शनिवार, 21 मई 2011

फ़ुरसत में … क्या पाठक का विकल्प आलोचक है?

फ़ुरसत में

क्या पाठक का विकल्प आलोचक है?

IMG_0130_thumb[1]मनोज कुमार

आज के “फ़ुरसत में ...” स्तम्भ में हमें ऊटी भ्रमण को आगे ले जाना था। किन्तु कुछ रुककर हमने इस विषय को उठाना बेहतर समझा। कुछ दिनों पूर्व मैंने एक कविता की समीक्षा इस ब्लॉग पर की थी तो हमारे एक ब्लॉगर मित्र ने कहा कि समीक्षा में गुण दोष की चर्चा ज़रूरी है, सिर्फ़ बड़ाई कर देने से समीक्षा पूरी नहीं होती। फिर एक वाकया हुआ, एक समीक्षा पढ़ी। दोष, ही दोष गिनाए गए थे। मुझे वह कुछ एक पक्षीय लगा। इसी सप्ताह हमारे मित्र हरीश जी ने अपनी एक समीक्षा का समापन इन शब्दों के साथ किया “.. कवि की कलम से एक सुघढ़ नवगीत का रसास्वादन करने को मिला है जिसमें दोष-दर्शन अति दुष्कर कार्य है”।

कई बार देखता हूं कि समीक्षक प्रशंसा-निंदा के आगे कम ही बढते हैं। इसलिए विश्वसनीयता कम होती जा रही है। कुछ हद तक सनसनीख़ेज़ पत्रकारिता के समान! दलबंदी और गुटबंदी आम बात है। ये एक पक्ष है। एक और पक्ष है जिसे मैं देखता हूं। वह यह कि आज कविताओं, पुस्तकों, संग्रहों आदि को पढ़ने वाले पाठकों की कमी होती जा रही है। इसलिए आलोचक या समीक्षक का, मुझे लगता है, यह प्रयास हो कि वे पाठकों को पुस्तक या कृति पढ़ने के लिए आकर्षित करे, न कि उसे बिदका ही दे।

एक उदाहरण देकर मूल विषय पर आऊँगा। आपने सैकड़ों तस्वीरें देखी होंगी, किस्से सुने होंगे कलकत्ते के, हावड़ा स्टेशन के। हो सकता है उन्होंने आपको ज़्यादा प्रोत्साहित न किया हो इस शहर, इस स्टेशन को देखने के लिए। आइए, इस कैमरे की आँख से देखिए इस स्टेशन को। जी, हावड़ा स्टेशन को … मन करेगा अभी पहुँच जाएं इसे देखने .. सजीव, अपनी आँखों से। मैं समीक्षा में इसी कैमरे की आँख से देखता हूँ, देखना चाहता हूँ (शायद मैं ग़लत हो‍ऊँ, शायद न भी)।

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image010 (1)हावड़ा पुल कैमरे की आँख से देखना अच्छा लग सकता है। प्रत्यक्ष आँखों से देखने में लोहे के भारी-भारी स्तम्भ, धूल, भीड़, यातायात का शोर-शराबा उबाऊ हो और रूक्ष हो सकता है। एक इंजीनियर के लिए यह चमत्कार पूर्ण है। सभी अपनी दृष्टि से सही हैं। पर, सबसे आश्चर्यजनक यह है कि यह पुल मात्र दो स्तम्भों पर सैकड़ों वर्षों से टिका है।

काव्‍य शास्‍त्र की परम्परा काफी पहले से चली आ रही है। पर, आलोचना का एक शास्‍त्र के रूप में उद्भव और विकास काफी बाद में हुआ। बल्कि यूँ कहें कि आलोचना साहित्‍य का शास्‍त्र न होकर साहित्‍य सृजन का वह जीवन है जो बार बार सृजित किया जाता है - ज्‍यादा उपयुक्‍त होगा।

काव्‍यशास्‍त्र में तो सिद्धांतों और प्रतिमानों का निरूपण होता है। आलोचना में उन्‍हीं सिद्धांतों के प्रकाश में रचना की परख की जाती है और उसका मूल्‍यांकन किया जाता है। कुछ सृजन, जिसे “नया” भी कह सकते हैं, आलोचना के स्‍थापित या स्‍वीकृत प्रतिमानों को चुनौती देते हैं। तब आलोचना करने वाले इस नए सृजन के मूल्‍यांकन के लिए नए प्रतिमानों की तलाश करते हैं। यह एक व्‍यावहारिक प्रक्रिया है, जो चलती रहती है - सिद्धांतों और सृजन के बीच। यही प्रक्रिया सिद्धांतों और सृजन के संबंधों में बदलाव के चक्र को गतिमान भी रखती है।

