सोमवार, 8 अक्तूबर 2012

ऐसा ही बचा हुआ गांव है

ऐसा ही बचा हुआ गांव है
श्यामनारायण मिश्र
आमों    के      बाग     कटे
कमलों    के     ताल    पटे
भटक   रहे   ढोरों  के  ढांचे
दूर-दूर तक बंजर फैलाव है
ऐसा  ही बचा हुआ गांव है

पेड़ पर गिलहरी से चढ़ते
अध नंगे बालक
छड़ियों सी क्षीणकाय
पीली पनिहारियां
पत्तों की चुंगी में
बची-खुची तंबाखू
सुलगाते बूढ़े
सहलाते झुर्रियां
द्वार   पर   पगार    लिए
कामगार        बेटे      का
हफ़्तों  से  ठंडा  उरगाव है
ऐसा ही बचा हुआ गांव है

मेड़ों   पर    उगी
बेर   की  कटीली
कास की गठीली
खेतों तक फैल गई झाड़ियां
जोहड़े से कस्बे तक
लाद-लाद ईंटें
बैल हुए बूढ़े टूट चुकी गाड़ियां
मिट्टी      की      फटी-फटी
कच्ची      दीवारों       पर
झुके    हुए    छप्पर    की
आड़ी     सी     छांव     है
ऐसा ही बचा हुआ गांव है

कुत्तों के रोने सा साइरन बजातीं
बल  विवेक  खाती
फैल  रही   भट्टियां
देखते   ही   देखते
मोची के छातों सी
तन गई हैं झोपड़ पट्टियां
हाथ नहीं
हिंसक ये पंजा
गर्दन में ज़ोर का कसाव है
ऐसा ही बचा हुआ गांव है

20 टिप्‍पणियां:

  1. जीवंत शब्द-चित्र खींचा है पूज्य मिश्र जी ने. मानो आँखे पढ़ नहीं रही है बल्कि देख रही हो..

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  2. बहुत बढ़िया नवगीत....

    आभार..
    अनु

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  3. कल यानि रविवार को हिंदी नव गीत के जनक देवेन्द्र शर्मा इन्द्र जी घर पर पधारे थे और वही श्याम नारायण जी की गीतों की चर्चा हुई.... एक और बढ़िया गीत पढवाने का आभार

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  4. सादर-
    आभार-
    इस प्रस्तुति पर ||

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  5. हाथ नहीं
    हिंसक ये पंजा
    गर्दन में ज़ोर का कसाव है
    ऐसा ही बचा हुआ गांव है,,,,,,

    श्याम नारायण जी की नवगीत(रचना) पढवाने के लिये आभार,,,मनोज जी,,

    RECENT POST: तेरी फितरत के लोग,

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  6. मिट्टी की फटी-फटी
    कच्ची दीवारों पर
    झुके हुए छप्पर की
    आड़ी सी छांव है
    ऐसा ही बचा हुआ गांव है

    बहुत सुंदर ....

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  7. यहाँ बचा हुआ गाँव 70% भारतीयों के जीवन का स्वरूप है। जिनके लिए न सरकार है और न ही विकास।

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  8. श्याम नारायण जी की रचना पढवाने के लिये आभार...........

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  9. हाथ नहीं
    हिंसक ये पंजा
    गर्दन में ज़ोर का कसाव है
    ऐसा ही बचा हुआ गांव है

    क्या शाब्दिक चित्र खींचा है मिश्र जी इस सुंदर गीत के माध्यम से.

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  10. बहुत अरसे बाद पढ़ा इन्हें ...
    आपका आभार !

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  11. कुत्तों के रोने सा साइरन बजातीं
    बल विवेक खाती
    फैल रही भट्टियां
    देखते ही देखते
    मोची के छातों सी
    तन गई हैं झोपड़ पट्टियां

    जीवंत तस्वीर

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  12. असली गांव ऐसा ही है
    रुपहले पर्दे की रंगीनियों से दूर
    अपने अस्तित्व के लिए जूझता
    ताकि बचा रहे यह देश
    बचे रहें हमारे पुरखे
    सभ्यता और संस्कृति है जिनसे!

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  13. मिट्टी की फटी-फटी
    कच्ची दीवारों पर
    झुके हुए छप्पर की
    आड़ी सी छांव है
    ऐसा ही बचा हुआ गांव है

    मनोज जी...अद्भुत भाव, शिल्प और शब्द गूंथ कर रची इस रचना के लिए बधाई स्वीकारें... ऐसी शाश्वत रचनाएँ ब्लॉग जगत में दुर्लभ हैं...गाँव का जीवंत चित्रण...वाह.

    नीरज

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