गुरुवार, 7 अप्रैल 2011

आँच-62 – बंजारे बादल

समीक्षा

आँच-62 – बंजारे बादल

हरीश प्रकाश गुप्त

Sn Mishraसावन भादों मास प्रकृति के आह्लाद की अभिव्यक्ति होते हैं। इस दौरान जेष्ठ की उष्णता के पश्चात खुशगवार बारिश और मनभावन तेज बयार रोम-रोम को पुलकित करती है तो पेड़-पौधों का पवन की लय में डोलना, पक्षियों का कलरव और नदी का वेग मन में हिलोरें पैदा करता है। सचमुच सम्पूर्ण प्रकृति ही हर्षित होती है इस दौरान। प्रकृति के इस स्वाभाविक क्रियाकलाप में एक संवेदनशील अन्वेषक की दृष्टि सामान्यतम बिम्बों में भी जीवन का आह्लाद खोज लेती है और सर्वत्र आनन्द बिखर जाता है। प्रकृति के ऐसे ही सजीव चित्र का बहुत ही आकर्षक चित्रण है पं0 श्याम नारायण मिश्र का नवगीत “बंजारे बादल”। यह नवगीत मार्च माह में इसी ब्लाग पर प्रकाशित हुआ था। यह नवगीत इतना मोहक है कि बार-बार पढ़ने को उद्यत करता है। इसीलिए इसे आज की आँच में चर्चा के लिए लिया जा रहा है।

बंजारे वह होते हैं जिनका कोई स्थाई ठौर–ठिकाना नहीं होता। बादलों की प्रकृति भी बिलकुल वैसी ही होती है। एक स्थान पर टिकते नहीं। सावन-भादों मास तो जन-जीवन में आनन्द और उल्लास के प्रतीक हैं। हर्ष के इस अवसर पर ये बंजारे बदल भी गोल बनाकर अर्थात मिलजुलकर, ढोल बजाकर, अर्थात खुशी का उन्माद प्रकट करते हैं। बारिस के मौसम में नदी का प्रसार जिस प्रकार विस्तार पाता है और प्रसन्न मग्न चंचला के आँचल सा बिखर जाता है, वैसे ही खुशियाँ असीम हो उठती हैं। बारिस में भीगकर जिस प्रकार पहाड़ों की गंदगी साफ हो जाती है, उनमें नई चमक और आभा प्रकट होती है, घाटियाँ रंगबिरंगे पुष्पों-पौधों से खिल उठती हैं, वैसे ही खुशियां काजल रूपी बीतराग को बिसराकर जीवन में नए रंग भरती हैं। पपीहा वर्ष पर्यंत बारिस की ही प्रतीक्षा करता है और सावन-भादों में वर्षा की झड़ी लगते ही चहक उठता है। चूंकि हल्दी लगाने की परम्परा विवाह के अवसर पर है, अतः इस मौसम में ब्याह को प्रवृत्त होने पर उसकी खुशी द्विगुणित हो जाती है। अपने सुरीले कण्ठ से मधुर गीत गाने वाली कोयल सगुन के सुहाग गीत गाती है। अर्थात यह खुशियों की पराकाष्ठा का चित्रण है। ये खुशियां ग्राम, ग्राम्य, वन, वन्य, जीव, जन्तु, पशु, पक्षी सभी पर सिर चढ़कर बोलती है। वनगामी मोर वनचर जनजातियों की भांति उन्मत्त हो नृत्य कर उठता है। बया तो अपना घोसला ही झूला स्वरूप बनाती है, वह भी इस अवसर को यूं ही जाने नहीं देती। ग्रीष्म ऋतु के पश्चात पथरा गई खेतों की माटी पर फिर से फसल उगाने के लिए कृषकगण बारिस की ही आस देखते हैं और बारिस आते ही वह हर्ष के साथ अपने कृषि कार्य में संलग्न हो जाते हैं। ग्रामांचल में गाए जाने वाले लोकगीत कजरी और आल्हा आदि हर्षोल्लाष को द्विगुणित कर देते हैं।

मिश्र जी का यह नवगीत ग्राम्य प्रतीकों के संकलन का अनूठा नमूना है। मिश्र जी ने इनमें बेहद सामान्य से लगने वाले प्रतीकों को इतनी कुशलता से गीत में ढाला है कि वे बिलकुल असाधारण बन गए हैं। मिश्र जी मूलतः प्रयोगवादी कवि हैं। वे बिम्बों के साथ निरन्तर नए-नए प्रयोग करते रहते हैं। उनके बिम्ब स्वयं द्वारा अन्वेषित होते हैं जो नवगीत को चमत्कारिक आभा से युक्त करते हैं। इस नवगीत में भी उनके प्रयोग सर्वथा नए हैं और सार्थक हैं, चाहे बंजारे बादल हो या बासी काजल, हल्दी चढ़ा पपीहा हो अथवा भील-मोर हो या फिर हरखू का खेतों की पाटी पर ककहरा लिखना हो अथवा मटकी और मथानी का कजरी गान हो, सभी नितांत सामान्य से बिम्ब हैं लेकिन प्रयोग कौशल से इनमें नवीनता आ गई है और अर्थ में चमत्कार प्रस्तुत हुआ है। मिश्र जी गीत में शब्द की शक्ति का कुशलतम उपयोग करते हैं।