संस्‍कृत काव्‍यशास्‍त्र, रीतिशास्‍त्र और पश्चिमी काव्‍यशास्‍त्र का विवेचन प्रधानतः सिद्धांत परक है। आलोचना की टकराहट शास्‍त्र से कम, नवीन सृजन, नवीन विचारधाराओं से और वैचारिक सरोकारों से अधिक रही है। हिंदी आलोचना को वैचारिक स्‍वरूप आचार्य रामचंद्र शुक्‍ल ने दिया। वे हिंदी के प्रथम व्यवस्थित आलोचक थे। वे आलोचना को सिद्धांत, इतिहास, दर्शन, व्यवहार सब में आचरित करते हैं।

साहित्‍य की अनेक विधाएं है। विधाएं तो नाड़ियों की तरह हैं। इनके भीतर विचारों का रक्‍त प्रवाहित होता है। साहित्य की विधाओं पर विचार करने का विशेष काम आलोचना करती है। जहां पद्य में भाव की प्रधानता होती है वहीं गद्य की विधाओं में विचार की प्रधानता होती है।

परिवेश और युग की प्रेरणा से सृजनात्‍मक मानसिकता में परिवर्तन आते हैं। इसका प्रभाव साहित्य की विधाओं पर भी पड़ता है। हर युग की मानसिकता विभिन्‍न विधाओं में प्रकट होती है। सभी विधाएं लोकमानस के विचारों को प्रतिबिम्‍बित करती हैं।

भारतेन्दु युग में हिंदी आलोचना का सूत्रपात पत्र-पत्रिकाओं में छपी व्यावहारिक समीक्षाओं से हुआ। सर्जक-चिंतक के रूप में भारतेन्दु जी ने आलोचना को दिशा प्रदान की। भारतेन्दु युग और द्विवेदी युग में आलोचना के सरोकार सामाजिक होते गए। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने हिंदी आलोचना को दिशा और दृष्टि प्रदान की। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने कहा है, कविता का उद्देश्य हृदय को लोक-सामान्य की भावभूमि पर पहुंचा देना है। यानी व्यक्ति धर्म के स्थान के पर लोक-धर्म श्रेयस्कर है। अर्थात्, साहित्य में जीवन और जीवन में साहित्य प्रतिष्ठित हो। इस तरह से जो समीक्षा होती है वह व्यावहारिक समीक्षा है। भाव मन की वेगयुक्त अवस्था-विशेष है। भाव में बोध, अनुभूति और प्रवृत्ति तीनों मौज़ूद हैं। यही वह आधार है जिस पर आचार्य शुक्ल काव्य में लोक-मंगल के आदर्श की प्रतिष्ठा करते हैं। इस प्रकार सृजन सामाजिक चेतना के उत्तरदायित्व से युक्त होना चाहिए।

शुक्लजी ने समीक्षा-सिद्धांत रचनाओं के आधार पर स्थापित किए हैं। अतः उनकी सैद्धांतिक और व्यावहारिक समीक्षा में संगति है। वे व्यवहार से सिद्धांत पर पहुंचते हैं। वे आधुनिक और वैज्ञानिक समीक्षक हैं।

समीक्षक के लिए सहृदय होना बहुत ज़रूरी है। समीक्षक को आलोच्य रचना या कृति के उत्कृष्ट स्थल की पहचान कर उसको प्रमुखता देना चाहिए। साथ ही वह रचना की युगानुकूल भी व्याख्या करे।

आचार्य शुक्ल ने हिंदी आलोचना को जो प्रौढता प्रदान की थी, उसे आगे ले जाने और दिशा परिवर्तन का चुनौती पूर्ण कार्य नन्ददुलारे वाजपेयी, हजारी प्रसाद द्विवेदी और डॉ. नगेन्द्र ने किया। शुक्ल जी की नैतिक और बौद्धिक दृष्टि की अपेक्षा नये समीक्षकों ने सौंदर्य-अनुभूति और कला-प्रधान दृष्टि को अपनाया। उन्होंने काव्य सौष्ठव को सर्वोपरि महत्त्व दिया। वे साहित्य से अलग किसी मूल्य को मूल्यांकन के लिए निर्णायक स्थिति में रखने के पक्षधर नहीं थे।

