भारतीय
काव्यशास्त्र – 121
आचार्य
परशुराम राय
पिछले अंक में
आचार्य वामन आदि और परवर्ती आचार्यों के अनुसार काव्य-गुण के भेदों पर चर्चा हुई
थी। यह भी स्पष्ट किया गया था कि आज काव्य के केवल तीन गुण - माधुर्य, ओज और प्रसाद स्वीकार्य
हैं। इस अंक में माधुर्य गुण के स्वरूप पर चर्चा की जाएगी।
माधुर्य
गुण की चर्चा करते हुए आचार्य विश्वनाथ साहित्यदर्पण में लिखते हैं कि चित्त
का द्रवीभावयुक्त आह्लाद अर्थात् अन्तःकरण को द्रुत करनेवाला आह्लाद माधुर्य
कहलाता है-
“चित्तद्रवीभावमयो ह्लादो माधुर्यमुच्यते”
रस के विवेचन में
हम देख चुके हैं कि मन में रस के उद्रेक के समय चित्त की चार अवस्थाएँ होती हैं- काठिन्य,
दीप्तत्व, विक्षेप और द्रुति। चित्त की अनाविष्ट स्वाभाव-सिद्ध काठिन्य
अवस्था वीर आदि रसों में पाई जाती है; क्रोध, मन्यु आदि से चित्त की दीप्तावस्था रौद्र
आदि रसों में; विक्षेप विस्मय,
हास आदि के कारण चित्त का विक्षेप अद्भुत, हास्य आदि रसों में और इन तीनों के अभाव
में रति आदि के कारण चित्त का द्रवीभूत या आर्द्र होना या द्रुत होना शृंगार, करुण
और शान्त रसों में पाया जाता है। इसीलिए चित्त का द्रवीभावमय आह्लाद की अवस्था
इन्हीं रसों में देखने को मिलती है। अतएव इन रसों में ही माधुर्य गुण होता है।
शान्त रस में
माधुर्य की पराकाष्ठा मानी गयी है। आचार्य विश्वनाथ अपने साहित्यदर्पण में कहते
हैं कि संभोग शृंगार, करुण, विप्रलम्भ शृंगार और शान्त रस में क्रम से माधुर्य की
अधिकता पायी जाती है-
“सम्भोगे करुणे विप्रलम्भे शान्तेSधिकं क्रमात्।“
माधुर्य
गुण में आचार्यों द्वारा निम्नलिखित विशेषताएँ बतायी गई हैं, अर्थात् निम्नलिखित
विशेषताएँ माधुर्य गुण का व्यंजक होती हैं-
1. वर्णों का प्रयोग-
(क) मूर्धन्य वर्ण ट, ठ, ड और ढ को छोड़कर शेष सभी वर्णों से युक्त शब्दों का
प्रयोग, वर्णों का अपने वर्ग के अन्तिम वर्ण से संयुक्त होनेवाले शब्दों का प्रयोग,
जैसे सङ्ग (ग का अपने वर्ग के अन्तिम वर्ण ङ के साथ संयुक्त है), कञ्चन (यहाँ च
अपने वर्ग के अंतिम वर्ण ञ से संयुक्त है), पन्थ आदि शब्द। इसके अतिरिक्त लघु र और
ण तथा रेफ युक्त शब्द भी माधुर्य के व्यंजक बताए गए हैं।
2. समास रहित या अल्प
समास युक्त पदों का प्रयोग।
3. पदों एवं समासों के
साथ योग (संधि)।
माधुर्य गुण से
युक्त निम्नलिखित श्लोक उदाहरण के लिए आचार्य मम्मट ने उद्धृत किया है-
अनङ्गरङ्गप्रतिमं तदङ्गं भङ्गीभिरङ्गीकृतमानताङ्ग्याः।
कुर्वन्ति यूनां सहसा यथैताः स्वान्तानि शान्तापरचिन्तनानि।।
अर्थात् कामदेव की रंगशाला की तरह स्तनों के भार से
नतांगी (झुके हुए शरीरवाली) की चेष्टाओं ने उसके (नायिका के) शरीर को अपने अधीन कर
लिया है कि ये चेष्टाएँ (हाव-भाव) युवकों के चित्त को तुरन्त अन्य विषयों की
चिन्ता से मुक्त कर अपने मे रमा लेती हैं।
इस श्लोक में उक्त
तीनों विशेषताएँ परिलक्षित होती हैं। इसी प्रकार आचार्य विश्वनाथप्रसाद मिश्र ने
अपनी पुस्तक काव्यांग-कौमुदी में माधुर्य गुण के लिए कवि देव की निम्नलिखित कवित्त
को उद्धृत किया है-
मंद-मंद चढ़ि चल्यो चैत-निसि चंद चारु,
मंद-मंद चाँदनी पसारत लतन तें।
मंद-मंद जमुना-तरंगिनि हिलोरैं लेति,
मंद-मंद मोद मंजु-मल्लिका-सुमन तें।
देव कवि मंद-मंद सीतल सुगंध पौन,
देखि छबि छीजत मनोज छन छन तें।
मंद-मंद मुरली बजावत अधर धरे,
मंद-मंद निकस्यौ मुकुंद मधुबन तें।।
माधुर्य गुण पर चर्चा
यहीं समाप्त की जा रही है। अगले अंक में शेष दो गुणों पर चर्चा होगी।
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अद्भुत जानकारी.आभार आचार्य जी.
जवाब देंहटाएंमाधुर्य गुण का सुन्दर विवेचन
जवाब देंहटाएंबहुत बार मन करता है कि संस्कृत का ज्ञान दुबारा लिया जाए.....या कोई मर्मज्ञ हर शास्त्र को सरल हिंदी में परिवर्तित करे जो कि पढ़ संकू....।
जवाब देंहटाएंआचार्य जी, बहुत लंबे समय तक अनुपस्थित रहने के उपरांत आज आपकी कक्षा में उपस्थित हुआ हूँ.. और आज की कक्षा में माधुर्य गुण की चर्चा, वह भी इतने सरल शब्दों में सोदाहरण देख मन प्रफुल्लित हो गया..! आभार आपका!!
जवाब देंहटाएंमाधुर्य से औतप्रोत उध्दरित कविता मनोहक है ।
जवाब देंहटाएंकाव्य में माधुर्य गुण की सुंदर चर्चा...
जवाब देंहटाएंएक बेहतरीन पोस्ट!
जवाब देंहटाएंअत्यंत उपयोगी जानकारी, आभार।
जवाब देंहटाएं............
कितनी बदल रही है हिन्दी !
बहुत सुंदर है
जवाब देंहटाएंपर कठिन भी है
डगर पनघट की !