गुरुवार, 14 अप्रैल 2011

आँच-63 - विश्व विटप की डाली पर

समीक्षा

आँच-63 - विश्व विटप की डाली पर

मेरा फोटोहरीश प्रकाश गुप्त

ब्लाग पर आँच के इस स्तम्भ में पिछले कुछ समय से मनोज ब्लाग पर अथवा किसी अन्य ब्लाग पर अद्यतन प्रकाशित रचनाओं को चर्चा हेतु लिया गया था। फिर विचार आया कि पाठकों के स्मृति पृष्ठ पलटे जाएं तो मेरी दृष्टि सहसा मनोज जी के एक गीत “विश्व विटप की डाली पर” पर जाकर ठहर गई। यह गीत इसी ब्लाग पर लगभग एक वर्ष पूर्व जनवरी माह के प्रथम सप्ताह में प्रकाशित हुआ था। गीत की सरलता एवं सहज सम्प्रेषणीयता इतनी आकर्षक है कि इस गीत की कुछ पंक्तियां आज तक मेरी स्मृति से पूर्णतया मिट नहीं सकीं हैं और यदा-कदा वाणी से मुखरित हो उठती हैं। जहाँ तक मेरी जानकारी है मनोज कुमार जी के इस गीत ने ही उन्हें गीतकार का नाम दिलाया था, अर्थात यही उनकी पहली गीत रचना है और लगभग 20-25 वर्ष पहले लिखा गया है। इस दृष्टि से इस गीत की महत्ता और बढ़ जाती है। इसलिए सोचा कि क्यों न इसे ही आज की चर्चा का विषय बनाया जाए।

सांसारिक जीवन की डगर आसान नहीं होती। जितना भी हम आगे की ओर देखते हैं, अपनी दृष्टि को विस्तार देते हैं, हमें हमारे उद्देश्यों को हासिल करने की राह दुर्गम ही नजर आती है। चाहे व्यावहारिक जीवन की भौतिक अपेक्षाएं हों अथवा सामाजिक जीवन की जिम्मेदारियां, उनके निर्वाह में कठिनाइयां अवश्य आती हैं - कम अथवा अधिक। कभी-कभी ये कठिनाइयाँ इतनी जटिल और असहनीय हो जाती हैं कि मनुष्य का आत्मबल उनका सामना करने में कमजोर पड़ने लगता है - कैसे पार लगेगी नौका, हैं धाराएं प्रतिकूल यहां !! जिस किसी के भी अन्दर हम झाँककर देखते हैं तो वह कोई न कोई समस्या से ग्रस्त नजर आता है। तब ऐसा प्रतीत होने लगता है कि जैसे इस जगत में सभी जन दुख और पीड़ा से ही ग्रस्त हैं –

जग में बस पीड़ा ही पीड़ा,

दुख ज्वाला में जलते तारे।

तब मनुष्य को निराशा घेर लेती है –

सुमनों में अब वह सुरभि नहीं,

कोकिल की कूक में दर्द भरा !

मरघट की सी नीरवता में,

है डूब रही सम्पूर्ण धरा !!

सब देख रहे इक-दूजे को,

कर दी है किसने भूल कहां !

इन सबके होते हुए भी मनुष्य के पास एक कोमल मन है जो कभी कठिनतम परिस्थितियों को भी आसान बनाकर उनसे हंसते हुए पार पा लेता है, तो कभी आसान स्थितियां भी उसके लिए दुरूह प्रतीत होने लगती हैं। उसका यह मन सदा आन्तरिक खुशी अर्थात भावनात्मक खुशी की तलाश करता है।

विश्‍व विटप की डाली पर है,

मेरा वह प्यारा फूल कहां !

यह खुशी उसे समाज के, रिश्ते-नातों के व्यवहार से भी मिलती है और प्रकृति से भी मिलती है। यही खुशी उसे सुख रूपी शीतलता प्रदान करती है। इस सुख की तलाश में उसकी व्याकुलता इस प्रकार प्रकट है जैसे लहरें तट को छूने को व्याकुल होती हैं –

नीर बरसते झम-झम झम-झम,

बादल अम्बर के विरहाकुल !!

टकरा-टकरा कर उपलों से,

तट छूने को लहरें व्याकुल !

प्रस्तुत गीत में कवि ने प्राकृतिक बिम्बों और प्रतीकों के माध्यम से अपनी भावना – ईषत् नैराश्य मिश्रित सांसारिक कठिनाई का सुन्दर चित्रण किया है। कवि की विश्व विटप की परिकल्पना बेहद आकर्षक है जो वसुधैव कुटुम्बकम अर्थात सबके बीच अपनेपन की अनुभूति कराती है। उस विश्व विटप में अपनी खुशियों की तलाश करता मेरा वह प्यारा फूल उम्मीद की तरह प्रस्फुटित हुआ है। गीत में वैसे तो पारम्परिक प्रतीक ही प्रयोग में आए हैं लेकिन दो प्रयोग - विश्‍व विटप की डाली पर और बादल अम्बर के विरहाकुल में नयापन है और बहुत आकर्षक बन गए हैं। गीत की शब्द योजना आद्योपांत बहुत कोमल शब्दावलि से सुसज्जित है और सुखद अनुभूति कराती है। गीत में प्राकृतिक बिम्ब कवि के कौशल से सजीव बनकर मुखर हो उठे हैं और पंत जी का स्मरण करा देते हैं। गीत में प्रांजलता मात्र दो स्थानों पर बाधा उत्पन्न करती है, वे हैं नौवीं पंक्ति - बड़ी विचित्र रचना इस जग की और बाइसवीं पंक्ति - कोकिल की कूक में दर्द भरा। इन पंक्तियों में 17-17 मात्राएं हैं, इसलिए भी अवरोध आता है। चूँकि यह मनोज कुमार जी की पहली रचना है इसलिए कहा नहीं जा सकता कि उन्होंने गीत की रचना करते समय मात्राओं की गणना की थी अथवा नहीं। लेकिन यदि उक्त दोनों पंक्तियों को छोड़ दें तो शेष गीत की मात्राएं एक मंजे हुए रचनाकार के प्रयोग की भाँति अन्यतम उपयुक्त और प्रवाहमय हैं। इन सभी पंक्तियों में एकसमान 16-16 मात्राएं हैं। यदि उक्त पंक्तियों में थोड़ा परिवर्तन कर इस प्रकार कर दिया जाए तो पूरे गीत की मात्राएं भी एक समान हो जाती हैं और प्रवाह में अवरोध भी समाप्त हो जाता है। देखें –