द्विवेदी जी का मानना था कि मनुष्य ही साहित्य का लक्ष्य है। वे सांस्कृतिक निरंतरता और अखंडता के समर्थक थे। उनका दृष्टिकोण मानवतावादी था। उन्होंने सामयिक आधुनिक प्रश्नों पर पूरा ध्यान दिया।

डॉ. नगेन्द्र का दृष्टिकोण व्यक्तिवादी था। डॉ. नगेन्द्र ने शुरु में व्यवाहारिक आलोचना की। बाद में वे भी सिद्धांत-विवेचन करने लगे। उनकी आलोचनाओं में खंडन-मंडन नहीं बल्कि व्याख्या-विश्लेषण और अनुशंसा ही अधिक है।

1936 से हिंदी साहित्य में प्रगतिशील आंदोलन की शुरुआत हो गई थी। कुछ समय बाद रचनात्मक प्रयोगशीलता के उदाहरण भी दिखाई देने लगे। शुरु में आलोचना की शब्दावलि मूल्य केन्द्रित रही। मार्क्सवाद के आयात करने पर साम्यवादी दृष्टिकोण की बात प्रमुख हो गई।

शुक्‍लोत्तर आलोचना के प्रमुख और महत्‍वपूर्ण स्‍तम्‍भ हैं डॉ. रामविलास शर्मा। रामविलास शर्मा तक आते-आते प्रगतिशील आलोचना का जातीय चरित्र निर्मित हो गया। उनका मानना था, साहित्य भी शुद्ध विचारधारा का रूप नहीं है, उसका भावों और इन्द्रिय-बोध से घनिष्ठ संबंध है। उन्होंने शुक्ल जी की विरासत और जनवादी परंपरा को आगे बढाया।

पचास के बाद की आलोचना से पश्चिमोन्मुखता की शिकायत अक्सर की जाती रही है। आलोचना में पश्चिमी सरोकारों और अवधारणा के आयात का एक कारण यह भी था कि स्वयं रचनाओं में भी यह प्रभाव कम नहीं रहा। दरअसल यह आयातित विचार से ज़्यादा आयातित बौद्धिक मुद्रा थी। आलोचकों में नामवर सिंह और रचनाकारों में अज्ञेय ने यह प्रभाव बख़ूबी अपना लिया।

समकालीन आलोचना में एक नयी पीढी नए तेवर के साथ आई। इनके मुहावरे नए थे। इनमें यथार्थ दृष्टि का आग्रह भी प्रबल था। समकालीन आलोचक वास्तविक मूल्यांकन की कुंजी आलोच्य कृति के भीतर तलाशते हैं। उनके अनुसार रचना से रचनाकर तक पहुंचना समीक्षक का लक्ष्य होना चाहिए। इस दौर में एक तरफ़ मलयज की निर्मम तटस्थता है तो दूसरी ओर रमेशचंद्र शाह की सर्जनात्मक समीक्षा है। मलयज न फ़तवे देते हैं, न नारे उछालते हैं। पूरी संवेदनशीलता और अलोचनात्मक विवेक से सही जगह उंगली रख देते हैं। शाह रचनाकार की सृजन प्रक्रिया का आत्मीय विश्लेषण ज़रूरी समझते थे।

वर्तमान हिंदी आलोचना अनेक प्रकार की विसंगतियों से घिर गई है। यह जागरूकता तो निभाती रही है, पर समसामयिकता का आग्रह अधिक प्रबल हो गया है। आज की आलोचना में व्यापक परिदृश्य बोध का स्पष्ट अभाव दिखता है। पम्परा से संबंध विच्छेद हो गया सा लगता है। अधिकांश आलोचना कर्म व्यवहारिक समीक्षा के रूप में है। जमाओ-उखाड़ो की नीयत से अतिरंजित शब्दावलि लिए यह प्रशंसा-निंदा के आगे कम ही बढता है। इसीलिए विश्वसनीयता कम होती जा रही हैआज की आलोचना सनसनीख़ेज़ पत्रकारिता के समान हो गई है। लगता है न आलोचकों को रचनात्मक साहित्य की चिंता है और न रचनाकारों को उनकी परवाह। आलोचना की भाषा का कोई निश्चित चरित्र नहीं बन पाया है। मूल्यांकन में पाद्धतियों की दृष्टि से भी पर्याप्त आराजकता है। मूल्यांकन के मानदंडों में विविधता है।

