रविवार, 18 अप्रैल 2010

काव्यशास्त्र : भाग - 11

आचार्य भट्टनायक

-आचार्य परशुराम राय

आचार्य भट्टनायक मूलतः मीमांसक हैं और इनका काल दसवीं शताब्दी माना जाता है। ये आचार्य आनन्दवर्धन के बाद हुए हैं। काव्यशास्त्र पर इनका एकमात्र ग्रंथ ‘हृदयदर्पण’ है। पर दुर्भाग्य से यह उपलब्ध नहीं है।

ये ध्वनि-सम्प्रदाय के कट्टर विरोधी हैं। क्योंकि एक मीमांसक के लिए वेद ही परम प्रमाण है। और उसके लिए सभी प्रकार के अर्थों का अभिधा के अर्थ में ही अन्तर्भाव होता है। इसीलिए आचार्य आनन्दवर्धन द्वारा ‘ध्वन्यालोक’ में प्रतिपादित ध्वनि के सिद्धान्तों का बड़े ही सशक्त ढ़ग से ‘हृदयदर्पण’ में इन्होंने विरोध किया है। जबकि इनके मतों का खण्डन आचार्य अभिनवगुप्त ने ‘ध्वन्यालोक’ पर ‘लोचन’ नामक टीका करते समय भी उतने ही सशक्त ढंग से किया है। इससे पता चलता है कि आचार्य भट्टनायक आचार्य अभिनवगुप्त के पहले हुए हैं।

ग्यारहवीं शताब्दी के आचार्य महिमभट्ट भी आचार्य भट्टनायक की तरह ही एक मीमांसक थे। उन्होंने अपने ग्रंथ ‘व्यक्तिविवेक’ में आचार्य भट्टनायक कृत ‘हृदयदर्पण’ के अनुपलब्ध होने के दर्द का उल्लेख किया है। वे कहते हैं कि अब तक ‘हृदयदर्पण’ ग्रंथ को देखे बिना मेरी बुद्धि रुपी नायिका अलंकार सज्जा में लग गयी है। अतएव उसे कैसे पता चलेगा कि उसमें कोई दोष है या नहीं, अर्थात् उसके अभाव में अपने ग्रंथ‘व्यक्तिविवेक’ में कमियों का कैसे पता चलेगा। उक्त विवरण से पता चलता है कि ग्यारहवीं शताब्दी से ही हृदयदर्पण उपलब्ध नहीं रहा है अथवा हो सकता है कि व्यक्तिविवेककार आचार्य महिमभट्ट को किन्हीं कारणों से यह ग्रंथ न मिल पाया हो। क्योंकि इनके थोड़े काल पूर्व ही आचार्य अभिनवगुप्त हुए हैं और उन्होंने ‘हृदयदर्पण’ अवश्य पढ़ा था। अन्यथा आचार्य भट्टनायक द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों का खण्डन नहीं कर पाते।

‘हृदयदर्पण’ ध्वनिविरोधी एवं रसनिष्पति सम्बन्धी सिद्धांतों के लिए अधिक जाना जाता है। क्योंकि इन दोनों विषयों पर आचार्य भट्टनायक का दृष्टिकोण बिल्कुल नया था। वैसे आचार्य अभिनवगुप्त ने इनके ध्वनिविरोधी सिद्धान्तों का ध्वन्यालोक पर अपनी ‘लोचन टीका’ में बहुत ही जोरदार ढ़ग से खण्डन किया है और रसनिष्पत्ति के सिद्धांन्तो का आचार्य भरत के नाट्यशास्त्र की टीका ‘अभिनवभारती’ में। काव्यप्रकाशकार आचार्य मम्मट ने भी आचार्य भट्टनायक के मत का उल्लेख किया है।

आचार्य भट्टनायक के रसनिष्पत्ति संबन्धी सिद्धांत का उल्लेख आचार्य मम्मट ने अपने काव्यप्रकाश किया है। वे तीन प्रकार का व्यापार मानते हैं – अभिधाव्यापार, भावकलत्वव्यापार और भोजकत्व व्यापार। अभिधा- व्यापार से काव्य के सामान्य अर्थ का ज्ञान होता है, भावकत्व व्यापार से सीता-राम आदि के स्वरुप का साधारणीकरण होता है और भोजकत्वव्यापार से पाठक या श्रोता को रस की अनुभूति होती है। आचार्य जयरथ द्वारा आचार्य रुय्यक के ‘अलंकारसर्वस्व’ की टीका मे तथा आचार्य हेमचन्द्र द्वारा अपने ‘काव्यनुशासनविवेक’ नामक टीका में आचार्य भट्टनायक के उक्त सिद्धांत को प्रतिपादित करने वाले दो श्लोकों उद्धृत किया गया है, जो निम्नवत हैं-

अभिधा भावना चान्या तद्भोगीकृतिरेव च।

अभिधाधामतां याते शब्दार्थालङ्कृती ततः।।

भावनाभाव्य एषोऽपि शृंगारादिगणो मतः।

तद्भोगीकृतिरुपेण व्याप्यते सिद्धिमान्नरः।।

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पिछले अंक

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4 टिप्‍पणियां:

  1. इस पोस्ट के माध्यम से काव्यशास्त्र पर जानकारी मिलती रहती है. धन्यवाद.

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  2. आचार्य परशुराम राय जी आप एक अत्यंत ही श्रमसाध्य कर रहे हैं। साधुवाद!

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  3. राय जी निष्काम कर्मयोगी हैं, जो हम सबको उदारता से ज्ञान बाँटने के लिए साधना में रत हैं.
    उन्हें बहुत-बहुत आभार.

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