है विचित्र रचना इस जग की

कांटों में खिलते फूल यहां !
और

सुमनों में अब वह सुरभि नहीं,
कोकिल के स्वर में दर्द भरा।

यह न्यूनतम परिवर्तन के साथ मेरा सुझाव मात्र है तथा इसमें और भी सम्भावनाएं हो सकती हैं। यह गीत बहुत सरल और सुगम है और स्कूली पाठ्य पुस्तक के संकलन का बोध कराता है।

17 टिप्‍पणियां:

  1. आद. हरीश जी,
    आपकी समीक्षा कविता की उन बारीकियों से आत्मसात कराती है जो उसमें व्याप्त व्यंजना के विभिन्न आयामों को बड़ी गहराई से समझने में सहायक होती हैं !
    मनोज जी का प्रथम गीत और उसकी सुन्दर समीक्षा पढ़ कर प्रसन्नता हुई !

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  2. जितनी सुन्दर रचना है उतनी ही अच्छी समीक्षा ...

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  3. बहुत सुन्दर अभिब्यक्ति| धन्यवाद|

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  4. आनंद आ गया इस समीक्षा को पढ़कर।

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  5. मनोज जी की ये रचना बेहद पसन्द आई थी और इसकी समीक्षा पढकर और अच्छा लगा……………आभार्।

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  6. रचना और समीक्षा दोनों ज़बरदस्त.

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  7. गीत बहुत ही मनभावन है। सुकोमल शब्द चयन से गीत सरस और आकर्षक बन गया है। समीक्षा से गीत के विभिन्न पहलुओं से भी परिचय हुआ।

    साधुवाद.

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  8. विश्‍व विटप की डाली पर है,
    मेरा वह प्यारा फूल कहां

    ये दो पंक्तियाँ ही जैसे सब कुछ कह देती हैं.एक बेहद ही खूबसूरत और अर्थपूर्ण गीत कि आपने सार्थक और सटीक समीक्षा की है.
    आपको और मनोज जी को तहे दिल से बधाई.

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  9. इस कविता का तो रसास्वादन बारह-तेरह वर्षों से करता रहा हूँ। पर हरीश जी ने इसे अपनी समीक्षात्मक दृष्टि से और सरस एवं सुबोध बना दिया है। आभार।

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  10. शायद सोने पर सुहागा इसे ही कहते हैं..मनोज जी की काव्य प्रतिभा से पूर्व परिचय है साथ ही हरीश जी की समीक्षात्मक क्षमता पर भी. आज यह अद्भुत संगम देखने को मिला..आप दोनों साधुवाद के पात्र हैं!!

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  11. खूबसूरत गीत पर समीक्षात्मक आलेख पढ़कर बहुत अच्छा लगा। इस गीत की जितनी सराहना की जाए कम होगी और समीक्षा से से तो इसमें और निखार आ गया। अच्छे गीत इसी प्रकार चर्चा में आने चाहिए। आँच के माध्यम से आपका यह प्रयास सराहनीय है। आप सभी को आभार,

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  12. अपनी उत्साहवर्धक प्रतिक्रियाओं के माध्यम से मुझे प्रोत्साहित करने के लिए आप सभी का हृदय से आभारी हूँ।

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  13. मनोज जी बहुमुखी प्रतिभा के सम्राट हैं.. उनकी ऊर्जा को देख कर कई बार इर्ष्या भी होती है.. समय के इतने आभाव में भी वे कविता लेखन के लिए समय निकल लेते हैं यह बड़ी बात है.. और उनकी हर कविता पिछली कविता से बेहतर होती है.. यह कविता पहले भी पढ़ी थी.. आज फिर पढने का अवसर मिला.. गुप्त जी की समीक्षा के बाद कविता का आनंद और भी बढ़ जाता है.. कविता के विभिन्न आयामों की चर्चा के बाद कविता अधिक ग्राह्य हो जाती है.. इस तरह गुप्त जी अपनी प्रतिष्टा को और ऊंचाई दे रहे हैं.. एक बढ़िया कविता और उत्कृष्ट समीक्षा की जुगलबंदी ब्लॉग जगत में अन्यत्र नहीं है...

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  14. हरीश जी कुछ व्यस्तता के कारण कल नहीं आ पाया। यह कविता मेरे दिल के क़रीब है। १६-१७ साल की उम्र में लिखा था इसे। और यह पहली कविता थी मेरी।
    आपने मेरे मन की सारी बातें खोल कर इस कविता में स्पष्ट कर दी है। अंक दर अंक आप ब्लॉग जगत में समीक्षाओं के नए कीर्तिमान स्थापित करते जा रहे हैं।
    आभार आपका जो आपने मेरी रचना को समीक्षा के लिए चुना।

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