आज देश में जैसा परिदृश्य है साहित्य में भी उसी के अनुरूप परिवर्तन आया है। यथा सत्ता की उठापटक, भ्रष्टाचार, आर्थिक संकट, भूमंडलीकरण और बाज़ारवाद, उपभोक्तावाद आदि से संस्कृति, कला और साहित्य भी प्रभावित हुए हैं।

पाठक का विकल्प आलोचक नहीं है। जागरूक पाठक अपना विमर्श खुद तैयार करता है। सृजन और आलोचना दोनों में समीक्षा का अर्थ बदल गया है। विरोध आम बात हो गई है। जहां एक ओर सृजन के नाम पर सतही रचनाएं आ रहीं हैं, वहीं दूसरी तरफ़ आलोचना के नाम पर या तो दलबंदी हो रही है या पत्थरबाज़ी। लगता है वैचारिक संवेदना दिशाहीन हो गई है। साहित्य को परखने की कसौटी मत, वादों के हिचकोले खा रही है।

अतएव, समीक्षा, समालोचना या आलोचना साहित्य को समग्र रूप से परखने की विधि है, जिसमें काव्य के सभी तत्वों को रचना के परिप्रेक्ष्य में देश और काल का आकलन, रचनाकार की परिस्थितियाँ, रचना में उसकी व्यक्तिनिष्ठता आदि सभी का समावेश होना चाहिए। उक्त परिप्रेक्ष्य में आलोचना समीक्षक से उक्त तटस्थता की सर्वाधिक अपेक्षा रखती है।

****

पुनश्च : एक टिप्पणी से यह अंश याद आया। इस आलेख को तैयार करते वक़्त इसे लिख कर एक जगह रख दिया था। पोस्ट बनाते वक़्त इसका ध्यान नहीं आया था। देर से ही सही … बिना इस अंश के शायद यह आलेख अधूरा लगे ….

जब उपन्यास छ्पकर आया तो श्रीलाल शुक्ल की कृति ‘राग दरबारी’ पर एक सुविज्ञात समीक्षक ने अपनी समीक्षा इस बात पर समाप्त की, “अपठित रह जाना ही इसकी नियति है।” 1968 में इसका पकाशन हुआ, 1969 में इसे साहित्य अकादेमी पुरस्कार मिला और तब से आज तक इसके चौदह संस्करण और पुनर्मुद्रण हो चुके हैं। इसे याद करते श्रीलाल शुक्ल लिखते हैं, “एक ही कृति पर अनेक परस्पर-विपरीत विचार एक साथ फल-फूल सकते हैं। आलोचना या समीक्षा से किसी कृति पर कोई गहरा असर पड़ता हो, कम-से-कम ‘राग दरबारी’ के उदाहरण में तो ऐसा नहीं दिखता। श्रीलाल शुक्ल की ही मानें तो,

  “सर्वथा दोष रहित होकर भी कोई कृति उबाऊ और स्तरहीन हो सकती है, जबकि कोई कृति दोषयुक्त होने के बावज़ूद धीरे-धीरे क्लासिक का दर्ज़ा ले सकती है।”

30 टिप्‍पणियां:

  1. "..आलोचना के नाम पर या तो दलबंदी हो रही है या पत्थरबाज़ी।.."

    प्रतीत होता है कि पत्थरबाज़ी ही ज्यादा हो रही है.
    इसी वजह से मैंने अपनी पुस्तक प्रकाशन का विचार त्याग दिया है. जाने कैसे-2 पत्थर पड़ जाएँ!
    पढ़ें -
    http://raviratlami.blogspot.com/2011/05/blog-post_18.html

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  2. समीक्षा को नयी दिशा प्रदान करता लेख ...

    दलबंदी या पत्थरबाजी कर समीक्षक पाठकों को स्वस्थ परम्परा नहीं दे रहा ... और लोंग भी ऐसी समीक्षा से बस तमाशा ही देखेंगे ... सही बात तो यह है कि हर कोई समीक्षक बन ही नहीं सकता ...