नवगीत के पदों में गीत की भाँति वैसे तो मात्रिक शिष्टाचार की आवश्यकता नहीं होती लेकिन प्रवाह और प्रांजलता उसके अन्तर्भूत अवयव तो हैं ही। ये न केवल नवगीत को आकर्षक बनाते हैं बल्कि उसकी सम्प्रेषणीयता में भी वृद्धि करते हैं। “बंजारे बादल” की प्रांजलता दर्शनीय है। मिश्र जी शब्द संयम के प्रति बेहद सजग कवि हैं। उनका यह गुण इस नवगीत में भी प्रकट है। पूरे गीत में एक भी शब्द निर्रथक खोज पाना या फिर दोष उद्घाटित कर पाना असम्भव सा कार्य है तथापि मेरी निजी राय में इस नवगीत में एक-दो स्थानों पर संशोधन की सम्भावना हो सकती है। यथा –

घाटी रचा रही

पावों में लाल महावर घोल।

तथा

खेतों की पाटी पर

हरखू लिखने लगा ककहरा।

में शब्दों और शब्दों का क्रम न बदलते हुए भी पंक्ति पृथक्करण में कुछ परिवर्तन करना चाहूँगा। यह मात्र दोष दर्शन नहीं अपितु पद पर बलाघात द्वारा अर्थ को अधिक स्पष्ट करना है। मेरे अनुसार इन पंक्तियों को क्रमशः इस प्रकार होना चाहिए –

घाटी रचा रही पावों में

लाल महावर घोल।

तथा

खेतों की पाटी पर हरखू

लिखने लगा ककहरा।

वैसे, यह निर्धारण करना रचनाकार की अपनी पसंद पर निर्भर करता है। बावजूद इसके, यह नवगीत बहुत सुन्दर व मनमोहक है और हृदय की गहराई तक स्पर्श करता है। श्री श्याम नारायण मिश्र जी आधुनिक युग के समर्थ नवगीतकार हैं। दुर्भाग्य से उनकी रचनाओं का अधिक प्रकाशन नहीं हुआ इसलिए वे प्रसार नहीं पा सकीं, लेकिन इससे कवि की सामर्थ्य कमतर नहीं हो जाती। यह मेरा सौभाग्य है कि आज मुझे श्री मिश्र जी की रचना पर लिखने का अवसर मिला है।

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18 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सार्थक विश्लेषण ....मिश्र जी के सुन्दर नवगीत का

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  2. आंच की प्रतिष्ठा के अनुरूप आज की कविता और समीक्षा भी... बंजारा बादल गीत की कसौटी पर १६ आने खड़ी है और समीक्षा भी. गुप्त जी का विशेष आभार कि इस गीत के विभिन्न आयामों को समझने का अवसर मिला..

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  3. समीक्षा कर्म पर आपकी अच्छी पकड़ है ,हरीश जी. विनम्रता की चाशनी में लिपटा आपका सुझाव भी आपके दक्ष होने का प्रमाण है.

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  4. यह गीत भी बहुत अच्छा लगा था, समीक्षा भी।

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  5. वाह बहुत अच्छी समीक्षा कि है आप ने, ये गीत तो बहुत अच्छा है परन्तु आप ने इसकी समीक्षा बहुत सुन्दर कि

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  6. उम्दा गीत और बेहतरीन समीक्षा
    बधाई।

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  7. आद. हरीश जी,
    मिश्र जी के नव गीत का बहुत ही सुन्दर और सटीक विश्लेषण किया है आपने !
    आभार !

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  8. सुन्दर गीत का सार्थक विश्लेषण.

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  9. सुंदर, सटीक और स्तरीय समीक्षा।

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  10. श्याम नारायण मिश्र जी को,प्रायः,इस ब्लॉग के माध्यम से ही जाना गया है। उन्हें जितना अधिक स्थान दिया जाए,अच्छा है। समीक्षित रचना जिस परिवेश की समझ की अपेक्षा रखती थी,उसे आप जैसा कोई कवि-हृदय ही महसूस कर सकता था।

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  11. पं श्याम नारायण मिश्र का नवगीत 'बंजारे बादल' की भाषा-शिल्प और अभिव्यक्ति का समायोजन अच्छा लगा। समीक्षक महोदय की समीक्षा
    वर्णनातीत है।धन्यवाद।

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  12. हरीश जी, गीत के विभिन्न पहलुओं को प्रकाशित करते हुए आपने बड़ी ही तटस्थ समीक्षा की है। मैं देख रहा हूँ कि आपका नाम अब "आँच" का पर्याय बनता जा रहा है। इसके लिए आपको बहुत-बहुत हार्दिक बधाई।

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  13. आज तो बस अद्भुत ही लिखूंगा! दोनों के लिए!!

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  14. मिश्र जी के नव गीत का बहुत ही सुन्दर और सटीक विश्लेषण किया है आपने !

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  15. अपनी प्रेरक एवं उत्साहवर्धक प्रतिक्रियाओं के माध्यम से मुझे अपने कार्य हेतु ऊर्जा देने के लिए आप सब का आभारी हूँ।

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  16. नवगीत चित्ताकर्षक लगी ..इसकी समीक्षा बहुत सुन्दर ...बधाई

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