ में ही आचार्य मम्मट के ओज संबंधी इन सात सूत्रों में से एक सूत्र की चर्चा की थी.. पूरा सन्दर्भ याद नहीं, लेकिन आपके सुझाव याद हैं और उनपर अमल करता हूँ...!
अलंकार के विषय में सिलसिलेवार अध्ययन की इच्छा है और आपकी आगे की कक्षा मेरे लिए बहुत महत्वपूर्ण होने वाली है. अनुपस्थिति में मेरी ही हानि होने वाली है..
आभार एवं प्रणाम!!
गागर में सागर है !
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