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  3. लेखक की अनुभूति यथार्थ के धरातल पर है। समय समय पर हम सबको भी कुछ ऐसी ही प्रतीति होती है कि आलोचना कर्म प्रशंसा-निंदा के आगे कम ही बढ़ पाता है। समीक्षा कर्म के गुण धर्म, अंगभूत अवयव तथा अपेक्षाओं पर तटस्थ भाव से प्रस्तुत यह विचारोत्तेजक आलेख सामान्य दृष्टि को आयाम प्रदान करता है। निसंदेह हम सब इससे लाभान्वित हुए हैं और इसके लिए हम लेखक के प्रति आभारी हैं।

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  4. समीक्षा पर आपका आलेख पूर्ण रूप से पढ़ा। एक बात इसी संदर्भ में कहनी है, अमेरिका में पुस्‍तक पढ़ने की और खरीदने की परम्‍परा है। वहाँ पुस्‍तक खरीदने से पूर्व नेट पर उसके रिव्‍यू देखे जाते हैं। जबकि भारत में ऐसी परम्‍परा विकसित नहीं हुई है। यहाँ आलोचक अपना उत्तरदायित्‍व उचित प्रकार से निर्वहन नहीं करता है इस कारण पुस्‍तकें तो बाजार में बहुत आ रही है लेकिन उनके खरीददार नहीं मिलते। यदि वास्‍तविक समीक्षा होने लगे तो खरीददार भी मिलेंगे। बाकि शेष बातें आपने विस्‍तार से कही है। एक बात और ध्‍यान में आती है कि यहाँ जिस प्रकार लेखक जन्‍म ले रहे हैं वैसे ही समीक्षक भी जन्‍म ले रहे हैं, इस कारण खारिज करने योग्‍य पुस्‍तक भी श्रेष्‍ठता की श्रेणी में रख दी जाती है।

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  5. टिप्पणी देकर प्रोत्साहित करने के लिए बहुत बहुत शुक्रिया!
    बहुत बढ़िया लगा आपका पोस्ट पढ़कर! समीक्षा पर आपने बहुत ही सुन्दरता से प्रस्तुत किया है!

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  6. पाठक का विकल्प आलोचक नहीं है। जागरूक पाठक अपना विमर्श खुद तैयार करता है।
    क्यूंकि
    आलोचना के नाम पर या तो दलबंदी हो रही है या पत्थरबाज़ी।
    सही है...
    किताब छपवानी हो तो फिर चमड़ी मोटी कर लेनी पड़ेगी...पता नहीं कितने लोग 'दांत पिज़ाये' बैठे हों :) (आपके देसिल बयना के लिए टॉपिक...दांत पिज़ाना )

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  7. समीक्षा के ऊपर बेहतरीन लेख लिखा है आपने ! आभार आपका ...
    रश्मि जी और रवि रतलामी जी का कमेन्ट देख कर नया नौभाव हो रहा है ...यह पता ही नहीं था ! शुभकामनायें !

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  8. समीक्षा के ऊपर बेहतरीन लेख लिखा है आपने ! आभार आपका ...
    रश्मि जी और रवि रतलामी जी का कमेन्ट देख कर नया नौभाव हो रहा है ...यह पता ही नहीं था ! शुभकामनायें !

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  9. बेहतरीन नज़रिया प्रस्तुत किया है।

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  10. एतिहासिक परिपेक्ष में समीक्षा पर बहुत सुन्दर और ज्ञानवर्धक आलेख..आभार

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  11. एक नया प्रकाश उगा है ब्रिज में।

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  12. विचारणीय और मनन करने योग्य रचना जो सोचने समझने ko मजबूर करती है . एक बिलकुल नयी दृष्टि नया प्रश्न. समेखा का अर्थ ही है आलोचना और गुणगान में सन अर्थात बराबर रहना. एक पक्षीय बात कभी भी उचित न तो कही गयी है और न आगे कही जागेगी. इसके लिए केवल एक क्षेत्र है राजनीति क़ी, भष्टाचार क़ी, वहीँ यह फूलेगी-फलेगी साहित्य क्षेत्र में नहीं.

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  13. ek zaroori lekh hai yah...aur bahut see zaroori baaten blogjagat ke saamne laata hai..... lekhak alochak ..sab ke liye kuch na kuch hai...


    Dhanyawaad

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  14. एक निष्पक्ष और विषय का पूर्ण ज्ञाता ही सही आलोचना या समीक्षा कर सकता है. आपका लेख प्रेरक है.

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  15. मनोज जी ! नमस्कार ! ब्लॉग जगत में ऐसे लेख की अति आवश्यकता थी. आपने सही समय पर ...सही स्थान पर प्रकाश डाला है. यह उपकार है आपका ब्लॉग जगत पर. आचार्य शुक्लजी की परम्परा की समालोचना साहित्यकार के लिए पथ-प्रदर्शन का कार्य करती है . वस्तुतः समीक्षक/समालोचक का उत्तरदायित्व बड़ा ही गुरुतर है ...इसकी गरिमा को पुनः स्थापित किये जाने की आवश्यकता है. अभी शीघ्रता में हूँ फिर लौट कर आता हूँ .....

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  16. "समीक्षक को सहृदय होना चाहिए " . आपने एकदम सही लिखा लेकिन मुझे लगता है आजकल समीक्षा का मतलब हो गया है निर्मम आलोचना . गुण पक्ष को नजरंदाज करो और दोष को सतह पर लाओ . सटीक आलेख ..

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  17. @ रश्मि जी
    हा-हा-हा ...
    (आपके देसिल बयना के लिए टॉपिक...दांत पिज़ाना )
    हा-हा-हा ...
    देखता हूं पिजा कर अगले बुध को,.. पिजा पाता हूं या नहीं कह नहीं सकता।

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  18. आज सुबह से २०० किलोमीटर वहां चलने के बाद जब फुर्सत मिली तो फुर्सत में पढने का अवसर मिला.. अब लग रहा है कि पहले यही आलेख पढ़ लेते तो अच्छा रहता... हिंदी साहित्य में आलोचना का महत्व हाशिये पर है.. इसका कारण आलोचकों द्वारा जिम्मेदारी का सम्पूर्णता से निर्वहन नहीं करना है... जब कभी समीक्षा देख कर पुस्तक खरीदी है या पुस्तकालय से लेकर पढ़ा हूँ तो निराश ही हुआ हूँ... जिस एकपक्षीय समीक्षा की बात से आपने इस आलेख को शुरू किया है उसका पूरा जिक्र और लिंक देते तो अच्छा रहता.. ताकि आलोचक कैसे एक पक्षीय हो जाता है... यह पता लगता.. वैसे मैंने वह समीक्षा पढि है... आलोचक रचनाकार का निर्माण करता है.. यदि आई ए रिचर्ड नहीं होते तो शायद अंग्रेजी साहित्य को ती एस एलियट नहीं मिलता.. गुप्त जी की समीक्षा संतुलित होती है लेकिन वे थोड़े मृदुभाषी हैं सो सकत नहीं हो पाते... बढ़िया और उपयोगी आलेख..

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  19. पाठक का विकल्प आलोचक नहीं है। जागरूक पाठक अपना विमर्श खुद तैयार करता है।
    साहित्य को परखने की कसौटी मत, वादों के हिचकोले खा रही है।
    ..बेहतरीन नज़रिया ...सही बात तो यह है कि हर कोई समीक्षक बन ही नहीं सकता

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  20. बढ़िया है। मजेदार च!
    क्या पाठक का विकल्प आलोचक है?

    आलोचक भी तो एक पाठक ही होता है भाई! पहले पाठक फ़िर आलोचक।

    किसी रचना को समझने और महसूस करने का हर एक का अपना नजरिया होता है। एक पाठक का भी होगा। हो सकता है कोई एक रचना किसी को बहुत पसंद आये लेकिन दूसरा कोई उसे पढ़ना न चाहे।

    आलोचक और रिव्यू लिखने वाले एक सीमा तक ही रचना के बारे में राय बना सकते हैं। उसके पाठक बढा सकते हैं। लेकिन लम्बे समय में वही रचना टिकेगी जिसमें कुछ दम होगा।

    रागदरबारी का किस्सा खासकर याद आता है। इसे आलोचकों ने पूरी तरह खारिज कर दिया था। इसे महाऊब का उपन्यास बताया था।लेकिन बाद में पाठकों ने इसे पसंद किया और आलोचकों को भी अपनी राय बदलनी पड़ी। और कमियां भले हों लेकिन यह ऊबाऊ उपन्यास के रूप में नहीं जाना जाता।

    कोई समीक्षा अगर किसी को एकपक्षीय लगती है तो उसमें संभव है कि आलोचक पूर्वाग्रह ग्रस्त हो और केवल उसके गुण या दोष देखे/दिखायें हों। लेकिन अगर किसी को वह एकपक्षीय दिखती है तो उसका दूसरा पक्ष दिखाने के लिये उसे मेहनत भी करनी चाहिये। वर्ना वह एक पक्षीय आलोचना की जगह एकतरफ़ा टिप्पणी ही मानी जानी चाहिये। है कि नहीं?

    यह विचार एक पाठक के हैं। और पाठक का विकल्प आलोचक नहीं होता न। :)

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  21. @ अनूप शुक्ल जी
    बिल्कुल सही याद दिलाया आपने । राग दरबारी के शुरु के अंश देखने के बाद ही इस आलेख को लिखने का मन हुआ था। वो अंश अन्य पाठकों के लिए देता हूं ...
    • जब उपन्यास छ्पकर आया तो श्रीलाल शुक्ल की कृति ‘राग दरबारी’ पर एक सुविज्ञात समीक्षक ने अपनी समीक्षा इस बात पर समाप्त की, “अपठित रह जाना ही इसकी नियति है।” 1968 में इसका पकाशन हुआ, 1969 में इसे साहित्य अकादेमी पुरस्कार मिला और तब से आज तक इसके चौदह संस्करण और पुनर्मुद्रण हो चुके हैं। इसे याद करते श्रीलाल शुक्ल लिखते हैं, “एक ही कृति पर अनेक परस्पर-विपरीत विचार एक साथ फल-फूल सकते हैं। आलोचना या समीक्षा से किसी कृति पर कोई गहरा असर पड़ता हो, कम-से-कम ‘राग दरबारी’ के उदाहरण में तो ऐसा नहीं दिखता। श्रीलाल शुक्ल की ही मानें तो, “सर्वथा दोष रहित होकर भी कोई कृति उबाऊ और स्तरहीन हो सकती है, जबकि कोई कृति दोषयुक्त होने के बावज़ूद धीरे-धीरे क्लासिक का दर्ज़ा ले सकती है।”

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  22. आलोचना तो बहुत अच्छी होती है मगर उसमें पक्षपात भी बहुत होता है!
    बहुत शानदार आलेख!

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  23. मनोज जी आपने इतनी प्रकाश मान पोस्ट लगाईं है कि सब कुछ साफ़ साफ़ नजर आ रहा है.
    इतना कुछ कहा जा चूका है और बहुत कुछ मुझे भी कहने का मन है.पर टिप्पणी है लंबी हो जायेगी :)
    अपने एक निबंध में तोल्स्तोय ने "आर्ट" के बारे में ( किसी भी तरह की)कहा था कि जब एक कलाकार या लेखक कुछ अहसास करके उसे कैनवास या पन्ने पर उतरता है जिससे कि सामने वाला उसके अहसास को महसूस कर सके और अगर सामने वाला उसे महसूस कर पाता है तो वह कृति उत्कृष्ट होती है. मेरे ख्याल से वह कृति एकदम बेकार है जिसके लिए कहा जाता है कि ये बहुत सुन्दर है इसलिए लोगों को समझने में मुश्किल होती है."
    मेरे ख़याल से समीक्षक की नजर भी इसी तरह की होनी चाहिए.

    आपके लेख के एक एक शब्द से मेरी पूर्ण सहमति.

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  24. यही बातें हिंदी फिल्मों के लिए भी लागू होतीं हैं...क्या हिट होगा क्या मिस ये जानता जनार्दन ही तय करती है...

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  25. समीक्षक के लिए भी एक कोड ऑफ़ कंडक्ट होना चाहिए समीक्षा की आड़ में लोगों की गुटबंदी के साथ-साथ व्यक्तिगत कुंठाएं या अहम् का काकटेल भी परोसा जा रहा है ..परिणामतः समीक्षा का उद्देश्य पूरा नहीं हो पाता. समीक्षा तो वह लगाम है जो साहित्य को उत्कृष्टता और उद्देश्यपरकता की ओर बढ़ने में सहयोग करती है. दुर्भाग्य से ऐसा हो नहीं पा रहा है .....यह हिन्दी साहित्य का दुर्भाग्य है . ब्लॉग के परिप्रेक्ष्य में देखें तो टिप्पणीकार प्रायः मिथ्या प्रशंसा या सतही खानापूर्ति करके रस्म अदायगी भर कर देते हैं .....विमर्श कम ही हो पाता है. मैं मानता हूँ की ब्लॉग का टिप्पणीकार भी एक समीक्षक ही होता है ( क्योंकि वह आम पाठक नहीं होता ) इसलिए उसे अपने दायित्यों को पहचानना होगा. ब्लॉग साहित्य को शिखर की बढाने के लिए आवश्यक है यह .
    शिखा जी ! आप क्या कहते-कहते रुक गयीं (?).....पर जो भी कहा है मैं भी उससे सहमत हूँ.

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  26. बहुत ही प्रासँगिक एवँ विद्वतापूर्ण आलेख..
    यह सच है कि, आलोचना के मर्म से साहित्यिक दृष्टि का लोप हो रहा है / हो चुका है ।
    प्रबुद्ध विद्वानों का स्थान कुँठित पहलवानों ने ले लिया है, आपका यह कहना बिल्कुल सही है कि,"जमाओ-उखाड़ो की नीयत से अतिरंजित शब्दावलि लिए यह प्रशंसा-निंदा के आगे कम ही बढता है।" दबी जुबान से यह भी सुना गया है सनसनीख़ेज़ पत्रकारिता की तर्ज़ पर आलोचनायें भी खरीदी बेची जानी लगी हैं । यदि वह सही वज़हों को रेखाँकित नहीं कर सकता तो समीक्षक को अपनी पसँद-नापसँद एक आम पाठक के ऊपर थोपने का कोई अधिकार नहीं देता । यह आलेख अपने सँदर्भों के लिये अरसे तक याद रखा जायेगा !

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  27. .

    "..आलोचना के नाम पर या तो दलबंदी हो रही है या पत्थरबाज़ी।.."

    200 % correct.

    .

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  28. आपने आलोचना पर बहुत ही विस्तार से लिखा ..
    एक समीक्षक की जिम्मेदारी है है कि आलोचना जानबूझ कर आलोचनात्मक ना होती जाए ...
    बाजार की पकड समीक्षक की गुणवत्ता को प्रभावित करती है मगर अच्छा साहित्य अपनी जगह बना लेता है , धीरे -धीरे ही सही !, राग दरबारी के बारे में आपने लिखा ही !
    मेरे साथ तो फिल्मों के बारे में भी यही होता है , वही पसंद ज्यादा आती है जिसे समीक्षक नकार चुके होते हैं ..!

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  29. आपका यह लेख देर से पढ़ने में आया,पर उपयोगी है।
    मेरे मत से आलोचक भी पहले पाठक ही होता है। पाठक केवल पंसद या नापंसद की बात करता है, लेकिन एक अच्‍छा आलोचक दोनों की बात करता है और बताता भी है कि क्‍या करना चाहिए था। अच्‍छे आलोचक तभी होंगे जब अच्‍छे लेखक होंगे। मैं इस संदर्भ में अगर क्रिकेट की बात करूं, तो समझने में आसानी होगी। जब तक अच्‍छे गेंदबाज न हों,तब तक अच्‍छे बल्‍लेबाज की परख नहीं हो सकती। लेकिन अच्‍छे बल्‍लेबाज न हों तो गेंदबाज की परख भी नहीं हो सकती। आलोचक और लेखक का रिश्‍ता भी ऐसा ही है।
    यह भी जरूरी है कि लेखक भी आलोचक को स्‍वीकार करे।
    *
    आपने मुद्दा किताबों के संदर्भ में उठाया है, ल‍ेकिन यहां ब्‍लागजगत में क्‍या हो रहा है। जो पाठक आगे बढ़कर आलोचक की भूमिका में आता है, उसे ब्‍लागर दरकिनार ही कर देना चाहते हैं। इस बात पर भी गंभीरता से विचार करना चाहिए।
    जिसे हम दलबन्‍दी कह रहे हैं वह वास्‍तव में मार्केटिंग है।

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